Sunday, July 12, 2020

...............ये शहर मेरा..........!


अपने दुःख में उतने नहीं डूबे नजर आते हैं लोग,
दूसरों के सुख से जितने, ऊबे नजर आते हैं लोग।


हर गली-मुहल्ले की अलग सी होती है आबोहवा,
एक ही कूचे में कई-कई, सूबे नजर आते हैं लोग।


कहने को है भीड भरा शहर,मगर सब सूना-सूना, 
कुदरत के बनाये हुए, अजूबे  नजर आते हैं लोग। 


कोई दल-दल में दलता, कहीं दलती है मूंग छाती, 
सब नापाक ही नापाक, मंसूबे नजर आते है लोग।


बनने को तो आते हैं 'परचेत', सब चौबे से छब्बे जी, 
गाडी विकास की पलट जाए,दुबे नजर आते है लोग।

11 comments:

  1. हकीकत को बयान करती उम्दा ग़ज़ल।

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (14 -7 -2020 ) को "रेत में घरौंदे" (चर्चा अंक 3762) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा


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  3. वाह !लाजवाब आदरणीय सर .

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  4. आदरणीय, बहुत सुन्दर लाजवाब रचना ! साधुवाद !
    कृपया मेरे ब्लॉग के नीचे दिए गए लिंक पर मेरी रचनाएँ पढ़ें और अपने विचारों से अवगत कराएं ! लिंक: https: marmagyanet.blogspot.com
    --ब्रजेन्द्र नाथ

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  5. बहुत सुंदर प्रस्तुति

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  6. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 15 जुलाई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  7. यथार्थ रचना

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  8. आभार आप सभी ब्लॉगर मित्रों का 🙏

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  9. वाह सटीक सार्थक ग़ज़ल "आते हैं लोग"
    अभिनव सृजन।

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।