Monday, November 30, 2009

ये दुनियां चलायमान है मूरख!



इस कदर करता
किस बात पर अभिमान है ,
ये दुनियां चलायमान है मूरख,
ये दुनियां चलायमान है।

भाई-भतीजा, गांव-गदेरा,
जाना तय है 
और 
अन्तकाल मा कोई न तेरा,
फिर  किस बात का,
तुझे इतना गुमान है।
ये दुनियां चलायमान है मूरख,
ये दुनियां चलायमान है।


अच्छा -बुरा  नीति-अनीति ,
इनमे से ही है तय करना,
निष्पादन  जैसा ,
प्रतिफल भी वैसा ही भरना,
कुछ ऐसा ही जगत का
अपना एक  विधान है।  

ये दुनियां चलायमान है मूरख,
ये दुनियां चलायमान है।



चरित्र मुट्ठी में बंद बालू  है  

फिसल न जाये,पकड के रख,
 प्रतिष्ठा  गतिवान है  
खिसक  न जाए ,जकड के रख,
लोभ  की आंधियो में
जो डगमगाये वो ईमान है।  

ये दुनियां चलायमान है मूरख,
ये दुनियां चलायमान है 

सरकार द्वारा प्रायोजित दीखती है मंहगाई !

इसमे कोई सन्देह नही कि आज दुनिया भर मे छाई इस मंदी और मंहगाई ने सारे ही अर्थशास्त्र की परिभाषाओं को उलट-फेर कर रख दिया है । अर्थशास्त्रीयों द्वारा दी गई परिभाषाओं के मुताविक आर्थिक मंदी के दौर मे लोगो की क्रय करने की क्षमता कमजोर पड्ती है , जिससे उचित ग्राहक न मिलने की वजह से वस्तुऒ और सेवाऒ के दामों मे गिरावट आती है। लेकिन आज हकीकत मे तो स्थित ठीक इसके विपरीत दीखती है, आर्थिक मंदी भी है और मह्गाई भी, यानि सब उलटा-पुल्टा। जहां एक ओर इसके लिये तेजी से बढती जनसंख्या और लोगो के जीवन स्तर मे सुधार को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, वही दूसरी ओर इसका एक प्रमुख कारण है, जमाखोरी और असंगत और अनुचित वितरण प्रणाली। मगर इन सबसे ऊपर है सरकारों का गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार, और इसे रोकने के लिये इच्छा शक्ति का अभाव ! दिखावे के लिये भले ही हमारी सरकार, महंगाई के सम्बंध मे घडियाली आंसू बहा रही हो, लेकिन हकीकत यह है कि सरकार इस सम्बंध मे कतई गम्भीर नही ! इसे एक उदाहरण से इस तरह समझा जा सकता है कि अन्य सालों के मुकाबले इस साल भी टमाटर के उत्पादन मे कोई उल्लेख्नीय गिरावट नही आई, बावजूद इसके पिछले सालों के मुकाबले इस साल टमाटर के दामों मे छह गुना से अधिक की बढोतरी हुई है, आपको शायद याद हो कि गत वर्षो मे इस नवम्बर-दिसम्बर के सीजन मे टमाटर पांच और दस रुपये प्रति कीलो की दर पर बिकता था, जबकि आज यह तीस से साठ रुपये प्रति कीलो की दर पर मिल रहा है! इसके पीछे सरकार की एक मंशा यह भी हो सकती है कि वर्तमान ग्लोबल स्थिति की आड मे लोगो को इस मह्गाई मे ही उलझाकर रखा जाये, ताकि ज्वलन्त मुद्दो से जनता का ध्यान हटाया रखा जा सके !







ग्राह्कों को चूना लगाती सरकारी फोन कम्पनियां !
बडे-बडे दावे, ग्राहकों को लुभाने के बडे-बडे वादे । पचास पैसे मे लोकल कौल,एक रुपये से डेड रुपये प्रति मिनट मे एस टी डी कौल, मगर सच्चाई क्या है, आइये आज हुए एक तजुर्बे से बताता हूं ! य़ों तो इन छोटी-छोटी बातों पर गौर फरमाने का वक्त ही नहीं मिलता, मगर जब गौर फरमाया तो लगा कि स्थिति भयावह है, हर कोई यहां लूट-खसौट मे व्यस्त है, क्या सरकारी क्या निजी। मेरे पास घर पर तीन मोबाईल फोन है, जिनमे से दो एयरटेल के सिम से सुसज्जित है, जबकि एक मे एम टी एन एल का कनेक्शन है ! मेरा एक नजदीकी रविवार सुबह ठीक ग्यारह बजे मुझे चण्डीगढ से फोन करता है, लेकिन दूसरे फोन पर व्यस्त होने के कारण मैं उसे उठा नही पाता ! दूसरे फोन पर बातचीत खत्म होने के बाद जैसे ही मै देखता हूं कि उस फोन पर चण्डीगढ से फोन था, मैं एम टी एन एल वाले मोबाईल फोन से उसे चन्डीगढ फोन मिलाता हूं ! उसके मोबाइल पर बेल जाने का इन्तजार कर ही रहा था कि उसी का मेरे दूसरे एयरटेल वाले मोबाईल पर फिर से फोन आ गया। मैने एम टी एन एल के फोन को डिसकनैक्ट किया और एयरटेल वाले फोन पर उससे बाते की ! कुछ देर बाद जब बात खत्म हुई और मैने फोन डिसकनैक्ट किया और मेरी नजर दूसरे हाथ मे पकडे एम टी एन एल वाले फोने के स्क्रीन पर पडी तो मै दंग रह गया, उसमे आये उस मैसेज को देखकर, जिसमे लिखा था कि आपके प्रीपेड बैलेंस मे से फोन कौल के तीन रुपये काटे गये है। मैने एम टी एन एल वाले फोने से वही नम्बर तो मिलाया था जिस नम्बर से उस नजदीकी रिश्तेदार ने खुद मेरे दूसरे मोबाइल पर फोने किया था, फिर तीन रुपये किस बात के ? इस बाबत कस्ट्मर केयर मे फोन मिलाने की कोशिश की, मगर सब नदारद ! बस यही कह सकता हूं कि जागो ग्राहक, जागो !!



Saturday, November 28, 2009

सांख्यिकी और संभाव्यता !



ठुमकते हुए चलते ,
तुम्हारे पैरो के
तलवों की सरगम 
और 
नूपुरों की छम -छम से 
मेरे दिल की गहराइयों में
छुपे भावो को ऐंसी
गूढ़ शब्दीय काव्यता  मिल जाती  है !



मानो, जैसे कभी 
धूल पोंछते वक्त शेल्फ में रखी  
सांख्यिकी की किताबों से, 
नीचे गिरती शुष्क फूल की 
पंखुड़ियों  की गणना करते 
किसी के बेइंतिहा  प्यार  की
प्रबल संभाव्यता मिल जाती  है !!

कुर्बानी लेना ही नहीं, देना "भी" सीखो !

मैं, हूँ तो निहायत ही एक भोला-भाला, सीधा-साधा सा ग्रामीण, मगर उस दुश्मन की बड़ी इज्जत करता हूँ, जो मान लो कि मुझे ख़त्म करने की इच्छा रखता हो और आकर कहे कि मैं तुम्हे मारना चाहता हूँ ! खुले मैदान में आ जावो, एक तलवार या कोई भी हथियार मेरे पास है, एक तुम पकड़ लो और दो-दो हाथ कर लेते है ! तुम जीते तो तुम जियो, मैं जीता तो मैं जिऊंगा ! और नफरत करता हूँ मैं उस कायर से, जो छुपकर वार करता है, किसी बच्चे या स्त्री को ढाल बना के और अपने को वीर समझता है! कुछ तथा-कथित विद्वान लोग, जो यह तर्क देते फिरते है कि दुश्मन को टैक्टफुली मारना ही समझदारी है, उसे प्रतिघात का मौका ही मत दो! ऐसे विद्वान अगर ज़रा सी भी ईमानदारी से अपनी गिरेवान में झाँक के देखे, तो पायेंगे कि दूसरो को भले ही वे विद्वतापूर्ण सन्देश दे रहे हो, मगर खुद है, बुजदिल और कायर ! यदि हर छलपूर्ण कार्य समझदारी है, तो किसी बैंक की दीवार पर जब कोई चोर सेंध लगाता है और खजाना लूटता है तो उसे चोरी की संज्ञा क्यों दी जाती है, उसने भी तो विद्वता पूर्वक वह काम किया ?

खैर, यह तो थी प्रस्तावना, अब असल बात पर आता हूँ! आप लोग तर्क देंगे कि वैसे भी तो हम मांसाहारी है, और दुनिया में रोजाना करोडो पशु पक्षी कटते है ! इस तर्क पर आप बिलकुल सही है, चूँकि दुनिया का दस्तूर है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है ! लेकिन यह कितनी बकवास वाली बात है कि हम लोग आज के इस शिक्षित युग में भी युगों पुरानी उस बेहूदी प्रथा को निभा रहे है, जहां भगवान् , खुदा और ईशा के नाम पर हम निरीह प्राणियों को बेरहमी से सिर्फ इसलिए मार देते है कि ताकि इससे हमारा भगवान्, खुदा और गौड़ हम पर खुश हो जाए और इसे नाम देते है कुर्बानी का ! मगर मैं कहता हूँ कि इस तरह की बेहूदी हरकते करने वाला कोई एक हिन्दू, मुसलमान या इसाई यह प्रमाणित करके दिखा दे, कि उसके भगवान् ने ही उसे ऐसा करने को कहा और ऐसा करने से उसका खुदा या भगवान् खुश हो रहा है ! आखिर आप किसकी कुर्बानी दे रहे हो? इतने ही वीर पुरुष हो तो भगवान् या खुदा के चरणों में अपनी गर्दन काट कर डालो, तब निश्चित तौर पर ऊपर वाला तुम पर खुस होगा ! मगर कुर्बानी के लिए दूसरे की ह्त्या, अरे मूर्खो, तुमसे बड़ा कोई पापी तो इस दुनिया में हो नहीं सकता और यदि तुम यह उम्मीद लगाते हो कि इससे ऊपर वाला खुश होगा तो तुम लोग महा मूर्ख हो ! उत्तराखंड के पहाडो में देवी देवताओ के मंदिरों में बलि प्रथा थी, जब लोग अनपढ़ गवार थे! एक-आद अपवादों को छोड़, आज सारे मंदिरों में सालों से बलि प्रथा बंद हो चुकी है, अब सिर्फ फूल-प्रसाद ही चडाया जाता है, (अफ़सोस कि नेपाल जैसे अशिक्षित देश में अभी यह प्रथा जारी है) ! तो क्या वहा के वे देवी-देवता भूखो मर गए ? या वहां के लोगो पर खुश नहीं ? कोई एक तो प्रमाण बता दो !


निरीह पशु की कुर्बानी, ले रहे है बेरहमी से, दे नहीं रहे !



नेपाल के मंदिर में चड्ती भैंस की आँखों से छलकता दर्द और हम सोच रहे है की भगवान इससे खुश हो रहे है, क्रूरता और मूर्खता की इंसानी हदे !



डेनमार्क में ख़ास अवसर पर बेरहमी से व्हेल का क़त्ल कर सागर को ही लाल बना दिया जाता है!


इच्छा अपनी होती है, खून के प्यासे खुद है, और नाम घसीटते है, भगवान्, खुदा और गोड़ का ! कुर्बानी देने का इतना ही शौक है तो अपनी क्यों नहीं दे देते ? कुछ लोग कहते है कि हमने मजहब के लिए अपने बेटे की कुर्बानी दे दी, शायद कसाब का अब्बू भी यही कहता होगा, लेकिन सच्चाई क्या है, सब जानते है ! आज के ज़माने में बेटे की कुर्बानी देने वाले भी कई कलयुगी माता पिता मौजूद है ! अभी कल का मुंबई का किस्सा ताजा है जिसमे एक कलयुगी माता अपने प्रेमी के साथ गुलछर्रे उड़ा रही थी और प्रेमी उसके मासूम बच्चे को सिगरेट से जला रहा था, उसी के सामने ! पता नहीं कब हम लोग सही मायने में शिक्षित कहलायेंगे !

Thursday, November 26, 2009

आह्वान- उठ, जाग मुसाफिर जाग !

कद्र जहां शान्ति की हो , वहां शान्ति का इजहार कर,
किंतु, वैरी  न माने प्यार से  तो, पलटकर  वार कर।

हम तो 
सदा से शान्ति के, पथ पर ही चलते आये है,

किन्तु ऐवज मे अमूमन,जख्म ही देह ऊपर पाये है,
जिल्लत उठाई है बहुत,मुगल,फिरंगियो से हारकर,
अब अगर वैरी  न माने प्यार से ,पलटकर वार कर।  

आखिर इसतरह कब तक सहेंगे ,जुल्म सहना पाप है,
है दुष्ट-दानव दर पे बैठा, जो मानवता पर 
अभिशाप है,

छद्म युद्ध थोंपा है हमपर ,निरपराधों का नरसंहार कर,
अब अगर वैरी  न माने प्यार से ,पलटकर वार कर।  

बेइंसाफी की आहटों पर, चुप  न बैठों  नजरें फेरकर ,
 दुश्मन लगे लांघने हदें जब , तो मोरो उसे घेरकर,
पहल खुद से ना हो अन्याय की, ऐंसा व्यवहार कर

अब अगर वैरी  न माने प्यार से ,पलटकर वार कर।   


दिन प्रतिदिन दुश्मनो का हौंसला,हो रहा उन्मत्त है,
उठ, जाग मुसाफ़िर जाग, अभी भी पास तेरे वक्त है,

कोई समझे न बात को शिष्टता से, उससे तकरार कर,
अब अगर वैरी  न माने प्यार से ,पलटकर वार कर।  

Wednesday, November 25, 2009

क्या आपका खून नही खौलता ?


आप इस बच्ची को देख रहे हो न, इस मासूम का दोष सिर्फ इतना था कि इसने आप और हम जैसे कायरो के देश में जन्म लिया ! और पड़ोसी मुल्क के कुछ राक्षसों ने इसका स्वागत बमों और गोलियों से किया !


आप इस माँ को देख रहे हो न ? आप नहीं देख पायेंगे, क्योंकि आप तो जन्मान्ध हो ! अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड से जब अपने इकलौते बच्चे की लाश पर विलखते हुए इसकी छट्पटाती अंतरात्मा की वेदना दहाड़े मार- मार कर रो रही थी, तो अगल-बगल की दीवारों की रूह भी पसीज गई थी! मगर आप कहाँ से सुनते, आप तो जन्मजात बहरे हो ! इस जैसी पता नहीं कितनी मांये जिनका बेटा-बेटी भी आतंकवाद की भेंट चढ़ गये, वह कुछ दिनों तक फूट-फूट कर रोंयीं और अपने भाग्य को कोसती रही, और फिर आखिर दिल पर पत्थर रख कर खामोश हो गई ! मगर चाहते हुए भी आप जैसे वीर पुरुषो, जो कि हरवक्त अभेद सुरक्षा कवच और कालेवर्दी धारी कमांडो से घिरे रहते हो, का कुछ नहीं बिगाड़ सकी! और आपने सोच लिया कि चलो इस बला से भी पिंड छूटा, किसी को कोई जबाब नहीं देना पडा ! लेकिन आपको शायद मालूम न हो कि एक असहाय, कमजोर और निर्दोष की 'बद-दुआ' और दिल से निकली 'हाय' कितनी शक्तिशाली होती है ! परमाणु बम से भी घातक ! वे देर-सबेर अपना विस्फोट करके ही दम लेती है ! वो जो कहते है न, कि किसी की बद-दुआ या हाय मत लो - वह एक इंसान तो क्या, पुरी कायनात - मुल्क - देश - आलम को ख़त्म कर देती है, उतनी उसमे ताकत होती है ! और उसमे फैंसला या प्रतिघात कोई इंसान नही, ख़ुद खुदा करता है ! उसकी लाठी देर से भले ही चले, लेकिन चलती सटीक है, याद रहे !


बहुत पहले एक पाकिस्तानी लेखक का लेख पढा था, और उसके ये शब्द पसंद आये थे कि इस दुनिया में मुफ्त का भोजन जैसी कोई चीज नहीं, हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है, चाहे वह युद्घ लड़ना हो, आक्रमण करना हो, अथवा कब्जा करना हो, हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है, वह भी खून से ! जब लन्दन में ७/७ का आतंकवादी हमला हुआ था तो पाकिस्तानियों का पहला सवाल था कि ब्लेयर सरकार कैसी मुस्लिम आतंकवादियों को इसके लिए सीधे जिम्मेदार ठहरा सकती है, क्या प्रूफ़ है उनके पास इसके ? फिर कुछ रोज बाद जब यह लगने लगा की हाँ, मुस्लिम आतंकी ही उस हमले के पीछे थे तो पाकिस्तानियों ने सुर बदला और पूछा कि आप कैसे कह सकते हो कि इसके पीछे पाकिस्तानी नौजवान शामिल है? और फिर कुछ दिनों बाद हमने कहा कि पश्चिम के देश तो हर आतंकवादी घटना के लिए पाकिस्तानी को ही जिम्मेदार ठहराते है !...... एकदम सटीक बात कही थी उस लेखक ने ! सच्चाई को सामने आने में थोड़े सी देर जरूर लगती है, मगर सच्चाई सामने आती ही है, और यही पाकिस्तान में हुआ ! आज पाकिस्तान में क्या हो रहा है, वह सब जग जाहिर है !



खैर, वे तो अपने कर्मो का भुगत रहे है, लेकिन जिन निर्दोषों ने साल भर पहले, और समय-समय पर उनकी वजह से मुंबई और देश के अन्य भागो में भुगता , उन्होंने कौन से पाप किये थे ? बस, उनका पाप तो यही था कि उन्होंने हमारी इस धरती पर पाकिस्तान के छद्म युद्ध को झेला ! लेकिन फिर सवाल उठता है कि क्या छद्म युद्ध झेलने के लिए निर्दोष जनता ही जिम्मेदार है? आप लोगो की कोई जिम्मेदारी नहीं जो उस आक्रमण को रोकने के लिए सीधे और परोक्ष तौर पर जिम्मेदार थे ? आपको क्या सजा मिली ? आपको जनता ने अपनी और से देश की रक्षा और सुशासन चलाने का उत्तरदायित्व सौपा था, मगर आप तो "उत्तरदायित्व " जैसे शब्द को ही कचरे के डब्बे में डाल, निर्वाचित होने के बाद नेता या मंत्री के तौर पर सिर्फ हक़ जतलाकर सरकारी खजाने और मशीनरी के दुरुपयोग को ही अपने निर्वाचन का अर्थ समझ लेते है! जो सुरक्षा जनता को देनी चाहिये थी, उस सुरक्षा को खुद के लिए हड़पे बैठे हो ! पैसा और राजकर्म की गन्दगी का घमंड आज आपके दालानों और दफ्तरों में जगह-जगह पसरा पडा है !


रही शत्रु से लोहा लेने की बात, तो ऐसा प्रतीत होता है कि हम दुश्मन के साथ बार-बार एक ही युद्घ लड़ रहे है ! लगता है कि हम दुश्मन की मंशा और रणनीति को समझने की कोशिश ही नहीं कर रहे, यही वजह है कि हमने दुश्मन को मुहतोड़ जबाब देने में ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई ! जब हम हिम्मत और साहस की बात करते है तो हमारे इस साहस के प्रतिफल मे कंधार श्री जसवंत सिंह नहीं, हमारी सेनाये और तोपे जाती, कारगिल के बाद जैसा कि अंदेशा जताया जा रहा था कि मुशर्रफ परमाणु बम इस्तेमाल कर सकता था, तो या तो हम रहते, या फिर पाकिस्तान ! और तो और पार्लिआमेंट पर हमले के तुंरत बाद इस्लामाबाद पर हमारी तथाकथित लम्बी दूरी तक मार करने वाली मिसाइले गिरनी चाहिए थी, मगर अफ़सोस कि वह तो दूर, हम मृत्यु दंड पाए उस आतंकी को भी पाल-पोष रहे है जो इस आक्रमण के लिए जिम्मेदार था ! आज भले ही हममे से कुछ लोग यह तर्क दे कि हमने सब्र से काम लिया जिसका नतीजा है कि पाकिस्तान हम न जाकर, वे खुद ही आपस में लड़ मर रहे है, मगर इससे हमारे कर्त्व्य की इतिश्री और पौरुष का प्रदर्शन तो नही हो जाता, दुश्मन इसे हमारी कमजोरी और कायरता समझ बार-बार वैसे ही हमले करने को तत्पर है ! इससे अफ़सोस जनक क्या हो सकता है कि हम एक साल पहले अपनी व्यावसायिक राजधानी मुंबई पर हुए शर्मनाक हमले में पुख्ता सबूत होने के बाबजूद भी कुछ नहीं कर पाए, और आज इस डर से पतले हुए जा रहे है कि कहीं पाकिस्तानी एक बार फिर हम पर वैसा ही हमला न कर दे ! खैर, यह सब करने के लिए पीठ पर एक मजबूत रीढ़ चाहिए होती है, उह ....! मगर जहां कर्ण्धारो की जिंदगियां खुद वेंटीलेटर के सहारे चल रही हो, वहा ऐसी उम्मीद कहां तक जायज है ?


और अन्त मे : कर्नाटका/ केरल के शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन, उत्तराखंड के शहीद हवलदार गजेन्द्र सिंह और मुंबई तथा महाराष्ट्रा पुलिस तथा रेलवे सुरक्षा बल के उन सभी वीर जवानो को मेरी श्रदांजली और शत-शत नमन, जिन्होंने अपने प्राण इस हमले का मुकाबला करने में न्योछावर किये !

(चित्र विभिन्न स्रोतों से साभार संकलित )


Tuesday, November 24, 2009

और हमारे संचार माध्यम कब सुधरेंगे ?

आज एक खबर पढी, पढने के बाद अपने देश के संचार माध्यमों पर बड़ा गुस्सा आ रहा था ! करीब महीना भर पहले आपने भी यह खबर पढी होगी:
लखनउ, 29 अक्टूबर :भाषा: गाजियाबाद जिले के साहिबाबाद थाना क्षेत्र में आज पुलिस ने 50 हजार रूपये के इनामी बदमाश रवीन्द्र त्यागी को मुठभेड़ में मार गिराया।........... इसके बाद जवाबी फायरिंग में बदमाश मारा गया, जबकि उसकी गोली से उपनिरीक्षक अनिल कपरवान तथा तीन सिपाही परमजीत सिंह, आदित्य और तेजपाल घायल हो गये, जिनमें से कपरवान और परमजीत को अस्पताल में भर्ती कराया गया है।

खबर यह थी कि उचित चिकित्सकीय सहायता न मिल पाने के कारण घायल सिपाही परमजीत सिंह की अपने पैत्रिक गाँव में कल मृत्यु हो गई ! जिस दिन यह घटना घटी थी, मैं भी गा.बाद में करीब डेड घंटे तक जाम में फंसा रहा था, इसलिए इस घटना का वाकया मेरे दिमाग में था! यह जानकार बड़ा अफ़सोस हुआ कि जिस जाबांज ने एक अपराधी को दबोचने में अपनी जान की बजी लगा दी, उसे हम उचित चिकित्सकीय सहायता नहीं उपलब्ध करा पाए ! फिर यह देश किस आधार पर किसी जाबांज अफसर या जवान से यह उम्मीद रखे कि वह अपने कर्तव्य को अंजाम देने में जी-जान लगा दे ?

और तो और इस घटना के अगले दिन आस-पास के लगभग सभी अखबारों और मीडिया ने बदमाश रविन्द्र त्यागी के घर जाकर उसकी बीबी का इंटरव्यू लिया और प्रमुख पृष्ठों पर उसे जगह दी ! जिसमे उसने आरोप लगाया था कि उसका पति मुठभेड़ में नहीं बल्कि चांदनी चौक से पुलिस द्वारा उठा कर लाया गया और फिर पुलिस ने उसकी ह्त्या कर दी! उसके इस ऊलजुलूल इंटरव्यू के लिए इनके पास समय है, पुलिस पर छींटा- कसी करने के लिए समय है , उसके कामो पर उंगली उठाने के लिए समय है, लेकिन उस एक घायल सिपाही के हाल-चाल पूछने का समय किसी के पास नहीं कि उसे कोई कमी तो नहीं ?...... माना कि कुछ केसों में पुलिस वालो की भूमिका संदिग्ध होती है मगर उसकी जांच कर तत्काल सही गलत का निर्णय लेने वाले ये संचार माध्यम होते कौन है? इससे क्या प्रेरणा लेकर एक सिपाही आगे से किसी क्रिमिनल को पकड़ने की जुर्रत करेगा ? हम पता नहीं यह क्यों भूल जाते है कि वह पुलिस वाला भी तो हमारे ही समाज का एक हिस्सा है, उसे अनैतिकता की राह पर चलना भी हमारे ही समाज ने सिखाया है, ज्यादातर उलटे ख्याल और आइडिया भी इन्ही संचार माध्यमो से सीखने को मिलते है, और ये संचार माध्यम कितने दूध के धुले है? आज निष्पक्षता के नाम पर ये जो गंदा खेल खेल रहे है उसकी सुगबुगाहट समाज में हर शिक्षित तबके में महसूस की जा रही है! जरुरत है इन्हें अपने गिरेबान में झांकर देखने की और उसमे सुधार लाने की, वरना इस आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आगे चलकर शिव सैनिको की तर्ज पर देश का हर एक सैनिक इनके खिलाफ खडा हो जाए !

क्या ही अच्छा होता कि अखवार सिर्फ आलतू फालतू खबरों से पन्ने रंगने की बजाये, अखबार का पन्ना कोरा छोड़कर लिख दे कि हमें खेद है कि समाचार अधिक न होने की वजह से यह पेज कोरा छोड़ा जा रहा है ! या फिर आजकल दुनिया भर के अच्छे से अच्छे लेख ब्लोगरो के ब्लोग्स पर है उन्हें स्थान देते साथ ही खबरिया चैनल भी बजाये मसालेदार खबरों के जिनका कि कोई सर पैर नहीं, लोगो को बताने के लिए प्रयाप्त समाचार न होने पर पुराने गाने और गीत सुनाये ताकि लोगो का सही मनोरंजन हो ! बच्चो के लिए पाठ्यक्रम से सम्बंधित प्रोग्राम चलाये ताकि आने वाली पीढ़िया इनसे कुछ अच्छा सीखे !

Monday, November 23, 2009

फिर सनक गया दिमाग कार्टून बनाने को.....







ट्वींकल-ट्वींकल औल दि नाईट !

रविवार की व्यस्तता की वजह से कल रात को कुछ खास नही लिख पाया ! लोग कहते हैं कि इंसान का कबाडी(साहित्यिक) दिमाग पैदाइशी होता है, एक हास्य (पैरोडी कहना पता नही कहां तक उचित होगा, मुझे नही मालूम) तब लिखी थी, जब नौवीं-दसवीं मे पढ्ता था ! और मेरा तो यह मानना है यह एक ऐसी पोएम थी, जिसे ज्यादातर लोगो ने समय-समय पर अपने तरीके से भिन्न-भिन्न रूपों मे प्रस्तुत किया, आइये आपको भी सुनाता हूं! कुछ व्याकरण की गलतियों को जो उस समय पर मेरे हिसाब से सही थी, मैने उनमे सुधार नही किया, शब्द अगर अशोभनीय लगे तो अग्रिम माफ़ी !

ट्वींकल-ट्वींकल औल द नाईट
जीरो वाट की धुमली लाईट
वन मिड नाईट वेन माई वाइफ़ वज
डीपली सिलेप्ट ऐट माई लेफ़्ट साईड
सपने मे सी सौ अ पिक्चर,
ऐज वह ट्रैवलिंग इन अ ऐयर फ़्लाईट
जिसमे सौ हर मोस्ट ब्युटी,
भेरी डेंजरस अ ग्रीडी काईट
हर ब्युटिफुल फ़ेस हैड डर के मारे,
तुरन्त बिकेम फ़्रोम रेड टु वाईट
ऐट लास्ट जब काइट रीच्ड नियर हर,
बचाओ-बचाओ ! सी क्राईड
मै जागा ऐन्ड वोक्ड हर अप
बाय हर आर्म्स सी होल्ड मी वेरी टाईट
सुन कर हर व्वाइस अवर पडोसी,
सोचा दिस कि दे हैव अ फाईट
पर जब दे पीप्ड विन्डो से अन्दर,
बोले, अच्छा फूल बनाया राइट-राइट
ट्वींकल-ट्वींकल औल द नाईट
जीरो वाट की धुमली लाईट

Saturday, November 21, 2009

लघु कथा- परवेज

आज मुझे छुट्टी से लौटकर अपनी यूनिट आये पूरे आठ महीने बारह दिन हो गए, लेकिन साले, तूने इस दौरान मुझे एक भी ख़त नहीं लिखा ! यहाँ हमारे पास इ-मेल भेजने का कोई साधन नहीं , इसका मतलब यह तो नहीं कि तू ख़त भी न लिखे ! तुझे याद हो न हो, लेकिन मुझे अच्छी तरह से याद हैं वो कॉलेज के दिनों की बाते, और वो पी. सी. की फुल फॉर्मस, सारी की सारी ....! अगर मैंने एक-एक कर कभी भाभी जी को सूना दी
तो फिर रोयेगा, मैंने बता दिया ! अगर बचना चाहता है तो हर महीने कम से कम एक ख़त मुझे जरूर लिख दियाकर ! साले, एक तू और रेखा ही तो हैं मेरे इस दुनिया में, जिन्हें मैं दिल की हर बात बता पाता हूँ, और मन का बोझ हल्का कर पाता हूँ!

आज फिर से इस पत्र के माध्यम से, तुझे मैं अपने दिल की एक और बात बताना चाहता हूँ ! सोचा था कि यह बात मैं अभी अपने ही दिल में दफ़न करके रखूगा, और जब काफी साल गुजर जायेंगे, तब तुम्हे बताऊंगा ! लेकिन अपने मुल्क से दूर, यहाँ इस विदेशी मुल्क में न जाने कभी-कभी ऐसा क्यों लगने लगता है कि इस साल की दो महीने की छुट्टियाँ अपने घर वालो और तुम जैसे लोगो के साथ बिता पाने का सुअवसर शायद फिर से मिले न मिले ! यूँ तो मौत पर किसी का भी बर्चस्व नहीं है, मगर यहाँ हमारे साथ कदम-कदम पर अनिश्चित्ताये..... तुम समझ सकते हो !

पिछले साल का यह वाकया है, बी आर के इंजीनियरों की सुरक्षा का जिम्मा मुझे सौंपा गया था ! उन्ही इंजीनियरों में से एक था, परवेज आलम ! एक दिन सुबह जब हम लोग उन्हें एस्कोर्ट करते हुए एक निर्माणाधीन पुल की और ले जा रहे थे, तो तालिबानियों ने विस्फोट कर दिया ! मेरे दो जवान और एक इंजीनियर उसमें शहीद हो गए थे, और परवेज तथा उसका एक और साथी गंभीर रूप से जख्मी ! परवेज को खून की जरुरत थी, मगर उसका ब्लड ग्रुप किसी से मैच नहीं हो पा रहा था ! चूँकि मेरा ओ पोजेटिव ग्रुप है, इसलिए डाक्टरों ने मुझे खून देने की सलाह दी, मैंने तुरंत ही खून दिया ! करीब पंद्रह दिनों बाद परवेज फिर सही सलामत हो गया था! कुछ और महीने गुजरे, इस बीच वहाँ कैम्प में हमें चाय-पानी पिलाने हेतु एक स्थानीय १२-१३ साल का बच्चा आबिद काम करता था ! एक सुबह मैंने देखा कि परवेज उसे अपनी सरकारी जीप में ड्राइविंग सिखा रहा था, मैंने सहज यह मान लिया कि यह सामान्य सी बात है कि परवेज को शायद बच्चो से ज्यादा लगाव होगा, और साथ ही आबिद और वह एक ही धर्म से सम्बद्ध है, इसलिए स्वाभाविक तौर पर यह उसका आबिद के प्रति लगाव है, जो उसे इतनी बारीकी से ड्राइविंग सिखा रहा है ! यह सिलसिला काफी दिनों तक चलता रहा, इस बीच हमारे कैम्प के पास ही एक और आतंकवादी हमला हुआ, दोनों तरफ से हुई गोली बारी में बहुत सारे स्थानीय लोग मारे गए थे, जिसमे से एक थी आबिद की बड़ी बहन, खालिदा, अपने परिवार में वह दो भाई और तीन बहने थी !

इस घटना के बाद से मैंने आबिद के व्यवहार में बहुत से परिवर्तन देखे, वह जिस तरह पहले हमारे से व्यवहार करता था, उसमे एकदम बदलाव आ गया था! मैं उसके आतंरिक दर्द को भांप रहा था ! मैंने कई बार उससे उसका दर्द बाँटने की भी कोशिश की, मगर उसमे भी पेंच थे, परवेज के अलावा वहाँ किसी और को उनकी भाषा ठीक से बोलनी समझनी नहीं आती थी ! अचानक एक दिन सुबह उठे तो पास के नाले पर कोहराम मचा हुआ था! किसी ने आबिद की दूसरी बड़ी बहन और भाई का क़त्ल कर, छोटे से नाले में डाल दिया था! जब मैं अपने कुछ जवानो के साथ वहाँ पहुंचा तो देखा कि परवेज उन्हें समझाने की कोशिश कर रहा था ! मैंने आगे बढ़ परवेज से सारे हालात का जायजा लिया, तो उसने मुझे घटना की जानकारी दी ! और साथ ही यह भी बताया कि मैं इन्हें यह समझाने की कोशिश कर रहा हूँ कि यह घृणित काम, हो न हो आतंकवादियों का ही है, उन्होंने आबिद की बहन की अबरू लूटने के बाद उसका और उसके भाई का क़त्ल कर दिया था ! परवेज के इस जज्बे से मैं काफी प्रभावित हुआ था! एक दिन दोपहर में लंच के बाद मैं कुर्सी पर यों ही सुस्ता रहा था कि एक पठान दोनों हाथो की उंगलिया आपस में जोड़, उन्हें रगड़ता हुआ मेरे सामने आया, ड्यूटी पर मौजूद गार्ड ने बताया कि वह आबिद का अब्बू है ! वह मुझसे कुछ कहना चाहता था, मैंने उसे साहस दिलाते हुए कहा कि बताओ क्या तकलीफ है तुम्हे ! कुछ इधर-उधर देखने के बाद वह पठानी अंदाज में टूटी-फूटी हिन्दी में बोला, और जो मैंने सुना, मेरे रौंगटे खड़े हो गए थे ! एक सरीफ सा दिखने वाला इंसान इतना कमीना कैसे हो सकता था, मेरी समझ में नहीं आ रहा था! मैंने उसकी बात सुन पूरी तहकीकात का आश्वासन उसे दिया, तो वह चला गया!

मेरे दिमाग में आबिद के पिता/ अब्बू के कहे शब्द गूंजे जा रहे थे, अत: मैंने परवेज पर नजर रखनी शुरू कर दी थी! गर्मियों का मौसम था, मगर दूर पहाडो से आने वाली सर्द हवाए वातावरण में ठंडक पैदा किये हुए थे ! एक दिन शाम करीब सात बजे, जब मैं कैम्प के आस पास घूम रहा था तो एक टिन के सेड के पास मुझे कुछ खुसर-फुसर सुनाई दी ! दबे कदमों से मै जब पास गया, तो पाया कि परवेज किसी स्थानीय पुरुष से दबी जुबान में बाते कर रहा था! कुछ पल बाद वह चला गया, मैं वहाँ छुपकर परवेज की गतिविधियों पर नजर गडाए था! थोड़ी देर बाद आविद वहाँ आया और परवेज उसे एक पिता की तरह प्यार से कुछ समझाने लगा ! परवेज उसे कुछ निर्देश दे रहा था, और वह मासूम सहमती में अपनी गर्दन हिला देता था! इससे परवेज के चहरे पर एक शैतानी मुस्कराहट सी दौड़ पड़ती थी! मैं किसी अनहोनी की आशंका से पूर्ण सचेत हो गया था ! रात आठ बजे रोल-कॉल के बाद जवान अपने रात्रि- भोज के लिए लंगर के पास एकत्रित होते थे! परवेज द्वारा आबिद को दिए निर्देशों से मैं इतना तो समझ ही गया था कि वह उसी दौरान किसी बड़ी बारदात को अंजाम दिलाना चाहता था ! परवेज के साथ प्री-प्लान के हिसाब से ठीक आठ बजे आतंकवादियों ने हमला बोल दिया था, अत: बिना देरी किये मैंने परवेज और आविद दोनों को बिना सोचे समझे गोली मार दी! जवान आतंकियों से जूझ रहे थे, मैंने जब परवेज वाले टेंट का मुआयना किया तो पाया कि एक बारूद से भरी जीफ टेंट से कुछ दूरी पर खडी थी, जिसे शायद आबिद चलाकर लंगर तक ले जाने वाला था! चारो आक्रमणकारी मारे गए थे ! और मैंने अगले दिन यह दर्शाया कि परवेज और आबिद भी आतंकवादियों का शिकार हो गए, जबकि कहानी कुछ और थी, परवेज अपनी अतृप्त वासना की पूर्ति के लिए आबिद की दो बहिनों की बली चढ़ा चुका था, यह जानकारी आबिद के अब्बू ने मुझे दी थी ! और इसके लिए आतंकवादियों के स्थानीय आंका से मिलकर दोष हमारे सिर मढ़ कर आत्मघाती हमले के लिए आबिद का दिमाग सफाई ( ब्रेनवास) के जरिये उसको तैयार कर रहा था !
जब तक वह एक देशभक्त था, मैंने उसे खून भी दिया,
जब गद्दारी पर उतर आया, तो मैंने उसे भून भी दिया !!
तब से यह मेरे मन पर एक बोझ सा था, आज तुझे बताकर हल्का सा महसूस कर रहा हूँ ! हाँ, ध्यान रहे कि मैंने अभी यह बात रेखा को नहीं बताई और तुमसे गुजारिश है कि तुम भी मत बताना !
तुम्हारा ..

नोट : कहानी की घटना और पात्र सब काल्पनिक है, अत: इसे अन्यथा न लिया जाये !

Friday, November 20, 2009

भई, अपनी तो जिन्दगी मस्त है !


सुबह उठकर, नहा -धोकर 
चाय-नाश्ते  के बाद,
झोला कांधे पे लटकाकर,
मंझे पत्रकार की सी शैली में
टा-टा करके घर को,
निकल पड़ता हूँ दफ्तर को।  


दफ्तर पहुँचकर आँखों को इक  

अलोकिक सुख की अनुभूती होती है,
क्योंकि अपने
दफ्तर के रिसेप्शन की
साज-सज्जा ही कुछ ऐसी जबरदस्त है,
भई, अपनी तो जिन्दगी मस्त है।


दफ्तर की पहली चाय के साथ,
कंप्यूटर खोला और लगे टिपियाने,
कुछ जो रात का लिखा था,
उसे अपने ब्लॉग पर डाला !
तभी कभी-कभार राउंड पे
आ टपक पड़ता है लाला !!
पहले से एक फाइल खोले रखता हूँ,
और झट से लैटर बनाने लगता हूँ ,
भले ही पत्र का
मैटर कोई याद नहीं,
मगर उल्लू बनाने में
मैं भी कम उस्ताद नहीं,
उसके बाद तो समझो,
बॉस ही काम के बोझ तले पस्त है !
भई, अपनी तो जिन्दगी मस्त है !!

सांझ ढले घर पहुंचा,
तो रोज एक सी ही रहती है दिनचर्या,
क्योंकि है भी नहीं कोई और जरिया,
बेटा अपना मस्त रहता है कुड़ियों में !
बेटी, ताना-बाना बुनती है गुड्डे-गुड़ियों में !!
बीबी, किचन में झूमती है आई-पोड में,
बूढी मम्मी मग्न रहती है अपने गौड़ में,
मैं भला किसके संग मन बहलाऊ अपनी रेंज में !
खुद ही गुम हो जाता हूँ, दो पैग रोंयल चैलेन्ज में !!
टीवी पे एक ऐड देखा था कि
सिर्फ चार हजार में रोंयल पेंट लगाओ
और पूरा का पूरा घर रंगीन पाओ,
मैं तो कहूँ कि
अरे छोडो ये बाते सारी,
भाड़ में गई दुनियादारी,
वो करो कि हर चीज तुम्हे भायेगी !
चार सौ की रोंयल चैलेन्ज लाओ,
पूरी दुनिया ही रंगीन नजर आयेंगी !!
महंगाई से दुनिया भले ही त्रस्त है !
पर भई, अपनी तो जिन्दगी मस्त है !!

सब ओंछा ही ओंछा !

यों तो अक्सर यह शहर रेंगता ही रहता है, मगर कल तो देश की राजधानी का सेहरा सिर पर लिए यह शहर कुछ पलो के लिए ठहर सा गया था! अनुमान के हिसाब से करीब ६ लाख वाहन घंटो फसे रहे जाम में ! तेल खपत का अनुमान लगाया जाए तो इस जाम की वजह से अगर औसतन डेड लीटर तेल भी प्रति वाहन बेकार में जला है तो जिसका सीधा मतलब है कि करीब १० लाख लीटर पेट्रोल यूं ही धुआ हो गया ! यानी देश का करीब चार करोड़ रूपये स्वाह , इसके अलावा जो घंटो फंसे रहने से लोगो का आर्थिक और अन्य नुकशान हुए, वह अलग ! मगर चिंता किसे है ? ये तो इस देश में मामूली सी बात है ! महंगाई की वजह से लोगो के पास खाने के लाले पड़े हो, उससे सत्ता संभाले बैठे नेताओ पर क्या फर्क पड़ता है? अगर फर्क पड़ता है देश पर और उस गरीब मजदूर पर जो दिन भर मेहनत करके सौ -पचास रूपये जुटा पाता है, तो पड़े, इन्हें इससे क्या लेना ? जैसी कि किसानो ने धमकी दी कि अगर मांगे न मानी तो वे अपना गन्ना खेतो में भी जला लेंगे , तो जलाए, ये लोग चीनी आयात कर लेंगे , थोड़ा बहुत इन्कम वहा से भी हो जायेगी ! इनकी तो पांचो उंगलिया फिर भी घी में और सिर कड़ाई में ही रहने वाला है ! सब चोखा ही चोखा !

जिन पर जिम्मेदारी थी वे तो बुढापे और कृतज्ञंता की वजह से अपने विवेक का इस्तेमाल कर नहीं पाते, या करने नहीं दिया जाता! अत: तब सक्रीय होते है जब आंटी अथवा भैया कोई निर्देश उन्हें दे ! अगर मांगे माननी ही थी तो पहले क्यों नहीं, यह सब बखेड़ा खडा करने की जरुरत क्या थी ? पर तब इसके "श्रेय" का सेहरा भैया के सिर नहीं बंध पाता, पते की बात तो यह है ! देश का क्या, चलता ही रहता है, किसे फिक्र ? उसके अलावा गुणगान करवाने के लिए अपने पास सेकुलर मीडिया भी बहुतायात में है, जिसे किसानो की चिंता कम और इस बात की चिंता ज्यादा सता रही है कि जिस तरह सभी विपक्षी दल रैली में एक जुट दिखे, अगर सभी जगह इसी तरह एक जुट हो गए तो इनकी प्रिय पार्टी का क्या होगा ? इसीलिए कल एक सम्मानित अंग्रेजी न्यूज़ सेकुलर मीडिया के एंकर के मुख से एक प्रोग्राम के अंत में वह बात निकल ही गई कि क्या आपलोग इसी तरह बीजेपी के साथ मिलकर उ. प. में चुनाव भी लड़ोगे ? किसानो की किसे फिर्क ? इन पढ़े लिखे नौजवानों को फिक्र तो बस अपनी प्रिय पार्टी की है ! अगर पढलिख कर इन लोगो की यही सोच है, तो मैं तो कहूंगा कि भगवान् बचाए इस देश को इन पढ़े लिखो से ! इनसे बढ़िया तो वे ५० से ७० के दशक के अनपढ़ अंगूठा छाप ही थे जो कम से कम देश के लिए कुछ तो सोचते थे !

Thursday, November 19, 2009

कभी मेरे शहर आना !

क्योंकि तुम भी  
इस खुशफहमी  में हो कि
शहर इक खुशनुमा जिन्दगी
जीने का आधार है,
तभी तो तुम्हे
शहरी जिन्दगी से
इतना प्यार है। 


मगर ये बात परम सत्य नही,
तुम्हे कैसे समझाऊ ?
यहाँ सांझ ढलने के बाद,
लोग कैसे जीते है ,
तुम्हे क्या बताऊ ?
अरे नासमझ,
गांव एवं शहर की जिन्दगी मे,
फर्क हैं नाना ,
शहरी जिन्दगी देखनी हो,
तो कभी मेरे शहर आना।  


तुम्हे दिखाऊंगा कि
कथित विकास की आंधी मे,
मेरा शहर कैसे जीता है,
प्यास बुझाने को
पानी के बदले , पेट्रोल-डीजल,
मिनरल और ऐल्कोहल पीता है।

क्या घर, क्या शहर,
हर दिन-हर रात की मारा-मारी में,
वो सिर्फ जीने के लिए जीते है,
जीवन की इस जद्दोजहद में
क्या शेर, क्या मेमना,
सबके सब एक ही घाट का पीते है।

ऊँचा उठने की चाहत में,
मकान-दूकान, सड़क-रेल,
यहाँ सबके सब टिके है स्तंभों पर,
जिन्दगी भागती सरपट
कहीं जमीं के नीचे 
तो कहीं 
खामोश लटकती खम्बों से खम्बों पर।  

गगनचुम्बी इमारतों में
मंजिल तक  पहुँचने को पैर,

 लिफ्ट ढूंढते है ,खुद नहीं बढ़ते !
ऊँचे-ऊँचे शॉपिंग मॉल पर ,
सीडियों से चड़ते -उतरते वक्त
कहीं घुटने नहीं भांचने पड़ते।

एक बहुत पुराने किले का खंडहर 

जो चिड़ियाघर के पास है ,
वो आजकल अपने में ख़ास है,
क्योंकि वहाँ पर अब 
भरी  दोपहर में भी 
अतृप्त आत्माओं का वास है।

राजा से लेकर रंक तक,
यहाँ विचरण करती,
हर तरह की हस्ती हैं,
एक तरफ जिन्दादिलों  

तो  एक तरफ
मुर्दा-परस्तो की बस्ती है।  


कहीं  पर इस शहर में,
कोई अभागन,
देह बेचकर भी दिनभर
भरपेट नहीं जुटा पाती है,
और कहीं कोई नई  दुल्हन 

मंडप पर दुल्हे को 
वरमाला पहनाने हेतु,
क्रेन से  भी उतारी जाती है।

मैं  
हैरान  स्तंभित नजरो से
देख-देखकर सोचता हूँ  
कि  इस सहरा में 
बिन बरखा, बिन बाली , 
वन्दगी  गाती  है  कौन सा तराना,
ऐ दोस्त ! शहरी जिन्दगी देखनी हो,
तो कभी मेरे इस शहर आना।

अंकल सैम, ड्रैगन और हम !

आखिरकार अंकल सैम ने अपनी वह असलियत वर्तमान चीन यात्रा के दौरान प्रकट कर ही दी, जिसकी आशंका कुछ तबको मे तब जताई गई थी, जब पिछ्ले वर्ष वे अमरीकी राष्ट्रपति बनने के कगार पर खडे थे। यह जान क्षोभ हुआ कि अपने यह अंकल सैम भी बिना रीढ के ही निकले। हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और, वाला मुहावरा पूरी तरह इन पर चरित्रार्थ होता है। उस वक्त यह बात भी दबी जुबान से जोर-शोर से उठी थी कि एक अश्वेत पृष्ठ भूमि के अंकल सैम क्या वह निष्पक्षता अपने कार्यकाल के दौरान दिखा पायेंगे, जिसकी अपेक्षा लोगो को भारत और अमेरिका के बीच तथाकथित मजबूत होते रिश्तों से एक अमेरिकी राष्ट्रपति से थी, और जिस तरह का भारत प्रेम का नाटक अंकल ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान किया था ? अपनी चीन यात्रा के दौरान अंकल सैम ने हु जिन्ताओ के समक्ष जिस तरह गिरगिट की तरह रंग बद्ला और जो संयुक्त बयान जारी किया, उसकी भारत को आगे बढकर भरसक तरीके से कड़ी निन्दा करनी चाहिये। आपको याद होगा कि ये वही जनाव है जिन्होने २००८ मे अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश को यहां तक सलाह दे डाली थी, कि अमेरिका को तिब्बत के मुद्दे पर बीजींग औलम्पिक का बहिष्कार करना चाहिये, और आज जब अपनी बारी आई तो यही अंकल सैम, चीन के सामने भला आदमी बनकर, इस दुनिया के एक पुलिस कमांडेंट की हैसियत से तिब्बत चीन को देकर आ गये।



उनके इस चीन दौरे से जो कुछ बाते स्पष्ट हो गई, उन्हें हम भारतियों को अब भली भांति समझ लेना चाहिये । पहली बात यह कि अमेरिका अपने और सिर्फ़ अपने हितों की खातिर किसी भी गहराई तक जा सकता है। दूसरा यह कि हाल के इस रहस्योद्घाटन के वावजूद भी कि चीन ने पाकिस्तान को परमाणु युरेनियम सप्लाई किया था, और किस तरह चीन भारत के अन्दुरूनी मामलों मे दखल दे रहा है, अंकल सैम द्वारा ड्रैगन के साथ दिया गया यह संयुक्त बयान कि चीन भारत और पाकिस्तान के मामले मे ठुलभैये की भूमिका अदा करेगा, हमारे देश के कमजोर नेत्रत्व और हमारी कमजोर विदेश नीति की ओर एक बार फिर से इशारा कर रहा है। एक और जो मह्त्त्वपूर्ण बात और सामने आई, वह यह कि अपने यह अंकल सैम भी हमारे नेताओं की ही भांति बिना रीढ की हड्डी के वो थाली के वैगन है जो जिधर गुरुत्वआकर्षण बल ज्यादा हो , उधर ही लुडक जाते है। दूसरे शब्दों मे, बिन पैंदे के लोटे है, इधर भी भले और उधर भी भले, अपना इनका कोई दमदार नजरिया नही, जो अपनी किसी बात पर अडिग रह सके। अभी जब हमारे प्रधान मन्त्री जी अमेरिका जाकर इन्हे मिलेंगे तो यह अंकल सैम दो चार चिकनी-चुपडी बाते उनके साथ भी करेंगे, क्योंकि सैम को मालूम है कि ये लोग इतने मे ही खुश हो जाते है, और इनका सेक्युलर मीडिया इन्ही कुछ चिकनी चुपड़ी बातों मे मक्खन-जैम लगाकर स्वादिष्ट बना देगा ! लेकिन हमे यह याद रखना होगा कि डेविड हेडली ने एक अमेरिकी नागरिक के नाते क्रिश्चियन बनकर यहां जो भी गुल खिलाये, उसके पीछे उसकी दाउद गिलानी वाली अतीत की पृष्ठ भूमि भी है। और लाख कोशिश हम कर ले, अमेरिका शायद ही कभी भारत का एक सच्चा मित्र बन पायेगा । काश ! हमारे नेता भी इस वक्त, अमेरिका को कोई दमदार सन्देश दे पाते । रही बात ड्रैगन की तो दुनिया जानती है कि जो झुकाव आज अमेरिका का चीन के प्रति है, बिलकुल वही झुकाव अस्सी के दशक में जापान के प्रति था और उस जमाने में जापानी धडा-धड़ अमेरिका में संपत्ति खरीद रहे थे । ठीक वही स्थित आज चीन की भी है और यकीन मानिए कि एशिया प्रशांत क्षेत्र में उठा यह ड्रैगन रूपी पानी का बुलबुला भी ज्यादा समय तक नहीं टिक पायेगा। हमें जरुरत है तो बस अपना पक्ष और राष्ट्र का गौरव, अन्तराष्ट्रीय विरादरी के समक्ष मजबूती से प्रस्तुत करने की।

Wednesday, November 18, 2009

नजरिया !

मेरे एक हमउम्र (दोस्त तो नहीं कहूंगा, जानकार कहना बेहतर रहेगा ) है ! जनाव को उनकी पिछली तीन पुस्तो से जानता हूँ जब हम पढ़ते थे तो मुझे याद है कि स्कूल की फीस, जिसमे भी उन्हें विकलांगता की वजह से छूट मिलती थी, और बस नाम मात्र की देनी भी पड़ती थी, समय पर नहीं जमा कर पाते थे ! मगर आज उनके धंधे की पूरी जानकारी तो यहाँ देना भी उचित नहीं होगा , बस यही समझ लीजिये कि बचपन से पोलियो की वजह से एक पैर से विकलांग है, और सरकारी नौकरी कर रहे है ! काफी चोखे विभाग में है अत: आज की तिथि में, मैं जब अपनी तुलना उनसे करने की कोशिश करता हूँ तो उनके समक्ष कहीं नहीं टिक पाता ! करीब पांच साल पहले एक पौश जगह पर मकान खरीदा, घर में एक लम्बी गाडी भी है, जिसे खुद तो विकलांग होने की वजह से नहीं चला पाते, मगर पत्नी और बेटी चलाती है ! और इन्ही सब वजह से स्वाभाविक तौर पर उठते-बैठते भी शायद हाई जैनेट्री में ही होंगे !

इन सब बातो को देखते हुए, इतना तो सहज अंदाजा लगाया ही जा सकता है कि सिर्फ एक सरकारी नौकरी की तनख्वाह के भरोसे तो उन्होंने यह धन- दौलत कमाई नहीं होगी ! मेरी जानकारी के हिसाब से उनकी कोई लौटरी-वोट्री भी नहीं लगी, तो जाहिर सी बात है कि कमाने के अन्य श्रोतो से यह धन अर्जित किया है ! इस देश का दुर्भाग्य ही कहें कि अगर कोई प्राइवेट में नौकरी करने वाला है तो टैक्स वसूलने वाले लोग उससे कमाई के अन्य श्रोतो की भी जानकारी लेते है, मगर इन जनाव जैसे सरकारी कर्मचारियों और नेतावो से कोई नहीं पूछता ! आज बैठा-बैठा इसी बात पर चिंतन कर रहा था तो मेरे समक्ष दो नजरिये आये (मान लीजिये कि इन दो नजरियों में से पहला वाला मेरा नजरिया है और दूसरा वाला उन जनाव का) ;

१. यार , मुझे इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि उसने क्या कमाया है ! देर सबेर ही सही, मगर पाप की कमाई पाप में ही जाती है ! अगर गलत तरीके अपनाकर धन कमाया भी तो वह गलत ही जगह इस्तेमाल होता है ! खुद बीमार पडेगा, बीबी बीमार पड़ेगी, पाप की कमाई अस्पतालों के मोटे-मोटे बिल भरने में ही चली जायेगी ! बच्चे लोफर बनेगे, और एक दिन ऐसे ही सड़-सड़ के मर जाएगा, बाहर भले ही दिखावे के लिए ढेर सारी धन दौलत ही क्यों न हो! औरंगजेब और जहांगीर भी तो कभी अपने को खुदा समझते थे, आजकल उनकी पुस्ते इलाहबाद में रिक्शा चलाती है ! तुमने कोई गलत काम नहीं किया, रात को आराम से सो तो पाता है, मेहनत और इमानदारी की कमाई से कम से कम जीवन की बेसिक जरूरते तो तुमने भी जोड़ ही ली है! गलत ढंग से पैसा नहीं कमाया है, अत:इस बात से निश्चिन्त रह कि तुझे और तेरे परिवार को कोई बड़ी मुसीबत भी नहीं आयेगी, भगवान् सब देखता है! बच्चे भी ठीक-ठाक पढ़-लिख ही रहे है, कल अपने पैरो पर खड़े हो जायेंगे , उसके बाद तुम फ्री ! मरते वक्त भी शकुन रहेगा कि मैंने कोई गलत काम नहीं किया !

२. अरे, पाप-वाप कुछ नहीं होता,भगवान्-भुग्वान सब अंधविस्वाश होता है, किसी के पकड़ में नहीं आना चाहिये, बस ! कल कौन पूछता है कि तुमने यह धन सम्पति कैसे अर्जित की ? हर तरफ पैसे को ही लोग पूजते है, जब शानदार कपड़ो में शानदार गाडी से उतरकर कही किसी को मिलने जावोगे तो हर कोई झुककर सलाम करेगा कि कोई बड़ा आदमी आज उसके घर आया है, वरना तो एक गिलास पानी भी ढंग से नहीं पूछते ! कभी बीमार-वीमार पड़ गए तो किसी अच्छे अस्पताल से इलाज तो करवा सकते है, वरना सरकारी अस्पतालों में लाइन लगावो ! पैसा न हो तेरे पास तो तुझ लंगड़े की क्या औकात है, कोई नहीं पूछता ! जब मौक़ा मिला है तो दबा के कमाओ और ऐश करो ! यह किसने देखा कि मरने के बाद कौन कहाँ जाता है, जब होगा तबकी तब देखी जायेगी !

अब अगर आप लोगो ने मेरा उपरोक्त लेख गौर से पढ़ा हो और आपको पसंद आया हो तो, मेरा आपसे विनम्र निवेदन है कि अपने बहुमूल्य विचार कि उपरोक्त दो नजरियों में से कौन सा नजरिया आपके मुताविक सही है, अवश्य दे ! हो सकता है कि उपरोक्त दोनों ही नजरिये गलत भी हो, तो सही नजरिया क्या है, मार्ग दर्शन की अपेक्षा !
धन्यवाद ! ।






यह हिन्दुस्तानी नागरिको की विशेषता बताने वाला नजरिया भी अभी-अभी एक इ-मेल के जरिये ,मिला इसे भी पढ़ लीजियेगा ;
HOW TO IDENTIFY DIFFERENT CITIZENS OF INDIA

Scenario 1
Two guys are fighting and a third guy comes along, sees them and walks on.
That's MUMBAI
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Scenario 2
Two guys are fighting. Both of them take time out and call their friends on
their mobiles. Now 50 guys are fighting.
You are definitely in PUNJAB !!!----------------------------------------
Scenario 3
Two guys are fighting and a third guy comes along and tries to make peace.
The first two get together and beat him up.
That's DELHI----------------------------------------
Scenario 4
Two guys are fighting. A crowd gathers to watch.
A guy comes along and quietly opens a Chai-stall.
That's KERALA !----------------------------------------
Scenario 5
Two guys are fighting and a third guy comes.
He writes a software program to stop the fight.
But the fight doesn't stop because of a virus in the program.
That's BANGALORE----------------------------------------
Scenario 6
Two guys are fighting. A crowd gathers to watch.
A guy comes along and quietly says that "AMMA" doesn't like all this nonsense..
Peace settles in...
That's CHENNAI----------------------------------------
Scenario 7
Two guys are fighting and a third guy comes along, then a fourth
and they start arguing about who's right.
You are in KOLKATA----------------------------------------
Scenario 8
Two guys are fighting. Third guy comes from nearby house and says,
"don't fight in front of my place, go some where else and keep fighting".
That's AHMEDABAD----------------------------------------
And the best one is ....
Scenario 9
Two guys are fighting. Third guy comes along with a carton of beer.
All sit together drinking beer and abusing each other and all go home as friends.
You are in GOA!

Tuesday, November 17, 2009

सोच का दायरा !

आप लोगो ने भी अकसर यह सुना होगा कि फलां-फलां महत्वपूर्ण प्रोजक्ट मे तकनीकी जटिलताओ के कारण फलां फलां देश ने चीन, जापान, अमेरिका और युरोप के इन्जीनियरों की मदद ली। लेकिन यह बहुत ही कम सुना होगा कि उन्होने उस खास काम के लिये भारतीय इंजीनियरों की भी मदद ली । इसका मतलब यह कदापि नही निकाला जाना चाहिये कि हमारे देश मे इतने कुशल और गुणवान इंजीनियर नही है, जिनकी ये सेवायें ले सके। हमारे देश मे भी एक से बढकर एक कुशल इंजीनियरों की भरमार है, लेकिन उनमे कमी है तो बस उचित अवसरों की। यहां उचित अवसर से मेरा सिर्फ़ यह आशय नही है कि उनको रोजगार के साधनों की उपलब्धता, बल्कि उन्हे नये-नये तकनीकी शोध के पर्याप्त अवसर और साधन मुहैया कराना, ताकि वे अपनी प्रतिभा को निखार सके। अब फिर सवाल यह उठ्ता है कि उचित अवसर मुहैया कराना किसकी जिम्मेदारी है ? सीधी सी बात है कि यह जिम्मेदारी हमारी सरकारों की है, मगर फिर समस्या यह है कि सरकारें तो इसे लोग चला रहे है, जिनकी देश और जनहित में कोई दिलचस्पी नहीं। अभी हाल मे महाराष्ट्र सरकार का एक बयान खासी चर्चा का विषय बना रहा था , जिसमे सरकार ने यह घोषणा की थी कि वे अरबों रुपये की लागत से मुम्बई बीच पर स्टेचु आफ़ लिबर्टी से भी ऊंचा, शिवाजी का स्मारक बनायेंगे । कितनी अच्छी सोच है , हमारे नेताओं और नौकरशाहों की, जो वे देश का नाम इस तरह रोशन करना चाहते है और साथ ही अपना घर भी, ठेकेदारों के मार्फ़त। मगर किसी भी महापुरुष को इस बात की ज़रा भी फिक्र नही कि दिन-प्रतिदिन पीने के पानी की भयावह होती समस्या से मुम्बई को निजात दिलाने के लिये क्यों न कोई युरोप स्थित ईडन ग्रीन हाउस प्रोजेक्ट जैसा समुद्री भाप से शुद्द पीने के पानी का प्रोजेक्ट हम भी लगाये, ताकि एक लम्बे समय के लिये मुम्बई की पानी की समस्या हल हो सके ,और साथ ही हमारे इन्जीनियरों को भी कुछ अलग सीखने का मौका मिल सके। ताकि आगे चलकर देश के अन्य भागों मे भी उसी तरह के प्रोजक्ट को कार्यान्वित किया जा सके।

लेकिन नही, अगर ये सभी समस्यायें इस तरह हल हो गई तो हमारे ये नेता अगली बार वोट किस मुद्दे पर लडेगें ? यूपी का भी एक ताजा उदाहरण देता हूं, अभी पिछले रविवार को मेरी एक मित्र से, जोकि मायावती जी के डाई-हार्ड समर्थक है, प्रदेश में किसानो की मांगो पर चर्चा हो रही थी। मैंने बात यहाँ से शुरू की कि मायावती जी आज किसानो के हर रोने को केंद्र के मत्थे मढ़ रही है किन्तु अगर उन्हें लोगो की चिंता होती तो जो सरकारी धन उन्होंने मूर्तियों पर व्यर्थ गवाया, उसका अगर कुछ हिस्सा किसानो पर खर्च करती, तो किसान भी खुश रहते और खाद्यानों की महंगाई की समस्या से भी निजात मिलती। तो इस पर उन जनाव का तर्क सुनकर मैं दंग रह गया; एक बात बताऊ गोदियालजी, ये जो आज हम लाल किला, पुराना किला, ताज महल, क़ुतुब मीनार जैसी प्राचीन इमारतों और ढांचों को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करके, हर साल अरबो रूपये इन पर खर्च कर रहे है, जब ये बने थे तो तब भी लोगो ने ऐसा ही ऐतराज किया होगा, कई लोगो के पेट काटकर, कई लोगो को इनमे ज़िंदा दफनाकर उन्होंने ये स्मारक बनाए ! अगर आज मायावती जी भी अपने जो स्मारक बना रही है, वे भी कल हमी लोग राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संजोकर रखेंगे ।

उन जनाव की बात सुन मैं भी कुछ पल के लिए निरुत्तर हो गया, बस इतना ही मुह से निकला- मेरा भारत महान !

और जब मै भी कार्टून बनाने बैठा तो.....

आजकल हमारे ब्लॉगर मित्रो को कार्टून काफी पसंद आ रहे है, तो अपनी भी यह कबाड़ी खोपड़ी :) कभी कभी सटक ही जाती है इसलिए सोचा कि क्यों न मुझे भी अपनी इस नई प्रतिभा के साथ -दो -दो हाथ कर लेने चाहिये ! तो मैंने भी बना डाला एक कार्टून आपके मनोरंजनार्थ ! इसे देखिये और पसंद आये तो अल्लाह के नाम पर एक चटका दे देना बाबा, हा-हा ! हां, आप लोगो से यह निवेदन भी करूँगा कि कृपया इसे व्यक्तिगत तौर पर अन्यथा न ले ;


कृपया तस्बीर बड़ी देखने के लिए उसके ऊपर किल्क करे

Monday, November 16, 2009

घरवालो को इन्फ्लेशन की मीनिंग समझाने का नायब तरीका !

हमारी सरकार जो मुद्रास्फीति के आंकड़े पहले हर हफ्ते देती थी और अब महीने में एक बार देती है, उसने हम भारतीयों को बहुत समय से चक्कर में डाल रखा है! महंगाई आसमान छू रही है और यह इन्फ्लेसन है कि कभी नेगेटिव में जाकर डिफ्लेसन हो जाता है और आजकल पोजेटिव में एक और दो प्रतिशत के बीच झूल रहा है, जबकि वास्तविकता में इसे होना १००% से भी ऊपर चाहिए था! खैर, सब सरकार की और आंकड़े इकठ्ठा करने वालो की मेहरवानी समझिये, जो इसे आंकड़ो की पहली सीढी पर ही रोके खड़े है! दूसरी तरफ ये खबरिया चैनलों की मेहरवानी समझो कि घर में जिसे देखो, वही पूछे फिरता है कि अजी सुनते हो, ये इन्फ्लेसन क्या होता है? अब इन्हें कैसे समझाए इन्फेसन की परिभाषा !

मुझे अभी-अभी एक इ-मेल मिला है, मैं समझता हूँ कि यह समझाने का सबसे नायाब तरिका हो सकता है जो अपने सरदार जी ने अख्तियार किया है, अत: सोचा कि शायद आप भी मेरी ही तरह की परेशानी से जूझ रहे होंगे तो यह शायद आपकी भी कुछ मदद करे :) ;


कबाडी और साहित्यकार !

आपने देखा होगा कि अक्सर घरो, गलियों मे आने वाला हर फेरिया व्यापारी अपना कुछ न कुछ सामान, जोकि अमूमन एक ही तरह की वस्तु होती है, बेचने को लाता है, कही एक खास जगह से खरीद कर, जबकि कबाडी इसके ठीक विपरीत भिन्न-भिन्न जगहों, घरों, गलियों से भिन्न-भिन्न तरह का कूडा खरीद्कर व इक्कठ्ठा कर, एक जगह पर बेचने ले जाता है । साहित्य-जगत मे एक रचनाकार भी एक कबाडी की ही तरह होता है, उस कबाडी की तरह, जो घर-घर जाकर कूडा इकठ्ठा करता है। साहित्य-जगत से जुडा एक रचनाकार अथवा साहित्यकार भी भिन्न-भिन्न जगहो, मौसमो, वातावरण और परिस्थितियों से साहित्यिक और बौद्धिक कूडा-कच्ररा अपने दीमाग मे इक्कठाकर लाता है, और फिर एक जगह पर उसे संग्रहित कर देता है, या फिर बेच डालता है। सचमुच कितनी समानताये है न, एक रचनाकार और एक कबाडी मे ? हां, फर्क बस इतना है कि कबाडी का इक्कठा किया हुआ कूडा तो उसे कुछ न कुछ आर्थिक अर्जन देता ही है, मगर साहित्यकार का कूडा उसे मौद्रिक लाभ भी देगा, इसकी कोई गारन्टी नही होती।

ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो,
साहित्य की गलियों के ।
वन और उपवन की
पौधे, फूल और कलियों के॥

इस कबाड़खाने के ,
मंजे एक खिलाडी हो,
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो ।

सर्दी, गर्मी और बरसात
भोर , दिवस और  रात ,
शहर, गाँव-गली, धाम,
कुछ न कुछ,
बिनते ही रहते हो ।
हां, एक फर्क भी है,
कबाडी आवाज लगाकर,
कूडा बटोरता है और तुम 

खुद में ही  बडबडाते हो ॥

कहीं उस्ताद हो
तो कहीं अनाडी हो,
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो ।

बस खामोश,
तत्परता से जुटे रहकर,
समेट लेते हो बौद्धिक कच्ररा,
दिमाग के गोदाम मे।
परख-परखकर,
जब ढेरों इक्कठ्ठा हो जाये
फिर लग पडते हो,
अपने असली काम मे ॥

सचमुच मे,
बडे ही जुगाडी हो ,
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो ।

Sunday, November 15, 2009

भेडे प्रतिकार नही करती !

हमारे इस लोकतन्त्र मे भ्रष्ठाचारियों के हौंसले किस कदर बुलंद है, इसकी एक मिशाल निर्दलीय विधायक होने के वावजूद आंटी सोनिया, हेर-फेर के भीष्म पितामह लालू और गुरुऒं के गुरु, शोरेन गुरुजी के आशिर्वाद से एक जमाने मे झारखण्ड की सत्ता के प्रमुख बने, वहां के भूतपूर्व सम्मानित मुख्यमन्त्री श्री मधु कोडा के इस एक लाईन के बयान से मिलता है, जिसमे कल ही उन्होने कहा कि यदि उन पर आरोप साबित हो गये तो वे राजनीति से सन्यास ले लेंगे। बयान भले ही बहुत छोटा सा लगता हो, मगर खुद मे बहुत से गूढ अर्थ समेटे है। मसलन पहली बात तो यह कि हमारे प्रवर्तन निदेशालय और अन्य जांच अजेंसियों द्वारा उसके पास से जुटाये गये इतने बडे हेर-फ़ेर की सामग्री और अन्य बडे-बडे दावों के वावजूद, मधु कोडा को पूरा भरोशा है कि ये ऐजेंसियां और सरकार उन पर भ्रष्टाचार के आरोप सिद्ध नही कर पायेंगी। दूसरी बात यह कि मधु कोडा इस बात से भी आस्वस्थ हैं कि जहां तक राजनीतिज्ञ विरादरी की भ्रष्ठता का मुद्दा है, हमारा न्यायतंत्र और कानून, खास कुछ नही कर पाते । तीसरी महत्वपूर्ण बात उनके बयान से यह निकलती है कि जैसा कि उन्होने कहा कि वे राजनीति से सन्यास ले लेंगे, इसका सीधा मतलब यह निकलता है कि इस देश मे आरोप सिद्ध हो जाने के बाद भी भ्रष्ठ लोग राजनीति से जुडे रहते है।

इससे भी आगे चलकर देखें तो जैसा कि हम सभी लोग इस बात से वाकिफ़ है कि इस देश मे आजतक हुए बडे-बडे घोटालो की जांच का क्या हश्र हुआ ? मसलन चारा घोटाला, सुखराम टेलीफोन घोटाला, बोफ़ोर्स घोटाला, हाल के सडक और मोबाईल लाइसेंस घोटाले, इत्यादि । ठीक उसी तरह अगर आप मधु कोडा से जुडे प्रकरण पर भी गौर करें तो यह जांच तबसे ठण्डी पडती दिख रही है, जबसे कोडा की डायरी का जिक्र आया। मतलब सीधा सा है कि बडी मछलियों को पकडने का आह्वान करने वाली केन्द्र सरकार इस घोटाले मे भी बडी मछलियों पर आंच आने की सम्भावना से, उन्हे बचाने की कवायद के चलते, इस केस को भी ठ्न्डे बस्ते मे डालने की तैयारी मे है। आश्चर्य तो तब होता है कि जब इस देश का तथाकथित बुद्धि जीवी वर्ग यह तर्क देने लगता है कि ’लौ विल टेक इट्स ओन कोर्स’ (कानून अपना काम करेगा)। अब कौन इन महापुरुषो से पूछे कि भाई आप किस लौ(कानून) की बात कर रहे है? उस कानून की जो सिर्फ़ एक कमजोर किस्म के नागरिक पर लागू होता है, किसी बलशाली पर नही ? अन्य शब्दो मे कहुं तो गडरिये इस बात को बखूबी जानते है कि स्वभाव से भॆडे प्रतिकार नही किया करती, और कभी कर भी लेती हैं तो भी झुण्ड की साथी भेडो पर ही अपना गुस्सा निकालती है, गडरिये को कोई नुकशान नही पहुचाती और कभी अगर झुण्ड मे से कोई नरभेड तंग आकर प्रतिकार करने भी लगे, तो उसे गडरिये द्वारा मरवा दिया जाता है। अन्त मे बस यही कहुगा कि जागो !!

Saturday, November 14, 2009

ब्लॉगर दोस्तों, आपके बिचार !

यह आपका ही प्यार है जो मैं अब इतनी हिम्मत करने लगा हूँ कि आप से पूछ सकू कि आप इस बारे में क्या बिचार रखते है ? मैं यह समझ सकता हूँ कि मेरा रुख उग्र भी हो सकता है, मगर मै यदि गलत हूँ तो सही राह दिखलाना आप लोगो का फर्ज बनता है, क्योंकि आप सब एक विवेकशील समाज से संबद्ध है ! मैं आप से पूछना चाहता हूँ कि मेरे एक ख़ास दोस्त के निम्नाकित विचार है, सवाल मेरा आपसे यह है कि बढ़ती असुरक्षा और लोकतंत्र की विफलता के चलते क्या मेरे इस दोस्त के विचार सही है, अथवा गलत, आप अपनी राय दीजिये ;

"If carrying guns is made mendatory condition for citizenship, India's quality of life and level of decency in public life will soar while crime will plummet.
Bus and bank robbery , train hold ups, purse snatching, eve teasing will become things of the past.
Guns not only give you power, it changes your whole attitude.
Gun represents power. Better guns better power.
More guns more power.
It is easy to control and rule powerless people.
Knowledge is power and historically it had been restricted to a chosen few , so that ignorant masses can be easily governed.
Free press is power and therefore despotic rulers don't like free press because if people don't know , they don't act.
Politicians love to talk about empowering people by giving them voting power, which they know is almost meaningless, given the absence of education about voting and also looking at how the politicians have been successfull in manipulationg voters.
Give them guns and people become responsible. When they start thinking the cost of their actions in terms of their life, they educate themselves fast.
When people say, no guns for the people, in effect they are saying, no power for the people.
There is no need to panic at the mere mention of gun.
Guns don't kill people, people do."

हमारा डिकोड तंत्र !

"मीट राहुल" यही तो वो कोड था जिसे हमारे मीडिया और खुफिया तंत्र ने तुंरत डिकोड कर दिया, इस अनुवादित रूप में कि हेडली और राणा किसी राहुल नाम के शख्स को मारना चाहते है! सबके कान खड़े हो गए, इस भय से कि कहीं उनका तात्पर्य या फिर निशाना अपने आज के युवा वर्ग के नेता कहे जाने वाले राहुल भैया तो नहीं है ? बस फिर सारा तंत्र, सारा मीडिया जुट गया, उस मेल की एक-एक कडिया जोड़ने में ! और नतीजा हमारे सामने है- फिल्म निर्माता महेश भट्ट का बेटा राहुल भट्ट ! काश कि इतनी तत्परता से हमने वो दिल्ली बम धमाको, जयपुर बम धमाको, अहमदाबाद बम धमाको, बैंगलोर बम धमाको की कडिया भी जोड़ी होती, तो शायद मुंबई के २६/११ की परिणिति ही देखने को न मिलती ! लेकिन उस वक्त 'मीट राहुल' कोड हमारे ये लोकतंत्र के रखवाले नहीं पकड़ पाए थे ! ऐसा लगता है कि हमारे खुफिया तंत्र ने भी इस देश की महान राजनीति की भाषा को बखूबी इस्तेमाल करना सीख लिया है, इसीलिये वे अपना पल्लू झाड़ने के लिए बीच-बीच में यह चेतावनी जारी कर कि फिर से आतंकवादी घटना हो सकती है, अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ बैठते है ! अगर ऐसा न होता तो २६/११ के बाद भी हेडली भारत में मेहमान बनकर नहीं बैठा होता! २६/११ के बाद भी वह कई बार भारत से कराची, पाकिस्तान आता जाता रहा, लेकिन हमारे इस चौकन्ने तंत्र और राजशाही को कानो-कान खबर नहीं हुई ! इससे बड़ी और क्या लापरवाही हो सकती है ?

वो तो शुक्रिया अदा कीजिये अमेरिकी खुफिया तंत्र का, जो उन दोनों को समय से पकड़ लिया वरना एक और २६/११ होता, बहुत सारे निर्दोष मरते, हमारे नेता दो चार गीदड़ भभकिया पडोशी मुल्क को देते, और फिर भूल कर अगले होने की तैयारी में जुट जाते ! हम लोग इस बात को उतनी गंभीरता से नहीं ले रहे कि राहुल भट्ट हेडली और कंपनी को इतना प्रिय क्यों था, जोकि आतंकवादियों के आँका हेडली को सलाह दे रहे थे कि " जाकर राहुल से मिलो" ? कुछ तो बात है जो वह इनको इतना प्रिय था ?


और अंत में चलते-चलते : आज यानी चौदह नवम्बर को १९६२ में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण की याद वर्तमान में बन रही, उस वक्त जैसी परिस्थितियों की वजह से ताजा हो गई, और उन अपने वीर युवा सैनिको को श्रदांजली अर्पित करता हूँ, जिहोने अपने कर्तव्य को पूरा करते हुए ,देश-रक्षा और इस देश के रहनुमाओं के उज्जवल भविष्य के लिए अपना वर्तमान न्योछावर कर दिया था ! एक शेर अर्ज करता हूँ ;

वतन परस्ती का जूनून था जो यह पथिक
टेडी-मेडी,उबड़-खाबड़ राहो पर चलता गया,
ये बात और है चचा, कि तुम्हारे बोए शूल
वक्त-वेवक्त इन पैरो को, जख्म देते रहे !!


Friday, November 13, 2009

ख़त उसके नाम !

बहा ले जाए जो सुप्त-थमे हुए दरिया में भी ,
यहाँ हर तरफ ऐसी  ही  मौजो के सफीने है,
गाँव में ही रहो ,इस शहर मत आना पगली,
क्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है।

माँ को माँ नहीं समझते, बहन को बहन नहीं,
बेरहमी का मंजर ये है ,इनमें कोई जहन नहीं,
अँगुली  की मुन्दरिया के खोटे सब नगीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
और तो और, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है।

प्यास बुझाने को भी तोल के मिलता पानी है,
दीन-ईमान की बात , सबके सब बेईमानी है,
बेचने को समेटते बूँद-बूद टपके हुए पसीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
तुम क्या जानो, यहाँ के पत्थर भी कमीने है।

बेशर्मी का आलम ऐसा,शर्म न इनकी नाक में है,
किसे लगाए ठोकर रहते,हरवक्त इसी ताक में है,
मार्बल के चेहरे इनके, किंतु तारकोल के सीने है,

गाँव में ही रहना , इस शहर मत आना पगली,
तुम्हे नहीं मालूम, यहाँ के पत्थर भी कमीने है !

Thursday, November 12, 2009

मायूसी ही मायूसी !

आपने शायद यह सुना होगा कि हमारे देश में, हिंदू धर्म में लाश के क्रिया-कर्म में कुर्सी का भी पिण्ड-दान किया जाता है! और इसीलिये हमारे देश में लाशों की राजनीति भी एक चोखा धंधा मानी जाती है! यह देश पिछले काफी समय से रातो को ठीक से सो नही पा रहा, कारण, जिसे देखो बस शिकायत लिए ही घूम रहा है ! एक तरफ़ पत्थर अपना रोना रोते दिखाई पड़ते है कि इस देश के भाई-भतीजे उल्टे सीधे काम तो ख़ुद करते है और प्रतिपक्ष पर प्रहार करने की प्रक्रिया में घर से बेघर उन्हें कर देते है ! दूसरी तरफ़ लकड़ी अपना ही रोना रोये जा रही है कि जनम-जले मरते अपने कर्मो और करतूतों से है और चिता में साथ में जलने को उन्हें भी झोंक दिया जाता है ! जमीन का वह वीरान टुकडा भी किसी नए जनाजे को अपनी तरफ आता देख मायूस हो जाता है की अब इस नए मेहमान को कहाँ पर दो गज जगह मुहैया कराऊ ? भागीरथ को इसी बात का अफसोस है कि उसने नगर निगम में छ: महीने पहले कनेक्शन की अर्जी वाकायदा शुल्क सहित जमा की थी लेकिन अभी तक उसका नल नही लगा ! अब भला वह अपने पुरखो को श्रर्दांजलि दे भी तो कैसे ? बिना किसी मेहनत के कुर्सी पाया मौन सिंह मौन है ! सफेद चटकीले किस्म के कुरता सलवार में बस, एक ही किस्म का प्राणी इन हालत से काफ़ी खुस नज़र आ रहा है ! जब भी किसी सफेद लिबास में लिपटे शख्स को शमशान की ओर जाते हुए देखता है तो बड़ा खुस होता है, और इसी अधेड़बुन में है कि वहाँ से भी कुछ वोट मिल जाते तो ??!! ठण्ड भी बढ़ने लगी है, सुनशान रातो को अगर किसी फुटपाथ अथवा पेड़ के नीचे से किसी दुखियारे के रोने की आवाज आ पड़ती है तो घर का पालतू कुता भी घर के गेट से जोर-जोर से भौंकता है, मानो उस आत्मा को इन शब्दों में सांत्वना दे रहा हो कि;

नादान तू इस कदर क्यों रोता है,
यहाँ वही पाता भी है जो खोता है,
दस्तूर यूँ तो मैं भी न समझ पाया,
मगर हर रात के बाद सबेरा होता है !!

और चलते-चलते;
चिठ्ठा जगत पर आजकल कुछ जाने माने साहित्यकारों जैसे अवधिया साहब, ललित साहब, वत्स साहब, मैडम संगीता पुरी जी, बाली साहब इत्यादि लेखको की कलम भूत-प्रेत से सम्बंधित काफी दहशत पैदा कर रही है तो मैंने सोचा की क्यों न मैं भी अपना थोडा सा कंट्रीब्युसन दे दू ! तो लीजिये प्रस्तुत है ; एक बंगाली अधेड़ उम्र दम्पति बद्रीनाथ तीर्थ यात्रा पर आए थे ! उस ज़माने में गाड़ी ऋषिकेश से सिर्फ़ कीर्तिनगर तक ही जाती थी !अलकनंदा पर कीर्तिनगर- श्रीनगर का गाड़ी पुल नही था ! अतः यात्री वहाँ से आगे का २०० किलोमीटर का सफ़र पैदल ही तय करते थे ! बंगाली दम्पति यात्रा से लौटते वक्त मुख्य रास्ते को छोड़ दूसरे सौर्ट-कट रास्ते पर चल पड़े ! एक खड़ी पहाडी चड़ने के बाद ऊपर धार में से गुजरते वक्त किन्ही लुटेरो ने बंगाली दंपत्ति की हत्या कर दी और दोनों की लाश एक बांज के पेड से लटका दी ! तब से बताते है कि उस ख़ास तिथि / दिन पर, जिस दिन उनकी हत्या हुई थी, कोई अगर उस सुनशान मार्ग से गुज़रता है तो वह स्वत: ही उस ख़ास पेड पर फांसी लगा लेता है/ था (करीब बतीस साल पहले मैंने आख़री घटना के बारे में सुना था), यूं कहिये कि अगले दिन उसकी लाश उस बांज के पीड पर लटकती हुई मिलती है और वह अधेड़ उम्र का व्यक्ति जो ३२ साल पहले उस पेड़ से लटका मिला था, इस तरह का पांचवा व्यक्ति था, ऐंसा गाव वाले और बड़े बुजुर्ग बताते थे !

Wednesday, November 11, 2009

गलत समझने का आनंद !

भतीजे और उसके साथी गुंडों ने एक बार फिर अपनी अशोभनीय और गिरी हुई हरकतों से जिस तरह देश दुनिया का मनोरंजन किया उसकी जितनी भी घोर निंदा की जाए, मैं समझता हूँ, कम ही है! ये अगर अपनी हर उचित और अनुचित मांग को मनवाने के लिए लोगो को डराए धमकाए, तो इस देश में आजादी के मायने क्या है ? जहां चाचा ने भी अपने वक्त में तरह तरह के ढोंग रचकर अपना उल्लू साधा वही भतीजा आज जिस लक्ष्मण रेखा को लाँघ रहा है, उसे उस रेखा को लाघने की विद्या भी चाचा से ही मिली थी! आप को याद होगा कि कुछ सालो पहले एक बार चाचा ने जब मुस्लिम आतंकवाद की तर्ज पर हिन्दुओ के भी आत्मघाती दस्ते बनाने की बात कही थी तो चाचा के इस घिनौने प्रयास पर टिप्पणी करते हुए एक वरिष्ठ स्तम्भकार ने लिखा था कि यदि चाचा को आत्मघाती दस्ते बनाने ही हैं तो वह इसकी शुरुआत सर्वप्रथम अपने बेटे और भतीजे के रूप में पहला आत्मघाती मानव बम के रूप में क्यों नहीं करता? लेकिन चाचा तो किसी और के बेटे को आत्मघाती बनाने की ताक में था !

खैर ये तो चाचा भतीजे के कारनामो की छोटी सी लिस्ट थी, लेकिन जो मैं कहना और बताना चाह रहा था, वह यह कि देश में हाल ही में संविधान और राष्ट्र हितों पर दो जबरदस्त कुठाराघात देवबंद और मुंबई में हुए, लेकिन इस देश की सत्ता के प्रमुख हमारे प्रधानमंत्री जी एक शब्द भी नहीं बोले, इस पर, आखिर क्यों ? इस चुप्पी के मायने, क्या एक प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य नहीं होता कि सत्ता की बागडोर जब उनके हाथो में है तो वे इस पर सत्तापक्ष की स्थिति को स्पष्ट करे ? प्रश्न यह उठता है कि इस सार्वभौमिक देश में उस संविधान की दुहाई देने वाले कहाँ है जिस संविधान के आधार पर यह देश अपने नागरिको को समानता का अधिकार देता है? भाषाई स्वतंत्रता का अधिकार देता है ? राष्ट्रवाद का ढोंग रचने वाले किस सेकुलर थ्योरी के अंतर्गत मूकदर्शक बनकर भतीजे और देवबंद के मुल्लाओ का यह नंगा नाच देख रहे है ? क्या सिर्फ चार विधायको को निलंबन भर से इनके कर्तव्य की इतिश्री हो गई ? और बहुत संभव है कि अभी कुछ दिनों बाद ही माफीनामे की धूल जनता की आँखों में झोक उनका निलंबन भी रद कर दिया जाएगा !

अब अंत में गलत समझने के आनंद के बारे में बताता हूँ ; एक अंग्रेज दंपत्ति भारत घूमने आये थे, इस देश की राजनीति के दांव-पेंचो से बेखबर ! दिल्ली से सड़क मार्ग से उदयपुर जा रहे थे, कि जयपुर भी नहीं पहुँच पाए और लौटना पडा, क्योंकि तेल डिपो पे आग की वजह से रास्ते बंद हो गए थे ! वापस दिल्ली आकार हरिद्वार घूमने के लिए गए , लौट रहे थे तो सड़क मुज्जफरनगर में किसानो ने बंद करदी गन्ने के मूल्य बढाने की अपनी मांगो के समर्थन में ! पूरे आठ घंटे फंसे रहे ! दिल्ली लौटने पर जब मैंने उनकी सुखद यात्रा के विषय में पूछा तो उफ़ करने के बाद उन्होंने सवाल दागा, कि इस देश में कोई शासन चलाने वाला है भी ? मैंने कहा हां, मनमोहन सिंह जी है,......फिर उनके बातो-बातो में ज्यादा डिटेल पूछने पर मैंने कहा.... ही इज अ सिख....... वी हैव अ सिख प्राइम मिनिस्टर, मैंने और विस्तृत तरीके से कहा, मगर यह क्या , अंग्रेज दम्पति एक साथ बोल पड़े ...ओह.. देंन औवियसली.. .....!!! शायद सोच रहे होंगे कि जब देश का कर्ता-धर्ता ही बीमार है, तो देश कहा से स्वस्थ होगा?

Tuesday, November 10, 2009

आज बस इतना ही .....


फिर से लुटती देखी सरे-आम अस्मिता, 
विधान भवन के कुंजो ने !
जब राष्ट्र-भाषा को ही बेइज्जत किया, 

कुछ सियासी टटपुंजो ने !!

अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु राष्ट्र-गीत,

राष्ट्र-भाषा की आबरू लूटने वालो !
तुमसे किस तहजीव में पेश आये, 

बस यही कहूंगा, डूब मरो सालो !!

Monday, November 9, 2009

दो टके की बात !

जी, मेरी बात सौ टके की नहीं हो सकती, क्योंकि ऐंसी बाते हमारे लिए ज्यादा मूल्य नहीं रखती ! पहली बात तो यह कहना चाहूंगा कि आज का जो युवा मुस्लिम शिक्षित वर्ग ( अच्छी जगह से तालीम लिया हुआ ) है, उसमे से अगर आप एक-एक की राय ले , वोटिंग करवाए, तो मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि ज्यादतर युवा वर्ग इस फतवे के खिलाफ है! और इसे उलेमाओं की बचकानी हरकत कहकर नकार रहा है! उसे आज विकास चाहिए इस तरह के फतवे नहीं ! !

फतवे का क्या मतलव है ? फतवे का मतलब है किसी को व्यक्तिगत अथवा पूरे समाज के तौर पर किसी ख़ास काम/बात को करने से रोकना, अब किसी को राष्ट्र गीत गाने के लिए बाध्य करने के सम्बन्ध में हमारे देश का सुप्रीम कोर्ट जो कहता है और जिस बात की मुस्लिमबुद्दीजीवी वर्ग बार-बार दुहाई दे रहा है, उसका सार यहाँ प्रस्तुत है:

क्या किसी को कोई गीत गाने के लिये मजबूर किया जा सकता है अथवा नहीं? यह प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बिजोए एम्मानुएल विरुद्ध केरल राज्य आईऱ 1987 शC 748 [२] वाद में उठाया गया। इस वाद में कुछ विद्यार्थियों को स्कूल से इसलिए निकाल दिया गया था क्योंकि इन्होने राष्ट्रगान जन गण मन को गाने से मना कर दिया था। यह विद्यार्थी स्कूल में राष्ट्र-गान के समय इसके सम्मान में खड़े होते थे तथा इसका सम्मान करते थे पर गाते नहीं थे। इसके लिये उन्होने मना कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इनकी याचिका स्वीकार कर इन्हे स्कूल को वापस लेने को कहा। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि यदि कोई व्यक्ति राष्ट्र-गान का सम्मान करता है पर उसे गाता नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह इसका अपमान कर रहा है। न ही इसे न गाने के लिये दण्डित या प्रताड़ित किया जा सकता है। वंदे मातरम् राष्ट्र-गीत है इसको जबरदस्ती गाने के लिये मजबूर करने में भी यही कानून/नियम लगेगा।

जो बात मैं कहने जा रहा हूँ उसके बारे में मुझे पता नहीं कि हमारे किसी न्यायालाल ने कोई व्यवस्था दी अथवा नहीं ! यदि किसी को राष्ट्र गीत गाने के लिए मजबूर करना कानून सम्मत नहीं है तो क्या किसी को राष्ट्र गीत न गाने के लिए मजबूर करना कानून सम्मत है ? यदि नहीं तो क्या ये फतवा जारी करने वाले उलेमा इस देश के कानून से ऊपर है ? फतवा जारी करने वाले दिन पर सभा स्थल पर मौन सहमती के लिए, भिन्न-भिन्न तबके के पांच लाख से अधिक मुस्लिम मौजूद थे !

अब जो दो टके की आख़िरी बात इस विषय पर मै करना चाहता हूँ वह यह कि आज एक बार फिर एक ख़ास समुदाय की देश भक्ति पर उंगलियाँ उठने लगी है, चाहे जिसकी भी वजह से हो ! क्या हम लोग , इस देश के उन तमाम देश भक्त मुसलमानों से, उस युवा पीढी से, जो यह समझते है कि यह फतवा उचित नहीं है, क्या यह उम्मीद कर सकते है कि वे एकजुट होकर आगे आयेंगे और इन उलेमाओं को इस बात के लिए इस कदर मजबूर कर देंगे कि वे इस फतवे को वापस ले ले ! क्या ऐसा हो सकता है ???? यह मैं इस लिए पूछ रहा हूँ क्योंकि यह बात इतनी मामूली भी नहीं समझी जानी चाहिए कि जैसा कि अमूमन होता है, कुछ दिनों के हो-हल्ले के बाद यह दब जायेगी, बात निकली है तो दूर तक जायेगी !

शराफत और प्रेम !

१;

मोहल्ले के कूड़ेदान के बाहर 

वो जो आज तुमने देखा था ,

वह मेरी शराफत का चोला था,
जिसे मैने कल ही उतार फेंका  था।  ,





२;

प्रेम भी
अब नही बचा
आडम्बर के
परिवेश से !
कभी
प्रेम सच्चा होता था,
चाहे वह इन्सान से हो,
या फिर देश से !!

मगर आज हर चीज को
’स्युडोइज्म’ (छद्मता) का
ऐसा बुखार चडा है !
इंसानी वजूद 

कठपुतली बन गया  है 
और सियासी धर्म,
राष्ट्र-धर्म से बडा है !!

Sunday, November 8, 2009

तांक-झांक, एस एम एस की निराली दुनियां मे!

आप और हम, आज के इस तकनीकी युग मे कमप्युटर और ट्वीटर की दुनियां मे कुछ ज्यादा ही मस्त हो गये है। लेकिन हमारे पीछे साहित्यिक मनोरंजन की एक और दुनिया भी है, सेल फोन पर एस एम एस की दुनियां। आज जैसा कि विदित है, साप्ताहिक छुट्टी का दिन है, अत: फुरसत के इन्ही पलो में मैंने यहाँ झाँकने की कोशिश की! आइये चले, और देखें कि इस दुनियां मे क्या चल रहा है (सुविधा हेतु, कुछ सन्देशो का हिन्दी रूपान्तर भी प्रस्तुत किया है) ;

पहला एस एम एस:
कर दिया इजहारे इश्क हमने मोबाईल पर,
लाख टके की बात, एक रुपये मे हो गई !

दूसरा एस एम एस:
आई लब यू…
आई लब यू …
आई लब यू….
आई लब यू…
यार, गलत मत समझना, डाक्टर लोग कहते है कि पागलों को प्यार से ही हैन्डल करना चाहिये ।
़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़

सरदार जी: अर्ज किया है …….
यशोमती मैया से बोले नन्द लाला…
वाह-वाह…
यशोमती मैया से बोले नन्द लाला…
मां,
टाटा स्काई लगा डाला तो
लाईफ़ झिंगालाला…
़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़
इन्सानी सम्बन्ध एक पेड की तरह होते है,
जो शुरुआत मे देख भाल मांगते है , लेकिन अगर एक बार सम्रद्ध हो गये तो फिर जिन्दगी भर आपको छांव देते है , हर सुख-दुख में !

़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़
जब बारिश होती है तो सारे पक्षी कहीं शरण ढूढते है, सिवाए चील के, जो बारिश से बचने के लिये बाद्ळों से ऊपर चला जाता है । समस्यायें हर एक के साथ समान होती है, मगर एक नजरिया ही है, जो औरों से भिन्न होता है।

़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़
कागज की कश्ती थी, पानी का किनारा था,
खेलने की मस्ती थी, दिल ये आवरा था ,
कहां आ गये इस समझदारी के दल-दल मे ,
वो नादां बचपन ही कितना प्यारा था !
़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़
समस्या, उम्मीदों और वास्तविक्ताओं के बीच की दूरी है, इसलिये या तो कम की उम्मीद करो और वास्तविक्ता को स्वीकारो, या फिर..ढेरो उम्मीदे रखो और उसे वास्तविक्ता मे बदलो !
़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़
रेस मे जीतने वाला घोडा यह नही जानता कि वह किस लिये दौडा था, वह तो मार पड्ने और दर्द की वजह से दौडा ! इसी तरह जिन्दगी भी एक रेस ही है, जहां भग्वान आपका घुड्सवार है, इसलिये यदि आप किसी दर्द मे है तो ये समझिये कि भग्वान आपको जिताना चाहता है।
़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़
अगर तुम्हें कोई मेरे से अच्छा दोस्त मिले, और तुम उसके साथ जाना चाहो, तो मैं तुम्हे रोकुंगा नही, लेकिन जब वह तुम्हे छोड कर चला जाये, तो पीछे मुड्कर देखना , मैं वहां हुंगा तुम्हे थप्प्ड मारने के लिये, और यह कह्ने के लिये कि मार ली होश्यारी !
़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़
कभी जब तुम मुझे तुम्हे निहारते हुए देख लो तो ये मत सोचना कि मैं तुम्हे इस लिये देख रहा हूं कि तुम सुन्दर लग रही हो, मेरी मा कह्ती है कि शैतानों की पूंछ होती है और मैं तुम्हे निहार यही तलाशने की कोशिश करता रहता हूं कि तुम्हारी पूंछ किधर है ?
़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़
परीक्षा हाल मे फर्रा ले जाये, उसे खुर्चे, अपने नज्दीकी अध्यापक को दिखाये, और प्रिन्सिपल के दफ़्तर तक की फ्री ट्रिफ पाये और फिर घर मे बेहिसाब छुट्टियों का मजा ले !
़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़
रक्षा वन्धन पर एक एस एम एस: लडकियों के हाथ मे कोई लावारिश वस्तु देखें तो वहां से तुरन्त ही भाग जाये क्योंकि यह वस्तु राखी हो सकती है, और आपकी जरा सी लापरवाही आपको भाई बना सकती है !
़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़
दोस्ती किसी गीले सीमेन्ट पर खडे होने जैसा है, जितनी अधिक देर आप ठ्हरोगे आपके पैर जमते जायेंगे, और यदि आप वहां से निकल भी गये तो बिना पैरो के निशां छोडॆ नही जा सकते।
़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़
जब कभी आप यह देखना चाहे कि आप कितने धनवान है तो अपने खजाने को मत गिनिये, सिर्फ़ आख से एक आंसू निकाले और देखे कि कितने हाथ उसे फोजने के लिये उठ्ते है ।
़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़
हर चांद मिले, हर सितारा मिले,
जिन्दगी मे कभी अकेले न रहो आप ,
आपको कोई हम जैसा मिले
कोई हम से भी प्यारा मिले
़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़
देखो जानी ! फ़ायर को आग कह्ते है,
कोबरा को नाग कह्ते है,
गार्डन को बाग कह्ते है ,
और जो तुममे मिसिंग है,
उसको दिमाग कहते है !

और अन्त मे…
नोट: अगर आप सिगरेट नही पीते, अगर आप दारू नही पीते,अगर आप मटरगश्ती नही करते, आप का कोई दोस्त भी नही है, आप जुआ भी नही खेलते, गलत बात भी नही करते
तो कृपया हमारी वेब साईट पर पधारे, वेब साइट का पता है डब्ल्यु डब्ल्यु डब्ल्यु डोट अबे पैदा क्यों हुए थे डौट कौम……!

Saturday, November 7, 2009

मातृ -भूमि वन्दना -गलत क्या है ?

वन्देमातरम जगत-जननी के नमन का गीत है,
जो दर्शाता धरती माँ के प्रति हमारी प्रीत है !


जिसमे  हमने  जन्म लिया, खेले , पले -बढे ,
और अंतत :फिर उसकी ही माटी की भेंट चढ़े ,

उसी पावन धरा को यह समर्पण दल नीत है,

जो दर्शाता धरती -माँ के प्रति हमारी प्रीत है !

जो मातृ -भूमि की वन्दना नकारते है आज,
यही कहूंगा कि वो हैं उबसे हुए बन्दे नवाज !


श्रदेय को सत्कार देना उपकृत की ये रीत है !
जो दर्शाता धरती माँ के प्रति  हमारी प्रीत है ! 

Friday, November 6, 2009

बेच खाया देश को........

बाग-डोर पकड़ डाली ,
लुच्चे ,लफंगों ने !
 तिजोरी कर दी खाली ,
ऐयाश, नंगो ने !!

कभी सोने की चिडिया,
 देश सर्वनाम था !
बेकस,लाचार  के लिए
आश्रय -धाम था !!

वंदेमातरम भी उलझाया ,
फिजूल के पंगो ने !
वतन को ही बेच खाया ,

ऐयाश, नंगो ने !!

लुप्त प्राय हो चुके है अब ,
धर्म और ईमान !
तुष्टिकरण में लूटा दिया ,
देश का सम्मान !!

जनतंत्र  छल-पेशा  किया ,
बाहुबली-भुजंगों ने !
बेच खाया समग्र देश को,

ऐयाश, नंगो ने !!

भारत शान्ति के पक्षधर था ,
'अतिथि देवो भव:' नारा था !
जहां पहुँच अनजान क्षितिज को ,
मिलता एक सहारा था !!

आज कटुता फैला दी है ,
धर्मांध व्यक्रित दंगो ने !

वतन को ही बेच खाया ,
ऐयाश, नंगो ने !!

Thursday, November 5, 2009

अमेरिका कहता है कि अब हम सब हिन्दू है ;

इस ब्लॉग जगत पर कल दुबे जी का आलेख कि क्या आप हिन्दू है, एवं चिपलूनकर जी का आलेख कश्मीर का रजनीश पढा तो मन व्यथित था! आज यह खबर का टुकडा हाथ लगा तो सोचा कि क्यों न आपके साथ शेयर करू और ब्लॉग पर ठेल दूं ! अपने इन हिन्दुस्तानी भाइयों को जो इस धर्म की बखिया उदेड़ने से ज़रा भी नहीं चूकते, कुछ तो ज्ञान प्राप्त होगा ! एक कहावत है कि हीरे की परख जौहरी ही कर पाता है, और हीरा हीरा ही होता और रहता है, चाहे देर सबेर ही लोग उसकी महता को समझे ! मैं लोगो की भांति यह तो दावा नहीं करूँगा कि हमारा धर्म तीब्रगामी और सबसे तेज है मगर यह जरूर कहूंगा कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमा हमारा !

आपने मथुरा और अन्य धार्मिक स्थानों पर गोरी चमड़ी के श्रधालुओ को तो बड़ी मात्र में देखा ही होगा लेकिन यह जानकर आपको भी खुशी होगी कि अमेरिका में लोग तेजी से हिन्दू धर्म की और इसके प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद की महता को समझने लगे है और वहाँ की आवादी के २४ प्रतिशत लोग हिन्दू रीति के हिसाब से अपने दाह- संस्कार के पक्ष में है ! पन्द्रह अगस्त को अमेरिका की मशहूर पत्रिका न्यूज़ वीक में छपा आलेख आप खुद ही पढ़ लीजिये ;
===*We Are All Hindus Now* ===*By Lisa Miller NEWSWEEK * Aug 15, 2009 ==America is not a Christian nation. We are, it is true, a nation founded by Christians, and according to a 2008 survey, 76 percent of us continue to identify as Christian (still, that`s the lowest percentage inAmerican history). Of course, we are not a Hindu—or Muslim, or Jewish, or Wiccan—nation, either. A million-plus Hindus live in the United States,a fraction of the billion who live on Earth. But recent poll data show that conceptually, at least, we are slowly becoming more like Hindus and less like traditional Christians in the ways we think about God, our selves, each other, and eternity. The Rig Veda, the most ancient Hindu scripture, says this: `Truth is One, but the sages speak of it by many names.` A Hindu believes there are many paths to God. None is better than any other; all are equal. The most traditional, conservative Christians have not been taught to think like this. They learn in Sunday school that their religion is true, and others are false. Jesus said, `I am the way, the truth, and the life. No one comes to the father except through me.` Americans are no longer buying it. According to a 2008 Pew Forum survey, 65 percent of us believe that `many religions can lead to eternal life`—including 37 percent of white evangelicals, the group most likely to believe that salvation is theirs alone. Also, the number of people who seek spiritual truth outside church is growing. Thirty percent of Americans call themselves `spiritual, not religious,` according to a 2009 NEWSWEEK Poll, up from 24 percent in 2005. Stephen Prothero, religion professor at Boston University, has long framed the American propensity for `the divine-deli-cafeteria religion` as `very much in the spirit of Hinduism. You`re not picking and choosing from different religions, because they`re all the same,` he says. `It isn`t about orthodoxy. It`s about whatever works. If going to yoga works, great—and if going to Catholic mass works, great. And if going to Catholic mass plus the yoga plus the Buddhist retreat works, that`s great, too.` Then there`s the question of what happens when you die. Christians traditionally believe that bodies and souls are sacred, that together they comprise the `self,` and that at the end of time they will be reunited in the Resurrection. You need both, in other words, and you need them forever. Hindus believe no such thing. At death, the body burns on a pyre, while the spirit—where identity resides—escapes. In reincarnation, central to Hinduism, selves come back to earth again and again in different bodies. So here is another way in which Americans are becoming more Hindu: 24 percent of Americans say they believe in reincarnation, according to a 2008 Harris poll. So agnostic are we about the ultimate fates of our bodies that we`re burning them—like Hindus—after death. More than a third of Americans now choose cremation, according to the Cremation Association of North America, up from 6 percent in 1975. `I do think the more spiritual role of religion tends to deemphasize some of the more starkly literal interpretations of the Resurrection,` agrees Diana Eck, professor of comparative religion at Harvard. So let us all say `om.`

Wednesday, November 4, 2009

भारतीय राजनीति पर भ्रष्टता का 'कोढ़' कह लो या 'कोडा' !

इन कोडा महाशय ने क्या महान कार्य किया इसके बारे में कुछ नहीं कहूंगा, क्योंकि कुछ बहुत ही संवेदनशील किस्म के खबरिया माध्यम, जो इसी चिंता में पतले हुए जा रहे थे कि यहाँ बहुत दिनों से कोई धमाकेदार वारदात नहीं हो रही है, और उन्हें टीआरपी की चिंता खाए जा रही थी कि अचानक बैठे-बिठाए दो मुद्दे मिल गए, एक जयपुर तेल हादसा और दूसरा कोडा ! उन्होंने पिछले कुछ दिनों में इनके पूरे बंश का की काला चिठ्ठा खोल डाला है ! अतः इनके बारे में मेरे ज्यादा कुछ कहने की जरुरत नहीं ! झारखंड राज्य बनने पर इनकी किस्मत के सितारे बुलंद हुए और यह एक आम आदिवासी से महापुरुष बन गया ! कोडा ने जो भी महान कार्य किये, उनका चिट्ठा तो अब खुलता ही जा रहा है, मगर इन्हें पाप करने के लिए मौका किसने दिया? सवाल यह है!

तथाकथित साम्प्रदायिकता और राष्ट्रवाद का विरोध   करने वाले हमारे ये सेकुलर दल जिन्होंने सिर्फ बीजेपी से सत्ता छीनने के लिए झारखंड में एक नया ही इतिहास रच डाला, एक निर्दलीय को मुख्यमंत्री बनाकर, क्या वे इस बात की जिम्मेदारी लेंगे कि यह सब करके उन्होंने देश का कितना घोर नुकशान करवाया ? नहीं, इन्हें देश से क्या लेना-देना, इन्हें तो सिर्फ अपने लिए सत्ता चाहिए, वोट बैंक चाहिए, बस! एक व्यक्ति जब बीजेपी में होता है तो वह इनके लिए अछूत जैसा होता है, लेकिन जब वह बीजेपी छोड़ इनके दल में आ जाता है तो वह पवित्र हो जाता है! आपको याद होगा कि किस तरह उस समय सितम्बर २००६ के आसपास बीजेपी अपने विधायको को पाला बदलने और इनसे बचाने के लिए उन्हें दुसरे राज्यों में लेकर छुपाती फिरी थी! क्योंकि यह इंसान अपनी पाप की अंधी कमाई से उनकी खरीद-परोस्त कर रहा था ! अफ़सोस इस बात का है कि यह हम सब जान रहे होते है कि ये लोग हमारी आँखों में धुल झोंक रहे है, फिर भी हम सबकुछ अनदेखा कर जाते है !

और यह तो सिर्फ एक वाकया है, जो इसलिए सामने आ गया क्योंकि यह जनाव गुरूजी और कौंग्रेस के लिए आगामी चुनावों में ख़तरा साबित हो सकता था ! अगर इस देश का कानून और जांच एजेंसिया देश के एक-एक मंत्री और राजनेता के घर की इमानदारी से सफाई करे तो पता नहीं क्या-क्या उजागर हो जाए ! स्विस बैंक में खरबों रूपये का भण्डार ऐसे थोड़े ही पहुँच गया, कोडा तो बस एक अदनटा सा किरदार है इस पूरे रंगमंच पर! मगर हमें याद रखना होगा कि अपने फायदे के लिए कुछ राजनैतिक दल जो कुछ आज कर रहे है और ठीक उसी राह पर चल रहे है जिस राह पर हमारी राजनीति १९२०-१९४० के दशको में चली थी ! परिणाम देश ने भुगता १९४७ के रूप में ! जो ये आज कर रहे है अगर यही इनका राष्ट्रवाद है, तो मैं तो कहूंगा कि भगवान् बचाए इस देश को इनके इस राष्ट्रवाद से !

नहीं मालूम कि भारतीय राजनीति पर
भ्रष्टाचार का यह कोढ़ है या कोडा था,
इसे तो पकड़ लिया मगर उसे कौन पकडेगा ,
जिसने स्वहित में, इसको बनाया घोडा था?
फिर से यह कैसा नया यशस्वी आया है
जिसने ४ साल में ४००० करोड़ खाया है ?
हिन्दवासियों इस महापुरुष को नमन करो,
अमीर बनना है तो इसकी तरह गबन करो !
देश-वेश की कौन सोचता है , यहाँ तो

गद्दारी के बल पर हमने देश को तोडा था !
इसे तो पकड़ लिया मगर उसे कौन पकडेगा ,
जिसने स्वहित में, इसको बनाया घोडा था?

Tuesday, November 3, 2009

एक इमोशनल अत्याचार ऐसा भी


सुनो ,
तुम सुन रहे हो न ?
पता नही क्यों,
यह मोबाइल फोन,
आजकल इस पर सिगनल
ठीक से नही आते !
जब से तुम गये हो,
पूरे चार साल हो गये,

तुम्हारा यह फोन ही  साथ है
लगता है अब यह भी थक गया,
साथ निभाते- निभाते !!

तुम सुन रहे हो न ?
कल रात को  तुम्हारे इस 

लाड्ले  को सुलाते ,
 लेटे-लेटे अचानक पूछ बैठा,
 ममा, ये ’पापा’ कैसे होते है ?
उसके इस अबोध सवाल का
भला मैं क्या जबाब देती
उसका मन रखने को
बोली कि बेटा,
जो तुम्हारी ममा को जगा
खुद कहीं चैन की नींद सोते है !
 पापा ऐसे होते है !!

तुम सुन रहे हो न ?
उतनी देर से
सिर्फ़ हूं-हूं किये जा रहे हो,
तुम कुछ कहो न !
मै तो उसे समझाते-समझाते
थक जाती हूं,
मगर उसे कोई यकीं नही
दिला पाती हूं !
हरदम तुम्हे 'मिस' करता है,
तुम्हारी तस्वीर देख
हंसने लगता है,
तुम्हे देखेगा तो
उसका तो रोम -रोम खिलेगा !
कब लौट रहे हो ?
तुम्हे तुम्हारा वो
'ग्रीन कार्ड' कब तक मिलेगा ?  


Monday, November 2, 2009

इन्क्रेडिबल इन्डिया, सचमुच !


गत दिवस  एक विदेशी मेहमान,  जो अपनी प्रेमिका(गर्ल फ्रेन्ड) संग भारत भ्रमण पर आये हुए है, को  वहाँ विदेश में मेरे संपर्क सूत्र द्वारा मुझे फोन पर किये गये अनुरोध के अनुरूप आगरा घुमाने ले गया था। तडके मथुरा रोड पर पलवल तक तो सडको पर थोडा- बहुत यातायात था, और दिल्ली से चलते हुए सडक के अगल-बगल हो रहे निर्माण कार्यो को देख (सरिता विहार के आसपास बन रहे मैट्रो लाईन और बदरपुर पर बन रहे फ्लाइ-ओबर को देख कर ) विदेशी मेहमान काफ़ी प्रभावित हुए और वे जब अपने को यह कहते हुए नही रोक सके कि “वोऊवो...... इन्डिया इज प्रोग्रेसिंग” तो मैने भी अपने देश की तारीफ़ो के सिलसिले मे काफ़ी लम्बी-लम्बी छोड दी । चीन को भी अपने देश के मुकाबले गया-गुजरा बताने से नही चूका।

सुबह-सबेरे का वक्त होने की वजह से पलवल से आगे सड्क सुनशान थी, अत: मैने ऐक्सीलेटर पर थोडा और दबाब बना दिया था। गाडी के अन्दर कुछ देर से खामोशी छाई हुई थी, अत: उसे तोड्ते हुए मैने स्टीव ( उस मेहमान का नाम स्टीव जौन्सन था और उसकी प्रेमिका का नाम ऐन्डी) से पूछा,
यू स्टे विद यौर पैरेन्ट्स ?
नो, आइ एम् विद ऐन्डी फॉर पास्ट फाइव इयर, वह बोला ।
हाव अबाउट यौर फादर ? मैने पूछा ।
ही इज मैरीड, वह बोला।
ऐन्ड हाव अबाउट यौर मदर ? मैने फिर पूछा !
वह झट से बोला, सी इज आल्सो मैरीड ।

उसकी बात सुन मै डैश बोर्ड के ऊपर बैक व्यू मिरर पर एक नजर डाल, पश्चमी सभ्यता पर मन्द-मन्द मुस्कुराया और ड्राईव करते हुए सोचने लगा कि ये लोग जब इन्डिया आकर किसी बुड्डे-बुढिया को अपनी शादी की पचासवीं साल-गिरह मनाते देखते होंगे तो बडा अजीब सा मह्सूस करते होंगे, कि कैसे ये लोग इतने सालों तक इक्कठ्टा रह लेते होंगे ! मुझे श्री सुरेन्द्र शर्मा जी का टी वी पर दिया उनका वह प्रोग्राम याद आ रहा था कि चुंकि अंग्रेज लोग (पति-पत्नी) दिन-भर मे बीसियों बार किस (चुम्बन) और हग( आलिंगन ) करते है इसलिये उनका प्यार का कोटा जल्दी खत्म हो जाता है, अत: वे लोग जल्दी ही तलाक ले लेते है, और दूसरी शादी कर लेते है, जबकी अपने देश मे तो मिंया-बीबी महिनों मे ही शायद एक बार इत्मिनान से ’किस’ कर पाते होंगे एक-दूसरे को, इसलिये उनका कोटा जिन्दगी भर खत्म नही होता।

खैर, इन्ही सब बातो के बीच कब आगरा पहुंच गये, पता ही नही चला। गाडी एक जगह पार्क कर वहां से उपलब्ध बस से ताज गये। गोरी चमडी के लोगो को साथ देख लोग गाईड के लिये हमारे ऊपर लगभग ही झपट पडते थे। आगरा मे तो जैसे-तैसे मैं स्थिति सम्भालता रहा, लेकिन फतेहपुर सिकरी पहुंचने पर “इन्डिया इज प्रोग्रेसिंग” के बारे मे मैने स्टीव और ऐन्डी के सामने जो लम्बी-लम्बी छोडी थी, उन दावो की हवा निकलते देर न लगी। इलाके मे प्रवेश करते ही गोरी चमडी के दो लोगो को कार की पिछली सीट पर बैठा देखकर लोगो का झुण्ड ऐसे टूटा, मानो ये लोग हमारे पर हमला करने आ रहे हो। कुछ देर के लिये तो दोनो विदेशी मेहमान भी सहम गये थे, लोग विन्ड स्क्रीन को जिस ढंग से खटखटा रहे थे, मुझे लग रहा था कि ये लोग तो आज शीशा तोड ही डालेगे। देख रहा था कि कोई पुलिस वाला दिखे तो उसे कहुं कि ये क्या नजारा है ? एक जीप नजर आ भी रही थी, मगर पुलिस वाला नदारद । गाडी पार्क कर पीछे-पीछे आ रही भीड के एक–दो लोगो को हड्काना चाहा तो सभी एक साथ बोल पडे, भैया, ये हमारी रोजी है ! मैने समझाना चाहा कि रोजी का मतलब यह तो नही कि तुम पर्यटक को ह्रैस करो, लेकिन उस भीड मे मेरी सुनता कौन ?

खैर, पांच सौ से सुरु होकर आखिर मे सत्तर रुपये मे तैयार हुए एक गाईड को हायर कर हमने उस गाइडो की भीड से अपना पिण्ड छुडाया। मेहमानों के समक्ष मै खुद को शर्मिन्दा मह्सूस कर रहा था। अपने देश की प्रगति की असलियत सामने आ गई थी। मै उतना क्षुब्द उन गाईडो से नही था, क्योंकि वे तो बस यह दर्शा रहे थे कि इस देश मे आज पढे-लिखे नौजवान बेरोजगारों की क्या स्थिति है, गुस्सा मुझे आ रहा था इस देश के पर्यटन विभाग पर, गुस्सा आ रहा था, सरकार पर । अगले साल जो विदेशी कौमन वेल्थ खेलो के समय भारत आयेंगे, ये पर्यटन स्थल दिल्ली से सबसे पास होने की वजह से लोग यहा भ्रमण के लिये जायेंगे, और अगर वहां यही स्थिति रही तो इस देश की क्या इमेज लेकर वे अपने देश लौटेंगे ? काश कि इस देश के युवाओं के तथाकथित नेता  उत्तर प्रदेश के दूर-दराज के दलितों के गांव जाने के साथ-साथ, कभी-कभी एक आम नागरिक बनकर इस पर्यटन स्थल का भी भ्रमण करके आते और देखते कि देश मे पढे-लिखे युवाओं की क्या स्थिति है ?


ढांचागत विकास करना है, तो मानसिकता का करो !
बाहरी नक्सलवाद से नहीं, आतंरिक रूढ़िवाद से डरो !!

तेरा ही लिखा कोई अफ़साना लगा !




सुन्दर  तेरा  वो  आशियाना लगा,
जग सारा ही अपना घराना लगा।
कुछ लम्हा जो ठहरे थे दर पे तेरे ,
जाना -पहचाना सा ठिकाना लगा।।

समझ न पाये गफ़लत मे  क्यों थे,
 होता नही कोई किसी का यहां पर ।
पलभर जो शकूं  तेरे आंचल मे  पाया ,
अपना हमे  
फिर सारा जमाना लगा।।  

वो जो पल्लू से ढककर चेहरा हमारा ,
गुनगुनाया था हौले से इक गीत तुमने।
 जुबाँ  पे यूं रम गया हर शब्द उसका ,  

 ज्यूँ अपना ही गाया कोई तराना लगा।।

घडीभर के लिये जब मुस्कुरा दिये तुम ,

मुझसे नजरें चुराकर मेरी शोखियों पर।
मिला  फिर मेरे दिल को आह्लाद इतना ,
जैसे हाथ कोई अनमोल खजाना लगा।।

रुखसत हुआ जब महफिल से तुम्हारी ,
ये दिल अपना, तुम्हारा दीवाना  लगा।
छलके  थे वो जो  आँसू पलकों से तेरी ,
तुम्हारा ही लिखा कोई अफ़साना 
लगा।।

सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...