Monday, December 3, 2012

खता मेरी ही थी, जो मैं तुमसे दिल लगा बैठा।













तेरी चौखट पे न होता, आज इस तरह ठगा बैठा,
खता अपनी ही थी कि जो तुमसे दिल लगा बैठा।

पूछके देखो ज़रा उससे ,क्या होती है नींद चैन की,
जो वाट जोहता किसी की, रहे रातों को जगा बैठा।

ऐ नादां, हमने तेरे लिए क्या-क्या न ठुकरा दिया,
जो थे  कुछ सगे उनको भी, खुद से दूर भगा बैठा।

आज हमदर्दी का तुम्हारी, है यह आलम कि मैं ,
हूँ बेगानॉ की महफ़िल में, इक अकेला सगा बैठा।

योवन की दहलीज पर, गर यूं न बहकते कदम,
अपने को ही क्यों होता 'परचेत', देकर दगा बैठा।












14 comments:

  1. वैसे आपकी पोस्ट पढने का प्रयास करता हु सभी बहुत अच्छी है यह कबिता अच्छे भाव की है -----बहुत सुन्दर---.

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  2. @दीर्घतमा: बहुत-बहुत शुक्रिया और आभार आपका सूबेदार जी !

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  3. बहुत ही अच्छी पोस्ट है .. ऐसा ही होता है जब हम किसी को डूब के चाहते है और वो यूँ ही छोड़ के चला जाता है।

    आपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा ..अगर आपको भी अच्छा लगे तो मेरे ब्लॉग से भी जुड़े।

    आभार!!

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  4. सुन्दर प्रस्तुति !!

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  5. बहुत सुन्दर रचना

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  6. दिल के मामले तो हर तरह खतरनाक ही होते हैं. :)

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  7. आज भी ढूंढती है मेरी निगाह उनको
    वो मेरे, जिनसे अपने को मैं ठगा बैठा...!

    खुश और स्वास्थ्य रहिये भाई जी !

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  8. बहुत ही दमदार टिप्पणी..

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  9. चौखट पे न होता आज, इसतरह सा ठगा बैठा,
    खता मेरी ही थी, जो मैं तुमसे दिल लगा बैठा।
    परचेत जी ये पंक्तियाँ मैंने किसी को पढ़ते ही मैसेज कर दी...
    बहुत ही शानदार

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  10. In short,
    Chest pain can not be measured from the top.

    जिगर का दर्द कहीं ऊपर से मालुम होता है? की, जिगर का दर्द ऊपर से मालूम नहीं होता!

    --------------------------------

    पेश ए खिदमत,
    एक इंस्टेंट इनहाउस रचना ::

    अरे भाई, दर्द को बनाओ दवा,
    गम को बनाओ हवा,
    आओ मिल के सेक ले एक चपाती,
    गरम हो गया है तवा!


    (ये तो शेर हो गया सर!) :D

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  11. तुम्हे समझकर अपना, नादानियों की हद देखो,
    उनको भी जो अपने थे, अपने से दूर भगा बैठा।

    बहुत खूब ...

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  12. वक्त न बेरहम होता, और न किस्मत सोई होती,
    'परचेत' न होता गर अपने को,देकर यूं दगा बैठा।


    वाह.... क्या बात है.

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