नहीं मालूम कि महाकवि स्वर्गीय द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी, जिनकी आगामी १ दिसंबर को पुण्य-तिथि है, ने किन परिस्थितियों के मध्य नजर अपनी बाल-मन को ओत-प्रोत करने वाली यह जानदार कविता लिखी थी;
यदि होता किन्नर नरेश,
मै शाही वस्त्र पहनकर,
हीरे पन्ने मोती माणिक,
मणियों से सजधज कर.......!
मेरे वन में सिंह घूमते,
मोर नाचते आँगन में ............!
.............राजमार्ग पर ,
धीरे-धीरे आती देख सवारी,
रुक जाते पथ दर्शन करने,
उमड़ती प्रजा सारी,.............!!
क्या कल्पना की थी माहेश्वरी जी ने, बस मुह से एक ही शब्द निकलता है .. वाह ! लेकिन मैं ठहरा, खडी-बोली,लठमार भाषा और मोटी-बुद्धि से सोचने वाला इंसान, तो भला इधर-उधर की कैसे सोच पाऊँगा ? वैसे भी जब ठीक सामने सोचने और देखने के लिए इतना कुछ हो तो इधर-उधर जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता ! अभी कुछ दिन पहले जब किन्नरों के देश में कुछ किन्नर लाक्ष्या-गृह की भेंट चढ़ गए थे तो तभी से अनेकों तरह के प्रश्न इस कबाड़ी दिमाग में घूम रहे थे ! क्या आग लगना महज एक संयोग था ? कहीं आग लगने के पीछे कोई खुरापाती शकुनी और दुर्योधनी दिमाग तो नहीं काम कर रहा था? यदि हां, तो क्या ये किन्नर प्राणि-मात्र की कैटेगिरी में नहीं आते ?
इन्हीं कुछ सवालों के इर्द-गिर्द घूमते हुए आखिरकार मैं पहुँच ही गया ख्यालों की अपनी एक अलग ही मद-मस्त रंगीन दुनिया में! जहां हर चीज को मैं अपने मोल-भाव के बल पर तोल पाने में हमेशा सक्षम रहता हूँ ! वहाँ तो मैं सिर्फ किन्नरों के एक तबके की ही बात कर रहा था, मगर यहाँ तो मुझे एक-आद भगतसिंह के अलावा अपने इर्द-गिर्द सारे ही किन्नर नजर आ रहे थे! वो किन्नर तो पेट के खातिर एक ख़ास मौके पर ही अपने कस्टमर को लूटने जाते है, मगर यहाँ तो जिस भी किन्नर को जब मौक़ा मिल रहा था, सामने वाले को नोच खा रहा था! और खा ही नहीं रखा था बल्कि नैतिकता की दुहाई भी साथ-साथ दिए जा रहा था!
खुद जब इन किन्नरों को मौका मिला तो अपने किन्नर नरेश की सुरक्षा की दुहाई देकर इन्होने उस एक युवा नौजवान को जो अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल कर रहा था, उसे लात-घूंसों से न सिर्फ मारा बल्कि अंधे-कानून से भी अपने को साफ़ बचा लिया, और जब एक दुसरे बहादुर नौजवान ने इन्हें इनकी ही भाषा में जबाब दिया, तो ये लगे लोकतांत्रिक मूल्यों और नैतिकता की दुहाई देने ! बहादुर नौजवान जो पेट के खातिर देश की सुरक्षा-व्यवस्था को संभाले हुए है, वे जब एक किन्नर कामरेड को मारते है तो ये वहा भी नैतिकता का पाठ पढ़ाने पहुँचकर बजाये उन नौजवानों की हौंसला अफजाई करने के, जो जंगलों में इनके बुने जालों को ध्वस्त करने में दिन-रात अपनी जान की बाजी लगाए हुए है, उस किन्नर के प्रति सहानुभूति बरतने पहुँच जाते है, जिसने पिछले ३० सालों में राज्य के विरुद्ध लड़ाई का बहाना बना अपने हित-साधना के लिए अनेकों निर्दोषों का नृशंस क़त्ल किया! इन दुर्बुद्धिजीवी किन्नरों से कोई पूछे कि राज्य किसका है ? आम जनता का ! फिर जनता के विरुद्ध लड़कर आप क्या साबित करना चाहते है ? खैर, बड़ी लम्बी लिस्ट है इन इन किन्नरों की ........................!
हाँ, अब विषय पर लौटते हुए मैं यह कहूंगा कि यदि मैं किन्नर नरेश होता तो और कुछ नहीं तो इन किन्नरों के लिए जो सामाजिक भेदभाव को झेलने के लिए मजबूर है, उनके लिए भी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान अवश्य करता ! हर वह प्राइवेट कम्पनी जो अपने देनदारों से बकाया वसूलने के लिए हमेशा छटपटाती रहती है उनके लिए यह अनिवार्य करता कि वे अपनी संस्था में ४ किन्नर वसूली विभाग में अवश्य नियुक्त करेंगे ! सोचो, जब चार किन्नर किसी मोटे आसामी के घर अथवा सरकारी दफ्तर में वसूली के लिए पहुंचेंगे तो ले के दिखाए कोई माई का लाल सरकारी बाबू उनसे घूस, कम्पनी का बिल पास करने के लिए................!