Saturday, March 5, 2016

बस यूं ही

जहां आज भी ज़िंदा हैं गुरुकुल, उसे अवध की सरजमीं कहते है,
जोखिम उठा, मेहनत से कमाकर जो खाए उसे उद्यमी कहते हैं,
किन्तु बदलती इस सभ्यता के दौर का एक सच यह भी है कि  
जो गद्दार व मुफ्तखोर है वो आजकल अपने को 'कमी' कहते हैं।





बागों के बंदोबस्ती दरख़्त हमारे भी सारे फलदार होते,
लॉकर, बोरिया-बिस्तरों में भरे हमने भी  कलदार होते,
फिर तेरी ये हेकड़ी  कौन सहन करता, ऐ टुच्ची नौकरी,   
जो कहीं हम भी सियासी तहसील के तहसीलदार होते।   

सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...