Friday, January 28, 2011

पलायन !





कायनात की
कुदरती तिलस्म ओढ़े,
शान्त एवं सुरम्य,
उन पर्वतीय वादियों में
जंगल-झाड़ों को,
दिन-प्रतिदिन
सिमटते, सरकते देखा,
चट्टानों,पहाड़ों को
बारिश में
खिसकते,दरकते देखा।  


काफल, हीसर,किन्गोड़ से 

दरख्त-झाड़ियाँ
खूब लदे पड़े देखे,
वृद्ध देवदार,चीड व बांज
सब उदास,
खामोश खड़े देखे ,

कफु, घुघूती,हिलांस
अभी भी बोलती है,
किन्तु उनकी मधुर स्वर-लहरी,
कोई सुनने वाला ही नहीं,
ग्वीराळ, बुरांस
अभी भी खिलता है,
पर सौन्दर्य,
खुशबुओं पर मुग्ध,
पेड़ की टहनियों से उसे
कोई चुनने वाला ही नहीं,


शिखर, घाटियाँ
जिधर देखो,
सबकी सब सुनशान,
वीरान घर, खेत-खलिहान,
गाँव के गाँव यूँ लगे,
ज्यों शमशान,
शनै:-शनै: लुप्त होते
कुदरती जलश्रोत,
पिघलते ग्लेशियर,
तेज बर्फीली
सर्द हवाओं का शोर,
बारहमासी और बरसाती,
नदियों-नालों का प्रचंड देखा,
बहुत बदला-बदला सा
इस बार मैंने
अपना वो उत्तराखंड देखा।  

Thursday, January 27, 2011

जीवन पहेली !






जिन्दगी एक्सट्रीम है

उनके लिए,

जिन्होंने जीवन में

बेहिसाब पा लिया,

या फिर

अनगिनत गवां लिया।



जिन्दगी एक ड्रीम है

उनके लिए,

जीवन में जो

सिर्फ पाने की ही चाह रखते है,

कुछ गवाना नहीं चाहते।



अगर यही सवाल

कोई मुझसे पूछे तो ,

मैं तो बस यही कहूंगा कि

जिन्दगी आइसक्रीम है,

उसे तो

वक्त के सांचे में ढलना है,

कोई खाए या न खाए ,

उसे तो पिघलना है।



इसलिए जहाँ तक संभव हो

जितना खा सको

उसे खाओ, चाटो...

अंत में सिर्फ दो ही बातें होवेंगी,

संतुष्ठी , या फिर पछतावा॥


Tuesday, January 25, 2011

जय हिंद !



गणतन्त्र दिवस की सभी देशवासियों को हार्दिक शुभ-कामनाये !
उम्मीद है इस दशक में हम लोग अपने देश के 'गण' को कुटिल राजनीतिक 'तंत्र'से मुक्त करा पाने में सफल होंगे ! बस, इस दिशा में हमारा निरंतर प्रयासरत रहना आवश्यक है !
जय हिंद !

पर्यावरण-कुछ अनुत्तरित सवाल !

एक कहावत है कि हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और ! बेशक देश के अखबारों और मीडिया ने इस खबर को कोई ख़ास तबज्जो न दी हो, मगर है खबर बड़ी रोचक ! हमारे इस देश की इस राजनीति ने पिछले साठ-बासठ सालों में और कुछ नहीं तो पैंतरेबाजी और आमजन की आँखों में धूल झोंकने की कला में दुनिया के अन्य लोकतान्त्रिक देशों से कही बढ़कर महारथ हासिल की है! हमारे देश का एक मंत्रालय है जो देश की पर्यावरण संबंधी समस्याओं पर नजर रखता है ! एक जमाने में इस मंत्रालय के मुखिया हुआ करते थे, श्री ए. राजा ! अपने महान कृत्यों की वजह से आज भारत का जन-जन इन्हें जानता है, जिन्होंने अपने कार्यकाल में विकास से सम्बंधित कुल १७०० परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाई और सिर्फ कुल १४ परियोजनाओं पर अपनी असहमति की मोहर लगाईं थी (शायद इन १४ परियोजनाओ से निजी तौर पर कुछ हासिल न हुआ हो, न होने की उम्मीद हो ) ! आज इस देश में व्यवस्था के नाम पर जो भ्रष्टचार का नंगा दौर चल रहा है, उसमे बिना मेज के नीचे से अपना मेहनताना (आज की सभ्य दुनिया के हम ज्यादातर हिन्दुस्तानी इसे अपना मेहनताना ही कहते है) लिए ही प्रमाणपत्र जारी हो जाने की कवायद परियों की कहानी जैसी लगती है! उसके बाद आये श्री जयराम रमेश, जिन्हें कलतक इस देश के ज्यादातर लोग पर्यावरण के प्रति एक सख्त छवि और कठोर व्यक्तित्व वाला इंसान समझते थे! लेकिन एक एनजीओ द्वारा आरटीआई के तहत माँगी गई सूचना ने इसमें भी कुछ भ्रम पैदा कर दिए है!

जबसे उन्होंने पर्यावरण मंत्रालय का कार्यभार सम्भाला, पर्यावरण से जुडी कुल ५३५ छोटी-बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी दी गई ! जिनमे कोयला क्षेत्र में ५८ परियोजनाओं की अर्जी इनके पास पहुँची, जिसमे से कुल ३१ परियोजनाए अभी तक मंजूर की जा चुकी है और एक भी खारिज नहीं की गई ! बुनियादी परियोजनाओं में भी यही हाल है, १२० परियोजनाए इनके पास पहुँची, अब तक ११२ परियोजनाए मंजूर हुई और एक भी खारिज नहीं हुई! यही हाल नदी घाटी परियोजनाओं का भी है, कुल आठ अर्जियां इनके पास मंजूरी के लिए थी, और सभी आठ की आठ पास हो गई ! मैं यह कदापि नहीं कहता कि इस मंजूरियों में कुछ गलत हुआ! देश के समग्र विकास के लिए आधारभूत परियोजनाओं को मंजूरी मिलना भी जरूरी है, मगर साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि इससे पर्यावरण मंत्रालय गठित करने का उद्देश्य ही गौंण न बन जाये!

आपको यहाँ याद दिलाना चाहूँगा कि किन फैसलों की वजह से उन्होंने खुद को एक "क्लीन एंड ग्रीन" व्यक्ति साबित करने की कोशिश की ! आइये संक्षेप में देखे किन-किन वजहों से वे सुर्खियों में आ गए ; नवी-मुंबई एयरपोर्ट, उत्तराखंड में अनेक जलविद्युत परियोजनाए;बिजली से लेकर सड़के, पुल और मकान निर्माण की कई योजनाएं पर्यावरण मंत्रालय के ग्रीन सिग्नल का इंतज़ार कर रही हैं ! पर्यावरण रिपोर्ट का इंतज़ार कर रही परियोजनाओं मे एनएचपीसी यानी केंद्र की कोटली भेल परियोजना है, जो 1045 मेगावाट की है! इसी तरह 500 मेगावाट की कोटेश्वर, 340 की विष्णुगाड पीपलकोटी, 140 की बद्रीनाथ, 310 की लता तपोवन, 280 की तमक लता जैसी जलबिजली परियोजनाएं हैं !100 मेगावाट की बिजली उत्पादन क्षमता से कम क्षमता वाली तो और भी परियोजनाएं है ! चंडीगढ़ में टाटा केमलाट परियोजना, पुणें के नजदीक 27 हजार एकड़ क्षेत्रा में बनायी गई लवासा ’हिल सिटी’,मघ्य प्रदेश में महेश्वर बांध् परियोजना, मुंबई की आदर्श हाउसिंग सोसायटी की इमारत को गिराने का आदेश,डीजल से चलने वाली बड़ी कारों पर रोक के लिए फ्यूल पॉलिसी विवाद , अक्षरधाम और खेलगांव इत्यादि-इत्यादि !

मुझे इस तर्क में कोई दोष नजर नहीं आता कि सरकार अपने हिसाब से जो उचित समझती है, करती है! मै, श्री जयराम रमेश द्वारा उठाये गए बहुत से क़दमों का स्वागत और समर्थन भी करता हूँ मगर,आप यह देखिये कि आदर्श सोसाईटी के फ्लैट बनाने में पैसा किसका लगा, देश का ! सरकारों की भ्रष्टता की वजह से अब जब यह बात सामने आई कि अन्दर गोलमाल है, पर्यावरण के विषय को ताक पर रखकर इसे बनाया गया है तो यह मंत्रालय तब कहाँ सो रहा था जब इतने ऊँची बहुमंजली इमारत खडी हो रही थी ? और अब गिराने का औचित्य ? गिराने में भी देश का करोडो रुपया बर्बाद जाएगा ! मुंबई में जगह की कमी , क्यों नहीं सरकार इसे कब्जे में लेकर फिर रक्षा मंत्रालय को हस्तांतरित कर देती, और उस पर रक्षा सेनाओं के कार्यालय खोल देती है? यही बात चिंतित करती है कि जिन मामलों में हमारा पर्यावरण मंत्रालय अपनी टांग अड़ा रहा है, उनमे से ज्यादातर या तो कभी की पूर्ण हो चुकी, अथवा उनपर हुआ काम बहुत अग्रिम स्तर पर चल रहा है! सवाल यह उठता है कि इस देश को आजाद हुए ६४ साल होने को आये, कई सालों से देश का यह पर्यावरण मंत्रालय मौजूद है, फिर यह मंत्रालय उसवक्त कहाँ था जब परियोजनाए शुरू की गई थी ? इनकी नींद परियोजना पूर्ण होने के बाद ही क्यों टूटती है? हमारा पर्यावरण मंत्रालय अथवा सरकारी मशीनरी इतनी सुस्त क्यों है ? जहां वाकई में सख्ती बरतने की जरुरत है, जिन क्षेत्रों में पर्यावरण विनाश के कगार पर है, वहा खनिज और खनन की नई परियोजनाओं को मंजूरी देकर पर्यावरण मंत्रालय क्या साबित करना चाह रहा है? क्या यह मंजूरी का खेल भी कही कोई धन ऐंठने का जरिया तो नहीं बनता जा रहा? केंद्र द्वारा कहीं यह उन राज्यों के विकास को रोकने की कोई दुर्भावना तो नहीं, जिन राज्यों में इनके विरोधी दलों की सरकारे है? इस आरटीआई खुलासे के बाद बहुत से ऐसे सवाल खड़े हो गए है, जो अभी अनुत्तरित है ! और जो सबसे बड़ा सवाल है वह यह कि देर से कदम उठाये जाने से जो देश का धन और परिसम्पतियाँ बर्बाद जाती है , उसका जिम्मेदार कौन ?

Tuesday, January 11, 2011

समृद्ध होती राष्ट्र-भाषा !


हमवतन ने
मृतक की
शख्सियत की
भी क्या खूब
दलील दी है !
"कंगला टाईप" था,
मर गया,
फिर भी शिनाख्त की
अपील की है !!

मेरा भारत महान !

Sunday, January 2, 2011

अबूझ पहेली !

दक्षिणी दिल्ली के महारानी बाग स्थित उसके उस किराये के फ्लैट का मुख्य दरवाजा आधा भिडा देख दिल को एक अजीब किस्म की तसल्ली सी हुई थी, और शकून भी मिला था कि चलो अपनी मेहनत,अपना खर्च किया पेट्रोल और शनिवार का अवकाश बेकार नही गया, वह अवश्य घर पर ही होगा। आज की इस ४५-४६ की उम्र तक पहुचते-पहुचते कुछ ही ऐसे गिने-चुने मित्र मेरे पास रह गये है, जिनसे मिलकर दिल की हर बात बताने मे कोई हिचक नही होती। वह भी मेरे न सिर्फ़ कालेज के दिनों का मित्र है, अपितु १९८५-८६ मे पोस्ट-ग्रेजुएशन के उपरान्त हम साथ ही दिल्ली आये थे, और लाजपत नगर रेलवे कालोनी मे कमरा लेकर शुरुआती सालों मे इकठ्ठे ही रहे।

सीधे ऊपर उसके कमरे की तरफ़ डग बढाने की बजाये मैं यह सोचकर वापस गाडी की तरफ़ मुडा कि ठीक से गाडी पार्क कर लूं, फिर उससे मिलने जाता हूं, ताकि यदि उसके साथ गपों मे ज्यादा देर हो भी जाये तो गली से गुजरते किसी बडे वाहन वाले को कोई दिक्कत न पेश आये। और आखिर आज हमारी मुलाकात भी तो करीब तीन महिने बाद होनी थी। अत: न सिर्फ़ ढेर सारी बातें थी, अपितु दिल मे गिले-शिकवे भी बहुत थे कि मैं पिछले करीब दो महिने से चिकनगुनिया से इस कदर पीडित रहा, मगर उसने एक बार भी मेरी कुशल-क्षेम पूछना तक तो दूर, एक फोन तक करना मुनासिब नही समझा। दिल मे जहां इस बात से उसके प्रति गुस्सा भरा पडा था, वहीं किसी कोने मे एक फिक्र भी थी कि आखिर इतने दिनों से उसका फोन भी तो नही मिल रहा, जब कभी उसका फोन बजता भी है तो वह उठाता क्यों नही? न्यू-इयर ईव पर ही उसका सर्व-प्रथम निमंत्रण आ जाता था कि आज की शाम मेरे नाम, मगर इस बार नये साल पर भी जब उसका वधाई संदेश नही आया, तो शनिवार दोपहर बाद मुझसे न रहा गया, और मैने सीधे उसके घर का रुख कर लिया।

गाडी ठीक से गली के एक कोने पर लगाने के बाद मैं उसके फ़्लैट की तरफ़ बढ चला। मकान के प्रथम-तल की सीढिया चढ्ने के बाद अध्-भिडे दरवाजे को बिना खट्खटाये खोलते हुए ज्यों ही मैने कमरे के आगे की छोटी सी लौबीनुमा जगह पर पर कदम रखा, मेरी नजर अन्दर कमरे के दरवाजे के ठीक सामने दीवार से सटे उसके दीवाननुमा बेड पर गई। वह रजाई के अन्दर दुबका बैठा लैपटौप पर व्यस्त था, बेड के दूसरे छोर पर उसकी पत्नी उमा रजाई के दूसरे सिरे को अपने पैरों मे ओढे बैठी कुछ बुनाई का काम कर रही थी। मैं अभी सोच ही रहा था कि मैं उसपर अपना गुस्सा उतारने के लिये क्या गाली इस्तेमाल करुं क्योंकि उमा भाभी भी सामने बैठी थी, कि तभी अपने चश्मे के पार से मेरी तरफ़ कातिलाना नजर डालते हुए वह बड्बडाया, " स्स्साले, कमीने, मिल गई तेरे को फुर्सत". उसका यह व्यंग्य-बाण शायद मैं झेल न पाता अगर उमा भाभी सामने न होती। खैर, अपने को काबू करते हुए मै भी व्यंग्यात्मक तौर पर बोला; तू तो स्सा ....मेरी खोस-खबर पूछते-पूछते थक गया...... । शायद अब तक उसकी नजर मेरे लचकते कदमों की तरफ़ भी जा चुकी थी, अत: अपने चेहरे को सहज करते हुए उसने पूछा, क्यों ये क्या हुआ तेरे को ? मैने भी प्रति-सवाल करते हुए पूछा और तुझे क्या हुआ जो रजाई मे दुबका इतना सड रहा है ?

कुछ क्षण बाद जब स्थिति थोडी सहज हुई तो वह अपने लैपटोप को बेड के पास पडे एक टेबल पर रख खांसते हुए बेड से उतरने को हुआ। मैने सामने पडी कुर्सी उसके बेड की तरफ़ खिसकाते हुए कहा, बैठा रह, कहां उतर रहा है? कुर्सी इधर खींच..... वह बोला। मैने कहा, रहने दे ज्यादा फ़ोर्मल्टी निभाने की जरुरत नही है, मै खुद ही खिसका लूंगा। इस बीच उमा भाभी भी किचन से पानी का गिलास ले आई थी, ट्रे से पानी का गिलास पकडते हुए मैने पूछा, भाभी जी, आप कब आई गांव से ? बच्चे लोग कहां है? मैं उमा भाभी से अभी यह सवाल कर ही रहा था कि वह बेड पर सहजता से बैठ्ते हुए और तकिया अपनी गोदी मे रख उस पर अपनी दोनो हाथो की कोहनिय़ां टिकाते हुए मुरझाये चेहरे पर थोडी मुस्कुराहट बिखेरते हुए मेरी बात काटता हुआ बोला, अच्छा पहले तू सुना, क्या हालचाल हैं तेरे।

उमा भाभी किचन मे चाय बनाने चली गई,थोडी देर तक मैने उसे अपने गुजरे बुरे वक्त की दास्तां विस्तार से सुनाई कि कैसे मैंने चिकनगुनिया की मार झेलते हुए कुछ दिन नर्सिंग होम मे भर्ती रहकर बिताये, घरवाले किस हद तक परेशान रहे, इत्यादि...इत्यादि...! उसने एक लम्बी सांस छोडते हुए मेरी तरफ़ देख कर कहा " सॉरी यार, तेरे साथ इतना कुछ हुआ और मैं खामखा तुझ पर लाल पीला हो रहा था। लेकिन क्या करु मैं भी बडी अजीबोगरीब स्थिति से गुजर रहा हूं आजकल, तू सुनेगा तो..... । तेरे साथ कम से कम तेरे अपने तो है सुख-दुख मे, मैं तो यहां अकेला.... जब बहुत परेशान हो गया तो अभी दस दिन पहले घर से उमा को बुलाना पडा। कभी सोचता हूं कि बच्चों के पास नेटिवप्लेस चला जाऊं, लेकिन फिर सोचता हूं कि ज्यादा दिन वहां ठहरा तो बूढ़े मा-बाप भी टेंशन करेगे, इसी दुविधा मे लट्का पडा हूं।" मैने कुर्सी उसके थोडे और समीप खींचते हुए उससे पूछा, मुझे बता क्या प्रोब्लम है तेरे साथ, मैं हू न । तू भले ही जरूरी ना समझता हो अपना दुख-दर्द मुझे बताना, मगर मै तो जब तेरा फोन नही आया तो सीधे इधर…..। अबे यार, क्या बताऊ, तंग आकर मैने फोन का सिमकार्ड भी अपने पर्स मे रख डाला है। और फिर जो आप बीती उसने सुनाई, उसे सुनने के बाद पहले तो मैं हंसा, मगर फिर विषय की गम्भीरता को देखते हुए सोचने पर मजबूर हो गया।

गोद मे रखी तकिया पर दाहिने हाथ से दो-तीन घूसे मारते हुए उसने बोलना शुरु किया, तू तो मेरे दफ़्तर मे मुझसे मिलने एक बार पहले का आ ही रखा है। और तुझे यह भी मालूम ही है कि प्रथम माले पर स्थित हमारे दफ़्तर की बनावट कैसी है। मैं कम्पनी का वित्त-अधिकारी होने के साथ-साथ प्रशासनिक अधिकारी भी हूं, अत: दफ़्तर मे शुरु से यह परम्परा सी बनी हुई है कि शाम को ६ बजे दफ़्तर की छुट्टी होने पर मेरे अधीनस्थ दफ़्तर के सभी लोग अक्सर मेरे केविन तक आकर "बाय सर,गुड नाईट, मै निकल रहा/रही हूं" कहकर जाते है, और उन्हे यह भी मालूम है कि मैं तो अमूमन हर रोज सात बजे तक ऑफिस मे ही बैठता हूं। रेखा पिछले तकरीबन चार सालों से हमारे यहां प्रोजक्ट-कोऑर्डिनेटर के पद पर कार्यरत थी। सुंदर, हंसमुख और खुश मिजाज। चुंकि उसकी चार्टड-बस ६ बजे से कुछ पहले ही स्टॉप पर आ जाती थी, अत: वह दफ़्तर से अक्सर पांच बजकर पैंतालिस मिनट पर निकल जाया करती थी। जाते वक्त वह भी मेरे उस आधे ढके केविन के बाहर से गर्दन लम्बी कर अन्दर केविन मे झांकते हुए ’बाय सर’ बोलकर निकलती थी। उसे यह मालूम नही था कि मै यहां पर बिना परिवार के अकेला रहता हूं, इसलिये सर्दियों के मौसम के दर्मियां शाम को दफ़्तर से निकलते वक्त "बाय सर" बोलने के उपरांत वह कभी-कभार मजाक मे यह डायलोग मारने से भी नही चूकती थी कि "सर, आप भी जल्दी निकलिये, घर पर भाभी जी वेट कर रही है, मुझे अभी-अभी फोन कर बता रही थी कि आज गाजर का हलवा बना रखा है उन्होने"।

करीब एक साल पहले उसकी शादी गुडगांव मे रहने वाले किसी इंजीनियर के साथ हुई थी। मूलरूप से उसकी ससुराल कहीं जींद के आस-पास, हरियाणा मे थी। हालांकि शादी के बाद भी उसने नौकरी जारी रखी थी, मगर उसके चेहरे की खामोशी से साफ़ जाहिर होता था कि वह इस शादी से बहुत खुश नही थी। धीरे-धीरे दफ़्तर से उसकी अनुपस्थिति भी बढ्ती गई, और फिर एक दिन उसने नौकरी से इस्तीफा भी दे दिया। कुछ समय बाद फिर एक दिन यह अपुष्ट बुरी खबर आई कि वह जींद अपनी ससुराल गई हुई थी और वहीं उसने जहर खाकर आत्महत्या कर ली। इस घटना को हुए अब करीब पांच महिने बीत चुके है। पूरे दफ़्तर को इस खबर पर बडा अफ़सोस हुआ था।



प्रशासनिक अधिकारी होने के नाते मै और मेरे ओफ़िस का सफ़ाई कर्मचारी, हम दो ही ऐसे शख्स है जो प्रात: सबसे पहले दफ़्तर पहुंचते है। चुंकि वह दफ़्तर के पास की ही बस्ती मे रहता है, इसलिये वह पहले ही गेट पर खडा मेरा इंतजार कर रहा होता है। दफ़्तर की चाबी का एक सेट चपरासी के अलावा मेरे पास होता है जिसे मैं उस सफ़ाई कर्मचारी को सौंप देता हूं, ताकि वह दफ़्तर के ताले खोल सके। शनिवार के दिन अक्सर दिल्ली की सडकों पर अन्य दिनों की अपेक्षा कम वाहन होने की वजह से मैं अपने दफ़्तर थोडा जल्दी पहुच जाता हूं,, अगर तबतक सफ़ाई कर्मचारी न पहुंचा हो तो कभी-कभार दफ़्तर के ताले मुझे खुद ही खोलने पडते है।

ऐसे ही करीब डेड-पौने दो महिने पहले एक शनिवार को जल्दी पहुंच जाने की वजह से मैने दफ़्तर का मुख्य द्वार खोला और रिसेप्शन की मेज पर अपना सामान रख आदतन रिसेपशन मे रखे इक्वेरियम मे मछलियों को चारा दिया। कुछ देर तक खामोश रहने के बाद थोडा उचकते हुए वह फिर बोला, तुझे याद है, जब तू मेरे दफ़्तर आया था तो तूने नोट किया होगा कि रिशेप्सन के ठीक बाद हमने अपने दफ़्तर को कांच के फ्रेम से कवर किया हुआ है, और उसपर भी एक कांच का दरवाजा है जिसे भी शाम को चपरासी ताला लगाकर जाता है। अन्दर आधे कवर किये हुए सभी केविनों मे सीटिंग अरेंजमेट इस तरह का है कि बाहर रिशेप्सन से अंदर झांकने पर अन्दर बैठे कर्मचारियो की पीठ दिखती है, यानि उनके सामने के मेज पर रखे कंप्यूटर के मौनिटर का सामने का हिस्सा रिशेप्सन की तरफ़।

फिर मेज पर रखे चाबियों के गुच्छे को उठाकर कुछ बेखबर सा मैं उस कांच के दरवाजे को खोलने के लिये हाथ से ज्यों ही चाबी को लिए आगे बढ़ा, क्या देखता था कि रेखा पहले से अन्दर मौजूद अपनी सीट पर कंप्यूटर स्क्रीन पर नजरें गडाये बैठी है। यह देख मेरे बदन मे एक हल्की सी सिहरन दौड गई। मैने खुद को कोई गलतफहमी होने के अन्देशे से चाबियों का गुच्छा बाये हाथ मे पकडते हुए दाहिने हाथ से अपनी दोनो आंखे मली और फिर से अन्दर झांका। सीट पर कोई नही था, हां कंप्यूटर स्क्रीन बदस्तूर सक्रीय थी। दरवाजा खोलने अथवा न खोलने की दिमागी कशमकश मे फंसा मै वहां खडा ध्यानमग्न था कि पीछे से मुख्य दरवाजे पर चरमराहट हुई। बदन पर हल्की सिहरन लिये मैं तेजी से उस ओर मुडा,यह देख तसल्ली हुई कि वह अपना सफ़ाई कर्मचारी था। उसके आ जाने के बाद मुझमे हिम्मत सी लौट आई थी, मैने दरवाजा खोलने के लिये की होल मे चाबी डाली तो वह झट से बोला, लाईये सहाब, आज मुझे थोडी देर हो गई, मै खोले देता हूं। मैने चाबी उसको पकडा दी, जैसे ही उसने दरवाजा खोला, मै सीधे रेखा वाली सीट की तरफ़ लपका। एक अच्छे जांचकर्ता की भांति मैने उसके केविन का मुआयना लिया। सिवाय कंप्यूटर के वहां कुछ भी असहज नही था।

थोडी देर तक सोचने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि वह सिर्फ़ मेरी आंखों का भ्रम रहा होगा और रेखा की जगह पर नये आये कर्मचारी ने पिछली शाम को कंप्यूटर बन्द नही किया होगा और आफ़िस के मेन गेट को खोलते वक्त जमीनी कम्पन की वजह से कम्प्युटर स्क्रीन सक्रीय हो गई होगी। अपने ही दिमाग से उपजे इस तर्क मे दम होने की वजह से बात आई गई, मैने उसका जिक्र भी किसी से नही किया। हमारे यहां शनिवार को सिर्फ़ आधे दिन ही आफ़िस खुलता है, यानि दोपहर दो बजे बाद छुट्टी। आज से ठीक दो शनिवार पहले दो बजे के आस-पास लगभग पूरा दफ़्तर खाली हो गया था, दफ़्तर मे सिर्फ़ मैं था और हमारे औफ़िस का चौकीदार था। शाम को करीब पांच बजे मै अपनी सीट पर बैठा इंटरनेट पर एक खबरिया वेबसाइट पर एक ताजा खबर पढने मे व्यस्थ था कि तभी उसी अपने पुराने अंदाज मे रेखा ने मुस्कुराते हुए केबिन के बाहर से अन्दर झांका और मेरी तरफ़ देखती हुई वही “बाय सर, मै जा रही हूं” बोली तो मैने भी फिर से नजर कम्प्युटर स्क्रीन पर उस खबर पर गडाते हुए उसे ’बाय’ कहा।

मगर तुरन्त ही मेरा माथा ठनका और मैने जोर से अपने सिर को झटका दिया। यह सोच मेरे रौंगटे खडे हो गये कि यह तो रेखा ही थी। मैं तुरन्त अपनी सीट से उठकर रिशेप्सन की तरफ़ लपका। दफ़्तर का चपरासी मोहन रिशेपसन मे बैठा फोन पर किसी से बातें करने मे मसगूल था। मुझे बदहवास अवस्था मे देख वह भी फोन रखते हुए तुरन्त खडा हो गया, मुझसे पूछने लगा, क्या हुआ सहाब ? मैने कहा, तुमने अभी किसी को यहां से बाहर जाते देखा ? वह बोला, कैसी बात करते हो सहाब, मै तो यहां पर पिछले डेड घंटे से बैठा हुआ हूं, न तो कोई अन्दर आया और न कोई बाहर गया। उसकी बात सुन मैं वापस मुडा और मैने रिशेप्सन और मेन आफ़िस के बीच स्थित उस कांच के दरवाजे को अंदर को ठेला तो नजर सीधी रेखा वाली सीट की तरफ़ गई। यह देख फिर से मेरे रौंगटे खडे हो गये कि उसका कम्प्युटर चल रहा था और कम्प्युटर की स्क्रीन ऐक्टिव मोड मे थी। मैने अपने को सम्भालते हुए मोहन को दफ़्तर बन्द करने को कहा और तुरन्त अपना कम्प्युटर बंद करके बैग उठाकर बाहर निकल आया।

पूरे रास्ते मैं उसी बारे मे सोचता रहा, मैने तुझे भी फोन लगाया मगर तेरा फोन बार-बार इंगेज आ रहा था। घर पहुंच कर रात को मैने ठीक से खाया भी नही, एक भय सा मेरे अन्दर बैठ गया था, घर मे दो पैग के करीब बोतल पर पडा था, मैने एक ही बारी मे पूरा गटक लिया। जिससे दिन भर की मानसिक थकावट के चलते मुझे झपकी आने लगी और मैं जल्दी ही लाईट जलती छोडकर सिर तक रजाई ओढकर सो गया। रात करीब ग्यारह-सवा ग्यारह बजे मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे सामने खिडकी पर कोई है, मैं उठकर देखना चाहता था मगर मै उठ न सका, ऐसा लग रहा था जैसे कोई मुझे दबाये हुए है। मैने हिम्मत जुटाते हुए एक जोर का पलटा मारा और चीखता हुआ सा फर्श पर सीधा खडा हो गया। मैने तुरन्त अपने पुराने औफ़िस के एक दोस्त रमेश को फोन लगाया जो पास ही गढ़ी मे रहता है, उससे बातचीत के बाद उसी वक्त मै यहां ताला लगाकर उसके घर चला गया, और वापस तभी यहां लौटा जब गांव से उमा मेरे छोटे भाई के साथ यहां आ गई। अपनी बातों को उपसहार देते हुए वह एक लम्बी सांस छोड़कर बोला; यार, तू मेरा यकीन नही करेगा मगर मैं सचमुच बहुत डर गया हूं, मैने कभी सपने मे भी नही सोचा था कि मेरे साथ ऐसी स्थिति भी आ सकती है। मैने तबसे दफ़्तर जाना भी छोड दिया है, दफ़्तरवालों के बार-बार फोन आ रहे थे, इसलिये मैने अपने फोन का सिमकार्ड भी निकाल कर पर्स पर रख दिया है। अभी कल सुबह तो उमा को छोड्ने गांव जा रहा हूं क्योकि दोनो बच्चों के छमाही इम्तहान शुरु होने वाले है, मगर उसके बाद कैसे चलेगा समझ नही पा रहा।

घर लौटते हुए वापसी मे मुझे इस बात की संतुष्ठी थी कि मैने उसे इस बात के लिये मना लिया है कि जब वह उमा भाभी को गांव छोडकर वापस लौटेगा तो तब तक मेरे ही घर पर रहेगा, जब तक कि इस साल की बच्चों की परिक्षाये खत्म होने के बाद उसका परिवार गांव से उसके पास नही आ जाता। मगर इस मुलाकात के बाद से एक बात जो मुझे मेरे जहन मे बार-बार कुरेदे जा रही है, वह यह कि जो समस्या मेरे मित्र ने बताई, वह अगर कुछ सीमा तक भी यदि सच है तो क्या इस वैज्ञानिक युग के बावजूद भी इन प्राचीन बातों की प्रासांगिकता हमारे इस विकसित समाज मे अभी भी विद्यमान है ?

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।