Friday, May 29, 2009

सिपै चचा !

सूबेदार पूरण सिंह अपने गाँव के वे पहले व्यक्ति थे, जो आजादी के बाद सेना में भर्ती हुए थे । अतः रंगरूटी ट्रेनिंग पूरी करने के बाद जब वह पहली बार गाँव आये तो गाँव के बच्चो ने उनका नया नामकरण कर डाला था 'सिपै चचा' यानि सिपाही चाचा । कुछ सालो बाद न सिर्फ बच्चे, अपितु गाँव के बड़े-बूढे सभी उनके लिए इसी नाम का संबोधन करने लगे थे, और तब से आज तक वे इसी नाम से जाने जाते है। अपने जवानी के दिनों में जब सिपै चचा छुट्टी आते थे और अपनी फौजी ड्रेस में एक बिस्तरबंद और एक काला बक्सा लिए गाँव की पहाडी धार वाली सड़क में बस से उतरते थे, तो गाँव में एक अलग ही किस्म का उत्साह सा फैल जाता था। गाँव के कुछ युवा दौड़कर सड़क में ही पहुच जाते और कोई चचा का बैग उठाता, कोई बक्सा और कोई विस्तरबंद । वे ज्यों-ज्यों गाँव के नजदीक पहुँचते, शाम को हुक्का गुडगुडाते हुए चौपाल में बैठे लोग आपस में काना-फूसी करते " सिपै चचा लगता है इस बार माल-ताल काफी लाया है, बक्सा भारी प्रतीत हो रहा है। " माल-ताल से उनका एक ही तात्पर्य होता था, वह था, रम की बोतल ।

इस बार सिपै चचा की भतीजी, रूपा तकरीबन २ साल के बाद गर्मियों की छुट्टिया बिताने दिल्ली से कल ही अपने मायके आयी थी। साथ में वह चचा के लिए कुछ फल-फ्रूट लाई थी, इसलिए आज दिन में ही वह अपने मायके के घर से करीब १५० मीटर की दूरी पर स्थित, सिपै चचा के कुटिया-नुमा घर में उनसे मिलकर आयी थी, और चचा की दयनीय हालत देखकर मन ही मन बहुत खिन्न थी । उनके पैर पर लकवे के दुबारा मार जाने की वजह से वे अब ठीक से चल भी नहीं पा रहे थे । चचा के प्रति वह सालो से मन में पल रहे एक अपराधबोध से घुटती रहती थी । जब कभी वह रणु और उसकी पत्नी तारा को आपस में खिलखिलाकर हँसते हुए देखती थी तो उसका खून खौल जाता था, और उसका मन करता कि वह इन दोनों का क्या कर दे। रणु तो रूपा से ठीक से नजरें भी नहीं मिला पाता था, उसे देखते ही उसकी घिग्घी सी बंध जाती थी, किन्तु तारा पर उसके सामने होने न होने का कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता था ।

चूँकि गर्मियों के दिन थे, अतः रात्री भोजन के उपरांत अपने डेड बर्षीय बेटे को कमरे में सुला, वह पिता द्बारा हाल ही में बनाये गए ईंट, सीमेंट और कंक्रीट के नए मकान की छत पर बैठ, ख्यालो में गुमसुम, भीनी-भीनी चांदनी में दूर सिपै चचा की कुटिया को निहारते हुए कहीं अपने अतीत में खो गयी थी । वह तब ८ साल की थी, जब उसने वह भयावह मंजर अपनी नन्ही आँखों से देखा था। उसे याद है कि सिपै चचा और चाची अपने इकलौते बेटे रणु को कितना प्यार करते थे, और शायद उनका उसके लिए वह अपार प्यार, प्रेम ही एक नासूर बन बैठा था । चाची अपने इस कुपूत को बस दिन भर कुछ ना कुछ खिलाती रहती थी। और जब भी वह आस-पास होता था, बार-बार उसे यही पूछती रहती कि बेटा तुझे भूख तो नहीं लगी । अगर उसने थोड़ी देर पहले ही पेट भर खाना खाया भी हो तो भी एक-दो घंटे बाद पुनः चाची कहती, बेटा आज तूने खाना कम खाया, तुझे भूख लग गयी होगी, ठहर मैं तेरे लिए एक-दो गरमा-गरम रोटी पकाती हूँ । और फिर कुछ देर बाद उसे रोटी और घी की कटोरी थमा देती थी । सिपै चचा भी जब छुट्टियां लेकर गाँव आते तो पूरे दो महीने की छुट्टियों भर उसी के आगे पीछे घूमते रहते । चचा की दिली तमन्ना थी कि रणु के साथ उसकी एक बहन भी हो, किन्तु रणु के जन्म के समय चाची को अनेक शल्य-चिकित्साओ से गुजरना पड़ा था, और उसकी वजह से यह नामुमकिन हो गया था ।

माता-पिता को इस अपने इकलौते बुढापे के सहारे, रणु से बहुत अपेक्षाए थी, मगर माँ-बाप के अथाह लाड-प्यार ने रणु के दिमाग को कदाचित सातवे आसमान पर पंहुचा दिया था । पंद्रह साल का होते होते उसने न सिर्फ कई व्यश्न अपना लिए थे अपितु पास के गाँव की ही अपनी हमउम्र तारा से इश्क का चक्कर भी शुरु कर दिया था । नतीजन, पढाई-लिखाई सब चौपट हो गए थे । दसवी में फेल होने और उसके बाद उसके तारा से संबंधो का पता चलने के बाद चाची भी दुखी थी । अब वह उसे डांटने के साथ-साथ उस पर कभी-कभार हाथ भी उठा देती थी। लेकिन सत्रह साल की उम्र तक पहुंचते-पहुँचते रणु के दिमाग और ज्यादा खराब हो गए थे, और अब तो जब कभी चाची उससे पढने की बात को लेकर, लड़ते-झगड़ते उस पर हाथ उठाने की कोशिश करती थी तो वह भी साथ में चाची पर हाथ चला देता था।

और उस दिन तो उसने अपनी सारी हदे ही पार कर दी, जब सुबह के वक्त चाची उसे स्कूल जाने के लिए कह रही थी, मगर वह था कि मना कर रहा था। जब लाख बोलने पर भी वह नहीं माना तो घर के ऊपरी हिस्से में बने बरामदे में चाची पास पडी एक लकडी उठा गुस्से में मारने के लिए उसकी तरफ बड़ी तो उसने चाची को खींच कर तकरीबन चार मीटर ऊँची घर की मोटे-मोटे नोकीले पत्थरों की सीडियों से नीचे धकेल दिया था । पास खडी रूपा यह देख हतप्रभ रह गयी और उसके मुह से चीख निकल गयी। आस-पास के घरो के लोग या तो घर के अन्दर काम में व्यस्त थे या फिर खेत-खलिहानों में निकल गए थे। नोकीले पत्थरो में टकराने से चाची के सिर पर गहरी चोट लग गयी थी, और थोड़ी देर छटपटाने के बाद उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। रणु ने जल्दी से रूपा का मुह दबाया और उठाकर अन्दर कमरे में लेजाकर उसे डराने धमकाने लगा कि अगर उसने इस बात के बारे में किसी को भी बताया, तो वह उसको भी कहीं पहाडी से फ़ेंक देगा । साथ ही उसने उसे रोज एक टॉफी लाकर देने का लालच भी दिया था। थोड़ी देर बाद जब रूपा की माँ की नजर सीडियों के नीचे औंधे मुह गिरी, खून से लथपथ चाची पर पडी तो उसने चीख-चिल्लाकर गाँव के लोगो को इकठ्ठा किया। रणु अन्दर कमरे में बैठा इस तरह का नाटक कर रहा था, मानो उसे इस बारे में कुछ भी पता नहीं। जब माँ ने उसे रणु-रणु की आवाज लगाईं थी, तो तब जाकर वह कमरे से बाहर निकला था और चाची के शव पर लोटकर रोने का नाटक करने लगा था।

गाँव के लोग इसे चाची के सीढियों से फिसलकर गिरने की महज एक दुर्घटना मान बैठे थे । सिपै चचा उस समय सियाचिन में पोस्टेड थे, उन्हें टेलीग्राम किया गया । आनन-फानन में चचा तीसरे दिन घर पहुचे थे और पत्नी के इस असामयिक निधन से टूट गए थे । लेकिन दूसरी तरफ मानो रणु की लॉटरी खुल गयी थी, गाँव के बड़े-बुजुर्गो ने जब चचा को रणु की शादी कर देने की सलाह दी तो रणु ने भी झट से तारा से शादी करवाने की बात कही । न चाहते हुए भी चचा ने लडकी वालो की रजामंदी के बाद उसकी शादी तारा से कर दी, क्योंकि उन्हें वापस अपनी ड्यूटी पर लौटना था और घर में रणु अकेला हो गया था । मगर वो कहावत है कि मुसीबत जब आती है तो चारो तरफ से आती है। चूँकी चचा सियाचिन के उस हाई अल्टीट्युड इलाके में पिछले काफी समय से पोस्टेड थे, और उस समय सियाचिन को हथियाने के लिए पाकिस्तानी सैनिक कई नाकाम कोशिश कर चुके थे, इसलिए वे हर वक्त अपनी टुकडी के साथ पेट्रोलिंग पर रहते थे। कदाचित उन्हें वहाँ अनेको मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा था, जिसमे से एक प्रमुख समस्या यह भी थी कि घंटो पेट्रोलिंग पर रहते हुए तमलेट में मौजूद पीने का पानी जम जाता था, अतः सैनिको के पास कोई व्यैकल्पिक साधन न होने से प्यास से बुरी तरह जूझना पड़ता था। दिन के समय ऊपर से तेज धूप और नीचे बर्फ ही बर्फ । चचा ने इसका तोड़ यह निकाला कि खाली तमलेट में आधे से अधिक जगह में कैम्प से बाहर निकलते वक्त गरम पानी भर देना और फिर उसके ऊपर एक गिलास रम डाल देना । इससे तमलेट में पानी के साथ एल्कोहल मिल जाने की वजह से पानी शीघ्र जमता नहीं था। साथ ही वे लोग अपने शरीर में गर्मी भी महसूस करते थे । सामान्य परिस्थितियों में इस तरह के हाई अल्टीट्युड जगहों पर सैनिको को भेजने-लाने से पहले उस माहोल में रहने के लिए उन्हें उचित जगह पर तैयार किया जाता है, किन्तु जब अचानक चचा को इमरजेंसी छुट्टी आना पड़ा तो उनके शरीर पर इसका बुरा असर हो गया, और उनके दाहिने पैर के एक हिस्से को लकवा मार गया था ।

करीब एक साल तक दिल्ली के सुब्रतो पार्क स्थित आर-आर सेंटर में इलाज करवाने के बाद चचा ठीक भी हो गए थे, और उसके छह महीने बाद उनका रिटायर्मेंट भी हो गया था। लेकिन घर पहुँचने पर उनको शकून नहीं मिला । तारा और रणु की हरकतों से तंग आकर उन्होंने वहीं गाँव में थोड़ी दूरी पर एक चौडे खेत में अपनी कुटिया बना डाली और उसमे वे आस-पास के गाँव के गरीब बच्चो को पढाने का काम भी करने लगे थे। लेकिन रणु इतने से भी कहा मानने वाला था, उसने बहला-फुसला और जोर जबरदस्ती से चचा का सारा जो रिटायरमेंट का फंड था, वह भी हड़प लिया था। चाची की हत्या के बाद वह कुछ दिनों तक रूपा को टॉफी खिलाकर बहलाता-फुसलाता रहता था, वह कई बार सोचती थी कि घरवालो को साफ़-साफ़ बता दे, लेकिन फिर रणु की धमकिया याद आने पर वह डर जाती और उसके करीब तीन साल बाद रूपा के पिता रूपा और परिवार को अपने साथ कुछ सालो के लिए शहर ले गए थे । रूपा जब समझदार हुई तो उसे हरवक्त यही अपराधबोध सताता रहता था कि उसने उस घटना की सच्चाई लोगो को उस समय साफ़-साफ़ क्यों नहीं बताई ।

आज जब उसने चचा की हालत देखी तो उसका रोम-रोम रो उठा था । कभी दुश्मन के दांत खट्टे करने वाला वह हृष्ट-पुष्ट इंसान जीवन के इस मोड़ पर शारीरिक विकलांगता और अपने घर में अपनों से ही जंग हारकर अलग एक कुटिया में बैठा, अपनी कर्कश आवाज में रोज देर रात को सोने से पहले दो लाईने 'पिंजडे के पंछी रे...' वाले गीत की गाया करता। वह इन्ही सोचो में डूबी मन ही मन भगवान् से प्रार्थना कर रही थी कि हे भगवान्, इस जालिम कुपूत रणु को इसी जन्म में यह अहसास अवस्य दिलाना कि माँ-बाप को अपनी बिगड़ी औलाद के प्रति क्या दुःख रहता है, तथा औलाद का माँ-बाप के प्रति क्या फर्ज बनता है, कि तभी माँ ने ऊपर छत में आकर रूपा के कंधे पर हाथ रखकर पुछा था कि बेटी, बहुत रात हो चुकी, तू यहाँ अकेली बैठी क्या कर रही है, अब जा सो जा । उसे उदास देख सिर पर हाथ फेर उससे फिर पुछा था कि क्या उसे विनय की याद आ रही है ? उसने न माँ में जबाब दे, अपनी भीगी पलकों को पोंझ, ज्यों ही खड़े होकर अपने कमरे की और रुख किया कि सिपै चचा की वही कर्कस आवाज उन शांत और सुनशान पहाडी फिजावो में एक बार फिर गूँज उठी;

चुपके-चुपके रोने वाले, रखना छुपा के दिल के छाले रे,
ये पत्थर का देश है पगले, कोई न तेरा होए,
तेरा दर्द न जाने कोए...... !

Wednesday, May 27, 2009

हर बात से इत्तेफाक रखते है !


हम तो उनकी हर इक बात से इत्तेफाक रखते है,
संग अपने, अपनी बेगुनाही की ख़ाक रखते है।   

हर लम्हा मुमकिन था, बेशर्मी की हद लांघना,
किंतु जहन में ये था कि हम इक नाक रखते है।  

हमको नहीं आता कैसे, दर्द छुपाते हैं पलकों में,
किंतु नजरों में अपनी, बला–ए–ताक  रखते है।   

तमन्ना इतनी थी, हमें सच्चा प्यार मिल जाता,
कोई हरगिज ये न सोचे, इरादा नापाक रखते है।  

जी करे जब 'परचेत', लिख दे कोई नज्म, गजल,
दिल हमारा श्याम-पट्ट है, जेब में चाक रखते है। 

Friday, May 22, 2009

बंटवारे का सच !

वह घटना जहां सबके लिए तकलीफदेह थी और सभी उस घटना से जहां एक और भौचक्के से थे, वहीं दूसरी ओर मोहन को कहीं अन्दर ही अन्दर एक प्रकार की सुख की अनुभूति भी हो रही थी, एक अजीब से सुख की अनुभूति । और साथ ही उसका मन बाबा(दादाजी) के लिए श्रदा से भर आया था । कही दिल के किसी कोने पर उसे इस बात का भी पछतावा था कि नादानी बस उसने अपने बाबा के प्रति बचपन से ही कितने भ्रमित ख्याल दिलो-दिमाग में पाले रखे थे। सुबह से अब तक वह दो बार घर के अन्दर ही मौजूद पूजा-गृह में जाकर दीवार पर टंगी बाबा की आदमकद फोटो के पास खड़े होकर, उनके पैर छूं, बाबा से खुद को माफ़ करने की विनती कर चुका था ।

चौधरी करमचंद उस जमाने में अपने इलाके के एक दवंग किन्तु स्वच्छ छवि वाले इंसान थे । हर कोई उनकी इज्जत करता था । दिल्ली के समीप के एक गाँव में उनका एक बड़ा घर था । काफी बड़ी जमीन जायदाद के मालिक थे । उस जमाने में उनका एक बड़ा भरा-पूरा परिवार था, पति-पत्नी और आठ बच्चे । आठो लड़के थे, एक लडकी की इच्छा में चौधरी साहब ने परिवार को इतना बड़ा कर दिया था। बच्चे बड़े होने लगे, जैसा कि अक्सर कहा जाता है कि सभी उंगलिया बराबर नहीं होती, ठीक वैसा ही हिसाब चौधरी साहब के परिवार में भी था । पांच बच्चे जहां एक अलग स्वभाव के थे, वहीं तीन उग्र और उदंडी स्वभाव के । उनकी वजह से दिनभर घर में शोर-शराबा और कोहराम मचा रहता था ।

दिन बीते, सभी बच्चे अब जवान हो चुके थे, चौधरी साहब के अपने ही घर में बच्चो के दो गुट बन चुके थे, तीन एक तरफ और पांच एक तरफ । और कभी-कभी तो तब घर में एक अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो जाती थी, जब वे दोनों गुट आपस में भिड पड़ते थे । उन तीनो का काम दिन-भर में बस यह रहता कि वे दिल्ली और आस-पास में आवारा किस्म के लोगो के साथ मटरगस्ती करते रहते थे, और अपने हमउम्र लड़को से झगड़ते थे, बस । चौधरी साहब भी अब वृदावस्था की देहलीज पर पहुँच चुके थे, और बच्चो की हरकते देख-देख कर मन से क्षुब्द थे । अब तक वे अपने सिर्फ दो बेटो की ही शादी कर पाए थे कि एक दिन वेसब यह देखकर हैरान रह गए कि उनके उन तीनो लड़को ने अपना धर्म परिवर्तित कर दूसरा धर्म अपना लिया था, और उन तीनो में से, सब से बड़ा रमेश, जो अब रफीक बन चुका था, एक मुस्लिम लडकी आइसा से निकाह रचाकर, दुल्हन को घर भी ले आया था । पुराने खयालातो की वजह से इन सब हालातो के चलते, घर में कुछ महीनो तक एक तनाव की सी स्थिति बनी रही, लेकिन चौधरी साहब काफी समझदार और पढ़े लिखे इन्सान थे, अत उनकी दबंगता के आगे कोई जुबान नहीं खोल पाया था।

और फिर वही हुआ जिसका अंदेशा था, चौधरी साहब के उन तीन लड़को ने उनमे से सबसे बड़े रफीक के नेतृत्व में घर में विद्रोह का बिगुल बजा दिया। उन्हें चौधरी साहब की जायदाद में अलग हिस्सा चाहिए था, जबकि बाकी के पांचो भाई चौधरी साहब के जीते जी घर के हिस्से करने के एकदम खिलाफ थे । बहुत सोच-विचार कर, तनाव बढ़ता देख, चौधरी साहब ने आठो लड़को को बुलाकर और गाँव की पंचायत बिठाकर जायदाद के दो हिस्से करने का प्रस्ताव रखा । चौधरी साहब के पास उस गाँव के अलावा दिल्ली से ही सठे, नोएडा के यमुना किनारे और गाजियाबाद में तथा पहाडो में काशीपुर के समीप कृषि योग्य जमीन थी । उन्होंने जब हिस्से किये तो धर्म प्रवर्तित कर मुजविर नाम वाले को जमुना किनारे की जमीन तथा दो अन्य भाइयों रफीक और अली को गाजियाबाद एवं पहाड़ वाली जमीन दी । गाजियाबाद वाली कुछ जमीन उन्होंने अपने पास भी रखी थी, मगर उस पर भी उन दो भाइयों ने बाद में जबरन कब्जा कर लिया।

जमीन के तो हिस्से हो गए थे, लेकिन अब जो प्रमुख समस्या खड़ी हो गयी थी, वह यह थी कि उन तीनो भाइयों ने चौधरी साहब की नकदी में भी दो बराबर के हिस्से करने की मांग की । बाकी के पांच भाइयों ने इसका पुरजोर विरोध किया, किन्तु वे तीन भाई कहाँ मानने वाले थे । हालत यहाँ तक बिगड़ गए कि वे आपस में ही एक दूसरे को मरने-मारने पर उतारू हो गए थे। स्थिति बिगड़ती देख, चौधरी साहब ने उन पांचो भाइयों को समझा-बुझा कर नकदी के भी दो बराबर हिस्से कर डाले । वे चाहते थे कि किसी भी तरह उन तीन भाइयों को संतुष्ट कर वे उनको वहाँ से हमेशा-हमेशा के लिए विदा करे, लेकिन चौधरी साहब की उन तीन भाइयों के प्रति यह झुकाव की बात, पांच भाइयों में सबसे छोटे और युवा, नत्थू को नागवार गुजरी और उसने एक दिन शाम को जब चौधरी साहब लोगो के साथ चौपाल पर बैठे थे, आवेश में आकर उन्हें एक देशी कट्टे से गोली मार दी । चौधरी साहब ने घटना स्थल पर ही दम तोड़ दिया था । गाँव वालो ने नत्थू को धर दबोचा और पुलिस के हवाले कर दिया, बाद में अदालत ने उसे फांसी की सजा सुना दी ।

दिन गुजरे, इधर इस पुराने घर में अब चार भाई रह गए थे, और सबसे बड़े चौधरी भरतसिंह ने चौधरी करमचंद की गद्दी संभाल ली थी । बाद में दो अन्य भाइयों की शादी भी चौधरी भरतसिंह की देखरेख में ही संपन्न हुई थी । चौधरी करमचंद की मौत पर भी घर और गाँव दो धडो में बँट चुका था, एक धडा वह था, जो नत्थू को पिता की ह्त्या पर बुरा-भला कहता और कोसता था, और एक धडा वह था जो कहता था कि नत्थू ने जो किया सही किया। माँ-बाप के लिए उनके सभी बच्चे समान होते है और सबके साथ बराबर का न्याय उनको करना चाहिए। चौधरी साहब ने जिस तरह उन तीनो के प्रति हमदर्दी दिखाई, वह सरासर अनुचित बात थी, अतः नत्थू ने ठीक किया और हमें उसका महिमा-मंडन करना चाहिए........, जितने मुह उतनी बाते । जब नत्थू ने चौधरी साहब को गोली मारी थी तो चौधरी भरतसिंह का चार साल का मोहन भी वहीं पर खेल रहा था और उसने अपनी नन्ही आँखों से बाबा का खून होते देखा था । उसका मासूम मन नत्थू चाचा के लिए नफरत से भर गया था । लेकिन ज्यूँ-ज्यूँ वह बड़ा होता गया और जब उसने घर में उस दूसरे धडे के लोगो की बाते सूनी कि बाबा ने कैसे अपने बच्चो के साथ भेदभाव कर जायदाद का बटवारा कर दिया था, तो उसकी नफरत अब बाबा की ओर हो चली थी । वह जब भी घर में अकेला होता, स्कूल जाते वक्त भी यही सोचता रहता कि बाबा ने उनके साथ ऐंसा क्यों किया ?

समय बीतने पर और चौधरी भरतसिंह तथा अन्य भाइयों की जी तोड़ मेहनत के चलते, घर में खुशहाली आ गयी थी । उनका घर अब पूर्णतया सर्वसंपन्न हो चला था । वहीं दूसरी ओर अलग हुए तीनो भाई अब छोटी-छोटी बातो पर आपस में ही लड़ने लगे थे, बाद में इसी झगडे के चलते जमुना के किनारे रहने वाला मुजविर भी अन्य दो भाइयो से नाता तोड़ अलग रहने लगा था । वे लोग चौधरी भरतसिंह के परिवार की सम्पन्नता को देख अन्दर-ही- अन्दर फुके जाते थे, और बस इसी ताक़ में हर समय रहते कि हम कैसे इनको नुकशान पहुंचाए । उन्होंने कई बार कोशिश भी की, लेकिन चौधरी भरतसिंह से उनको मुह की ही खानी पडी थी । वो कहावत है कि शैतान कभी भी शांती से चुप नहीं बैठता और जब कुछ नहीं मिलता तो अपने ही औजारों से खुद ही खेलने लगता है । यही कुछ हाल गाजियाबाद में रहने वाले उन दो भाइयो रफीक और अली और उनकी संतानों का था, वे अब बात-बात पर आपस में ही उलझने लगे थे, जिन बेटो को आइसा ने पाला-पोषा था, वे ही अब आइसा को और अपनी बहनों को परदे में रहने को कहते थे । अली और रफीक के परिवारों के बीच दुश्मनी इस कदर बढ़ चुकी थी कि उनके बेटे आपस में ही एक दूसरे के खून के प्यासे बन गए थे । रोज कोई न कोई लफडा चलता ही रहता और स्थानीय अखबारों में भी इसकी खबर छपती रहती थी। चौधरी भरतसिंह और उनका परिवार उन खबरों को पढ़कर आपस में उनके विषय में बतियाते रहते थे ।

हद तो तब हो गयी जब एक दिन सुबह का अखबार पढ़ते-पढ़ते मोहन ने घर के हर सदस्य को आवाज लगाकर अपने पास बुलाया और अखबार के बीच वाले पृष्ट पर छपी फोटो और खबर की तरफ परिवार का ध्यान आकर्षित किया । फोटो में चार लाशें दिखाई गयी थी और खबर यह थी कि रफीक और अली के परिवारों के बीच पिछली शाम को हुए संघर्ष में दोनों रफीक और अली को दो-दो बेटो से हाथ धोना पड़ा था । इस आपसी गोलीबारी में दो बहुए और बच्चे भी घायल हुए थे । खबर पढ़कर मोहन की माँ ने रोते हुए चौधरी भरतसिंह और परिवार के अन्य सदस्यो से रफीक के घर चलकर उनके हालचाल पूछने का आग्रह किया कि पता नहीं बेचारी आइसा पर क्या गुजर रही होगी ? लेकिन चौधरी भरतसिंह ने घर के सदस्यो को कड़ी हिदायत दी कि कोई भी वहां नहीं जाएगा । घर के किसी सदस्य की यह हिम्मत भी नहीं हुई कि चौधरी भरतसिंह का विरोध कर सके ।

इस घटना की खबर पढने के बाद मोहन अपनी पत्नी से जब घटना के बारे में बाते कर रहा था तो उसे यकायक वह गुजरा ज़माना याद आ गया था । और आज उसकी समझ में यह बात अच्छी तरह से आ गई थी कि हम आज दुराग्रह और अपने निहित स्वार्थो की वजह से बाबा को जितना मर्जी बुरा-भला कहें, मगर सच्चाई यही है कि बाबा ने कितनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए दिल पर पत्थर रख, अपने अरमानो की कुर्बानी देकर, हम लोगो के सुखद भविष्य को ध्यान में रखते हुए, बटवारे का कितना महत्वपूर्ण निर्णय लिया था। यह सच है कि जायदाद का बटवारा हुआ लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि अगर बाबा वह निर्णय नहीं लेते और वो तीनो भाई उस वक्त अलग नहीं होते तो क्या वे आज हमें सुख-चैन से जीने देते ? बाबा ने भी जरूर इन सभी बातो को उस समय ध्यान में रखा होगा । नासमझ नत्थू चाचा ने बाबा के साथ जो किया, वह सरासर गलत था ।

Tuesday, May 19, 2009

निट्ठले बैठे थे जो...

सुना है,  बेनमाजी भी अब नमाजी बन गए है,
कलतक निट्ठले थे जो, कामकाजी बन गए है।
अदाई की रस्म खुद को तो निभानी आती नहीं,
और जनाव हैं कि शहरभर के काजी बन गए है।

जब से बने हैं, यही बताते फिर रहे लोगो को
कि ख़ुदा नाफरमान की हिमायत नहीं करता।
खुद फरमान बरदारी की बात आई जब तो,
मस्साल्लाह,  जनाब  दगाबाजी बन गए है।


Wednesday, May 13, 2009

मिश्रित तहजीव !


घी में गौ-चर्बी,
दूध में यूरिया,
अनाज में कंकड़,
मसालों में बुरादा,
सब्जी में रसायन,
दालो पर रंग !

और तो और,
इस सर-जमीं पर,
सरकार भी मिलावटी,
सब भगवान भरोसे,
अब रोओ या हंसो,
जीना इन्ही के संग !!

मिलावट और
बनावट  का युग है,
अपने चरम पर
पहुंचा कलयुग है,
सराफत की पट्टी माथे,
दहशतगर्दी का ढ़ंग !!

कुंठित वतन,
मांगे है परिवर्तन ,
बेगरज लाचार,
स्वार्थ का भरमार,
अपमिश्रित इंसानो का है
चहुँ ओर  रंग-तरंग  !!

Friday, May 8, 2009

लघु कथा- सिंगाडे !

हालांकि आगे पढने की दिली ख्वाईस के बावजूद, गरीबी के चलते, दसवीं पास कर हरी मजबूरन सुदूर गांव से अपने एक दूर के रिश्तेदार के पास दिल्ली मे नौकरी ढूढने आ गया था । काफ़ी दिनो तक दर-दर की ठोकरें खाने के बाद, एक प्लेसमेन्ट एजेन्सी के मार्फ़त उसे दो महिने बाद, चितरंजन पार्क मे एक प्राइवेट लिमिटेड कन्सट्रक्सन कम्पनी मे चपरासी की नौकरी मिल गयी थी ।

नौकरी मिल जाने से हरी काफ़ी खुश था, वह दिल लगाकर अपना हर काम करता, कम्पनी के कर्मचारियों को समय पर चाय-पानी देना, उनके कुर्सी मेज पर दिन मे दो बार कपडा मारना, उनकी फ़ाइलों को तरतीब से और सजा कर रखना, इत्यादि । अत: वहां मौजूद सारा स्टाफ़ उससे काफ़ी खुश था । हरी ने गांव मे मां को भी खत लिखकर सूचित कर दिया था कि उसे दो हजार रुपये महिने पर एक नौकरी मिल गयी है , वह पैसे बचाने की पूरी कोशिश करेगा और फिर उनके खर्चे के लिये भी मनिआर्डर से कुछ रुपये भेजेगा।

कम्पनी का मालिक एक बंगाली सेठ था, काफ़ी तुनुक मिजाज । अभी हरी को नौकरी लगे बीस दिन ही हुए थे कि एक दिन दोपहर बाद दफ़्तर मे मालिक से मिलने के लिये दो-तीन लोग आये । हरी ने सेठ के केविन मे उन्हे जब पानी दिया तो सेठ ने उसे बाजार से जल्दी से चार सिंगाडे लाने को कहा । हरी दौडकर पास के एक नम्बर मार्केट मे गया, वहां मौजूद तीन-चार फल विक्रेतावो से उसने सिंगाडे के बारे मे पता किया, लेकिन किसी के पास नही था । एक फल विक्रेता ने कहा कि चुंकि अब सिंगाडे का सीजन खत्म हो गया है, अत: मिलेगे तो आगे कालका जी डीडीए फ्लैट के समीप की सब्जी मन्डी मे ही मिलेगे । हरी धूप मे पैदल ही दौडा-दौडा वहां गया और एक दुकान पर उसे कुछ सिंगाडे मिल गये । उसने पांच-छह सिंगाडे खरीदे और फिर उधर से चितरंजन पार्क जा रही एक बस पकड कर जल्दी से दफ़्तर पहुंचा । मगर वहां जाने और लौटकर आने मे काफ़ी समय लग गया था । सेठ अपने वातानुकूलित दफ़्तर मे बैठा, उसको गालियां दिये जा रहा था, उसको मिलने आये लोग भी जा चुके थे ।

हरी ने जल्दी से दफ़्तर की पेन्ट्री मे जाकर चार सिंगाडे एक प्लेट पर रखे और झट से मालिक के केविन मे ले गया और प्लेट मालिक की मेज पर रख दी । पहले से गुस्साये सेठ ने ज्यों ही प्लेट पर नजर दौडाई, वह आग बबूला हो उठा । हरी को अंग्रेजी मे गालियां देते हुए उसने प्लेट हरी पर फेकते हुए कहा, ये क्या लाया बास्ट्र्ड, मैने तो समोसे लाने को कहा था । फिर उसने अपने लेखाकार को बुला, तुरन्त हरी का हिसाब करने और उसे नौकरी से निकालने को कहा । डर के मारे थर-थर कांप रहा बेचारा हरी, इसी पसोपेश मे पडा था कि उसे अच्छी तरह से याद है कि मालिक ने तो उसे चार सिंगाडे लाने के लिये ही कहा था, उसके कान सुनने मे इतनी बडी गलती कैसे कर सकते है कि मालिक ने समोसे मंगाये हो और उसके कानो ने सिंगाडा सुना? बेचारे हरी को कौन बताता कि बंगाली मे समोसे को ही सिंगाडा कहते है ।

Tuesday, May 5, 2009

कलयुगी गुरु-शिष्य संवाद

हे गुरुजी, मुझ दास की,
विनय बस इतनी सुन लीजिये’
बात बडी गम्भीर है,
कृपया कान इधर कीजिये !

शाम को पढू,सुबह को चौपट,
याददास्त कमजोर क्यो?
आजीविका की लाईन मे ,
प्रतियोगिता का शोर क्यो ?

यह मुझे भी मालूम है गुरु,
कि  पृथ्वी सारी गोल है,
गोल है खोपडी मगर पास-लिस्ट से
अपना नम्बर क्यो गोल है?

गुरुजी ने कुर्सी खिसकाई,
खडे हुए, कान ऎठकर कहा, बेटा !
जवानी भर मस्ती मारी,
फिल्म देखी, आराम से रहा लेटा !

बिन तेरे फिल्म न देखने से,
मल्लिका शेरावत ,पिट तो न जाती,
अब अपना नम्बर गोल बताते हुए,
तुझे शर्म नही आती ?

अरे शर्म तो हमे आती है,
क्योंकि हम है तेरे गुरु,
अब पढाई के ख्वाब छोड,
कोई अवैध धन्धा कर शुरू !

बाहर दिखावे को देशी वस्तुवें,
अन्दर तस्करी का माल रखना,
जरुरत पर कभी-कभार अपने,
इस गरीब गुरु का भी ख्याल रखना !!

Monday, May 4, 2009

खिड़की !

दो हफ्तों से भारत और पाक के मध्य चल रहा घमासान युद्घ, अब निर्णायक मोड़ पर पहुँच चुका था ! फ्रंट पर मौजूद अधिकांश पाकिस्तानी सैनिक या तो मारे गए थे, या फिर एक-एक कर आत्मसमर्पण कर रहे थे ! उत्तर-पश्चमी सीमा पर तैनात भारतीय सेना की एक टुकडी ने पाकिस्तानी सैनिको के एक बंकर को घेर लिया था ! जब यह खबर फैली कि पूर्वी सीमा पर पाकिस्तान के लगभग सभी सैनिक आत्मसमर्पण कर चुके, तो वहा, उस बंकर में मौजूद पाकिस्तानी सैनिक भी हथियार छोड़कर, हाथ उठा आत्मसमर्पण के लिए आगे बढे !

मेजर शर्मा अपनी टुकडी का नेतृत्व करते हुए, पाकिस्तानी सैनिको के ऊपर धीरे-धीरे शिकंजा कस रहे थे, उनकी उस टुकडी में मौजूद दो जिगरी दोस्त, नायब सूबेदार सुरेन्द्र सिंह और हवलदार मोहन सिंह भी थे! मेजर शर्मा ने दोनों को पाक सैनिको के उस बंकर की उल्टी दिशा से जाकर, उसे घेरने के निर्देश दिए ! कवर फायरिंग का सहारा लेते हुए दोनों रेंगते हुए पाकिस्तानी बंकर के जब एकदम समीप पहुचे, तो तब तक पाक सैनिक हाथ खड़े कर आत्समर्पण के लिए आगे बढ़ चुके थे! अतः यह देख दोनों ने खुद को रिलैक्स महसूस किया और सीधे खड़े होकर पीछे से उन पर बंदूके तान, समर्पण वाले बिंदु की तरफ बढ़ने लगे कि तभी पीछे से एक और बंकर में छिपे बैठे पाकिस्तानी सैनिको ने फायरिंग खोल दी ! अप्रत्याशित इस हमले के लिए दोनों तैयार नहीं थे ! अतः सुरेन्द्र को दो गोलिया लगी और वह पहाडी ढलान पर लुडकता चला गया ! मोहन उसे बचाने के लिए उसके पीछे फिसलता हुआ चला गया! मगर इस बचाने के चक्कर में उसकी भी एक टांग बुरी तरह जख्मी हो गयी थी !

सेना की टुकडी ने दोनों को रेडक्रॉस की मदद से पहले आर्मी बेस अस्पताल पहुंचाया, और फिर उन्हें दिल्ली के आर्मी मेडिकल रिसर्च सेंटर में रिफर कर दिया गया था! सुरेन्द्र तो बुरी तरह से जख्मी था और कई दिनों तक जीवन म्रत्यु से संघर्ष करता रहा था, गोली लगने और फिर नुकीले पत्थरो पर गिरने से उसकी रीड की तथा अन्य हड्डिया बिलकुल टूट चुकी थी! वही दूसरी ओर मोहन की हालाकि एक पैर की हड्डी टूटी थी, किन्तु उसे कई दिनों के इस युद्घ की वजह से एक अजीब तरह की अस्थमा जैसी बीमारी ने भी घेर लिया था ! दोनों को रिसर्च सेंटर के एक कमरे में ही शिफ्ट कर दिया गया, जिसमे दो बेड़ लगे थे! मोहन का बेड़ खिड़की के पास था, जबकि सुरेन्द्र का दूसरे कोने पर, जहां कोई खिड़की नहीं थी ! सुरेन्द्र अन्दर ही अन्दर एकदम टूट चूका था, क्योंकि वह अब खुद उठकर बैठ नहीं सकता था! मोहन उसे दिलाशा देता रहता कि तू देखना, जल्दी एकदम ठीक हो जाएगा! मोहन का बेड़ चूँकि उस खिड़की के पास था अतः वह बिस्तर पर बैठकर, खिड़की से बाहर झाँककर, बाहर के ख़ूबसूरत नजारों का जिक्र सुरेन्द्र को करता रहता, ताकि उसका मन बहला रहे!

युद्घ ख़त्म हो चूका था, देश में जीत का जश्न था, और अब छब्बीस जनवरी भी आ गयी थी! सुरेन्द्र उदास मन से मोहन से कहता कि अगर अचानक यह युद्घ सिर पर ना आता, तो इस बार वह भी गणतंत्र परेड की टुकडी में परेड के लिए चुना गया था, और इस वक्त राजपथ पर होता ! मोहन उसे फिर दिलाशा देता और कहता कि देख इस हॉस्पिटल के ठीक सामने परेड की टुकडी बैंड के साथ कदमताल करते हुए जा रही है ! क्या तू बैंड की आवाज सुन पा रहा है ? सुरेन्द्र लेटे-लेटे अपनी काल्पनिक शक्ति के आधार पर परेड की दिमाग में छवि बनाता और कहता कि वैसे तो मुझे बैंड की आवाज नहीं सुनाई दे रही है, किन्तु मैं महसूस कर पा रहा हूँ कि परेड कैसे आगे बढ़ रही होगी !इस बार तो सैनिको में भी जीत की वजह से दोगुना उत्साह होगा !मोहन उसे दिनभर खिड़की से बाहर के सारे रंगीन नजारों की आँखों देखी सुनाता रहता ! सुरेन्द्र को कभी-कभार इस बात की ईर्ष्या भी होती, कि मोहन का बेड़ खिड़की पर है और वह बाहर का खुबसूरत नजारा देख पाता है, जबकि वह इस तरह एक कोने में है !

एक दिन रात को अचानक मोहन को तेज खांसी आयी और उसकी सांस अटक गयी ! वह इस स्थिति में भी नहीं रहा कि बेल दबाकर नर्स को बुला सके ! दूसरे कोने पर सुरेन्द्र भी यह सब देख रहा था, किन्तु वह तो हिलडुल भी नहीं सकता था कि वही कुछ मदद कर पाता ! देर रात जब डाक्टर राउंड पर आया, तो तब तक मोहन के प्राणपखेरू उड़ चुके थे ! शव को शिफ्ट करने के बाद, जब अगले दिन नर्स कमरे में आयी तो हालांकि सुरेन्द्र, मोहन की म्रत्यु पर दुखी था, किन्तु मोहन का बेड़ जो खिड़की पर था, वह खाली पडा था, अतः सुरेन्द्र ने झट से नर्स को उसका बेड़ मोहन वाले बेड़ पर शिफ्ट करते का आग्रह किया ! नर्स ने उसका बेड़ खिड़की पर शिफ्ट कर दिया ! वह मन ही मन खुस था! उसने किसी तरह कराहते हुए, छटपटाते हुए, कोहनियों के सहारे अपना शरीर खिड़की के बाहर का नजारा देखने के लिए ऊपर उठाया, तो वह यह देख स्तब्ध रह गया कि बाहर तो कुछ भी नहीं दिखाई देता था क्योकि खिड़की के एकदम आगे तो दूसरी बिल्डिंग की छत थी! तो क्या मोहन अपना दर्द भुलाकर , सिर्फ़ उसका मन बहलाने के लिए दिनभर उसे बाहर के खुशनुमा खयाली नजारे बस यूँ ही .....,सुरेन्द्र का मन भर आया था !!!

नोट: कहानी का थीम मैंने एक अंगरेजी कहानी से लिया है !

Saturday, May 2, 2009

लालची ब्लॉगर

मध्य-रात्रि का समय था। आसमान में घने-काले बादल रह-रहकर एक तेज कड़कन पैदा कर रहे थे । बिजली चमकती, तेज हवाए चलती, और उसके बाद फिर से बादलो की गडगडाहट । चौदह वर्षीय गूगुल प्रसव पीडा से छटपटाये जा रही थी, जिस इलाके में वह रहती थी, वहां से मुख्य शहर और नर्सिंग होम करीब ४० किलोमीटर दूर थे। अतः उसका मित्र माइक्रोसोफ्ट भी उसे घर से बाहर निकालने और अस्पताल पहुचाने में खुद को असहाय सा महसूस कर रहा था, क्योंकि तेज आंधी में सडको पर पेड़ गिरने और ड्राईव करने का ख़तरा वहाँ मौजूद था।

माइक्रोसोफ्ट अपने पास मौजूद एल सी डी प्रोजक्टर को अपने लैपटॉप से जोड़ सामने सफ़ेद दीवार पर यू ट्यूब की मदद से 'लाइव बर्थ' की वीडियो डॉक्युमेंटरी देख-देखकर, उसी प्रकार की हर संभव सहायता गूगुल को पहुचा रहा था। और आखिर वह घड़ी भी आ गयी, जब नन्हे मेहमान ने गूगुल की उस वृहत दुनिया में अपने कदम रखे। जब वह पैदा हुआ तो रोते हुए वह एक ही शब्द को बार-बार मुह से निकाल रहा था, ब्लॉग-ब्लाग-ब्लाग- ब्लॉग । अतः गूगुल और माइक्रोसोफ्ट ने प्यार से उसका नाम ब्लॉगर रख दिया।

ब्लॉगर धीरे-धीरे बड़ा होना शुरू हुआ, और शीघ्र ही वह अपने पैरो पर खडा हो गया। उसके युवा दिल में भी किसी कुख्यात ब्लौगर की भांति कुछ कर गुजरने की इच्छा थी। वह एक अच्छा साहित्यकार भी बनना चाहता था। उसने लगन के साथ लेखन की दुनिया में कदम रखा और कुछ उम्दा लेख, कविताएं और कहानिया लिखी । किन्तु उसके भाग्य में तो कुछ और ही लिखा था। एक दिन जब वह फुरसत पर अपने कंप्युटर पर इन्टरनेट सर्फिंग कर रहा था तो उसे एक साईट नजर आई । यह साईट अनेक धुरंदर ब्लागरो के चिट्ठो से पटी पडी थी। उसने देखा कि लोग पैसा कमाने के लिए क्या-क्या नहीं कर रहे थे। अतः उसका मन भी अमीर बनने के ख्वाब देखने लगा। उसने अपनी माँ, गूगुल की मदद से इन्टरनेट पर अपना भी एक खाता खोल डाला और अपने सभी लेखन वहां हस्तांतरित कर दिए । बस फिर क्या था, यकायक टिप्पणियों की मानो बाढ़ सी आ गयी। ब्लागर काफी खुश था, उसे आर्श्चय होता था कि जिसे वह अपना घटिया से घटिया लेख समझता था, लोग उस पर भी अपनी टिपण्णी देकर वाह-वाह करते थे, और साथ ही उसे अपने ब्लॉग पर आने को भी आमंत्रित करते थे।

अपरीपक्व ब्लोगर के दिमाग में यह देख अनेको प्रश्न उठते थे, वह हिंदी के अलावा पहाडी भाषा, बिहारी और ब्रज भाषा में भी लेख लिखता था, और उसे यह देख कर हैरानी होती थी कि ये लोग वहाँ भी अपनी टिपण्णी देकर वाह-वाह करते थे, और उसे अपने ब्लॉग पर आने को भी कहते थे। वह सोचता था कि ये लोग कितने ज्ञानी है जो इतनी भाषाओ को पढ़ और समझ सकते है । लेकिन उसका भरम शीघ्र ही टूट गया । चूँकि वह लोगो के ब्लॉग पर बहुत सोच-समझकर ही टिपण्णी देता था, इसलिए सभी ब्लोगर उससे रूठ गए और टिप्पणिया आनी बंद हो गयी । उसने जब इसका राज अपनी माँ गूगुल के पास से ढूंडा तो यह जानकर उसकी बांछे खिल गयी कि यहाँ भी एक तरह का अलग लोचा है, ये सब पैसे कमाने के पांसे है, लोग इसलिए उसे अपने ब्लॉग पर आमंत्रित करते है ताकि अधिक से अधिक लोग उनके ब्लॉग पर विजिट करे और यदि महीने में १००० से ऊपर लोग उनकी साईट पर विजिट करते है तो विज्ञापनदाता कंपनी (ऐडवरटायीजिंग एजेन्सी) से उनके पैसे पक्के।

ब्लोगर को भी लालच आ गया, और उसने भी वही हथकंडे अपनाने शुरु किये जो कुछ वह अपने गुरुओ से सीखा था। बस फिर क्या था उसका ब्लॉग एक बार फिर से टिप्पणियों से पट गया था। वह भी बिना सोचे और किसी के ब्लॉग को पढ़े बगैर ही धडाधड टिप्पणिया देता था, और पाता था । खासकर नए-नए आये ब्लोगरो पर उसकी ख़ास नजर रहती थी। उसकी यह सब हरकते देख, एक बार उसके एक मित्र ने उसे समझाने की भी कोशिश की कि टिपण्णी देना और किसी को प्रोत्साहित करना एक अच्छी बात है, लेकिन यह कहा तक उचित है कि तुम झूटमूठ में किसी के लेखन की तारीफ़ सिर्फ इसलिए करो, ताकि वह भी तुम्हारे ब्लॉग पर आये और तुम पैसे कमा सको ? वहाँ टिपण्णी दो और तारीफ़ करो, जहा लगे कि वाकई तारीफ़ करने लायक कोई चीज है और अगर वह लेखन में कोई गलतिया कर रहा है तो उसे उसकी कमियों की तरफ इशारा करो ताकि वह खुद को सुधार सके।

लेकिन लालची ब्लोगर पर कहाँ इसका कोई प्रभाव पड़ने वाला था, उसे तो दिन-रात बस टिपण्णी ही नजर आती थी । मगर कहावत है कि झूट की बुनियाद पर खडा महल ज्यादा दिन नहीं टिका रह पाता। ठीक वही ब्लोगर के साथ भी हुआ । लोग धीरे-धीरे उसकी हरकतों को समझने लगे और टिप्पणियाँ देना बंद कर दिया। लालची ब्लोगर का धंधा धीरे-धीरे ठप्प पड़ गया और इसी चिंता में उसका स्वास्थ्य भी गिरने लगा। जब एक दिन उसकी तबियत बहुत बिगड़ गयी तो गूगुल उसे डाक्टर याहू के पास ले गयी। पूरे परीक्षणों के बाद डाक्टर याहू ने बताया कि उसे लाइलाज रोग ब्लॉग-फ्लू हो गया है ।

और एक दिन जब गूगुल इस बात से बेहद खुश थी कि उसको दुनिया के एक सर्वोत्तम ब्रांड से नवाजा गया है और वह अपने दोस्त माईक्रोसोफ्ट के साथ जश्न की तैयारियों में जुटी थी कि फिर से ब्लोगर की तवियत बिगड़ गयी और वह वक्त भी आ गया, जब एक सुखद उत्पति का दुखद अंत सामने था। ब्लोगर अपनी अंतिम साँसे गिन रहा था और टिपण्णी मांग रहा था। वह बार-बार टिपण्णी-टिपण्णी शब्द मुह से निकाल रहा था, मगर वहाँ उसको टिपण्णी देने कोई नहीं आया । गूगुल एक कोने में खड़ी भीगी पलकों से ब्लोगर को निहार रही थी और माइक्रोसॉफ्ट, गूगुल को दिलाशा देते हुए, किशोर दा का अमर प्रेम का वह गीत गुनगुना रहा था;
कुछ रीत जगत की ऐसी है, हर एक सुबह की शाम हुई
तू कौन है, तेरा नाम है क्या, सीता भी यहाँ बदनाम हुई
फिर क्यूँ संसार की बातों से, भीग गये तेरे नयना
कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना
छोडो बेकार की बातो में कहीं.....................!

-गोदियाल

सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...