Thursday, December 31, 2020

ऐ गुजरने वाले साल...।












ऐ गुजरने वाले साल, तेरे रहते मैंने,

'गुड' की जगह, 'बैड' फ्राइडे देखा,

बारहमास, कोई पर्व मनाया न गया,

किसी भी शहर न कोई 'हाईडे' देखा,

किसकदर भारी हो सकता है बुरा वक्त,

एक-दो नही,पूरे पैंतालीस 'ड्राइडे' देखा।😀



सभी स्नेही मित्रों को नूतनबर्ष 2021 की मंगलमय कामनाएं।🙏

Tuesday, December 29, 2020

कटु सत्य।

लगे हैं जो मेरे शब्द तुमको अप्रिय, 

निकले न मेरे मुंह से होते,

ऐ प्रिये, जबरन जो मेरे मुंह मे 

अपने शब्द, तुमने न ठूंसे होते।

Sunday, December 27, 2020

ऐ साल 2020 !

 











असहज छटपटाहट, 

नकाबी हितस्वार्थ, 

अहंवादी हठता और 

प्रतिद्वंद्विता की शठता, 

शाश्वत चीखती रह गई

कुछ सर्द सी आजमाइशें।

है फैला चहुंओर, 

इक तिजा़रती शोर,

बेचैन दिल के अंतस मे ही

कहींं दफ्ऩ होकर के रह गई ,

कुछ कुत्ती सी ख्वाहिशें।


दिल मे बची है तो बस,
लॉकडाउन की खलिश
और राहबंदी की टीस,
तूने छाप ऐसी छोडी
तु याद रहेगा सदा,
अलविदा,
ऐ साल, दो हजार बीस।

Tuesday, December 15, 2020

तार्किक..

ब़ंद कबूतरखाने से जब, इक तोता निकला तो

सब के सब ने एक स्वर कहा, ये कैसे, ये कैंसे ?

एक ज्ञानी सज्जन, जो समीप ही खडे थे बोले,

राजशाही अस्तबल से, इक खोता निकला जैसे।

Sunday, December 13, 2020

वादा रहा..

 व्यग्र,व्याकुल इस जिंदगी को, 

मिल जाएगा निसाब जिस दिन,

ऐ मेरी अतृप्त ख्वाहिशों, 

कर दूंगा तुम्हारा भी हिसाब उस दिन।

Monday, December 7, 2020

अतृप्त मन...

इन आवारा चक्षुओं ने,

छुप-छुप के ताकी हैं,

मेरी, वो ख्वाहिश,

जो अभी भी बाकी हैं।

दिल की हर तमन्ना

सिर्फ,नशेमन ने हाकी है,

गोया, अतृप्त हैं ख्वाहिश,

जो अभी भी बाकी हैं।


xxxxxxx


तेरी हर परेशानी, रंज और ग़म 

बेहिचक वो मुझको दे दे, 

उससे हरव़क्त यही गुजा़रिश करता हूंं ,

ऐ दोस्त, मुझे जब भी कभी ,

देव-दर्शन होते हैं , सिर्फ़  और सिर्फ़,

तेरी खुश़हाल जिंदगी की शिफारिश़ करता हूँ।





Sunday, December 6, 2020

साल एक और गुजरा....






हैं चहुं ओर चर्चा मे अदाएँ,

कोरोना दिखा रहा मुजरा,

उधर, बंद खौफज़दा जिंदगी,

इधर, साल एक और गुजरा।


कभी थोक मे बढी मुश्किलें,

कभी जीवन हुआ खुदरा,

कुछ तो सफर ही मे गुजरे,

जीना हुआ दुभर, दुभरा।


बेताब है, आगोश मे आने को,

है जब से ये नया दुश्मन उभरा,

आसपास ही छुपा बैठा है कहीं,

ऐ नादांं, सम्भल के रह तू जरा।


टूटी कई ख्वाहिशे, बिखरे सपने,

है सहमी-सहमी लगती यूं धरा,

उधर, बंद खौफज़दा जिंदगी,

इधर, साल एक और गुजरा।




Tuesday, November 24, 2020

रूबरू बोतल..

औकात मे रह, वरना

मैं तुझे फोड डालूंगा...

सच्ची कह रहा हूँ...

दूर रह मुझसे, वरना... 

मैं तुझे तोड डालूंगा।


माना कि तुझे मैंने खूब,

पिया भी व पिलाया भी,

हम बीच रिश्ते को वजन

दिया भी और दिलाया भी,

किंतु, प्रकट न हो,

यूं तकलीफ़ियों सी भी,

क्योंकि, हद होती है 

नजदीकियों की भी।


ख्वाहिश बनके रोज, 

बुलाया न कर मयखाने,

कोई, बीच तेरे-मेरे, 

इस रिश्ते को न जाने।


समझ ले, कांच की है,

पत्थर से न टकराना,वरना

पत्थर से  ही तोड़ डालूंगा,

दूर रह मुझसे, वरना... 

मैं तुझे फोड डालूंगा।।


Monday, November 23, 2020

लोन औन फोन...

 ऐ साहुकार, तु कर न 

वसूली की तकरार,

मुझे दिए हुए लोन पे,


मन्ने तो मांगा नी था,

लोन देने का कौल 

तेरा ही आया था 

भैया, 

मेरे फोन पे ।

Friday, November 6, 2020

इतना न इतराओ...

जब हम न होंगे, 

मायूस तो तुम अवश्य होंगी 

हमें खोकर ।

जीवन मे पग-पग,

बिंदास हमें लगने वाली ऐ, 

हर एक ठोकर ।।

Monday, October 26, 2020

चुनौती..

हिम्मत है तुझमें तो तू निकल के दिखा, 

मुख से, पेट से, दांतों या फिर आंखों से,

ऐ मेरे दर्द, अब तू बच नहीं सकता, क्योंकि

मैने तुझे बांध दिया है, जिंदगी की सलाखों से।

Tuesday, October 13, 2020

नाम चीन-अनाम पाक।

दुआ है कि इसीतरह फूले-फले व्यवसाय तुम्हारा,

ऐ तमाम दौरा-ए-कोरोना, कफन बेचने वालों,

मगर, कुछ कतरा-ए-कफ़न अपने लिए भी सम्भाले रखना,

क्या पता, कब इसकी जरूरत, तुम्हें भी आन पडे।



Sunday, September 27, 2020

आओ, तुमको कथा सुनाऊं

मोदीजी सुनाते मन की बात, 

और मैं मन की व्यथा सुनाऊंं, 

सुनो ऐ प्यारे हिन्द वासियों,

आओ, मैं तुमको कथा सुनाऊं।


एक सूखी डंठल, जड़ मजीठ का,

किंतु, कथावाचक हूँ व्यास पीठ का,

छै महिने लॉकडाउन, बंद कमरे मे

कितना इस मन को मथा सुनाऊं।


बताओ, वाचन करुं मैं शुरू कहाँ से,

राजा यथा सुनाऊं या प्रजा तथा सुनाऊं?

सुनो ऐ प्यारे हिन्द वासियों,

आओ, मैं तुमको कथा सुनाऊं।।


Friday, September 25, 2020

अचम्भा।

जबसे अकृत्यकारी चीन के कोरोना जी ने

तमाम दुनिया को फांसा हैं,

शायद आपने गौर किया हो,

केजरीवाल जी एक बार भी नहीं खांसा है।😂😂


Monday, September 21, 2020

कोरोना- भ्रम








हमने चेहरे पे मास्क क्या लगाया 'परचेत',  

कुछ नादां  हमें बेजुबांं समझ बैठे,

फितरतन, चुप रहने की आदत तो न थी, 

क्या करे, बेवश थे चीनी तोहफे़ के आगे।

Sunday, September 20, 2020

कोरोना विडंबना

 गले लगाया है तेरी जुल्फो़ंं की मोहब्बत ने, 

जबसे तन्हाइयों को,

 गाहक मिलने ही बन्द हो गये, 'परचेत' 

तमाम शहर के नाइयों को।

Saturday, September 12, 2020

मुखबंदी

 चम्मचे-ए-खास अभी अभी गये,

मुंह खोला तो गुलाम नबी गये।।😀😀

Thursday, September 10, 2020

कोरी ऐंठन

 हो चाहे जितनी भी मुहब्बत 

तुझको संजय रौत से,

करे जितनी भी नफ़रत 

तू कगंना रणौत से, 

देखना,सत्ता का ये गुरूर, 

तुम्हें ले डूबेगा हुजूर ।

Sunday, September 6, 2020

परिचित, आज फिर मिलने कुछ शामें आई थीं।








निकले थे दिनकर इंद्रप्रस्थ से

और सांझ उनकी गुरुग्राम गई,

गुम, कुछ वाहियात सी ख्व़ाहिशे,

आडे-तिरछे जिन्हें बुना था कभी,

चुस्त एकाकीपन की सलाइयों से,

ढूंढते हुए उन्हें इक और शाम गई।



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पद्य पर गजब का नशा था जमाने मे,

और मै व्यवस्थ रहा, गद्य सजाने मे।





Saturday, August 29, 2020

एक लघु मगर जरूरी पोस्ट- अभी सोने का नहीं, लुडक जाओगे।

ज्यादा पुरानी बात नहीं है, आपको याद होगा शेयर बाजार जब इक्तालिस हजारी थे तो 55 हजारी की बात की जा रही थी और कर कौन रहे थे ? बाजारू गिद्ध। फिर क्या हुआ ? 41 हजारी 30 से भी कहीं नीचे आ लुडका। अब भला , दोष कोरोना का ही क्यों न रहा हो।

बस, इस संक्षिप्त पोस्ट के मार्फत आपको यही चेताना है कि वही स्थिति आज  बुलियन मार्केट की है। दलाली गिद्धों ने तात्कालिक फायदे के लिए इसे चढाया हुआ है, बहुत आवश्यकता के अलावा इसमे न उल्झें।

नीचे दो चित्र चस्पा किए हैं उनसे स्थिति को समझने की कोशिश करें।




Thursday, August 27, 2020

यह मोड...







कभी लगा ही नहीं,

फासला-ए-मोहब्बत,

शब्दों की मोहताज रही हो,

प्रेम सदा ही प्रबल रहा, 

बात वो कल की हो, 

या फिर आज रही हो।

तुम्हीं बताओ, बीच हमारे

दूरियों के दरमियाँ,

कुछ गलत एहसास तुमको

होने दिया हो हमने,

बावजूद इसके कि कभी 

तबीयत भी नासाज रही हो।।

Friday, August 21, 2020

ऐ जिंदगी।

ऐ जिंदगी बता,
तूने क्यों ये गजल छेडी,
इन बदरंग सफो़ंं मे,
हम तो जिये ही जा रहे थे तुझको, 
हर पल हसींंन लम्हों मे,
दफाओं की दरकार तो सिर्फ़, 
शिकायतों को हुआ करती है,
हमने तो कभी सोचा ही नहीं, 
नुक्शानों मे जिए कि नफ़ोंं मे।

ऐ जिंदगी, मुझको अब इतना भी मत तराश कि 
बदन की दरारें, नींद मे खलल का सबब बन जांए।







Tuesday, August 18, 2020

बेवफा ख्वाहिशे

 


इतनी संजीदा जे बात तुमने, 
गर यूं मुख़्तसर सी न कही होती,
मिलने को हम तुमसे, 
मुक्तसर से अमृतसर पैदल ही चले आते।

Sunday, August 16, 2020

सरकारों की नासमझी और प्रशासन की अकर्मण्यता का खामियाजा भुगतने को मजबूर पहाड़ी।

 01 अप्रैल 1973 को बंगाल टाइगर्स को बचाने की मुहिम के तहत तत्कालीन इंदिरा सरकार ने टाइगर प्रोजेक्ट शुरू किया था। मकसद यही था कि तेजी से लुप्त होती जा रही बंगाल टाइगर की आबादी को संरक्षित किया जाये, किंतु भ्रष्टाचार से ग्रसित सिस्टम के तहत कोई खास सफलता हासिल न हुई।

परिणाम स्वरूप, २००६ मे, जब श्रीमती सोनिया गांधी की सरकार सत्ता मे थी , टाइगर्स की की गई गिनती मे टाइगर्स की आवादी मात्र १४११ रह गई। 

फिर शुरू हुआ सरकार, नौकरशाहों और तथाकथित पर्यावणविदों द्वारा अपनी अक्षम्यताऔं पर पर्दा डालने का सिलसिला। विभिन्न स्थानों से बाघ, तेंदुए इत्यादि मांसाहारी प्राणी एक वन से दूसरे वनों को स्थानांतरित किये गये और ऐसे ही बहुत से हिंसक प्राणी उत्तराखंड के जंगलों मे छोड दिए गये।

मगर, बुद्धि से पैदल ये ज्ञानी लोग यह भूल गये कि जिन मांसाहारी प्राणियों को वे उत्तराखंड के जंगलों मे छोड रहे हैं,उनके पोषण की इन्होंने क्या व्यवस्था की है। होना ये चाहिए था जिस वक्त एक निश्चित संख्या मे हिंसक जन्तुओं को उत्तराखंड के जंगलों मे छोडा गया था, उसके छह गुना तादाद मे अहिंसक जीवों जैसे पहाड़ी हिरन और अन्य पहाड़ी जीवों को भी इन वनों मे छोडा जाता ताकि ये हिसंक प्राणी अपने उपभोग का म़ांंस इन जीवों से प्राप्त कर सकें मगर बडा सवाल ये कि अपना घर भरने से फुर्सत किस सर

कारी महकमे को थी?

नतीजन, वनों मे जो भी अहिंसक प्राणी सीमित संख्या मे थे, वो सब हिंंसक प्राणियों का निवाला बन चुके और अब सारे हिंसक प्राणी जैसे, बाघ तेन्दुए गांवो की ओर रुख करने को मजबूर हो गये। यही कारण है कि जिस बाघ ने ११ अगस्त को श्रीनगर के समीप मलेथा गांव मे तीन बहनों मे से एक को अपना निवाला बनाया था, वही, सुप्त प्रसाशन का लाभ उठाते हुए.१५ अगस्त को मलेथा गाँव के ही एक स्कूल मे झंडारोहण को भी पहुंच गया और ग्राम प्रधान सहित कई को घायल कर गया।

-पीसी गोदियाल


लगता नहीं है दिल मेरा, इन उजडी हुई दीवारों मे

 














लगता नहीं है दिल मेरा,
इन उजडी हुई दीवारों मेंं,
दम घुटता है कभी-कभी, 
भीत के बंद कीवारों मेंं।

सजर खामोश,पता ना चले,
कब दिन उगे, कब ढले,
कब नमी थी, कब शुष्कता,
समीप से गुजरी बहारों मेंं।

दम घुटता है कभी-कभी, 
भीत के बंद कीवारों मेंं।।

मंजर हसीं हो तो क्या सही,
दफ्ऩ दिल मे ही हैं बाते कई,
मुसाफिर बहुत हैं राह मे मगर,
बंद हैं सभी अपने दयारों मे।

दम घुटता है कभी-कभी, 
भीत के बंद कीवारों मेंं।।

एक ही चमन के सभी अनजाने,
यूंही पल-पल गुजरे, गुजरे जमाने,
जाने, कब, कौन, कहां खप गया,
इस गली उस गली, पास बाजारों में।

दम घुटता है यहां हरदम, 
भीत के बंद कीवारों मेंं।।

Saturday, August 15, 2020

पावन पर्व


आप सभी ब्लौगर मित्रों को स्वतंत्रता दिवस की मंगलमय 

                                शुभकामनाएं।🙏


Wednesday, August 12, 2020

अभी जाना तो नहीं चाहते थे वे इस दौर से, राहत न मिली तो जाना पडा इंदौर से।

भांति-भांंति के हुरी ख्वा़ब, 

मन मे लेकर इंदौर से 

झूमते हुए निकले थे जो कल,

जन्नत फुल होने की वजह से,

सुना है, उन्हें खुदा के  किसी

'राहत' कैंप मे ठहराया गया है,बल ।

Friday, August 7, 2020

दोष

मालूम था हमको,वो बुरी चीज है,

जिसे पीती है दुनियांं बडे नाज से,

मगर, ऐ साकी, बर्बाद हम यूं हुए,

कुछ तेरे पिलाने भर के अन्दाज से।



Wednesday, August 5, 2020

देवनगरी,"अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या"














जन्मस्थली मुक्त हो गई, दैत्य कारावास से,
श्रीराम लौटेंगे अवध, आज फिर वनवास से।

दीपों से जगमगा उठे हैं, निर्मल सरयू के तट,
सजने लगे फिर दोबारा,अयोध्या के सूने पट।

गूंज रहा देश कौशल,'श्रीराम' के जयघोष से,
मुक्त होगी शीघ्र दुनिया,व्याधि,संताप दोष से।

हासिल करेंगे रामराज, दुष्टजनों के नाश से,
श्रीराम लौटेंगे अवध, आज फिर वनवास से।
                                          






Tuesday, August 4, 2020

मैं क्या बोलूं ?

धर्म-ईमान,
मालूम है, 
यहां सबकुछ,
टके-सेर बिकता है,
और जो खरीददार,
वो वैंसा है नहीं, 
जैंसा दिखता है।

Sunday, August 2, 2020

गजब।

ऐ खुदा, 
क्या लॉकडाउन की वजह से,
बंद हो गई है तेरी चक्की भी,
सैनेटाइजेशन की हद तो देखो,
दाम अलग किंंतु स्वाद एक जैसा
दे रही, कच्ची और पक्की भी।
अब तो हैरानगी यह देखकर और बढने लगी है कि
सोशल-डिस्टेंसिग बरत रही, मेरे गांव की मक्की भी।।😀






Tuesday, July 28, 2020

आरजू

गर सुधार न हो पाये तो
 तुम माफ कर देना,
हर उस किये को,
कसूर चाहे बाती का हो
या तेल की गुणवत्ता का,
नहीं मालूम, मगर तुम
दोष मत देना, दीये को।

Sunday, July 26, 2020

व्यथित राग।














न जाने, क्यों अजनबी सा लगने लगा
अपना ही घर आजकल,
कुछ ज्यादा ही म़जहबी हो गया शायद, 
बेगानोंं का ये शहर आजकल।

झूमते निकल जाया करते थे बेपरवाह

मदमस्त जिस गली से कभी
मुश्किलों भरी सी लगने लगी है नाज़नीं, 
अल्हड सी वो डगर आजकल।

गलतफहमियों की बस्ती मे जो 
पाली थी थोडी सी खुशफहमियां,
न जाने कहाँ गुम होकर के रह गई, 
उल्फ़त की वो नजर आजकल।

वसंती खुशियों का सबब मिलता था 

जिनसे, पत्थरों के शहर को,
जेठ मे भी पातियों से ओंस टपका रहे,
बलखाते वो शजर आजकल।

उजड रहे क्रुर वक्त की आंंधियों मे

बसे हुए कुटुम्ब के कुटुम्ब सारे,
उत्कर्ष के इस चरम पर 'परचेत',
हो रहे कुल-कुनबे, दरबदर आजकल।

Sunday, July 12, 2020

...............ये शहर मेरा..........!


अपने दुःख में उतने नहीं डूबे नजर आते हैं लोग,
दूसरों के सुख से जितने, ऊबे नजर आते हैं लोग।


हर गली-मुहल्ले की अलग सी होती है आबोहवा,
एक ही कूचे में कई-कई, सूबे नजर आते हैं लोग।


कहने को है भीड भरा शहर,मगर सब सूना-सूना, 
कुदरत के बनाये हुए, अजूबे  नजर आते हैं लोग। 


कोई दल-दल में दलता, कहीं दलती है मूंग छाती, 
सब नापाक ही नापाक, मंसूबे नजर आते है लोग।


बनने को तो आते हैं 'परचेत', सब चौबे से छब्बे जी, 
गाडी विकास की पलट जाए,दुबे नजर आते है लोग।

Wednesday, July 8, 2020

अल्हड़








सज्दा हमें मुनासिब नहीं
बताकर मैं पसंद रखुंं,
हर मुकम्मल कोशिश
यही रही अबतक
कि मुंह अपना बंद रखूं।
ये मुमकिन था कि मैं
सच बोल देता,
कभी जरा सा भी,
जो मैं मुंह खोल देता।।

Thursday, July 2, 2020

कसमरा

मर्ज़ रिवाजों पे, कोरोना वायरसों का सख्त पहरा हैं,
एकांत-ए-लॉकडाउन मे, दर्द का रिश्ता, बहुत गहरा है,
थर्मोमीटर-गन से ही झलक जाती है जग की कसमरा,
 न मालूम ऐ दोस्त, कौनसी उम्मीदों पे, ये दिल ठहरा है ।

Friday, June 26, 2020

संयुक्त

लक्ष्मण रेखा, हमने नहीं, उसने लांघी है
ऐ पार्थ, मत छोडना तुम उस कमीन को,
क्योंकि तुम ही रखवाले हो, इस युग के,
आ़ंच आने न पाए, मातृभूमि जमीन को।

दौलत का निहायत ही भूखा है, हरामी,
कुटिल बातों मे उसकी कभी हरगिज भी,
डगमगाने न देना तुम, अपने यकीन को,
वक्त आने पे छोडना मत, कुटिल चीन को।

Thursday, June 25, 2020

चाण्डक्यचाव !







हो वर्चस्व की यदि अंंतहीन जंग,
उसे मरते दम तक कभी न हारो।
भद्र-प्रतिद्वंद्वी, बर्ताव हो निश्छल,
हो शत्रु कपटी, उसे छल से मारो।।

मरुधर जो उगले, नफरत का लावा,
तीव्र-प्रबल धार छोड, जल से मारो।
निष्क्रिय हो बोले जो,शटुतित धावा,
लक्ष्यसिद्ध शस्त्र साध, बल से मारो।।

विघ्न उपजाना समझो,धर्म है रिपु का,
उसका हल निकाल, उसे हल से मारो।
जिसे फर्क न महसूस हो,मनुष्यत्व का,
ऐसे अकल के मारे को,अक्ल से मारो।।

अक्षम्य है लेकर जान, उसे त्रुटि कहना,
भूल करे इरादतन बैरी तो फल से मारो।
बन जाए अगर कोई मार्ग का बाधक,
वीर-पथगामी बन 'परचेत', तल से मारो।।



Sunday, June 21, 2020

बाप का बरदहस्त !

क्योंकि मैं नादां था
तो, बचपन मे जब भी
मैं, खो लेता था आपा,
गोद उठा लेते थे पापा।

जवां हुआ तो भी नासमझी
और बरदहस्त के बल पर,
हरदम अपना आपा खोया,
हकीकत जमाने की जानी,
तब दस्तूर समझ मे आया,
जब, मैंने अपना पापा खोया।
#Happyfather'sday

Saturday, June 20, 2020

अफसोस ये भी...

चलचित्र को बदनाम किया,
स्वार्थी,चरित्रहीन खानों ने,
वतन को नीचा दिखलाया,
कुछ बिके हुए इन्सानों ने।

Thursday, June 18, 2020

मूड रंगीन हो तो आप क्यों बाज आते हो, लुत्फ़ उठाने से ...

झूठा-मूठा ही सही, ऐ यार, 
ये तेरा प्यार हमसे,  
मगर तू कब बाज आयेगा, 
दुनियांं को यह दिखाने से।

इस इश्क दरमियाँ हमने, 
ठोकरें क्या कम खाईंं हैं,
जो खिलाने पे आमादा है 
हमको, और तू जमाने से। 

माना कि शुकूंं की 
सभी को जु़स्तु़जू़ है, 
मगर सवाल करती आँखें 
क्यों मुंतज़िर हैं तेरे बहाने से।

छोड दे तोलना हमको तू, 
वक्त की कसौटी से,
अरे नादांं, जताने के बजाए, 
प्यार बढता है छिपाने से ।  

फर्क की परवाह किसको ,
तेरी स्नेह की तिजोरी पर,
जरा, हम भी लूट ले गये
'परचेत', जो तेरे खजाने से।

Tuesday, June 16, 2020

पैरोडी, कोरोना जहाँ तेरा देस रे....।

इस तथाकथित आचार, लाचार, सदाचार, ग़ंवार दुनियांं को देख आज एक ही प्रश्न मन मे कौंध रहा, जब तुम्हारे द्वारा इम्पोर्ट किया गया चीनी माल इतना घटिया था तो तुमने 5 महिने बाद भी ,उस माल को उसे लौटाया क्यों नहीं ? , विश्व आज झूठे , मक्कार और स्वार्थी प्राणियों के एक देश के आगे
इतना बेवस क्यों?

हे कोरोना, जल्दी जा रे,.........
चले जा.....अरे हो, कोरोना, 
जहाँ तेरा देस रे, कोरोना जहाँ तेरा देस,
अरे हो, तोहे देखूँ तो लागे ठेस रे,  
कोरोना जहाँ तेरा देस।

लाल लाल लाल ध्वजा ओढ़े, 
जग में फिरे बहार,
हाय गाल गाल सुलगे रे तेरी, 
जिया जले हमार,
छैयां पड़े जहाँ तोरी रे
संक्रमण फैले वहां तोरी रे
अरे हो, बदला कैसे तूने भेस रे, 
कोरोना जहाँ तेरा देस।

घूम घूम के बीजिंग की गली-गली, 
जाना शी-पिंग के द्वार,
मोड़-मोड़ पे फंसी मिले, 
उस  हरामी की कार,
जब राह में घायल तेरी बाजेगी
सारी धरती गगन तले नाचेगी
अरे हो, मुख पे काला तेरे शेष रे, 
कोरोना जहाँ तेरा देस।
चले जा..जहाँ तेरा देश रे..।

Sunday, June 14, 2020

वक्त का पहिया।



इक्कीसवीं सदी मे भी अश्वेतों का जीने का हक,
गला दबाकर छीन लिया करता था जो कलतक,
असहिष्णुता और रंग-भेद पर ही पूरी दुनिया को,
ज्ञान बांटा करता था वो,"श्वेत वर्चस्वधारी बुडबक"।

किंतु, ऐसा वक्त का पहिया घूमा, खुल गई पोल,
सडकों पे उतरे अश्वेत,बजाके नश्लवाद का ढोल,
बिगुल बजा, अमेरिका, यूरोप से आस्ट्रेलिया तक,
अब,हटाये और गिराए जा रहे,तमाम श्वेत स्मारक।

शस्त्र-कोरोना लेकर, कुदरत ने भी डाका डाला है,
दिलों मे आग धधक रही,जहां मे भडकी ज्वाला है,
व्यर्थ हुई 'परचेत' चमक-दमक, क्षमता ऐसी मारक,
न कर्ता कोई नये विश्व-युद्ध का,और न कोई कारक।

#हरजीवनमायनेरखताहै
Every lives matter.





Saturday, June 13, 2020

अ वीकेड,..। कंट्री कौल्ड 'चाह'हिना ...।

तमाम सामाजिक दूरियांं बरतते हुए,
हम ह़िंदुस्तानियो ने तो सदी गुजार दी
और, अब ये कमबख्त चीनी वायरस,
हमें दूरियाँ बरतने की सलाह दे रहा। 😀

Friday, June 12, 2020

वक्त का पहिया।

हम जब समाज मे किये थे प्रवेश
उस बदलते समाज की देहरी से,
तो सिर्फ़, संस्कार हमारे साथ थे,
हमारे लाख समझाने पर भी, वो
हमारा साथ छोडने का राजी न थे।

मगर, वक्त की विडम्बना तो देखिए,
जब जमाने का रंग चढा हम पर, तो
"संस" हमें दरकिनार कर गए, और 
तथाकथित हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा पर, 
"कारों" ने वर्चस्व हासिल कर लिया।। 

Friday, June 5, 2020

अचरज।

नजर आता नहीं,
कहीं दूर तक कोई,
तिनका इक आश का,
जहां वाले, है कैसा
ये सम्मिश्रण तेरा, 
उल्लास मे हताश का।

'कोरोना' संरचना
कोई कारण तो नहीं,
मानवता के विनाश का,
'आश' की आस मे
ये कब खत्म होगा,
इंतजार इक निराश का।।

क़त्ल की ये कैसी
खौफना़क साजिश,
है जुनून कैसा 
ये सत्यानाश का,
गुफा अंधेरी,अंतहीन,
सर्वथा टेडी-मेडी,
परिणाम शिफ़र तलाश का।

ये कौन है,
आया कहाँ से भेष धरकर,
मदमास मे बदमाश का,
नजर आता नहीं,
कहीं दूर तक कोई,
तिनका इक आश का।



Wednesday, June 3, 2020

नसीहत-ए-कोरोना।

सांसे जकडकर भी कह रहा कोविड-१९
बेटा, जंग जारी रख, हिम्मत न हारना।
मगर याद रहे, जिंदगी का ये फलसफा,
खटिया से बाहर कभी पैर मत पसारना।।

सहुलियत ही नहीं, हुनर से भी सीढियां चढ,
सोच का दायरा बढा, 'मैं' से भी आगे बढ।
आस़ां है कर्ज लेना, मुश्किल है उतारना,
खटिया से बाहर कभी पैर मत पसारना।।

अभी ताजा तुझको, यह ऐहसास कराया है,
जो निर्भीक कहता था खुदको, उसे डराया है।
कितनी कठिन है जिंदगी, पिंजड़े मे गुजारना,
खटिया से बाहर कभी पैर मत पसारना।।

गुजरी थी कभी जो मदमस्त होकर, वो जवानी
बुरा जो वक्त आया तो मांग न सकी पानी।
दुनियांं बहरी हो 'परचेत',तो फिजूल है पुकारना,
खटिया से बाहर कभी, पैर मत पसारना।।

एक अफसोस....।।


30-32 साल पहले युवावस्था मे जब पहली झलक मे यमनोत्री धाम देखा था तो उस वक्त की उस जगह का आखों देखा चित्रण कुछ यूं था:
दूर पहाड़ी ओठ से आती लकीराकार एक स्वच्छ निर्मल नीर धार...। नीचे पहाड़ी की ओठ मे बना एक प्राचीन मंदिर..। मंदिर के आसपास टिन की चादरों और तिरपाल की छत से ढके कुछ खपरैल, चाय-पानी की दुकानें...। बस, अन्यथा सब कुछ निर्जन।


आज... यहां जो तस्वीर चस्पा कर रहा हूँ वो गत बर्ष की है, जो मैंने कही से उठा ली थी। उसपर नजर गई तो
बडा दुख हुआ यह देखकर कि आज भी सब कुछ वैसा ही है, कुछ नहीं बदला इन 30 सालों मे... या यूं कहूं कि पहले वह तीर्थ स्थल ज्यादा आकर्षक नजर आता था।

कुछ सवाल जो मन मे खटके:-
1) क्या हमारी सरकारें जो फाइव ट्रीलियन के सपने सजोती हैं, और  पिछले 19 सालों से जहां राज्य स्तर की सरकार भी है, जो देवस्थानों के स्वामित्व को पाने को तत्पर है, क्या इतनी गरीब है कि मंदिर के आस-पास के खपरैलों और छप्परनुमा दुकानों को एक आकर्षक लुक न दे सके?
2) अगर, यह एक हिंदू तीर्थस्थल न होकर किसी और का धार्मिक स्थल होता तो क्या पूर्ववत सरकारें भी इसके प्रति इतनी उदासीन रहती?

यह चित्र मैने श्री तरुण पाल जी की फेसबुक वाल से लिया है। 30-32 साल पहले कुछ यूं था यमनोत्री धाम।


मैं समझता हूँ, मात्र कुछ ही लाख रुपयों के इंवेस्टमेंट से इस स्थान का स्वरूप ही बदल जाता, मगर अफसोस...।

Monday, June 1, 2020

करेला नीम चढा...

रिश्तों के दरमियाँ फासले पहले से ही क्या कम थे,
जो ऐ, मुंंए कोरोना,तू भी मुंंह उठाके बीच मे आ धमका।

Sunday, May 31, 2020

पैरोडी

फिल्म तीसरी कसम मे स्व. राजकपूर सहाब पर फिल्माया एक प्यारा सा गीत है; दुनिया बनाने बाले क्या तेरे मन मे समाई.....।
उसी की पैरोडी:-😂

कोरोना बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई,
तूने काहे को ये व्याधि बनाई, तूने काहे को ये व्याधि बनाई   - २

काहे बनाए तूने चमगादड़ चुचले,
धरती ये प्यारी प्यारी मुखड़े ये उजले
काहे बनाया तूने चाइना का खेला - २
जिसमें लगाया वायरस का मेला
गुप-चुप तमाशा देखे, वाह रे तेरी खुदाई
तूने काहे को व्याधि बनाई, तूने काहे को ये व्याधि बनाई  ...

तू भी तो तड़पा होगा कोविड बनाकर,
तूफ़ां ये सर्वनाश का मन में छुपाकर,
कोई छवि तो होगी आँखों में तेरी  - २
आँसू भी छलके होंगे पलकों से तेरी
बोल क्या सूझी तुझको, काहेको पीर जगाई
तूने काहेको ये व्याधि बनाई, तूने काहेको ये व्याधि बनाई  ...

क्वारनटाइन करवाके तूने जीना सिखाया, हंसना सिखाया,
रोना सिखाया
जीवन के पथ पर लॉकडाउन करवाए  - २
लॉकडाउन करवाके तूने सपने जगाए
सपने जगाके तूने, काहे को दे दी जुदाई
तूने काहेको ये व्याधि बनाई, तूने काहेको ये व्याधि बनाई  ...
कोरोना बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई.....।

Thursday, May 28, 2020

उम्मीद।


हौंसला बनाए रख, ऐ जिंदगी, 
'कोरोना' की अवश्य हार होगी,
सूखे दरिया, फिर बुलंदियां चूमेंगे 
और तू, फिर से गुलजार होगी।

कौन जानता था कि किसी रोज
रुग्णों की हरतरफ कतार होगी,
स्व:जनों के बीच मे रहकर भी,
मिल-जुल पाने से लाचार होगी।

कभी सोचा न था कि जीवन नैया,
डगमगाती यूं बंदी के मझधार होगी,
मगर हौंसला बना के रख,ऐ जिंदगी, 
दिन आएगा,जब कोरोना की हार होगी।।




Monday, May 25, 2020

ऐ कोविड जिंदगी !


कभी यह सोचा न था, ऐ जिंदगी,
तू इक रोज, इतनी भी 'Fine' होगी।
स्व:जनों संग, इक्ठ्ठठे रहकर भी,
एकही घर मे 'Quarantine' होगी।।

कोई शुभचिंतक घर मिलने आएगा
तो मेजबान उससे दूरी बनाएगा,
मंदिर प्रवेश बर्जिता 'Divine' होगी।
और कतारों मे बिकती 'Wine' होगी।।
कभी यह सोचा न था, ऐ जिंदगी,
तू इक रोज, इसकदर भी 'Fine' होगी....।।

Sunday, May 24, 2020

अयांश और अव्यांश तुम हो।












कलत्र अदभुत तुम हमारे ,
सार ऐह, श्रीयांश तुम हो ।
हम श्रमसाध्य वृहद निबंध,
निबंध का सारांश तुम हो।।

नव नर-नारायण चेतना के,
दिव्य जग, दिव्यांश तुम हो।
विशिष्टता के बाहुल्य भर्ता,
शब्द-शब्द, शब्दांश तुम हो।।

उपकृत सदा ही हम तुम्हारे,
कृतज्ञता के प्रियांश तुम हो।
दिप्तिमय क्षण जीवन सफर,
हर लम्हे के पूर्वांश तुम हो।।

कंचन अदब ऐह भव हमारा,
इस मुकाम के श्रेयांश तुम हो।
उम्मीद जिसपे जीवन थमा हो,
उस आस के अल्पांश तुम हो।।

हुई रेखांकित तकदीर जिसमे,
वह सारगर्भित गद्यांश तुम हो।
पद्य,जिक्र जिसका जग करें,
उस काव्य के काव्यांश तुम हो।।
                  ...'परचेत'






Monday, May 11, 2020

डियर कोरोना ! ये मेरा इंडिया...

चुपचाप निकल पडे अकेले ही डगर अपनी,
कलंकित न होने दी, देशभक्ति मगर अपनी।

सब सहा, न किसी पर पत्थर फेंका,न थूका,
न किसी की गाड़ी जलाई, ना ही घर फूका।

कर सकते थे वो, जिद पे आते अगर अपनी,
कलंकित होने न दी, देशभक्ति मगर अपनी।

मैं न तो कमिनस्ट हूँ और न ही देश की विद्यामान तुच्छ राजनीति, वो चाहे सत्ता पक्ष की हो दोयम विपक्ष की, का समर्थक हूँ। हां, कोई संजीदा मोदीभक्त अगर यहां ब्लॉग पर मौजूद हो और बुरा न माने  तो, सविनम्र 🙏 एक सवाल जो हफ्तों से मेरे जहन को उद्द्वेलित कर रहा है, पूछना था;  लॉकडाउन की शुरुआती घोषणा के वक्त जिन रेल गाडियों को सजा धजाकर चीन से भी बडा कोरोना हास्पिटल बनाये जाने की बात चल रही थी, उनमे इस वक्त कितने कोरोना मरीजों का ईलाज चल रहा है?
Corona is ugly dark and deep,
but we  have promises to keep.
And miles to go before we sleep,
and miles to go before we sleep.



Wednesday, April 29, 2020

लॉकडाउन को-रोना की घरेलू हिंसा।



गलियां सब वीरां-वीरां सी, उखड़े-उखड़े सभी खूंटे है,
तमाशाई बने बैठे दो सितारे, सहमे-सहमे क्यों रूठे है। 

डरी सी सूरत बता रही,बिखरे महीन कांच के टुकडो की,
कुपित सुरीले कंठ से कहीं कुछ, कड़क अल्फाज फूटे है। 

ताफर्श पर बिखरा चौका-बर्तन, आहते पडा चाक-बेलन,
इन्हें देखकर भला कौन कहेगा कि ये बेजुबाँ सब झूठे है। 

पटकी जा रही हर चीज, जो पड़ जाए कर-कमल उनके,  
वाअल्लाह, बेरुखी-इजहार के उनके, अंदाज ही अनूठे है। 

तनिक शुश्रुषा की कमी 'परचेत',मनुहार मिलाना भूल गए,
फकत इतने भरसे बदन के सारे, सुनहरे तिलिस्म टूटे है। 


सुरा-पतझड!


अति सम्मोहित ख्वाब
कैफियत तलब करने
आज भी गए थे वहां,
उस जगह, जहां कलतक
रंगविरंगे कुसुम लेकर
वसंत आया करता था ।

कुछ ख़याल यह देखकर
अतिविस्मित थे कि 
उन्मत्त दरख्त की ख्वाईशें,
उम्मीद की टहनियों से
झर-झर उद्वत
हुए जा रही थी।

क्या पतझड़ फिर से 
दस्तक दे गया है?  
या फिर, वसंत के
पुलकित एहसास ही
क्षण-भंगूर थे? 
आशंकित मन के सवालों का
जबाब क्या होगा,
नहीं मालूम !!

Thursday, April 23, 2020

दिल का हाल सुने पैंसे वाला.....

सभी ब्लॉगर एंव मेरे ब्लॉग के पाठक मित्रों,
जिस दिन से जुकरु भाई और मुकरू भाई ने चवालीस हजार करोड़ की डील की, उसी दिन से सोच रहा था कि एक छोटी सी पोस्ट आप लोगों की जानकारी के लिए भी डालूं।

जब आप लोगों ने भी इतनी बडी डील के बारे मे सुना होगा तो एक बारी आपके मस्तिष्क मे भी ये सवाल जरूर उठा होगा कि मुकरू के प्रोडक्ट्स मे जुकरु भाई को ऐसा क्या दिखा होगा जो इतनी बडी डील कर डाली? कुछ ने तो यह भी सोचा होगा कि बडा भोला है, जुकरु तो।


मगर, नहीं,  दोनों ही मे से कोई भी इतना मासूम नहीं है।
मुकरू भाई ने पहले सस्ते-सस्ते मे लुभाकर जो बडी जिओ फौज बनाई उसका मकसद उस भाई ने अब हासिल कर लिया है। आप सोचते होंगे कि आप जो कुछ सोशल मीडिया पर डालते हैं, जुकरु भाई को सिर्फ उसी की थोडी बहुत भनक मिल पाती होगी। मगर हकीकत मे ऐसा है नही। उसे यह भी मालूम रहता है कि आपने दिन मे कितनी बार अपनी बीवी/प्रेमिका अथवा पति/ प्रेमी को आई लव यू कहा।😜😂 सो, आप लोग जो भी सोशल मीडिया के आदी बन चुके हैं,आगे से सजग रहेंं।
बस यही कहना था।

हां, एक बात और , यह सब पिछले साल जुलाई से चल रहा था, इस फरवरी से नहीं जैसा कि नीचे लगाई गई पोस्ट मे बताया जा रहा है। और आप भी नीचे बताये ढंग से अपने fbअकाउंट के सेटिंग्स मे जाकर कुछ जरूरी बदलाव जरूर करे।
धन्यवाद।

Friday, April 17, 2020

निकृष्ट चीनी माल !



क्या सितम ढाये तूने,
ऐ कमबख़्त कोरोना,
जग मे जिधर नजर जाए,
है बस, तेरा ही रोना।

कभी-कभी यूं लगता है,
जिन्दगी बौरा गई है,
जीवन की हार्ड-डिस्क मे
कहीं नमी आ गई है।

ख़्वाबों की प्रोग्रामिंग 
भृकुटियाँ तन रहीं हैं,
हसरतों की टेम्पररी फाइलें 
भी उसमे, बहुत बन रही है।

समझ नही पा रहा, रक्खूं,
या फिर डिलीट मार दूंं,
'हैंग' ऑप्शन भी बंद है, 
जो लॉकडाउन का गुस्सा उतार दूं।

है अपरिमित कशमकश, 
कमबख़्त,
'जीवन फ़ोर्मैटिंग' भी तो 
इत्ती आसां नही रही !!

Tuesday, April 14, 2020

कलम !

लॉकडाउन के मध्य बिस्तर पर लेटे-लेटे ख्यालों की उडान हिंदी ब्लॉग जगत के स्वर्णिम युग मे जा पहुंची और अचानक 'कलम' का हर वक्त जीवन्त एक सिपाही याद आ गया। नाम था 'चंद्रमौलेश्वर प्रसाद'।
सौम्य जीवन और कठिन समय मे भी हास्य-विनोद उनकी महानतम खूबियों मे से एक थी। उनके बारे मे मैं यहां कुछ ज्यादा लिखूं , शायद यह अतिप्रतिक्रिया कही जाएगी। बस, यही कहूँगा कि उनकी दिवंगत आत्मा से अनुमति लेकर आपके लिए उनकी कलम का एक अदना सा पैरा यहां आपके समक्ष उन्हें श्रद्धांंजली स्वरूप पेश कर रहा हूँ और भगवान से यही प्रार्थना कि वो इसवक्त जहाँ भी हों, उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे।🙏



एक खयाल


बड़ा

सदियों पहले कबीरदास का कहा दोहा आज सुबह से मेरे मस्तिष्क में घूम रहा था तो सोचा कि इसे ही लेखन का विषय क्यों न बनाया जाय।  कबीर का वह दोहा था-

बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड खजूर
पथिक को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥

यह सही है कि बड़ा होने का मतलब होता है नम्र और विनय से भरा व्यक्ति जो उस पेड की तरह होता है जिस पर फल लदे हैं जिसके कारण वह झुक गया है।  बड़ा होना भी तीन प्रकार का होता है। एक बड़ा तो वह जो जन्म से होता है, दूसरा अपनी मेहनत से बड़ा बनता है और तीसरा वह जिस पर बड़प्पन लाद दिया जाता है।  

अपने परिवार में मैं तो सब से छोटा हूँ।  बडे भाई तो बडे होते ही हैं।  बडे होने के नाते उन पर परिवार की सारी ज़िम्मेदारियां भी थीं।  पैदाइशी बड़े होने के कुछ लाभ हैं तो कुछ हानियां भी हैं।  बड़े होने के नाते वे अपने छोटों पर अपना अधिकार जमा देते हैं और हुकुम चलाते हैं तो उनके नाज़-नखरे भी उठाने पड़ते हैं।  उनके किसी चीज़ की छोटे ने मांग की तो माँ फ़ौरन कहेगा- दे दे बेटा, तेरा छोटा भाई है।  छोटों को तो बड़ों की बात सुनना, मानना हमारे संस्कार का हिस्सा भी है और छोटे तो आज्ञा का पालन करने लिए होते ही हैं। परिवार में बडे होने के नुकसान भी हैं जैसे घर-परिवार की चिंता करो, खुद न खाकर भी प्ररिवार का पोषण करो आदि। अब जन्म से बडे हुए तो ये ज़िम्मेदारियां तो निभानी भी पड़ेंगी ही।

जन्म से बडे कुछ वो सौभाग्यशाली होते हैं जो बड़े घर में पैदा होते हैं।  वे ठाठ से जीते हैं और बडे होने के सारे लाभ उठाते हैं।  बडे घर में जन्मे छोटे भी बडे लोगों में ही गिने जाते हैं।  इसलिए ऐसे लोगों के लिए पहले या बाद में पैदा होना कोई मायने नहीं रखता।  उस परिवार के सभी लोग बडे होते हैं।

दूसरी श्रेणी के बड़े वो होते हैं जो अपने प्ररिश्रम से बडे बन जाते हैं।  एक गरीब परिवार में पैदा होनेवाला अपने परिश्रम से सम्पन्न होने और बुद्धि-कौशल से समाज में ऊँचा स्थान पाने वाले लोगों के कई किस्से मशहूर हैं ही।  ऐसे लोगों को ईश्वर का विशेष आशीर्वाद होता है और उनके हाथ में ‘मिदास टच’ होता है।  वे मिट्टी को छू लें तो सोना बन जाय!  अपने बुद्धि और कौशल से ऐसे लोग समाज में अपना स्थान बनाते है और बड़े कहलाते हैं।  

ऐसे बडों में भी दो प्रकार की प्रवृत्ति देखी जा सकती है।  कुछ बडे लोग अपने अतीत को नहीं भूलते और विनम्र होते है।  उनमें अभिमान नाममात्र को नहीं होता।  इसलिए समाज में उनका सच्चे मन से सभी सम्मान करते हैं।  दूसरी प्रवृत्ति के बडे लोग वे होते हैं जो शिखर पर चढ़ने के उसी सीड़ी को लात मार देते हैं जिस पर चढ़कर वे बडे बने रहना चाहते हैं।  वे अपने अतीत को भूलना चाहते हैं और यदि कोई उनके अतीत को याद दिलाए तो नाराज़ भी हो जाते हैं।  इन्हें लोग सच्चे मन से सम्मान नहीं देते;  भले ही सामने जी-हुज़ूरी कर लें पर पीठ-पीछे उन्हें ‘नया रईस’ कहेंगे।  ऐसे बड़े लोगों के इर्दगिर्द केवल चापलूस ही लिपटे रहते हैं।  कभी दुर्भाग्य से जीवन में वे गिर पडे तो उनको कोई साथी नहीं दिखाई देगा।  सभी उस पेड के परिंदों की तरह उड़ जाएंगे जो सूख गया है।

तीसरी श्रेणी के बड़े वो होते हैं जिन पर बड़प्पन लाद दिया जाता है।  इस श्रेणी में धनवान भी हो सकते हैं या गुणवान भी हो सकते हैं या फिर मेरी तरह के औसत मध्यवर्गीय भी हो सकते हैं जिन्हें कभी-कभी समय एक ऐसे मुकाम पर ला खड़ा कर देता है जब वे अपने पर बड़प्पन लदने का भार महसूस करते हैं।  हां, मैं अपने आप को उसी श्रेणी में पाता हूँ!

मैं एक मामूली व्यक्ति हूँ जिसे अपनी औकात का पता है।  मैं अपनी क्षमता को अच्छी तरह से परक चुका हूँ और एक कार्यकर्ता की तरह कुछ संस्थाओं से जुड़ा हूँ।  जब मुझे किसी पद को स्वीकार करने के लिए कहा जाता है तो मैं नकार देता हूँ। फिर भी जब किसी संस्था में कोई पद या किसी मंच पर आसन ग्रहण करने के लिए कहा जाता है तो संकोच से भर जाता हूँ।  कुछ ऐसे अवसर आते हैं जब मुझे स्वीकार करना पड़ता है तो मुझे लगता है कि मैं उस तीसरी श्रेणी का बड़ा हूँ जिस पर बडप्पन लाद दिया जाता है।  इसे मैं अपने प्रियजनों का प्रेम ही समझता हूँ, वर्ना मैं क्या और मेरी औकात क्या।  क्या पिद्दी, क्या पिद्दी का शोरबा! मुझे पता है कि बड़ा केवल पद से नहीं हो जाता बल्कि अपने कौशल से होता है।  ऐसे में मुझे डॉ. शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव की यह कविता [बहुत दिनों के बाद] बार बार याद आती है--

बड़ा को क्यों बड़ा कहते हैं, ठीक से समझा करो
चाहते खुद बड़ा बनना, उड़द-सा भीगा करो
और फिर सिल पर पिसो, खा चोट लोढे की
कड़ी देह उसकी तेल में है, खौलती चूल्हे चढ़ी।

ताप इसका जज़्ब कर, फिर बिन जले, पकना पड़ेगा
और तब ठंडे दही में देर तक गलना पड़ेगा
जो न इतना सह सको तो बड़े का मत नाम लो
है अगर पाना बड़प्पन, उचित उसका दाम दो!


प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।