Wednesday, April 7, 2010

सुनहरे तिलिस्म टूटे है !



गली वीरां-वीरां सी क्यों है, उखड़े-उखड़े क्यों खूंटे है,
आसमां को तकते नजर पूछे, ये सितारे क्यों रूठे है। 

डरी-डरी सी सूरत बता रही, महीन कांच के टुकडो की,
कुपित सुरीले कंठ से कहीं कुछ, कड़क अल्फाज फूटे है। 

फर्श पर बिखरा चौका-बर्तन, आहते पडा चाक-बेलन,
देखकर इनको कौन कहेगा कि ये बेजुबाँ सब झूठे है। 

पटक देतीं है हर चीज, जो पड़ जाए कर-कमल उनके,  
वाअल्लाह, बेरुखी-इजहार के उनके, अंदाज ही अनूठे है। 

तनिक हम प्यार में 'परचेत'मनुहार मिलाना भूल गए,
फकत इतने भर से ख़्वाबों के, सुनहरे तिलिस्म टूटे है। 


8 comments:

  1. मलाल ये है कि ख्वाबों के सुनहरे तिलस्म टूटे हैं.

    क्या बात है साब.

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  2. बढ़िया...आपके तो बेरुखी-तकरार के सब अंदाज ही अनूठे है!

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  3. एक सुन्दर रचना !

    जान निकल जाती है और रूकती क्यूँ ये सांस नहीं,
    जीते हुए भी जींदा होने का होता क्यूँ विश्वाश नहीं!

    मेरा होंसला बढाने के लिए हार्दिक धन्यवाद है ji!
    कुंवर जी,

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  4. अच्छी कविता पर अच्छा होता अगर दुख की इस घड़ी में आप हत्यारों को वेनकाव करती उनकी हैवानियत को उधेड़ती ...

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  5. kin lafzon mein tarif karoon.......atyant sundar udgaar.

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  6. डरी सी शक्ल बताती है, महीन कांच के टुकडो की
    क्रोध में सुरीले कंठ से, कुछ कड़े अल्फाज फूटे है!

    -वाह!! बहुत उम्दा!!

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  7. बहुत लाजवाब रचना.

    रामराम.

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  8. .गोदियाल ji jwaab nahi aapka
    maan gaye ji aapko

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