Thursday, October 14, 2021

फ़कत़ जिंदा-दिली..

है कहीं अमीरी का गूम़ां

तो कहीं गरीबी का तूफ़ां,

ये आ़बोहवा, मेरे शहऱ की,

कुछ गरम है, कुछ नरम है।


कहीं तरुणाई का योवनवदन

छलकते जाम, हाथों मे रम है,

कहीं उ़म्रदराज़  हुई जो काया,

मुख़ पे झलकता बुढापे का गम है।


है कहीं पर तो फुरसत ही फुरसत

तो पास किसी के वक्त बहुत कम है,

फ़लसफ़ा जिन्दगी का अज़ब 'परचेत',

यथार्थ गायब, बस भरम ही भरम है।





प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।