Tuesday, December 30, 2008

दर्जी काका और पाकिस्तान का झंडा !

तब हम गुरुदासपुर के तिब्डी कैन्ट में रहते थे, मैं शायद तब सातवी कक्षा में पढता था । जिस मोहल्ले में हम रहते थे उसी के नुक्कड़ पर एक दूकान थी, हम लोग उसे दर्जी काका की दुकान कहकर पुकारा करते थे । दर्जी काका एक अधेड़ उम्र के मुस्लिम थे । परिवार में वो कुल तीन जने थे, वे, उनकी बेगम और एक बेटी । घर की माली हालात थे । साल के शायद १२ महीने ही वो अडोस-पड़ोस वालो से कुछ न कुछ मांगते रहते थे, खासकर मेरे पिताजी से तो दर्जी काका महीने में कम से कम दो बार अवस्य ही कुछ पैंसे मागने जरूर आते थे । क्योकि जो काम उनका था, उसमे शायद किसी खास वक्त पर ही कमाई हो पाती थी, अन्यथा साल के अन्य दिनों में वे छोटे-मोटे सिलाई-तुल्पायी के ही काम कर गुजारा करते थे ।

इस व्यवसाय में उनका जो मुख्य काम था, वह था झंडे बनाना । जब कभी चुनाव होते तो वे राजनीतिक पार्टियों के झंडे बनाते थे । २६ जनवरी और १५ अगस्त के आस-पास वे अकसर देश का झंडा बना रहे होते थे, और जब अप्रैल, मई जून का महिना होता था तो वे पास ही स्थित नाथ मन्दिर के चढावे के तथा सिख तीर्थ यात्रियों के झुंडों में आनंदपुर साहिब, हेमकुंट साहिब और पोंटा साहिब जाते वक्त के लिए झंडे बनाते थे । क्योंकि गर्मी के सीजन में पड़ने वाले त्यौहार में सिख सर्धालू गुरुद्वारों में दर्शनार्थ बड़ी तादाद में जाते है । स्कूल से लाने, लेजाने वाला रिक्शा अक्सर हमें उसी नुक्कड़ पर उतारता था जहाँ पर दर्जी काका की दुकान थी। दर्जी काका मेरे पिताजी से काफ़ी घुलामिला होने की वजह से, मुझे भी काफ़ी प्यार और सम्मान देते थे । जब कभी वे देश का झंडा सिल रहे होते थे तो मैं अगर आस-पास होता तो वहाँ जाकर दूकान के फ्रंट टेबल के आगे खड़ा होकर बड़े कौतुहल से दर्जी काका को झंडा बनाते देखता रहता था । एक दिन जब स्कूल से लौटा तो क्या देखता हूँ की दर्जी काका अपने काम में मग्न कोई हरा झंडा सिल रहे थे । मैंने पूछा, काका ये किसका झंडा है ? वे बोले, बेटा ये पाकिस्तान का झंडा है । मेरे अबोध मस्तिष्क ने फिर प्रश्न किया, काका पाकिस्तान का झंडा आप क्यो बना रहे है यहाँ ? पाकिस्तान वाले अपने देश में नही बना सकते क्या ? दर्जी काका ने दाढ़ी से भरे अपने मुरझाये चेहरे पर एक तेज हँसी बखेरी और बोले, मिंया तुम अभी छोटे हो, नही समझ पाओगे, बस इतना कहकर वो फिर से अपने काम में मग्न हो गए थे ।

दुसरे दिन मैं स्कूल गया तो अपनी क्लास के एक खास दोस्त से इस बात का जिक्र किया । मेरा वह क्लासमेट भी पहले उसी मुहल्ले में रहता था और दर्जी काका की मागने की आदत से नाखुश था । वह बोला अरे वो बुढउ ऐसा ही है । अपनी कमाई के पैसे ऐसे ही फालतू चीजो पर ख़त्म कर देता है और फिर मांगता फिरेगा । मैंने पूछा, लेकिन यार वो पाकिस्तान के झंडे पर क्यो अपना पैसा खर्च करता है ? इतनी तो उसको समझ होगी की पाकिस्तान का झंडा यहाँ कौन लेगा ? वह बोला, अबे यार, तू भी बहुत भोला है । अरे, ये मुसलमान अन्दर ही अन्दर पाकिस्तान को बहुत चाहते है इसलिए । तुने देखा नही जब क्रिकेट का मैच होता है तो पाकिस्तान के जीतने पर कैसे तालिया बजाते है । मेरी समझ में भी उसकी बात कुछ हद तक आ गई थी, अतः उस दिन के बाद से जब मैं दर्जी काका की दुकान से होकर गुजरता था तो वहाँ रुकना तो दूर, उनकी दूकान की तरफ़ देखता तक नही था । मेरे अन्दर ही अन्दर, दर्जी काका के प्रति किसी ख़ास किस्म की घृणा ने जगह बना ली थी ।

यह शायद १९७७-७८ के आस पास की बात होगी, पाकिस्तान में जनरल जियाउलहक़ का शासन था और क्योंकि मैं छोटा था और मुझे ठीक से नही मालूम कि जाने किस बात पर दोनों देशो के बीच तनातनी चल रही थी । यकायक तनाव बहुत बढ़ गया था और जगह-जगह शहरो में प्रदर्शन भी हो रहे थे । उस दिन मैं स्कूल से लौट रहा था और रिक्शे वाले ने रोज की तरह उसी नुक्कड़ पर हमें उतार दिया था । मैंने देखा कि दर्जी काका की दूकान पर बहुत भीड़ लगी थी । लोग मुह मांगे दामो पर काका से पाकिस्तान का झंडा खरीद रहे थे । काका अन्दर से ढूंड- ढूंड कर अपने बनाये पाकिस्तान के झंडे निकाल बाहर ला रहे थे । कुछ देर बाद मुहल्ले के चौराहे पर बहुत भीड़ इकठ्ठा हो गई थी, कई नेता भी वहा आए हुए थे, वे पाकिस्तान के खिलाप नारे लगा रहे थे और फिर उन्होंने बारी-बारी से पाकिस्तान का झंडा जलाना शुरू किया ।

दूसरे दिन सुबह जब मैं स्कूल जा रहा था तो दर्जी काका दूकान के बाहर खड़े थे, मुझे देखकर बोले , छोटे मिंया तुम उस दिन पूछ रहे थे न कि मैं पाकिस्तान का झंडा क्यो बनाता हूँ ? तो आपने कल देखा होगा कि पाकिस्तान के झंडे की कितनी डिमांड थी ? दर्जी काका की बात सुन, मेरा दिल दर्जी काका के लिए श्रदा से भर गया था । मैं सोच रहा था कि बिना सोचे समझे इंसान कितनी नादानियां और बेवकूफियां कर बैठता है, जो दीखता है, वो वास्तव में होता नही । एक दोस्त के कहने पर, बेचारे काका के बारे में कितना कुछ ग़लत सोच लिया था, मैंने ।

गोदियाल

Saturday, December 27, 2008

वो कौन थी ?

हर इंसान की जिंदगी से जुड़े कुछ वे ख़ास संस्मरण भी होते है जिन्हें इंसान दिल के किसी कोने में संजो कर तो रखता है, हर एक को खुलकर नहीं बता पाता। कुछ बाते ऐसी होती है जो इंसान सीधे वार्तालाप में अभिव्यक्त करता है और कुछ ऐसी, जो लिखकर व्यक्त की जाती है । अभी पिछले हफ्ते मेरा एक जिगरी दोस्त मेरे घर पर आया था, वह स्वभाव से बहुत बातुनी है, उस दिन हमारा सपरिवार डिनर का प्रोग्राम था, शाम को जब टेबल पर मनोरंजन करने बैठे तो वह लगा मेरा दिमाग चाटने। बातो को कैसे घुमाना है, कैसे तोड़मरोड़ कर पेश करना है, कोई उससे सीखे। उसने जल्दी-जल्दी दो पग लिए और बोला यार, मैं आज तेरे को अपनी एक सच्ची कहानी सुनाता हूँ, तुम चुपचाप सुनो, नाराज मत होना। मैंने कहा सुना भई, मैं भला क्यों तेरी कहानी से नाराज होऊंगा? बस फिर वह लगा अपनी राम कहानी सुनाने।

१९८५ के आस-पास की बात है, वह तभी से मेरे साथ हो ली थी, जब से मैं अपने विद्यार्थी जीवन को त्याग रोजी-रोटी की तलाश में गाँव से शहर को निकला था। उससे पहले भी वो कभी-कभार मेरे साथ हो लेती थी, मगर उस बेफिक्र जीवन में मुझ जैसे स्वार्थी इंसान को उसकी ख़ास जरुरत महसूस नहीं होती थी। मेरे हर अच्छे बुरे निर्णय में वह मेरे साथ रहती। बस यूँ समझो कि हरपल वह मेरे साथ रहती, मेरी परछाई की तरह । नौकरी मिली, उसके बाद घर वालो ने मेरे शादी तय की । इस शादी तय करने के मामले में न उसने और न मैंने, अपने घर वालो का साथ दिया था, मैंने अपने घरवालो से सिर्फ यह कह दिया था कि जो आपलोगों को उचित लगे, करो । फिर शादी का दिन भी आ गया । मुझे याद है, उसने मेरे शादी के साजो-सामान को चुनने/खरीदने में भी मेरी पूरी मदद की थी । कहाँ क्या बोलना है, नवेली दुल्हन के साथ क्या बात करनी है कैसे बर्ताव करना है, हर एक बात वह मुझे बारीकी से समझा देती थी । घर-गृहस्थी बसाने के बाद बच्चे हुए, शहर में मकान खरीदा, बच्चो को स्कूल में भर्ती करवाया । यहाँ भी मेरे हर एक निर्णय और हर कदम पर वह एक सच्चे दोस्त की भांति मेरे साथ रही। मैं कभी-कभी इस सोच और फिक्र में डूब जाता कि वह मेरे लिए इतना त्याग करती है, मगर मैंने इसे सिवाए प्यार के और क्या दिया ?

दिन, महीने, साल गुजरते रहे, मगर वह मेरा साथ छोड़ने को तैयार न थी । एक साये की तरह मेरे पीछे थी । मुझे जब भी उदास अथवा चिंतित देखती, मेरा हाथ पकड़ मुझे बाहर गाड़ी तक खींच लाती और कहीं चलने को कहती । अभी कुछ दिन पहले की बात है, क्रिसमश की छुट्टी होने की वजह से, मैं घर के बाहर बरामदे में बैठा सर्दियों की धूप का आनंद ले रहा था और भारत पाकिस्तान के बीच आंख मिचोली के खेल के बारे में विचार मग्न था, कि तभी अचानक वह फिर आ गई । मुझको ढंग के कपड़े पहनने का निर्देश दे, ख़ुद बरामदे के एक कोने पर खड़ी होकर धूप सेकने लगी । मैं अन्दर गया, कपड़े बदले और तैयार होकर बाहर निकला । गाड़ी स्टार्ट की और चल दिए, वह मेरी बगल वाली सीट में बैठ गई। सफेद लिवास में आज वह कुछ ज्यादा ही खुबसूरत दिख रही थी ।

वह मुझे शहर के एक बड़े चर्च में ले आई थी। चर्च में काफ़ी लोग इकट्ठा थे, क्रिश्मश मनाने के लिए । जिनमे बच्चे और युवा ज्यादा थे । उसके द्वारा बहुत सी क्रिश्चियन हसीनाओ से मुझे मिलाया गया। वो हसीनाये मुझे 'मैरी क्रिसमस' कहकर मेरे गाल पर किस करती और मिठाईया खिलाती, मैं गदगद था । शाम को पास के होटल में कॉकटेल पार्टी थी । मैं भी स्वाद के मारे रेड-वाईन के काफ़ी पैग ले चुका था । अब तक मैं तो अपने घर की तरफ़ से एकदम बेफिक्र सा था, मगर वह हर इंसान की भावनाए जानती और समझती थी, अतः उसने मुझे मेरी पत्नी को घर पर फोन करने को कहा । मैंने अपने मोबाईल फ़ोन से घर फ़ोन किया, उसने धीरे से मेरे कान में कहा कि इस समय तुम होश में नही हो, इसलिए ज्यादा बात मत करना और यह कहदो कि मैं यहाँ पर क्रिसमस की पार्टी अटेंड कर रहा हूँ, दोस्तों के साथ, अतः रात को घर नहीं लौटूंगा, तुम लोग खाना खाकर सो जाना। मेरे अधिक ले लेने के बाद उसने मह्सुश किया कि मैं अब ड्राइव करने लायक नही रहा, अतः उसने होटल में ही मेरे लिए कमरा बुक किया और मैं वहीँ एक कमरे मे सो गया, वह मेरे पास में ही बैठी थी और धीरे-धीरे मेरे बालो को सहला रही थी और एक गीत गुनगुना रही थी: आ चल के तुझे मैं लेके चलू इक ऐंसे गगन के तले.....फिर मैं सो गया ।

अब तक में उसकी वह राम कहानी बड़े धैर्य से सुन रहा था, किन्तु चूँकि मैं भी नशे में था , अतः मुझे उसकी कहानी सुनकर उसपर गुस्सा आ गया और मैंने गुस्से में उसे लगभग गाली देते हुए कहा, मैं तो तुझे एक शरीफ इंसान समझता था, पर तू तो बड़ा ही आवारा-बदचलन किस्म का इंसान है, अपने बीबी बच्चो को छोड़ किसी और के साथ गुलछर्रे उडाता है। बेटा, यह सुख ज्यादा दिन नही भोग पायेगा, दो नावों में सफर करने वाला बुरी तरह भंवर में डूबता है। मेरी बात और गालियों को शांत ढंग से सुनते हुए वह मंद-मंद मुस्कुराया और बोला, इसका मतलब मेरी कहानी अच्छी लगी तुझे । मैंने उसको घूरते हुए देखा और मैं बोला कुछ नहीं । वह बोला, मुझे मालूम है कि तेरा ये कबाडी दिमाग आगे क्या सोच रहा होगा, तू अपने दिमाग पर जोर डाल कर सोच रहा होगा कि यह जानते हुए भी कि यह एक शादी-शुदा इंसान है, वह कौन कलूटा होगी जो इसको इतना चाहती है ? तो सुन, पता है वह कौन थी? अरे इडियट, वह मेरी खुद की कल्पना थी, मेरी अपनी कल्पना,... इट वाज जस्ट माय इमेजिनेशन... उसकी बात सुन मैंने पुछा, तू सच बोल रहा है न ? उसने अपने बच्चो की कसम खाते हुए कहा, यार तुझे मुझ पर भरोसा नहीं ? उसकी बात सुन मैंने और उसने जोर का एक ठहाका लगाया, और उसने भी इस खुशनुमा माहौल का फायदा उठाते हुए जल्दी से जो कुछ बोतल के निचले भाग में बची थी, उसे भी अपने गिलास में उडेल दिया। मैं उसका मुह देखता रह गया था।
गोदियाल

Friday, December 26, 2008

हद-ए-झूठ !



रंगों की महफिल में सिर्फ़ हरा रंग तीखा,
बाकी सब फीके।
सच तो खैर, इस युग में कम ही लोग बोलते है ,
मगर, झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे।।


झूठ भी ऐंसा कि एक पल को, सच लगने लगे,
'मगजधोवन' धंधे में इन्होने न जाने कितने युवा ठगे,
खुद के जुर्मों पर पर्दा डालने को खोजते नित नए तरीके।
सच तो खैर, इस युग में चंद ही जन बोलते है,
मगर, झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे ।।


दुष्कर्मों  का अपने ये रखते नही कोई हिसाब,
भटक गए हैं राह से अपनी, पता नही कितने कसाब,
चाह है पाने की वह जन्नत मर के, जिसे पा न सके जीके।
सच तो खैर, इस युग में कम ही लोग बोलते है ,
मगर, झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे ।।


इस युग में सत्य का दामन, यूँ तो छोड़ दिया सभी ने,
असत्य के बल पर उछल रहे आज लुच्चे और कमीने,
देखे है हमने बड़े-बड़े झूठे, मगर देखे न इन सरीखे।
सच तो खैर, इस युग में चंद ही जन बोलते है ,
मगर, झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे।।


दहशतगर्दी के खेल में उतर तो गए कई मिंया जरदारी,
मगर फिर पड़ने लगी उन्ही पे उनकी ही  करतूत भारी,
हर काम ही ऐसा है कि कथनी और करनी में फर्क दीखे।
सच तो खैर, इस युग में कम ही लोग बोलते है,
मगर, झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे।।

Monday, September 15, 2008

तुझसे क्या कहू?



खौफ भी संग अपने 'नाक' जोड़ता है,
और 
दर्द की भी अपनी इक 'नाक' होती है, 
साथ ही 
इक 'नाक' शर्म से भी जुडी  रहती है। 
अर्थात,
हर किसी की किंचित 'हद' तय है।  
मगर 
अरे  वो बेख़ौफ़,बेदर्दी और वेशर्म !
अब 
उससे क्या कहें जिसकी 'नाक' ही नहीं।  


Friday, August 8, 2008

सेठ की मंदबुद्दी संतान !

उत्तरांचल के गढ़वाल क्षेत्र में ( विशेषकर टेहरी गढ़वाल में ) स्थानीय पहाडी भाषा मे एक मुहावरा बहुत प्रचलित है “सेट्ठुगा लाटा-काला” जिसका अर्थ है सेठ लोगो के मंद बुद्धि बच्चे ! इस मुहावरे के पीछे की कहानी कुछ इस तरह है : हुआ यूँ कि एक गाँव में एक सेठ ( धनी साहूकार ) परिवार रहता था, सेठ उसकी पत्नी यानि सेठानी और उनके चार बच्चे ! फसल कट चुकी थी, और फसलों की कुठायी और सफाई का काम चल रहा था, सेठ के खलिहान में एक बहुत बड़ा ढेर भट्ट ( स्थानीय एक किस्म की दाल ) का लगा हुआ था। रात को सेठ-सेठानी आपस में बात कर रहे थे, सेठानी ने सेठ से कहा ” आजू सी भट्ट भी छन रयाँ फूकण थै ( अर्थात साधारण हिन्दी भाषा में जिसका मतलब है कि अभी फूकने के लिये यह भट्ट भी रहे हुए है, जबकि वास्तविक कहने का सेठानी का मतलब था कि बाकी फसल का अनाज तो हमने सम्भाल दिया है मगर कूठाई-सफ़ाई के लिये अभी भट्ट बाकी रहे हुए है ) सेठ जी के बच्चे उनका वार्तालाप सुन रहे थे। अगले दिन सेठ और सेठानी एक शादी में सरीक होने के लिये पड़ोस के गाँव गए और जब शाम को लौटे तो खलिहान में राख का एक बड़ा ढेर देख दंग रह गए , बच्चो से पूछा कि ये सब कैंसे हुआ? बच्चे बोले आप लोग कल कह रहे थे न की भट्ट फूकने के लिये रहे हुए है इसलिये आज हमने सोचा की माँ-बाप का काम हल्का कर देते है, और हमने पूरे भट्ट के ढेर को आग के हवाले कर, पूर भट्ट का ढेर फूक दिया, जलते वक्त उनसे पटाखे के जैसे फूट्ने की आवाजे आ रही थी। सेठ सेठानी, उन लाटे बच्चो की बात सुन माथा पकड़ कर बैठ गए। इसीलिये यह कहावत बनी ‘सेठुगा लाटा-काला’ !!

ऐसे ही एक पहाडी गाँव में एक सेठ फतेसिंह मेवार अपने परिवार के साथ रहते थे। उनका बड़ा बेटा विजय काफ़ी होनहार किस्म का लड़का था। गढ़वाल विश्वविद्यालय से एम्. काम. करने के बाद वह दिल्ली चला आया। चूँकि पीछे से माँ-बाप का काफी सपोर्ट था, इसलिए बेटे ने आईसीडब्लूए करने की सोची और लोधी रोड संस्थान में दाखिला ले लिया, जैंसा कि विजय एक होनहार किस्म का लड़का था अतः तीन साल के अन्दर ही उसे कॉस्ट एकाउंटेंट की उपाधि मिल गई और साथ ही एक पब्लिक लिमिटेड कम्पनी में अच्छी तनख्वा की नौकरी भी।

दिन मजे से गुजरने लगे ! सेठ जी गाँव में लोगो के पास अपने बेटे की तारीफ करते नही थकते थे ! वक्त कब गुजर गया किसी को पता ही न चला और विजय जिन्दगी की ३० वी देहलीज पर पहुँच गया। ! माँ-बाप को बेटे की शादी की चिंता होने लगी, मगर क्योंकी सेठ जी गाँव के सेठ साहुकार थे, इसलिये अपने बेटे के लिए कुछ अलग ही कर दिखाना चाहते थे।

विजय गर्मियों में एक हफ्ते की छुट्टी गाँव गया था, माँ बाप ने शादी की बात छेड़ी, कॉस्ट एकाउंटेंट बनने के बाद सेठ जी के लाटे के दिमाग भी अब सातवे आसमान पर थे, अतः उसने सीधे कह दिया कि मैं उत्तरांचल की लड़की से शादी नही करूँगा क्योकि मुझे दिल्ली में हाई प्रोफाइल लोगो के बीच रहना है और गाँव की लड़की उस हाई जेनेट्री के लोगो के साथ मैच नही कर पायेगी… इंग्लिश की प्रॉब्लम, वहाँ के रहन-सहन का तरीका, भाषा की फ्लुएंसी की प्रॉब्लम इत्यादी, इत्यादी। सेठ जी ने सोचा कि बेटा कह तो ठीक ही रहा है अत: वे भी सपना देखने लगे कि जब उनका बेटा एक शहरी मेम के साथ गाँव में आएगा तो लोग देखते ही रह जायेंगे………………………………………………!!

सेठ जी ने दुल्हन खोजने की जिम्मेदारी स्वयं विजय पर ही डाल दी। विजय दिल्ली लौटकर अखबारों और इंटरनेट पर दुल्हन तलाशने में लग गया। करते-करते दो साल और बीत गए। एक दिन इंटरनेट पर एक विज्ञापन और उसमे छपी लड़की की फोटो पर विजय की नज़र टिक गई , मन ही मन ठान लिया कि इसी लड़की से शादी करूंगा। रविवार के दिन अपने एक जानकार को साथ लेकर इंटरनेट पर दिए गए पते पर जा पहुचे, क्योंकि विजय ने फ़ोन पर इस मुलाकात का वक्त पहले से ही ले लिया था, इसलिए लड़की घर पर तैयार बैठी थी। वहा पहुच कर विजय ने धीरे से डूअर बेल पर अपनी ऊँगली से प्रेस किया। एक ३०-३५ साल के हट्टे-कट्ठे व्यक्ति ने दरवाज़ा खोला। विजय ने अपना परिचय दिया तो उसने अन्दर आने का इशारा कर दिया। फ्लैट एकदम सुनसान सा था,

व्यक्ति ने अपना परिचय लड़की के बड़े भाई के रूप में दिया। और घर में मौजूद घरेलु नौकर को चाय पानी सर्व करने का आदेश दे दूसरे कमरे में चला गया। फिर वह वापस लौटा और थोडी देर बाद एक सुन्दर,शोभर लिवास में एक खूबसूरत युवती बाहर आई। उस लड़की को देख विजय की आँखे फटी की फटी रह गई। इंटरनेट पर जो फोटो देखी थी उससे भी कई गुना खूबसूरत। लड़की की खूबसूरती, उसके बात करने का स्टाइल देख, विजय यह पूछना भी भूल गया कि घर में भाई-बहिन के अलावा और कोई भी है। कुछ ही देर में सब कुछ तय हो गया, बातो के बीच में लड़की ने एक शर्त रख डाली कि वह सादे तरीके से मन्दिर में शादी करेगी, विजय तो जैसे अपना धैर्य ही खो बैठा था, इसलिए बिना कुछ सोचे उसने इसके लिए हामी भर दी।

अगले दो तीन महीने काफ़ी गहमागहमी भरे रहे विजय के लिए। गाँव से सेठ और सेठानी को भी बुला भेजा लड़की देखने के लिए। एक होटल में डिनर पर मुलाकात करायी गई सीमा मल्होत्रा ( विजय की होने वाली बीबी ) से, सेठ जी भी बहु की खूबसूरती देख प्रफुलित थे। इसके बाद तय समय पर दिल्ली में ही शादी भी हो गई। सब कुछ ऐसे हुआ मानो कोई नाटक खेला जा रहा हो। शादी के बाद विजय और सीमा, विजय के पहाडी गाँव पहुचे! सेठ जी ने नवविवाहित बेटे-बहु के आगमन पर गाँव में एक शानदार रात्रि भोज रखा था। लोग दुल्हन को देखते और सेठ जी और उनके बेटे की तारीफों के पुल बांधते। सेठ जी फ़ूले नही समां रहे थे। कुछ दिन गाँव में हर तरफ़ बस उनकी ही चर्चा रही । कुछ दिन रुकने के बाद दूल्हा-दुल्हन हनीमून मनाने मसूरी जा पहुचे।

मौज-मस्ती और रंगरैलियों में ६ महीने कब गुजर गए कुछ भी पता नही चला। रोज़ दिन और रातो को साथ जीने मरने की कसमे खाई जाती। इस बीच सीमा ने विजय को बताया कि वह माँ बनने वाली है कि अचानक तभी एक दिन जब शाम को विजय काम से लौटा तो फ्लैट पर ताला लगा मिला। शायद आस-पड़ोस में गई होगी किसी काम से, यह सोच वह दरवाज़े पर पीठ टिका इंतज़ार करने लगा। आधा घंटा बीत गया मगर सीमा का कंही कोई अतI पता न था। उसके माथे पर लकीरे पड़ने लगी, उसने अपने मोबाइल से सीमा के मोबाइल पर फ़ोन किया, मगर कोई जबाब नही, कुछ देर घंटी जाती रही, किसी ने नही उठाया। अब विजय का माथा ठनका, किसी अनहोनी की आशंका से उसने पड़ोस के २-४ लोगो को इकट्टा किया और घर का ताला तोडा। अन्दर गया तो कुछ भी असमान्य नज़र नही आया, घर की सभी वस्तुए यथावत अपनी जगह पर थी। लोगो ने उसे अपने और सीमा के जो भी रिश्तेदार दिल्ली में थे उनसे सम्पर्क करने की सलाह दी। अब विजय को समझ में आ रहा था कि उसने कितनी वेव्कूफी वाले काम किए थे कि कभी भी सीमा से उसके रिश्तेदारों के बारे में भी नही पूछा। अचानक उसे कुछ सूझा और वह बिना किवाड़ बंद किए घर से बाहर निकल गया। अब तक पूरी दिल्ली अंधेरे में डूब चुकी थी, वह सीधे सीमा के उस पते पर पहुच गया, जहा उसकी पहली बार सीमा से मुलाकात हुई थी। जोर से बेल पर ऊँगली प्रेस की, एक अधेड़ उम्र की महिला ने दरवाजा खोला, उसने सीमा के तथाकथित भाई अखिलेश मल्होत्रा के बारे में पूछा। वृदा बोली, इस नाम का तो यहाँ कोई नही रहता। विजय ने कुछ और जानकारी देते हुए सीमा के ६-७ महीने पहले यहI पर होने की बात उसको बताई। वृदा फिर बोली, इस नाम का तो पता नही, मगर जो किरायेदार पहले यहाँ रहते थे वो ६ महीने पहले ही फ्लैट खाली कर चुके है। विजय को मानो साँप सूंघ गया हो , उसको कुछ भी नही सूझ रहा था कि क्या करे। इस वक्त उसे महसूस हो रहा था कि अपने इलाके और नजदीक-दूर के जानने पहचानने वालो से सम्पर्क रखना कितना ज़रूरी है, अपनी कोरी सेठगिरी की कोरी अकड़ में रहने से कोई फायदा नही। उसने एक बार फ़िर सीमा के मोबाइल का नम्बर लगाया , बेल गई, मगर कोई रेस्पोंस नही। वह वापस अपने घर लौटा और नजदीकी पुलिस स्टेशन पहुँच उसने सीमा की गुमशुदगी की रिपोर्ट थाने में दर्ज करवाई।

दिन गुजरते गए और एक हफ्ता बीत गया, मगर सीमा का कोई अता-पता नही था। इस बीच वह दो बार गुहार लगाने पुलिस वालो के पास थाने भी गया था, मगर वही ढाक के तीन पात । आठवे दिन सुबह-सुबह उस पर एक और मुसीबत आन पड़ी। दो पुलिसवाले उसके घर पहुचे और उल्टे उससे ही सीमा के बारे में पूछने लगे, उसे धमकाने लगे की सीमा को उसने दहेज़ के लालच में मार डाला है और गुम होने का ड्रामा कर रहा है।यह सुन विजय की आंखो के सामने एकदम अँधेरा छा गया वह रोने लगा। पुलिस वाले हमदर्दी का नाटक करने लगे और उसे कुछ समझाते हुए मामला रफा-दफा करने के लिए १ लाख रूपये देने के लिए कहने लगे। विजय को मानो काटो तो खून नही, उसने कहा कि इतने रूपये तो उसके पास नही है, पुलिस वाले ने पूछा कितना दे सकता है ? वह बोला जादा से जादा ५०-६० हज़ार का इंतजाम कर सकता हूँ। पुलिस वाले उसे कल तक पैसे का इंतजाम करने की हिदायत दे चले गए।

जैसे- तैसे विजय ने रुपयों का इंतजाम कर पुलिस से अपना पिंड छुड़ाया। उसकी जिंदगी एकदम थम सी गई थी। इसी तरह करते-करते एक साल गुजर गया। एक दिन वह लागत लेखांकन का ऑडिट करने अपनी कम्पनी की तरफ़ से जयपुर गया था। शाम को नहरगढ़ फोर्ट के पास ब्रह्मपुरी इलाके में मार्केट में एक युवती पर जैंसे ही विजय की नज़र पड़ी, तो वह आँखे फाड़-फाड़ कर उस युवती को देखने लगा, उसे अपनी आंखो पर विश्वास ही नही हो रहा था कि वह सीमा है या उसकी आंखो का धोखा। युवती गोद में एक ६-७ महीने के बच्चे को लेकर एक और युवती के साथ ब्रह्मपुरी कालोनी की तरफ़ बढ रही थी, युवती की नज़र विजय पर नही पड़ी थी। एक बार तो विजय के मन मे आया कि उसे सीमा को आवाज़ देनी चाहिए, लेकिन फिर कुछ सोच वह रुक गया, और उनके पीछे पीछे चलने लगा। आधा किलोमीटर चलने के बाद दोनों युवातिया एक घर में घुस गई। विजय उधर से गली में सीधे निकला, जिस घर में वे युवातिया घुसी थी, उसके गेट पर जी एस मल्होत्रा के नाम का बोर्ड लगा था। विजय को अपने साथ हुए किसी बदे धोखे की बू आने लगी थी, विजय बदहवास स्थिति में होटल में अपने कमरे पर लौट आया, उसकी समझ में नही आ रहा था कि क्या करे ?

रात भर सो नही पाया, और सुबह होते ही उसी इलाके में फिर पहुच गया। पिछले अनुभवों के आधार पर वह जल्दबाजी में कोई कदम नही उठाना चाहता था, अतः पास के पान के खोके पर खड़ा होकर सिगरेट पीने लगा। सुबह के नौ बजे थे, अचानक उस घर का गेट खुला और जो कुछ विजय ने देखा उसके पाव तले की जमीन खिसक गई, एक बार उसे लगा कि उसका हार्ट फ़ेल हो जाएगा। अखिलेश मल्होत्रा अटेची हाथ में लिए गेट से अपनी गाड़ी, जो कि गली में खड़ी थी, की तरफ बढ़ रहा था और गेट पर सीमा अपने बच्चे को गोद मे पकडे उसका हाथ हिला-हिला कर अखिलेश को बाय कर रही थी ! अखिलेश ने गाड़ी स्टार्ट की और आगे बढ़ गया, विजय इससे पहले कि सीमा गेट बंद कर अन्दर जाती, उसका नाम जोर से पुकारते हुए उसकी तरफ बढ़ा। सीमा की नज़र जैसे ही उस पर पड़ी वह इस अप्रत्याशित घटना से एक दम सकपका गई और जोर से गेट को बंद कर दिया। विजय एक हाथ गेट पर और दूसरा हाथ अपने सीने पर रख जोर जोर से हाफने लगा। उसे अब तक इतना तो समझ में आ गया था कि उसके साथ सचमुच कोई बहुत बड़ा धोखा हुआ है।

अभी पन्द्रह बीस मिनट ही बीते होंगे कि वह गाड़ी जिसमे बैठ कर कुछ देर पहले अखिलेश गया था, फिर से गली में दाखिल हुई। शायद सीमा ने अखिलेश को उसके मोबाइल पर फ़ोन कर उसको सब कुछ बता दिया था इसलिए वह तुरंत वापस लौट आया था। गाड़ी घर से थोडी दूर खड़ी कर वह सीधे विजय की तरफ़ लपका। एक बार तो विजय को मन मे आया कि वह सीधे अखिलेश पर आक्रमण करदे, मगर उसकी कद काठी और कुछ और सोच वह अपने ऊपर नियंत्रण बनाये रखा। अखिलेश ५ कदम दूर रुक धीरे धीरे विजय की तरफ़ कुछ सहमा सा बढ़ने लगा , वह कुछ कहना चाहता था मगर उसके मुह से शब्द नही निकल रहे थे । अखिलेश ने अगल-बगल के मकानों पर अपनी नज़र दौडाई कि कोई देख तो नही रहा और फिर विजय की तरफ़ हाथ जोड़ कर उसे अपनी गाड़ी की और बढ़ने का इशारा करने लगा। विजय कुछ देर तो उसे घूरता रहा मगर फिर गाड़ी की तरफ़ बढ गया, वह भी सच्चाई जानने को बेताब था। अखिलेश की गाड़ी के पास पहुच, अखिलेश ने अगली सीट का दरवाजा खोल उससे गाड़ी के अन्दर बैठने का इशारा किया। विजय गाड़ी में बैठ गया, उसने भी जल्दी से ड्राइविंग सीट संभाली और गाड़ी स्टार्ट कर आगे बढ़ गया। एक किलोमीटर चलने के बाद अखिलेश ने एक वीरान जगह पर गाड़ी किनारे पर रोक दी। विजय मूक दर्शक बन यह सब देख रहा था।

अखिलेश ने कहना शुरु किया, और विजय ने जो सुना उसे अपने कानो पर भरोषा नही हो रहा था। अखिलेश अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए विजय से बोला, मैं यहाँ पर एक सरकारी अफ़सर हूं, मेरे पिताजी, एक रिटायर आईपीएस अधिकारी है। और बड़े दबंग किस्म के इन्सान है। मेरी और सीमा की शादी करीब 7 साल पहले हुई थी। लेकिन जब 5 साल गुजर जाने पर भी हमारी कोई औलाद नही हुई तो घर वालो की तरफ़ से प्रेशर बढ़ने लगा, हम दोनों ने चिकित्सकीय जांच करवाई और जांच के अनुसार मैं पिता बनने योग्य नही था। सीमा और मैं एक दूसरे को दिलो जान से चाहते है, लेकिन मेरे पिताजी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि सीमा को तलाक दे दो और दूसरी शादी करो, क्योंकि मैं उनकी इकलौती औलाद हूँ और वह अपना बंश आगे बढ़ता देखना चाहते थे। मैं अपने पिताजी को यह बताने की हिम्मत नही कर पा रहा था कि मैं पिता बनने लायक नही हूँ, क्योंकि उन्हें दिल के दो दौरे पहले ही पड़ चुके है। इस मानसिक तनाव के चलते हम दोनों ने यह यह प्लान बनाया और कडा फैसला लिया और मैं ६ महीने के डेपुटेशन पर अपना तबादला दिल्ली करवाकर हम वहां शिफ्ट हो गए, ताकि घरवालो को भी इस राज का पता न चले। अखिलेश यह सब कह कर विजय के पावों में गिर गया कि उसकी और सीमा कि जिंदगी बरबाद होने से बचा लो।

विजय यह सब सुन, एक द्वन्द मे फंस गया, अपनी किस्मत को कोसने लगा, एक बार सोचा कि जाकर सब कुछ पुलिस को बता दूँ मगर फिर सोचा अब फायदा क्या ? वैसे भी पुलिस के साथ उसका पहला अनुभव ही बहुत कड़वा था। उसका दिल कर रहा था कि वह अपनी वेवकूफी पर जोर-जोर से हँसे। वह सोच रहा था कि लोग किस कदर कमीने हो गये है, इन लोगो ने तो अपनी जिंदगी बरबाद होने से बचा ली,मगर एक बार भी यह नही सोचा कि उसकी जिंदगी का क्या होगा? क्या वह जीते जी कभी सीमा और उस कड़वे सच को भुला पायेगा?
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लघु कथा- धना



देश के बहुत से ऐसे रणबांकुरे जो १९६५ और ७१ के भारत-पाक युद्ध में कहीं गुम हो गए थे, अफ़सोस कि उनमे से अधिकाँश को देश आज तक नही ढूंड पाया। इनमे से ऐंसा ही एक बदनसीब था, धनसिंह। उत्तराखंड के सुदूर अल्मोड़ा के इर्द-गिर्द बसे पहाडी गांवो का एक निवासी, तीन बहनो का इकलोता भाई।

गरीब परिवार की मजबूरियां और देश-प्रेम की भावना उसे १२वीं पास करने के बाद रानीखेत कैंट खींच लायी और वह सेना में भर्ती हो गया। अभी रंगरूटी पास ही की थी कि देश के पूर्वी और पश्चमी मोर्चे पर युद्ध के बादल मंडराने लगे थे। बाग्लादेश की आग पश्चमी मोर्चे तक भी पहुच चुकी थी। अत: एक दिन उसे भी जम्मू से लगी सीमा के एक मोर्चे पर तैनात होने के आदेश दे दिए गए।  जब उसे सेना की एक टुकडी के साथ दुश्मन की अग्रिम पोजिशन को पता लगाने भेजा गया तो दोनों पक्ष आपस में भीड़ गए , घमासान युद्ध हुआ, उसके सभी साथी मारे गए, जिनकी लाशें बाद मे सेना को मिल गई, मगर धनसिंह की न तो लाश मिली और न ही फिर वह लौटकर घर आया।

युद्ध के मोर्चे पर उसकी गुमशुदगी की खबर से माँ तो कुछ समय बाद ही बेटे के गम मे स्वर्ग सिधार गई, किंतु पिता जैसे-तैसे जिम्मेदारियाँ निभाता रहा। तीनों बेटियों की शादी ही कर पाया था कि एकाकी जीवन और बेटे तथा पत्नी के गम में मानसिक संतुलन खो बैठा। करीब डेड दशक पहले किसी काम से अल्मोड़ा गया था, वापसी पर अल्मोड़ा के रोडवेज़ बस अड्डे पर बैठ बस की इंतजारी में था, तभी मैंने देखा कि करीब ६५-७० साल का एक बूढा व्यक्ति अपने बांये हाथ मे एक कांस की थाली पकडे झुर्रियों भरे दाहिने हाथ से उसे बजाकर एक पहाड़ी गीत गाकर भीख मांग रहा था। पास खड़े एक स्थानीय सज्जन, जिनसे मेरा परिचय रात को वहीं होटल मे हुआ था, उन्होंने उस बूढे व्यक्ति की कहानी मुझे बताई कि कैसे इसका बेटा १९७१ की लड़ाई में गुम हो गया था। और उसके बाद ....................!

मन को अन्दर तक झकझोर कर रख देने वाली उस वृद्ध की कहानी सुनकर मैं एक टक  उसे निहारे जा रहा था। वृद्ध के दांत भी नही थे, और एक लडखडाती लय-ताल में वह वृद्ध कुछ इस तरह का पहाडी गीत गा रहा था: "त्वे जाग्दो रैंयाँ धना, डाकैकी गाडी मा ................................!" ( धन सिंह, हम तेरा डाकगाड़ी से आने का इंतज़ार करते रहे मगर तू अब तक आया नही आया ) ................  बस, एक लम्बी साँस लेकर किन्हीं गहरे  भावों मे कहीं खो सा गया था। उन बूढी आंखो को आख़िर कौन समझाए  कि तू अब अपने धना का इंतज़ार छोड़ दे, तेरा धना, अब कभी लौट्कर नही आएगा।

सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...