Saturday, September 5, 2009

मुझे पालने वाले सब मर गए !

बस यूँ ही परछाइयों में से इंसान ढूंढ लाने को दिल करता है,
पत्थर फ़ेंक कोई शीशे का मकान तोड़ जाने को दिल करता है !
सन्नाटों की चादर ओढे, कब्रों में सोये है जो मुदत्तो से बेफिक्र,
कभी-कभी न जाने क्यों फिर से उन्हें जगाने को दिल करता है !


आज कुछ भडांस निकालने का दिल कर रहा है ! कहाँ से शुरू करू ? चलो पहले मूर्ख लोगो से ही शुरुआत की जाए ! एक खबर पढ़ रहा था कि अपने मुख्यमंत्री के गम में १२२ से अधिक लोग आंध्रा में मर गए ! निहायत बेवकूफ लोग है ! जिन्हें अपने जीवन की ही कीमत मालूम नहीं, उनसे सहानुभूति जताना भी मुर्खता है ! इन्हें कौन समझाए कि यहाँ हर कोई अपने कर्मो की गति मरता है, आखिर इतने सारे सत्यम और मेटास के निवेशको की 'हाय' का असर कही तो होगा! बस कोई न कोई बहाना ढूंढते रहते है! फसलो को नुकशान की वजह से किसानो द्बारा आत्महत्या तो सिर्फ एक उम्दा बहाना मात्र है, इन्हें तो बस आत्महत्या करनी है ! क्या पता जानबूझकर फसल को इस तरह बोते होंगे कि वो ठीक से उगे ही ना, और इन्हें मौका मिल जाए !

साथ ही एक सलाह अपने नेताओ को भी दूंगा कि Hire a good chopper pilot otherwise an incompetent pilot can actually make you devine. और जब कभी हमारे इन नेतावो की मरने की इच्छा हो भी तो इन मीडिया वालो को पहले से हिदायत दे दे कि उनके साथ मरने वाले पायलटो और सचिवो इत्यादि के अंतिम संस्कार की भी थोडा बहुत खबरे भी अपने चैनलों पर दे दिया करे, अन्यथा साथ में मरने वाले उन बेकसूरों का मनोबल गिरता है !

चलो भडास तो निकाल चुका, अब कुछ अच्छी बाते हो जाए! अभी कल-परसों में अखबारों में एक खबर पढी थी कि अमिताभ जी ने अपने ब्लॉग पर लिखा है कि उन्हें सबसे ज्यादा शर्मिन्दा उस वक्त होना पड़ा था, जब वे इलाहाबाद में सातवी कक्षा में पढ़ते थे, तो गोल कीपर होने के नाते बहुत सारे गोल खा गए थे, इसलिए उन्हें शर्मिन्दगी उठानी पडी! मैं सोच रहा था कि बड़े लोगो की बाते भी बड़ी ही होती है, एक हम है, जो हर चार कदम पर किसी ना किसी वजह से जलील होते ही रहते है ! हाँ यह जरूर है कि हर इंसान के जीवन के भिन्न-भिन्न तरह के कुछ अविस्मर्णीय क्षण होते है, जिन्हें इंसान जब कभी याद करता है है, तो या तो खूब हंसता है या फिर दिल खोल के रोता है ! हर इंसान के अन्दर एक बच्चा छुपा होता है जो यदा कदा उसे बचकानी हरकते करने को मजबूर कर देता है !

ऐसा ही एक वाकिया काफी साल पहले का अपने साथ का भी है, जिसे जब कभी सड़क पर ड्राइव करते हुए याद करता हूँ तो मुह से हंसी रुकती नहीं ! हुआ यह कि हम आफिस के चार मित्र नोएडा से गाजियाबाद एक दफ्तर के ही मित्र की बहन की शादी में शरीक होने जा रहे थे! नोएडा निवासी एक मित्र के पिता कनाट प्लेस में एक कंपनी के चार्टर्ड अकाऊंटेंट थे, और उन्होंने अभी-अभी नई स्कॉर्पियो ली थी! अतः हमारे लिए यह एक जॉय राइडिंग भी थी ! चूँकि शादी में जा रहे थे, अतः आज की मानसिकता के हिसाब से स्वाभाविक तौर पर मयूर विहार फेस ३ के रास्ते बियर का लुफ्त उठाते हुए हम चल रहे थे! औरचूँकि मैं उस रास्ते से भली भांति परिचित था, अतः ड्राइविंग सीट मैंने ही संभाल रखी थी! एक मित्र बार-बार पिछली सीट से पूछ रहा था कि यार ये खाली बोतले कहाँ फेंके ? मैंने कहा, ला मेरे पास पकडा दे ! ज्यों ही हापुड़ वाली सड़क की लाल बत्ती पर पहुंचे सड़क के ठीक पली पार विपरीत दिशा में एक ट्रक लाल बत्ती पर खडा था, वहाँ पर सड़क के बीच में उस दौरान कोई डिवाईडर नहीं था! ट्रक एक सरदार जी चला रहे थे और ड्राविंग सीट वाला पूरा दरवाजा खोले हुए थे ! मैं भी थोडा झांझ में आ गया था और जोर-जोर से हसे जा रहा था, अतः मैंने स्कॉर्पियो को ट्रक के ड्राइविंग सीट के दरवाजे से एकदम सटा कर लगाते हुए, बिजली की सी फूर्ती के साथ एक-दो नहीं, बल्कि पूरी सात खाली बियर की बोतले सरदारजी की सीट के नीचे खिसका दी थी! सरदार जी भी इस अप्रत्यासित घटना से सकपका से गए थे, और "ओये तेरी भैण की...." बोलकर शायद ट्रक में रखी अपनी लोहे की रौड ढूंढ रहे थे! मैं हँसता ही जा रहा था और काम पूरा करने के बाद मैंने तुंरत गाडी तेजे से आगे बड़ा दी ! करीब पचास मीटर आगे जाकर मैंने गाडी धीमी की, खिड़की से गर्दन बाहर निकाल कर ट्रक की तरफ देखा! अब तक शायद पूरी वस्तुस्थिति सरदार जी की भी समझ में आ गई थी, और हाथ ऊपर उठा कर मानो खाली बीयर की बोतले देने के लिए मेरा शुक्रिया अदा किया था उन्होंने ! साथ बैठे मेरे तीनो मित्रगण जो अब तक साँस रोके बैठे थे, मेरी वह बचकानी हरकत को देख,एक साथ जोर से हंस पड़े थे !

अब शीर्षक वाली घटना भी बताता चलू, कालेज के दिनों में यूनिवर्सिटी कैम्पस में खाली पीरिअड में हम लोग जब बैठे रहते थे तो चूँकि कैम्पस की बाउंड्री दीवार जगह-जगह से टूटी थी, और उसमे से आस-पास की बस्ती के मवेशी घास चुंगने के लिए, बार-बार कैम्पस के अन्दर घुस आते थे ! चौकीदार बेचारा बड़ा परेशान था, और मवेशियों के मालिको को गालिया दिए फिरता था! एक दिन हम पांच-सात विद्यार्थी खाली पीरिअड में बैठे गप-शप कर रहे थे, तभी वह अपना रोना लेकर हमारे पास आया कि उसे इन गाय- बछडो की वजह से कॉलेज प्रशाशन से रोज डांट खानी पड़ती है, क्या करू ? ये हरामखोर लोग दूध खुद पी जाते है, और फिर बछडो को सड़क पर छोड़ देते है ! हमने उससे कहा कि तुम कुछ पतली रस्सियों और कागज़ के गत्तों का इंतजाम करो, हम तुम्हारी समस्या हल कर देंगे ! वह तुंरत ले आया ! हमने स्केच पेन से मोटे मोटे अक्षरो में उन कागज़ के गत्तों पर लिखा " मुझे पालने वाले सब मर गए " और वे डिसप्ले बोर्ड, रस्सी पर टांग उन गाय, बछडो के गले में लटका दिए !और फिर अगले दिन से वे मवेशी उधर नहीं दिखे !

7 comments:

  1. सचमुच में बहुत ही प्रभावशाली लेखन है... बहुत सुन्दरता पूर्ण ढंग से भावनाओं का सजीव चित्रण... वाह…!!! वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। आशा है आपकी कलम इसी तरह चलती रहेगी, बधाई स्वीकारें।

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  2. वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है।
    बधाई स्वीकारें।

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  3. ज्वर से पीड़ित हूँ, इसलिए कॉपी पेस्ट किया है।
    आप सदैव ही सार्थक लेखन करते हैं।
    बधाई और शुभकामनाएँ स्वीकार करें।।

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  4. Shukriyaa शास्त्री जी, शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामनावो सहित !!
    Ravi Sriwaastav ji ko bhee bahut bahut shukriyaa !!

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  5. क्या आज इतने शरमदार पालनहार ज़िंदा हैं:)

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  6. Sucide karne ke liye koi na koi bahano to chahiye. This is a pure disease like others. Kuchch nahi to kharab phasal ka bahana. Nahi to CM mar gaye ka bahana....Bahut achcha likha bhai....lekhak ke saath saath phychiatrict bhi....

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  7. "....lekhak ke saath saath phychiatrict bhi...."

    Ha-ha-ha... Bhai sahaab kyo gareeb aadmee kaa majaak udaate ho subah-subah !!

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सहज-अनुभूति!

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