जहां आज भी ज़िंदा हैं गुरुकुल, उसे अवध की सरजमीं कहते है,
जोखिम उठा, मेहनत से कमाकर जो खाए उसे उद्यमी कहते हैं,
किन्तु बदलती इस सभ्यता के दौर का एक सच यह भी है कि
जो गद्दार व मुफ्तखोर है वो आजकल अपने को 'कमी' कहते हैं।
जोखिम उठा, मेहनत से कमाकर जो खाए उसे उद्यमी कहते हैं,
किन्तु बदलती इस सभ्यता के दौर का एक सच यह भी है कि
जो गद्दार व मुफ्तखोर है वो आजकल अपने को 'कमी' कहते हैं।
बागों के बंदोबस्ती दरख़्त हमारे भी सारे फलदार होते,
लॉकर, बोरिया-बिस्तरों में भरे हमने भी कलदार होते,
फिर तेरी ये हेकड़ी कौन सहन करता, ऐ टुच्ची नौकरी,
जो कहीं हम भी सियासी तहसील के तहसीलदार होते।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-03-2016) को "ख़्वाब और ख़याल-फागुन आया रे" (चर्चा अंक-2273) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " देशद्रोह का पूर्वाग्रह? " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteअच्छा हुआ जो आप तहसीलदार न हुए वर्ना आज की सच्चाई से कई जन महरूम होते ....शुभकामनायें भाई जी .
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