Saturday, February 23, 2013

गिरेवाँ में झाँकिये












पुष्प-हार क्या मिलेगा, पदत्राण खाओगे,  
जैसा बोओगे, फसल वैसी ही तो पाओगे।  

जानता हूँ कि कहना,लिखना व्यर्थ है सब,  
कब तुम इंसान थे, जो अब बन जाओगे। 

उसी के तो काबिल थे,जो हासिल हो रहा, 
सच्चाई को कब तक, फरेब से छुपाओगे। 

सम्मुख वार का हौंसला तो तुममे है नहीं,
मुल्क-फरोशों,पीठ पे ही खंजर चुभाओगे। 

हिम्मत जुटाओ, स्व-गिरेवां में झाँकने की,
गीत दमन,मुफ़लिसी के,कब तक गाओगे।  
  
आज जितना भले दूर, यथार्थ से भागिये,  
आखिर में लौट के बुद्धू,घर को ही आओगे। 

देख कुत्सित कृत्य तुम्हारे,पूछता 'परचेत',    
कायरों,लहू मासूमों का कब तक बहाओगे।      


Friday, February 15, 2013

लानत ऐंसी पॉलिटिक्स पर।



मित्रों ! आज जो देश-परिवेश में घृणित राजनीति के दर्शन हमें नित हो रहे है, मैं समझता हूँ कि उसे हतोत्साहित करने की सख्त जरुरत है। आज यह जो अपराधीकरण राजनीति का हो गया है, जो भ्रष्टाचार की गंद यहाँ फैला दी गई है ,  जिस तरह इसे इन्होने अपनी पारिवारिक जागीर बना डाला है, उसे समाज के सामने आलेख,गीतों, कविताओं के माध्यम से लाना होगा, ताकि इस गंद को कुछ साफ़ किया जा सके। भ्रष्टाचार हमेशा ऊपर से नीचे को आता है, यदि शीर्षस्थ इंसान कठोर  और ईमानदार हो तो अधीनस्थ भ्रष्टाचार करने से पहले दो बार सोचेगा।   और मैं समझता हूँ कि शायद ब्लॉग्गिंग और सोशल मीडिया इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है।   
            
खाते कमीशन सौदा फिक्स कर,
लानत ऐसी पॉलिटिक्स पर, 
औहदे पाते पाद लिक्स कर, 
लानत ऐंसी  पॉलिटिक्स पर।   


तराशें आपहूँ जियारत अपनी, 
बना दी सियासत तिजारत अपनी, 
मॉल बनाकर माल बेचते,
असली-नकली सभी मिक्स कर,  
लानत ऐंसी पॉलिटिक्स पर। 

चोरी-भ्रष्टाचार खेल-कूद है, 
गुंडा-मवाली इनका वजूद है,  
कौमन-वेल्थ की लूट मचाकर, 
नुक्स बताते एथेलेटिक्स पर,
लानत ऐंसी पॉलिटिक्स पर। 

इन्हें मिली यथार्थ स्वतंत्रता, 
इनके लिए न कोई पात्रता, 
हस्ताक्षर पे छाप अंगूठा, 
परामर्श देते है फ़िजिक्स पर,
लानत ऐंसी  पॉलिटिक्स पर।

धवल वसन तन, मन हैं काले,
करम है करना रोज घोटाले,     
खुद देश चबाकर खा गए सारा, 
और भाषण देते हैं एथिक्स पर,
लानत ऐंसी  पॉलिटिक्स पर।

अभिवादन पर नोटों की माला,
मन बहलावे को नृत्य-बाला,  
भक्ति-भजन को वक्त न मिलता, 
पग थिरकाते बेशऊर लिरिक्स पर, 
लानत ऐंसी  पॉलिटिक्स पर।

हराम का खाते, काज न करते,
माँ-बहन का लिहाज न करते,
चाहे जितना पाल-पोश लो,    
सियासत ऐसी मेरे किक्स पर,
लानत ऐंसी  पॉलिटिक्स पर।।    

 नोट: रचना को लय-युक्त बनाने के लिए कुछ शब्दों को अपने हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा है, मसलन इस लाइन "  औहदे पाते पाद लिक्स कर "  में लिक्स शब्द अंग्रेजी के शब्द lick का plural दर्शाया गया है। पाद लिक्स  मतलब चरण चूमकर..................,इसीतरह चंद  और शब्द भी इस्तेमाल किये है।  

Wednesday, February 13, 2013

तोहमत न दे, दीपक जला !
















कर दुआ यही खुदा से,हो सबका भला,
तिमिर को तोहमत न दे, दीपक जला।

घटता समक्ष जो, उससे न अंविज्ञ बन,
मूकता तज मूढ़ता,अज्ञ है तो सुज्ञ बन।
प्रज्ञता प्रकाश फैले,जिधर भी पग चला,
तिमिर को तोहमत न दे, दीपक जला।

मृदु-शिष्ट बर्ताव से नेह,स्नेह अपार ले,
तृण-तृण समेटकर, जिन्दगी संवार ले।
कलसिरी को अनुराग, उत्सर्ग से गला,
तिमिर को तोहमत न दे, दीपक जला।

दांपत्य-जीवन में छुपा न कोई राज हो,
युग्मन नेक हो,तारिणी न दगाबाज हो।
पाया क्या,निराश्रय होकर जो कर मला,
तिमिर को तोहमत न दे, दीपक जला।

बुनियाद सम्बन्धों की न खिंड-मिंड हो,
अनुयोजन से कोई, तृन्ढ़ न हृत्पिंड हो।
नागकनी पुष्प से,सीख जीने की कला,
तिमिर को तोहमत न दे, दीपक जला। 


रख निरन्तर जोड़े,अपने को जमीन से,
विलग न कर कभी सत्य को यकीन से।
कंट-पथरीला है पथ, हर बला को टला,
तिमिर को तोहमत न दे, दीपक जला।

हो मन न कुलषित एवं दृष्टि में न हेय हो,
निष्काम,निःसंग भाव,परमार्थी ध्येय हो।
इंसां तो क्या,धूप को भी अंधेरों ने छला,
तिमिर को तोहमत न दे, दीपक जला।
  

तिमिर=darkness तोहमत=cursing सुज्ञ=intelligent प्रज्ञता=knowledge कलसिरी=quarrelsome lady उत्सर्ग=devotion खिंड-मिंड=unplaced अनुयोजन=action, तृन्ढ़=hurt हृत्पिंड=heart    नागकनी=cactus  निष्काम,निःसंग=unbiased          

Tuesday, February 12, 2013

मुफलिसी के इस दौर मे, मगज भी सटक गए।



शायद बहुत समय नहीं गुजरा जब अपने इस देश में कुछ हलकों में ये आवाजें उठी थी कि सिंध को अपने राष्ट्र-गान से अलग किया जाए। मेरा यह मानना है कि कुछ स्थान, वस्तु और प्राणी या तो हमेशा से सौभाग्यशाली होते है या फिर निरंतर दुर्भाग्यशाली। और इसी आधार  पर मैं यह मानता हूँ कि अखंड भारत का सिंध क्षेत्र, जोकि अब पाकिस्तान में है, वह भी हमेशा से  दुर्भाग्यशाली ही रहा है।आप इतिहास उठाकर देख लीजिये, इस अभागे प्रदेश ( यहाँ मैं सिर्फ धरा के उस भू-भाग  की ही बात कर रहा हूँ) ने सदियों से सिर्फ और सिर्फ कष्ट ही सहे हैं।

आज एक समाचार पढ़ रहा था जिसके अनुसार पाकिस्तान की सिंध प्रांत की एसेम्बली ने उस प्रस्ताव का पास कर दिया जिसमें  सिंध(Sindh ) का नाम अब सिर्फ सिंद (Sind ) करने की व्यवस्था है । इसके पीछे का पाकिस्तानी राजनेताओं, जोकि इस किस्म की महानताओं की परिपाटी में हमारे नेताओं से ख़ास कुछ भिन्न नहीं हैं,  का मत यह है कि सिंध शब्द Indus नदी की वजह से संस्कृत के शब्द सिन्धु अथवा हिन्दू धर्म का द्योतक है, जबकि सिंद एक अरबी शब्द है, या यूं कहें कि अरब के मुस्लिम आक्रान्ताओं  ने इस क्षेत्र को "अल सिंद" कहकर संबोधित किया था। वैसे सन 1990 से पहले भी पाकिस्तानी इसे सिंद ही लिखते थे, लेकिन 1990 के दौर में वहाँ की सरकार  ने इसे ठीक किया था।  इसका जो संक्षिप्त इतिहास है वह यह है कि जब यह एक सिन्धु ( हिन्दू) देश हुआ करता था, तब इस पर राजा दहीर का शासन था, जिस पर बाद में विदेशी आक्रमणकारियों ने हमला कर अपने हिसाब से तोड़ा- फोड़ा। 

अफ़सोस कि आज न सिर्फ हमारे पड़ोस में, अपितु हमारे खुद के देश में कट्टरवाद का कुछ ऐसा ही माहौल खडा हो रहा है या यूं कहें कि सुनियोजित ढंग से शने:-शने: खड़ा किया जा रहा है। वह चाहे हमारी कमजोरियों की वजह से हो, हमारी सरकारों की  अकर्मण्यता की वजह से  हो रहा हो, लेकिन यह है सर्वथा चिंताजनक। एक आतंकवादी, जिसे हमारी न्यायपालिका ने भी काफी समय पूर्व ही दोषी करार दिया था, उसपर न सिर्फ 12 वर्षों तक राजनीति की कुटिल छाया ही फायदा लेने की कोशिश करती रही,  अपितु आज इस देश के शिक्षित और तथाकथित उच्च शिक्षित युवा वर्गके मध्य भी इसपर राजनीति हो रही  है। जो आगे चलकर इस देश के लिए एक घातक बिंदु बन सकता है। ऐसा लगता है कि स्वार्थ परायणता और मंदी के इस दौर में रोजमर्रा की जिन्दगी की खीज ने हमारे विवेक को कहीं कैद कर लिया है। हम सिर्फ और सिर्फ अपने तात्कालिक फायदे से हटकर कुछ नहीं देख पा रहे है। कश्मीर के हालात, अलीगढ मुस्लिम विश्व विद्यालय  के छात्रों का हंगामाँ  इस बात के द्योतक है।  ऊपर वाले से बस यही दुआ की हमें सद-बुद्धि दे !

                              
शील दम घुटने लगे, सच हलक में अटक गए हैं ,
 अनुचर देवदूत के, खुदा की राह से टक गए हैं ।   
दे रहा है आभास हमको  ऐंसा यह मजहबी जूनून , 
कि मुफलिसी के दौर मे, मगज भी सटक गए हैं । 

Friday, February 8, 2013

मिथ्याबोध !











इसकदर भी हमपे ये बेरहमी न होती, 
ऐ अहबाब, अगर तुम बहमी न होती। 
   
कथा मुहब्बत की पिपासा न बनती,
दिल दिलाने की दिलासा न बनती, 
ये नजर इनायत की जह्मी न होती,
ऐ अहबाब,अगर तुम बहमी न होती।

चेहरे पे निशां बदग़ुमानियों के पूरे, 
ख्वाहिशों के दामन में ख्वाब अधूरे, 
मगर हर गुजारिश अहमी न होती,
ऐ अहबाब,अगर तुम बहमी न होती।

उम्मीदों के नभ अब निराशा के घन, 
भरमा रही पग-पग यकीं को उलझन, 
हर ख्वाइश हमारी यूं सहमी न होती,
ऐ अहबाब, अगर तुम बहमी न होती।   
अहबाब =माशूक (Darling)
छवि गूगल से साभार !

Thursday, February 7, 2013

शुचिता और तारिणी !







देखता मौन संगम, वहाँ कौन कितना नहा है, 
पावनी गंगा जल-धार में, पाप कितना बहा है। 

अमृत-नीर जीवन दायिनी,कलुषनाशिनी वह,
मुक्ति-दात्री है मगर, दर्द उसने कितना सहा है। 

व्यक्तित्व का सौन्दर्य है,अंत:मन की सुघड़ता,
बाह्य-शुचिता मे ही आज मग्न कितना जहां है। 
त्रिवेणी के तट चल रही, स्पर्धा है डुबकियों की, 
मुद्दई उस भीड़ में,संगम मगर कितना तन्हा है।

 उपदेश सच्चा,"मन चंगा तो कठोती में गंगा ",
 जिसने भी 'परचेत' यह कहा, सच ही कहा है। 

Wednesday, February 6, 2013

मोबाइल फोन पड़ गए जबसे, गधों के हाथ में !




















ढेंचू-ढेंचू के ही सुर सुनाई पड़ते है 
अब तो सकल दिन-रात में,
क्योंकि मोबाइल फोन पड़ गए हैं अब 
तमाम गधों के हाथ में।  

इनकी ढेंचुआने की हदों ने 
लांघने को  कुछ भी बाकी न छोड़ा,
बतियाने को ही जुबां  होती है मगर, 
इन्होने हर हद को तोड़ा।  
मुहँ थकते नहीं,राम जाने 
ऐसा क्या है इनकी रसभरी बात में,
क्योंकि मोबाइल फोन पड़ गए हैं अब 
तमाम गधों के हाथ में। 

'असीमित ढेंचुआने' का पैकेज 
लिया हुआ है पूरी विरादरी ने ,  
पथ,लाइन पार करते कई जिंदगियां 
लील ली इस रसभरी ने। 
मग्न अकेले ही ढेंचुआते है 
पागलों की तरह, कोई न साथ में, 
क्योंकि मोबाइल फोन पड़ गए हैं अब 
तमाम गधों के हाथ में। 
   
कुछ कहो तो कहते हैं,तुम क्या जानो 
इसके लिए आर्ट चाहिए,
टुच्चा सा हैंडसेट रखते हो,
ढेंचुआने को फोन भी स्मार्ट चाहिए। 
विश्व-संपर्क के पक्षधर है,
विश्वास न रहा अापसी मुलाक़ात में, 
क्योंकि मोबाइल फोन पड़ गए हैं अब 
तमाम गधों के हाथ में।     

छवि गूगल से साभार !

Tuesday, February 5, 2013

ये ख्याल अच्छा है !

















व्यथित भीगी सी डगर, 
कुछ हर्षौल्लास लेते है, 
कोई परेशानी, कोई और 
झमेला तलाश लेते हैं।  

महसूस न हो संघर्ष के 
पथरीले रास्तों की तंगी,
चलो, कोई और पर्वत, 
कोई शिला तराश लेते हैं। 

पथिक लेता क्षणिक सुख,
देख महुए की तरुणाई,   
किंतु कुसुम सुहास तो गमहर,
तेंदू,पलाश लेते है। 
    
उठान भरी राह कहीं 
बोझ न बन जाये जिन्दगी, 
क्यों न 'परचेत' इसको 
कुछ यूं ही खलाश लेते है।    

Saturday, February 2, 2013

ख्वाइश !










आ जाए बस कोई इक यार बनके,
रहन - कश्ती का खेवनहार बनके, 
बस मेरा किरदार बनके इक अनूठा, चलेगा।

फहर फर-फर सावन फुहार छनके ,   
प्रीत में झनक झन रूह-तार झनके, 
प्रेम सच्चा करे हमसे या झूठा-मूठा, चलेगा। 

खनन खन-खन सागर द्वार खनके,   
साहिलों से टकराके पतवार खनके,
दिल भले साबूत मिले या टूटा-फूटा, चलेगा। 

सुघड सज-धज बन बार-बार ठनके, 
ठुमकठम-ठुमकियाँ  देह-धार ठनके,  
खुश रहे पल-पल सदा या रूठा-रूठा, चलेगा।  

Friday, February 1, 2013

मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया !











जो गए, कुछ राम प्यारे गए, 

तो कुछ अली के दुलारे गए,

चिरकाल यहाँ ठहरा कोई,

जितने थे ,सारे के सारे गए।



फिर कोई गुल न साखे रहा,

कोई फल गुलशन बचा , 

'माले-मुफ्त-दिले बेरहम',

गुलफाम मुफ्त में मारे गए। 


माले-मुफ्त,दिले बेरहम' = हरामखोर 

चित्र नेट से साभार !

सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...