Tuesday, July 28, 2020

आरजू

गर सुधार न हो पाये तो
 तुम माफ कर देना,
हर उस किये को,
कसूर चाहे बाती का हो
या तेल की गुणवत्ता का,
नहीं मालूम, मगर तुम
दोष मत देना, दीये को।

Sunday, July 26, 2020

व्यथित राग।














न जाने, क्यों अजनबी सा लगने लगा
अपना ही घर आजकल,
कुछ ज्यादा ही म़जहबी हो गया शायद, 
बेगानोंं का ये शहर आजकल।

झूमते निकल जाया करते थे बेपरवाह

मदमस्त जिस गली से कभी
मुश्किलों भरी सी लगने लगी है नाज़नीं, 
अल्हड सी वो डगर आजकल।

गलतफहमियों की बस्ती मे जो 
पाली थी थोडी सी खुशफहमियां,
न जाने कहाँ गुम होकर के रह गई, 
उल्फ़त की वो नजर आजकल।

वसंती खुशियों का सबब मिलता था 

जिनसे, पत्थरों के शहर को,
जेठ मे भी पातियों से ओंस टपका रहे,
बलखाते वो शजर आजकल।

उजड रहे क्रुर वक्त की आंंधियों मे

बसे हुए कुटुम्ब के कुटुम्ब सारे,
उत्कर्ष के इस चरम पर 'परचेत',
हो रहे कुल-कुनबे, दरबदर आजकल।

Sunday, July 12, 2020

...............ये शहर मेरा..........!


अपने दुःख में उतने नहीं डूबे नजर आते हैं लोग,
दूसरों के सुख से जितने, ऊबे नजर आते हैं लोग।


हर गली-मुहल्ले की अलग सी होती है आबोहवा,
एक ही कूचे में कई-कई, सूबे नजर आते हैं लोग।


कहने को है भीड भरा शहर,मगर सब सूना-सूना, 
कुदरत के बनाये हुए, अजूबे  नजर आते हैं लोग। 


कोई दल-दल में दलता, कहीं दलती है मूंग छाती, 
सब नापाक ही नापाक, मंसूबे नजर आते है लोग।


बनने को तो आते हैं 'परचेत', सब चौबे से छब्बे जी, 
गाडी विकास की पलट जाए,दुबे नजर आते है लोग।

Wednesday, July 8, 2020

अल्हड़








सज्दा हमें मुनासिब नहीं
बताकर मैं पसंद रखुंं,
हर मुकम्मल कोशिश
यही रही अबतक
कि मुंह अपना बंद रखूं।
ये मुमकिन था कि मैं
सच बोल देता,
कभी जरा सा भी,
जो मैं मुंह खोल देता।।

Thursday, July 2, 2020

कसमरा

मर्ज़ रिवाजों पे, कोरोना वायरसों का सख्त पहरा हैं,
एकांत-ए-लॉकडाउन मे, दर्द का रिश्ता, बहुत गहरा है,
थर्मोमीटर-गन से ही झलक जाती है जग की कसमरा,
 न मालूम ऐ दोस्त, कौनसी उम्मीदों पे, ये दिल ठहरा है ।

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।