Wednesday, May 14, 2014

चुनावी महाकुम्भ का आरती विसर्जन और …।

और आखिरकार खत्म हो ही गया, चुनाव का एक और महाकुम्भ। हमेशा की भांति इस बार भी  लोकतंत्र के इस वैतरणी संगम पर बहुत से संतों और पापियों ने मोक्ष प्राप्ति की आस और अपने तमाम पापों को धोने की मंशा से  डुबकी लगाईं। यह  बात और है कि वैभव की चकाचौंध मे अंधे हुए अनेकानेक श्रद्धालूओं  ने  प्रयास तो अपने तमाम पापों को धोने का किया था, मगर इस शुद्धिकरण क़ी हड़बड़ाहट मे मेला-मार्ग  से गुजरते वक्त वो कितने और पाप अपने खाते मे हस्तांतरित कर गये, खुद भी नहीं जानते।

आस्था ही जब अपने मूल से भटक जाये तो पथिक का राह भटकना तो स्वाभाविक ही है।   आजादी के बाद से ही  हालांकि समय-समय पर इस देवास्थल  के पुजारियों की करतुतों और कारगुजारियों से लोकतंत्र का यह पवित्र धाम कलुषित होता रहा है, किन्तु जितना पिछले एक दशक मे  देखने को मिला, मै समझता हूँ कि शायद ही इतना कभी पहले हुआ हो। गत दस वर्षों का यह कालखण्ड स्वतन्त्र भारत के इतिहास मे एक ऐसा दुरास्वप्न बनकर आया कि लोगो की लोकतंत्र  पर से ही आस्था खत्म होतीं सी नजर आई। निम्नस्तरीय व्यवहार, लूट-खसौट , चोरी-डकैती, दुराचार और व्यभिचार, आर्थिक विषमता और मुल्य-वृद्धि, ये कुछ इस दौर के  ऐसे कारक थे जिनकी वजह से लोगों का तमाम व्यवस्था से ही भरोसा उठने लगा था।      

यह एक ऐंसा दौर था जब न  सिर्फ़ इस देश के अन्दर मौजूद बहुत से पापियों ने अपनी कारगुजारियों से भारत माता  का शीश शर्म से झुकने पर मजबूर किया, अपितु, इनकी हरकतें देखकर और हमारी आन्तरिक कमजोरियों का फायदे उठाते हुए , हमारे पड़ौसी मुल्को ने भी समय-समय पर अपनी बदमाशी, झुंझलाहट और आँखे तरेरने मे कोईं कौताही नही बरती।  मगर एक किंवदंती है कि अँधेरी सुरंग मे  कल्पना के सहारे हताशा और नाउम्मीदी के  भयावह मार्ग पर आगे बढ़ते हुए दूर कहीं एक रोशनी का छोर नजर आ जाये तो भटकता मुसाफिर अपने पिछले सारे दुखों को भुलाकर, उस रोशनी तक पहूंचने का भरसक प्रयास एक नईं उर्जा शक्ति के साथ फ़िर से करने लगता है।

और ऐंसा ही  कुछ यहां भी हुआ।   इस महाकुम्भ  के तमाम मेला-क्षेत्र का एक सरसरी नजर से ही अवलोकन करने पर यह स्पष्ठ संकेत  मिल जाते थे  कि हताशा और नाउम्मीदी की  लम्बी, अँधेरी  सुरंग से गुजरते हुए  सबसे अधिक घुटन जो महसूस कर रहा था, वह था इस देश का युवा वर्ग।  यही वजह रही  कि  जहां भी उसे उम्मीद की एक धूमिल सी  किरण भी नजर आई,  वह उसकी तरफ़ सरपट भागा  चला गया।  सदा की ही भाँति  हालाँकि इस दरमियाँ भी बहुत से ऐसे परजीवी मौकापरस्त  नजर आये जिन्होने उनका निजी  लाभ के लिए इस्तेमाल करने मे  कोई  कसर बाक़ी नही छोडी।  स्वार्थी बहुरूपिये भेड़ियों, घोटालेबाजी के बल पर पेट भरने वालों  और रसीली , मनगढंत कहानियां गढ़कर उसे लुभावने अन्दाज़ मे जनता को बेचकर अपना किचन चलाने वालोँ   ने भी  उन्हें पथभृष्ट करने की हर मुमकिन कोशिश की, किन्तु आज के पढे-लिखे और समझदार  युवा ने उनकी हर कोशिश को नाकाम कर दिया।     

उनके उत्साह को देखकर तो यही प्रतीत होता था कि मानो मानव भेश मे उन्हें कोई  विघ्नहर्ता मिल गया हो।  इस साल हुए इस महाकुम्भ की एक खास बात यह भी रही  कि इसमें  66.38 फीसदी निर्णयकर्ताओं  ने अपने मताधिकार का उपयोग कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। इससे पहले यह रिकॉर्ड साल 1984-85 में हुए चुनावी कुम्भ के नाम था, जब 64.01 फीसदी वोटिंग हुई थी और तब सहानुभूति की एक बड़ी जलधारा संगम पर सवार थी। इस आधार पर अब सवाल यह खड़ा होता है कि मतदान का यह नया कीर्तिमान क्या  उस विघ्नहर्ता नजर आ रहे नायक की लहर का ही कमाल है? अनेक समझदार, जानकार तो इसी ओर इशारा करते है, कुछ ऐसे भी हैं जिन्हे इस गंदी कर दी गए राज्नीति से खास सरोकार नहीं है,  किन्तु  कुछ  ऐसे भ्रष्ट, स्वार्थी, संकीर्ण- बुद्धि,  दिग्भ्रमित और चाटुकार  भी है जो इसे उसकी लहर सिर्फ़ इसलिए नहीं कह पा रहे क्योंकि ये पातकी  सोचती हैं कि कहीं इनके सच स्वीकारने से इनके अहम को ठेस  न पहूंच जाये।   


दीमक की तरह देश को अन्दर से खोखला करने वालों को यह समझने का अब वक्त आ गया है कि पिछले ६० वर्षों में देश ने जो कुशासन और सार्वजनिक सम्पति की लूट देखी है, गुजरात मॉडल का अर्थ है उससे मुक्ति। पिछले कुछ दशकों का इतिहास गवाह है कि जो भी प्रदेश कुछ खास दोहरे चरित्र वाले इन खलनायकों से मुक्त हुआ वो तरक्की की राह पर है। वक्त आ गया है उन कुछ रसीली, चटपटी ख़बरों से अपने चूल्हे की आग को जलाये ऱखने वालों के यह समझने का कि जिस इन्सान को उन्होने पिछले एक दशक से भी अधिक समय तक एक दानव के रूप मे प्रदर्शित कर अपनी दुकाने चलाई, जिसकी छवि को एक साम्प्रदायिक, कातिल और खूंखार तानाशाह की तरह चित्रित कर उस पैंटिंग को करोडो मे बेचा, उनकी दुकाने अब इस घटिया किस्म के माल से  बहुत ज्यादा दिनो तक नहीं चलने वाली। 


हालांकि मैं समझता हूँ कि नई सरकार से बहुत ज्यादा की उम्मीद रखना शायद अपने आप से नाइंसाफ़ी होगी।   किन्तु हां, इतना मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, पिछले दस साल के मुक़ाबले आने वाले सालों मे हम कहीँ बेह्तर प्रशासन की उम्मीद अवश्य कर सकते हैं। और इस नई सरकार से न सिर्फ़ मैं अपितु देश के वे करोड़ों लोग जिन्होने एक नईं भोर की उम्मीद मे इन्हें इस वैतरणी मे अपने बहुमुल्य वोट से स्नान कराया, इतनी अपेक्षा इनसे  अवश्य रखते हैं कि अपने शासन के दौरान ये उन गिद्धों को नहीं बख्शेंगे जिन्होने प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही तौर पर इस देश को लूटा, भारत माता को शर्मिँदा होने पर विवश किया। इस प्रक्रिया में  कुछ ज्यादतियां होनीं  भी स्वाभाविक हैं किन्तु उस पेंडुलम को भी सही किया जाना अत्यन्त आवश्यक है, जो वाम-चरम और यूरो-केंद्रित हो गया है। क्षद्म धर्म -निरपेक्षता का चोला एक सरासर बक़वास है जिसके मुखोटे के पीछे कुछ स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ के लिये देश के लोगो को आपस मे ही भिड़ाए हुए है । आज इन सब बातों को दरकिनार कर देश को एक सुनहरे भविष्य मे ले जाने हेतु हमें आधुनिकीकरण और विकास की सख्त जरुरत है। एक होज-पोज़ संस्कृति की वर्तमान अवधारणा देश की मज़बूती के हित मे कतई नही है, और हमे इसके आकार को एक यथार्थवादी भारतीय पहचान देनी होगी। 

अंत में चंद शब्द उन खिसियाये मौक़ापरस्तो के लिये भी कहना चाहूंगा जो कह्ते थे कि ऐसा कभी नहीं हो सकता और अब जो १६ मई के बाद गोल-गोल घूमते अपने छत के पंखें को शून्य मे निहार रहे होंगे। उन्हें यही कहूँगा कि अब जब इस देश के युवा वर्ग ने इनके भिगो के लगा हीं दिया है तो मैं अब उस वक्त उनकी हताशा की भी पराकाष्ठा को देखना चाहता हूँ, जब देश की गद्दी उस जुझारू इंसान के बैठ्ने से सुशोभित होगी। साथ ही भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि इन्हें सद्बुद्धि की प्राप्ति हो। 

आने वाली नई सरकार को मेरी अग्रिम हार्दिक शुभकामनाऐ ! 

जय हिन्द !



प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।