Friday, February 10, 2012

जंगल का अमंगल भविष्य ! ( लघु-व्यंग्य)

दश्त-ओ-सहरा में बहार आये, न आये। कानन में मधुमास छाये, न छाये... किन्तु, कुछ दुर्लभ जाति एवं ख़ास किस्म के वन्य-प्राणियों के लिए संरक्षित वन्य-जीव अभ्यारण के अनेकों मांसाहारी पशु-पक्षियों के कुटिल चेहरों पर अचानक ही मैं एक अनोखे किस्म की चमक देख रहा हूँ। ऐसा प्रतीत होता है कि इनके लिए सचमुच का वसंत आ गया है। सभी चेहरे खुशी से झूम उठे है, और क्यों न झूमे, उनका झूमना भी लाजमी है क्योंकि घने जंगल के अंधकार में गुम होती उनकी नैया को अचानक एक प्रकाश-पुंज जो नजर आ गया है। दूर क्षितिज की गोद से उन्हें एक नया सूरज उदयमान होता दिखाई दे रहा है, और यही वजह है कि उच्च अभियाचनाग्रस्त इनकी जोरुओं ने भी जो मायाजाल रूपी प्रचंड ख़याल अपने त्रिषित लोचनों में सजा रखे थे, और उम्मीद की धुमिल पड़ती किरणों के चलते उन्होंने वे सारे स्वप्न एक-एककर अपनी पलकों से उतार-उतारकर अपने गुप्त खोहो और कंदराओं में रख छोड़े थे, उन्हें वे पुन: समेटकर अपनी पलकों पर चिपकाने और प्रतिस्थापित करने की कोशिश में जुट गई है।

जंगल के प्राणी आजाद होने को लाख छटपटायें, मगर कटु-सत्य यही है कि जंगल कभी आजाद नहीं हो सकता, उसे हमेशा ही एक वनराज अथवा वनरानी की जरुरत महसूस होती ही रहती है। यह बुरी लत तब अपने और बिकराल रूप में पेश आती है जब कहीं किसी जंगल का अपना एक लंबा गुलामी और विश्वासघात का इतिहास रहा हो। वन्य-जीवो के मस्तिष्क-पटल पर गुलाम मानसिकता इस कदर हावी हो चुकी होती है कि बिना किसी वनराज अथवा वनरानी के मजबूत वरदहस्त के वह कुछ करना तो दूर, ठीक से सोच भी नहीं पाते। और पिछले कुछ समय से इन ख़ास किस्म के मांसाहारी वन्य-प्राणियों की मन: स्थिति भी इससे कुछ ख़ास भिन्न नहीं थी। ये प्राणी यह सोच-सोच कर परेशान हो रहे थे कि अगर उनके एक मात्र युवबाघ ने घर नहीं बसाया तो ये लोग, एक युग के बाद किसकी चाटुकारिता करेंगे, किसके गुणगान के कसीदे पढेंगे, किसकी छत्रछाया तले तमाम वन-क्षेत्र की ऐसी-तैसी करेंगे? युवबाघ का बंश चलाने हेतु ये प्राणी किसकदर निराश हो रहे थे, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इनके बीच के कुछ धुरंदर प्राणी तो युवबाघ को यहाँ तक सुझाव देने को आतुर बैठे थे कि अरे भाई मेरे, तू भी पश्चमी जंगलों की आधुनिक गा-गे परम्परा का अनुसरण कर ले और कोई बाघ का बच्चा न सही तो कम से कम किसी गैंडे अथवा भेड़िये के बच्चे को ही गोद ले ले। हम भद्र प्राणि उसी से काम चला लेंगे, मगर युवबाघ था कि उस घाघ किस्म के प्राणि के कानो में जूँ तक नहीं रेंग रही थी।

मगर वो कहते है न कि वक्त कब पलट जाए कोई नहीं जानता। और शायद जंगल के पालनहार से भी उनकी यह दुर्दशा देखी न गई, इसलिए तो फिर एकदिन उसने नन्हे शावकों के  जंगल में आखेट पर पहुँचने का प्रबंध कर दिया। शिकार करते हुए जो उत्सुकता और फुर्तीलापन शावकों ने दिखाया उसे देख इन ख़ास किस्म के मांसाहारी वन्य-प्राणियों की बांछें खिल उठी। चेहरों पर चमक आ गई, जुबान और पावों में एक नई शक्ति का संचार हो गया। कुछ कुत्ते टाईप के जंगली कुत्तों ने, जिन्हें जंगल में निरीह पशु-पक्षियों का शिकार करने के लिए हमेशा कोई बड़ी आड़ चाहिए होती है, उन्होंने तो आज से बीस-पच्चीस साल बाद के वे सुनहले सपने अभी से देखने शुरू कर दिए हैं जब इनके पिल्ले भी इन्ही की तरह उन नन्हे शावकों, जो कि तबतक युवबाघ-बाघिन की शक्ल ले चुके होंगे,की खुशामद और चाटुकारिता करते नजर आएंगे। कुछ जंगली सूअरों के झुंडों  ने  अपनी इस खुशी के मारे अपने थोब्डों और खुरों से जंगल की जमीन पर जगह--जगह गड्डे खोदने शुरू कर दिए है। उनकी इन बेहूदा हरकतों को देख जंगल में विचरण करते एक 'तीन में न तेरह में' किस्म के लंगूर ने सवाल उठाया कि भैया, जंगल के राजा के भय से जान बचाकर भागते जिन भोले-भले निरीह पशुओं के इन गड्डों में फंसाने और वनराज-वनरानी का निवाला बनवाने का आप इंतजाम कर रहे हो, उसमें कभी तुम खुद भी तो फंस सकते हो, तो उसकी बात सुनकर सारे सूअर दांत निपोड़ने लगे। बेचारा लंगूर एक पेड़ की डाल पर बैठ यही सोचता रह गया कि भले ही इन हिंसक प्राणियों का भविष्य उज्जवल नजर आ रहा हो, किन्तु पुराने अनुभवों के आधार पर उसे तो यही लगता है कि जंगल का भविष्य अमंगल है।



9 comments:

  1. बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  2. हमारे देश में जंगल राज है और हम अभिशापित हैं इस क्रूर वनराज और गुरूर में चूर वनरानी को झेलने के लिए।

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  3. लेख बहुत ही अच्छा लगा..
    kalamdaan.blogspot.in

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  4. जंगल के भविष्य पर ये व्यंगात्मक प्रस्तुति काफी अच्छी लगी.. सुंदर प्रस्त्तुती.

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  5. कुछ तो जंगल काट रहे तो कुछ में नक्सली कब्ज़ाए.. अब बहार आए तो कैसे:)

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  6. यही निश्चित है कि सब अनिश्चित है।

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  7. कुछ को तो जंगल में ही मंगल मिलता है..

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  8. जंगल राज पर सुंदर कटाक्ष।

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