Saturday, March 7, 2009

अधूरी कहानी और पूरा सच !

सुबह के करीब सवा सात- साढे सात का वक़्त रहा होगा। धस्माना साब की कोठी के आस-पड़ोस के लोग भी रुपाली के उस धीमे, मगर करुणामयी रुंधन को सुनकर उनकी कोठी के गेट के पास इकट्टा हो गए थे। सभी के जेहन में एक ही सवाल था कि क्या हुआ, रुपाली क्यों रो रही है? घर के सभी सदस्य भी मकान की ऊपरी मंजिल, जिस पर रुपाली अपने बेटे के साथ रहती थी, दौड़ पड़े थे। उन्होंने देखा कि वहाँ प्रथम मंजिल पर बने दो कमरों में से एक, जिसे रुपाली ने ड्रोविंग रूम बना रखा था, उस कमरे में टीवी चल रहा था और दूरदर्शन के चेंनल पर समाचार चल रहे थे। रुपाली घुटनों के बल बैठी, अपने नौ वर्षीय पुत्र राहुल को सीने से लगाये रोये जा रही थी। रुपाली की छोटी भाभी ने राहुल को रुपाली से अलग करते हुए पूछा, रुपाली क्या हुआ ? बड़ी भाभी भी बोली, क्या हुआ, कुछ कहती क्यो नही? रुपाली बिना कोई जबाब दिए ,बस आंसुओ से भरी आँखों से टुकुर-टुकुर वहा मौजूद लोगो को देखती रही थी।


धस्माना साब भी कमरे के एक कोने में अलग से खड़े होकर, यह सब देख रहे थे कि ठीक उसी वक्त टीवी पर न्यूज़ रीडर ने कहा " अंत में मुख्य समाचार एक बार फिर:- देश भर में कारगिल विजय की नौवी सालगिरह आज धूम-धाम से मनाई जा रही है .............." इतना सुनते ही धस्माना साब की समझ में सारी कहानी पलक झपकते आ गयी। उन्होंने कमरे में मौजूद घर के अन्य सभी सदस्यों को बाहर जाने को कहा और रुपाली के सिर पर हाथ फेरने लगे । रुपाली, जो घुटनों के बल बैठी थी, खड़ी हो अपने पापा के सीने से चिपक कर फूट फूट कर रोने लगी। धस्मान साब ने किसी तरह उसे समझा-बुझा कर चुप कराया। सेवानिवृत डी.एम्, धस्माना साब को आज पहली बार महसूस हुआ था कि लोगो को बड़े-बड़े उपदेश और आर्डर सुनाने वाला एक डी.एम् आज ख़ुद कितना असहाय हैं। एक वक़्त था जब धस्माना साब के लिए इस तरह की बाते कोई मायने नहीं रखती थी और न सिर्फ वो बल्कि उनके परिवार के अन्य सदस्य भी गाँव मुहल्ले के लोगो पर अपना रुतवा झाड़ने से परहेज नही करते थे।


वक्त की मार इंसान पर बहुत भारी पड़ती है, सर्व-संपन्न होते हुए भी कभी-कभार इंसान अपने को कंगाल महसूस करने लगता है। रुपाली के लिए भी पहली बार, सही मायने में आज कारगिल युद्ध की महता समझ में आई थी और नौवी बरसी या पुण्यतिथि का अचानक महत्व बढ़ गया था। मेजर जखमोला से जुदा हुए उसे तकरीबन दस साल हो गए थे। वैंसे तो एक आतंरिक अपराध बोध से वह पिछले एक साल से ही ग्रसित थी, जब उसे सच्चाई का पता चला था, लेकिन जब से वह अपने पिता के साथ ब्रिगेडियर सोढी से मिलकर आई थी तब से मानसिक रूप से भी विचलित हो गई थी। जब भी वह अपने कमरे में अकेली होती, मेजर की फोटो देख रह-रह कर अपने हाथो से अपना माथा पीटने लगती और मुह में साड़ी का पल्लू ठूंस, घुट-घुट कर रोने लगती। वह पास के ही एक सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल थी, मगर कुछ समय से स्कूल के कामकाज और पढाने में भी उसका मन नही लग रहा था, अतः वह लम्बी छुट्टी लिए घर पर ही बैठी थी। जब भी वह मेजर के बारे में सोचने लगती, वह महसूस करती थी कि बिना सोचे समझे और सच्चाई जाने, कदम उठाना इंसान के लिए कितना घातक हो जाता है। उसे वह सारा गुजरा ज़माना रह-रह कर याद आ जाता, वह पछतावा करती कि शायद शादी के बाद वह बड़े बाप की बेटी होने का घमंड छोड़ देती तो आज यह ग्लानी उसे इस तरह न कचोट खा रही होती। आना जाना तो इस दुनिया का दस्तूर है, और यही कटु सत्य भी है कि जो आया है उसे एक दिन जाना भी है। उसके पीछे छूटने वाला, इसी कड़वे सच को आधार मान, दिल को तसल्ली देता है, मगर कभी-कभार इंसान की जिंदगी में ऐंसे पल भी आ जाते हैं कि लाख चाहते हुए भी इंसान कुछ चीजो को भुला नही पाता, कुछ बातो से समझोता नही कर पाता। और इस वक्त ठीक उसी दौर से रुपाली भी गुजर रही था।


१९९८ का दिसम्बर महिना था, मेज़र जखमोला से रुपाली की शादी हुए अभी मात्र ६ महीने ही हुए थे। मेज़र जखमोला, अपनी रेजिमेंट से स्पेशल कमांडो ट्रेनिंग के लिए गुडगाँव स्थानांतरित हुए थे, और नवविवाहित रुपाली उनके साथ थी, अतः मेजर की अर्जी पर, दिल्ली कैंट में उन्हें एक ऑफिसर क्वार्टर अलोट हो गया था। अभी इस क्वार्टर में शिफ्ट हुए मुश्किल से दो महीने ही हुए थे कि रुपाली की गाँव की एक चचेरी बहिन और उसकी बचपन की दोस्त ममता, जो कि अपने एक खास रिश्तेदार की शादी में फरीदाबाद में शामिल होने के लिए, गाँव से सीधे रुपाली के पास चली आई थी। खुबसूरत, हंसमुख,चुलबुली और स्वभाव से तुंरत घुलमिल जाने वाली ममता कुछ दिन रुपाली के पास रुकी रही, उसके बाद अपने रिश्तेदार के यहाँ जाने के लिए उसने रुपाली से गुजारिश की कि रविवार को जीजाजी को कहो कि मुझे फरीदाबाद तक छोड़ दे। अतः उसके कहने पर रविवार के दिन दिल्ली केंट से मेज़र, शाली साहिबा को साथ ले फरीदाबाद के लिए निकल पड़े। दिल्ली केंट से वे आईटीओ पहुंचे और वहा से फरीदाबाद के लिए शटल ट्रेन पकड़ने के लिए पास के रेलवे स्टेशन पर गए। ममता को एक बेंच पर बिठा, मेज़र टिकट खरीदने के लिए टिकट खिड़की की ओर बढा। टिकट लेकर वापस लौटा तो क्या देखता था कि ममता बेंच पर से गायब थी। मेज़र ने सोचा शायद टॉयलेट गई होगी, अतः इंतज़ार करने लगा। काफ़ी देर के बाद भी जब वह नही लौटी तो मेज़र के माथे पर चिंता की लकीरें पड़ने लगी। स्टेशन का कोना एक तरफ से दूसरी तरफ़ छान मारा, लेकिन शाली साहिबा का कोई अता पता नही था।


करीब १५ मिनट और इंतज़ार करने के बाद मेजर ने पहले रेलवे पुलिस और फिर नजदीकी थाने को इसकी लिखित सूचना दी। पुलिसिया खानापूर्ति में ही शाम हो गई थी, उस वक्त देश में मोबाइल फ़ोन का भी ज्यादा प्रसार नही हुआ था और न ही मेजर के घर पर कोई लैंडलाइन फ़ोन ही था, अतः थका हारा और परेशान मेजर रात करीब साढे आठ बजे जब घर पंहुचा तो तभी रुपाली को इस अकस्मात घटना की जानकारी दी। सभी रिश्तेदारों के टेलीफोन नम्बर भी उसकी डायरी में थे जो कि घर पर ही थी, अतः बिना देरी किए मेजर, रुपाली को साथ ले पास के पीसीओ बूथ पर गया, और सभी जान पहचान के लोगो और रिश्तेदारों को इसकी जानकारी दी। ममता और रुपाली के रिश्तेदार, जोकि दिल्ली ओर आसपास के इलाको में रहते थे, यह समाचार पाकर रात को ही मेजर के घर आ धमके। जितने मुह, उतनी बात, हर पूछने वाले को मेजर सारी स्थिति बताता कि कब, क्या और कैंसे हुआ। कुछ लोग मुह के सामने ही मेजर को दोष देने से भी बाज़ नही आते थे। हर घंटे बाद पुलिस के कंट्रोल रूम को फ़ोन कर ममता के बारे में जानकारी ली जाती। दूसरे दिन मामता के गाँव से भी उसके पिता उनके अन्य रिश्तेदारों के साथ दिल्ली पहुच गए। रुपाली के पिता ने जब अपना परिचय पुलिस वालों को दिया तो उन्होंने भी काफ़ी कोपरेट करना सुरु कर दिया। लेकिन सभी प्रयास बेकार हुए, उन्हें कोई सफलता नही मिली। एनसीआर के थानों को भी इसकी सूचना दे दी गई थी।


कुछ दिनों के बाद अचानक एक दिन पुलिस से सुचना मिली कि एक लड़की की लाश उन्हें ओखला बैराज पर मिली है, वे शिनाख्त करने पहुंचे। सभी रिश्तेदार उस इलाके के पास वाले थाने में दौड़ पड़े, लाश काफी दिनों से पानी में होने की वजह से सड-गल चुकी थी और उसके शरीर पर कोई कपड़ा भी नही था, जिससे की कपड़ो से ही पहचान की जा सकती। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में लड़की के साथ बलात्कार करने और फिर गला दबा कर हत्या की बात सामने आई थी। शव के उम्र और कद काठी के विवेचन से ममता की कद काठी के साथ उस शव में काफ़ी समानता नजर आती थी। मगर अब तक ऐंसा कुछ नही मिला था जिससे यकीनन यह कहा जा सके कि शव ममता का ही है।



परिस्थितियों को देखते हुए और पुलिस के दबाब में ममता के रिश्तेदारों और गाँव के लोग यह मानने को तैयार हो गए थे कि लाश ममता की ही है, अतः पुलिसिया कारवाही पूरी करने के बाद उन्होंने शव का अन्तिम संस्कार कर दिया। कुछ रिश्तेदार जो मन ही मन धस्माना साब से पुरानी रंजिस रखते थे और जलते भी थे, उन्होंने इसे चोट करने का एक उचित अवसर समझा और पुलिस को मनगढ़ंत कहानियां बता कर मेजर जखमोला पर अपना शक जाहिर किया। पुलिस शक की बिनाह पर मेजर को गिरफ्तार कर ले गई ! जांच पड़ताल के बाद हालांकि पुलिस को मेजर के खिलाप कोई भी ठोस सबूत नही मिला, अतः कुछ समय बाद उन्हें अदालत ने बाईज्जत बरी कर दिया।



जिस दिन मेजर को पुलिस गिरफ्तार कर ले गयी थी, उसी दिन रुपाली अपने पिता के साथ मायके चली गई थी। और तब से मायके में ही थी। मेजर के परिवार वाले उसे लेने आये भी थे लेकिन उसने ससुराल जाने से मना कर दिया था। अब जब मेजर अदालत से बरी होने के बाद उसे लेने उसके मायके गया तो वहा सभी के तेवर बदले हुए थे। अदालत ने भले ही उसे बरी कर दिया हो लेकिन सभी यह मान बैठे थे कि ममता का हत्यारा मेजर ही है। जिस मोहल्ले में वे लोग रहते थे, न सिर्फ वहाँ बल्कि उनके गाव में भी इसी बात की चर्चा थी कि दुष्कर्म करने के बाद मेजर ने ममता को मार डाला। स्वाभाव से दबंग डी. एम्. साहब के लिए तो यह एक मरने जैंसी स्थिति हो गई थी, सरे-आम नाक कट गई थी, सारा रुतवा , मान मर्यादा मानो मिटटी में मिल गई हो। उनके दोनों लड़के तो ओर भी आग बबूले हुए बैठे थे, रुपाली भी मेजर के प्रति एक अनोखी घृणा मन में पाल बैठी थी और उसने भी मन ही मन मेजर से अलग होने की ठान ली थी। मेजर ने रुपाली को अपनी सफाई देने की लाख कोशिश की, मगर नेहा ने उससे बात करने से भी इनकार कर दिया, साथ ही झल्लाते हुए ऊँची आवाज़ में उसे घर से निकल जाने को कहा। उसके दोनों भाई भी मेजर पर टूट पड़े और पीट-पीट कर अधमरा कर दिया, लेकिन मेजर ने किसी तरह का प्रतिशोध नही किया, चुपचाप सहते हुए वह बस यही कहता रहा कि आप मुझे ग़लत समझ रहे हैं। मामले को गंभीर होता देख ,धस्माना साब ने लगभग खीचते हुए मेजर को अपनी गाड़ी में डाला और उसे स्टेशन पर छोड़ आए और कहा की तुम्हारा हमारा रिश्ता खत्म। साथ ही फिर कभी दुबारा उस तरफ़ मुड़कर न देखने की हिदायत भी दी।

मेजर के लिए एक के बाद एक पड़ रही इन किस्मत की मार को झेलना कठिन होता जा रहा था, रुपाली को वह दिलो जान से प्यार करता था, और उसने सपने में भी कभी नहीं सोचा था की इस तरह रुपाली और उसकी जिंदगी का सफ़र एक छोटी से मुलाकात के बाद यूँ ही ख़त्म हो जायेगा। बस यही वो पल था जब कभी हार न मानने वाला मेजर अपना सब कुछ हार बैठा था। तकदीर के इस अजीबोगरीब खेल से वह हैरान था। कई बार मन में आया कि अपनी सर्विस गन से गोली मारकर आत्महत्या कर ले, लेकिन अगले ही पल उसे लगता कि यह एक कायरता वाली बात होगी, खासकर एक सैनिक के लिए। उसके लिए रुपाली को भुला पाना इतना आसान नही था, और यह बात उसके लिए इसलिए और भी कठिन हो रही थी क्योंकि वह जानता था कि रुपाली के गर्भ में उसका अपना एक पांच-छह महीने का अंकुर पल रहा है। इस घटना के बाद उसके अपने परिवार वाले भी उससे किनारा कर चुके थे ।



इस बीच कारगिल युद्ध छिड गया, मेजर, जो कि अपनी यूनिट लौट चुका था, को बटालियन के साथ फ्रंट पर जाने का आदेश हुआ। अपनी एक सैनिको की टुकडी साथ ले, मेजर द्रास सेक्टर में दुश्मनों का सफाया करते हुए तेजी से आगे बढ़ने लगा। और आख़िर वह दिन भी आ गया जिसका कि एक जांबाज़ फौजी को हमेशा इंतज़ार रहता है- जरुरत पड़ने पर देश की रक्षा में अपने प्राणों की बाजी लगा देना और हँसते हुए कुर्बान हो जाना।


मई दो हजार सात, नेहा अपने पूरे परिवार के साथ शादी के बाद पहली बार अपने गाँव अपने चाचाजी के लड़के की शादी में शामिल होने गई हुई। गाँव में उनका भी अपना एक पुस्तैनी मकान था जिसमे पहले वे लोग अक्सर गर्मियों की छुट्टियों में कुछ दिन बिताने जाया करते थे। उन्हें अभी गाव पहुचे दो ही दिन हुए थे कि अचानक दूर सामने की गाव की पहाड़ी पगडण्डी पर एक परिवार गाँव की ओर आता नज़र आया। ३०-३५ साल का एक जोड़ा अपने दो छोटे-छोटे बच्चो के साथ गाँव की ओर बढ़ रहा था। जैंसे ही उस परिवार ने गाँव में कदम रखा, वहाँ पर हड़कम मच गया था, मानो भूकंप आ गया हो। भीड़ इकठ्ठा होने लगी, जो कोई सुनता वह हैरानी से यही सवाल करता, क्या,....... ममता आई है ? अरे पागल हो गए क्या ?..... कोई और होगा? और तब आख़िर सच्चाई सबके सामने आ गई जब ममता ने अपनी और रमेश (उसका पति) की आशिकी और दीवानगी की कहानी गाँव वालो को सुनाई, कि कैसे उन्होंने दिल्ली में भागकर अपना घर बसाने की योजना बनाई। रमेश को वह कॉलेज के दिनों से जानती और चाहती थी, लेकिन वह जाति से क्षत्रिय था जबकि ममता ब्राह्मण थी, जातिगत विसंगति होना उनके रिश्ते के लिए एक बड़ा रोड़ा था। अतः दोनों की योजना के हिसाब से ममता घर वालो से रिश्तेदार की शादी का बहाना कर एक दुसरे रिश्तेदार के साथ दिल्ली गई थी और वहाँ से उनका इरादा फरीदाबाद में शादी के समारोह के दौरान इस तरीके से भाग जाने का था ताकि लोग समझे कि ममता शादी के दौरान अचानक गायब हो गयी, लेकिन इस बीच दिल्ली से फरीदाबाद जाते हुए उस समय रमेश और ममता को स्टेशन पर तब मौका मिल गया, जब मेजर खिड़की पर टिकट लेने के लिए खड़ा था। रमेश ममता के पीछे साए की तरह था, लेकिन मेजर और रुपाली को इसकी भनक नहीं थी, इसलिए वे इस बात पर तनिक भी गौर कर न सके। ममता ने अपना घर तो बसा लिया था मगर उसे इस बात की ख़बर नही थी कि उसके इस कदम ने एक घर को उजाड़ भी दिया है, उसकी अपनी चचेरी बहिन और बचपन की दोस्त का घर।



रुपाली और धस्माना साब के परिवार के अन्य सदस्यों ने जब ममता के मुह से यह सबकुछ सुना तो उनका दिल तो कर रहा था कि अभी इसको यहीं पर खड़े-खड़े जिन्दा जला डाले, लेकिन उसके दो छोटे-छोटे मासूमो को देख और कुछ सोच, अपने आप पर काबू कर गए। वैसे भी अब बहुत देर हो चुकी थी, रुपाली और मेजर के सम्बन्ध ख़त्म हो चुके थे, और इस बात को गुजरे लगभग ९-१० साल हो चुके थे। उस घटना की नफरत और अपने नन्हे बेटे के प्यार में ममता, मानो मेजर को एकदम भुला बैठी थी और चूँकि उसका दुबारा किसी और के संग शादी का बिल्कुल भी इरादा नही था, अतः उसने कभी मेजर से तलाक़ लेने की बात भी नही सोची थी, बस उन दोनों के बीच सिर्फ एक तरफा सम्बन्ध-विच्छेद हो चूका था। गाँव में ममता की इस हकीकत भरी सच्चाई को जानने के बाद न सिर्फ उसे, बल्कि पुरे गाँव को इस बात पर आत्मग्लानी होने लगी थी कि उन्होंने एक निर्दोष को कितने कष्ट दिए। रुपाली को रह-रहकर अब मेजर की याद आने लगी थी। वह यह नही जानती थी कि मेजर कारगिल युद्ध में शहीद हो चुका है।



गाँव से लौटने के बाद पिता की मदद से रुपाली मेजर को ढूँढने निकल पड़ी। कैंट में काफ़ी छानबीन करने के बाद उसे मेजर की यूनिट के लोकेशन का पता मिल गया। उसे याद था कि उस दौरान मेजर जखमोला का एक खास मित्र था मेजर सोढी , पिता धस्माना साब को साथ ले रुपाली मेजर जखमोला की यूनिट गुरुदासपुर में पहुँच गई। मेजर जखमोला को ढूड़ते हुए वे मेजर सोढी, जोकि अब ब्रिगेडियर थे और कंपनी के कमांडिंग ऑफिसर थे, के पास पहुंचे। पहले तो रुपाली को देख ब्रिगेडिअर सोढ़ी आग बबूला हो गए मगर जब धस्माना साब ने उनकी पूरी कहानी सोढ़ी को सुनाई तो ब्रिगेडियर सोढी नरम पड़ गए, उन्हें विस्वास ही नहीं हो रहा था कि दस साल गुजर जाने पर भी इन लोगो को मेजर के बारे में कुछ नहीं पता। और फिर एक लम्बी सांस ले रुपाली को संबोधित करते हुए बोले, भाभी ! आप लोगो ने बहुत देर कर दी, मेजर जखमोला अब इस दुनिया में नही रहे। इतना सुनते ही रुपाली धडाम से वही फर्श पर बेहोश होकर गिर पड़ी। पिता धस्माना किसी तरह बेटी को संभालकर उसे चेतन में लाये। ब्रिगेडियर सोढी ने फिर आगे बताया कि कैसे मेजर जखमोला जान की बाज़ी लगा द्रास सेक्टर में उस गुफा के अन्दर घुस गए थे जहाँ पाकिस्तानी घुसपैठिये सैनिक पहले से ही मोर्चा जमाये बैठे थे, और नीचे तलहटी से गुजरने वाले भारतीय सैनिको के काफिलों पर गोले दाग रहे थे। मेजर पहले उलटी दिशा से पहाडी पर उस गुफा के ठीक ऊपर चढा और अपने जवानो को, उसे कवर फायरिंग देने का आदेश देकर एक रस्सी के सहारे गुफा के मुहाने तक उतरा। और फिर उसने वह साहस और दृढ़ता भरा कदम उठाया जिसकी हम लोग नीचे से बंकरों में बैठे उम्मीद कर रहे थे, वह अपने ऑटोमेटिक रायफल से गोलिया वर्षाता हुआ गुफा में घुस गया और....


शाम हो चुकी थी, हमने मेजर को नीचे से आवाजे लगायी लेकिन गफा से कोई जबाब नहीं मिला। अँधेरे और पहाडी फिसलन की वजह से हमने तलाश का काम अगले दिन सुबह तक के लिए टाल दिया, क्योंकि रात को उस खड़े पहाड़ की गुफा पर जाना एकदम ना मुमकिन सा था। अगले दिन सुबह-सवेरे मैं जब अपने जवानो के साथ गुफा पर उसी दिशा से और उसी तरीके से, जैसे मेजर वहां पहुंचा था, गया तो क्या देखता था कि आठ पाकिस्तानी सैनिक वहाँ मरे पड़े थे और गुफा के एक कोने पर मेजर अपना एक हाथ सीने पर लगाये, पांव पसारे पीठ के बल बैठा था। मैंने उसकी नब्ज़ चेक की मगर वह बहुत दूर जा चुका था, बहुत देर हो चुकी थी, उसे पाँच गोलिया लगी थी पूरे शरीर पर, इसलिए बहुत खून बह गया था।


सोढ़ी साहब थोडा रुके और फिर रुपाली को देखते हुए एक लम्बी सांस छोड़ कर बोले , जिस हाथ को वह सीने पर लगाये था मैंने जब सीने से उसका वह हाथ हटाया तो उसमे उसने आपकी फोटो पकड़ रखी थी। जिस तरीके से वह वहा बैठा था, लग रहा था मानो राजकपूर जी का वह गीत फिर गुनगुना रहा हो, जिसे वह फुरसत के क्षणों में हमेशा गाता था;
चाहे कही भी तुम रहो चाहेंगे तुमको उम्र भर, तुमको न भूल पायेंगे ....................................................! सरकार ने उसे मरणोपरांत अनेक मैडल से भी सम्मानित किया था, लेकिन उन्हें ग्रहण करने परिवार की तरफ़ से कोई नही आया, अतः वे हमने यूनिट में ही संभाल कर रखे है, आप चाहो तो ले जा सकते हो ! ब्रिगेडियर थोड़ा रुका और रुपाली की तरफ़ देखते हुए रुधे गले से बोला " भाभीजी, आपको तो मालूम ही है कि वह और मैं बहुत करीबी दोस्त थे, मैं उसको भली भांति जानता था, वह एक बहुत अच्छा इंसान था, शायद आप लोगो से ही उसे समझने में कही चूक हो गई।

3 comments:

  1. डॉक्टर साब,
    उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद !
    -आपका
    गोदियाल

    ReplyDelete

सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...