लॉकडाउन के मध्य बिस्तर पर लेटे-लेटे ख्यालों की उडान हिंदी ब्लॉग जगत के स्वर्णिम युग मे जा पहुंची और अचानक 'कलम' का हर वक्त जीवन्त एक सिपाही याद आ गया। नाम था 'चंद्रमौलेश्वर प्रसाद'।
सौम्य जीवन और कठिन समय मे भी हास्य-विनोद उनकी महानतम खूबियों मे से एक थी। उनके बारे मे मैं यहां कुछ ज्यादा लिखूं , शायद यह अतिप्रतिक्रिया कही जाएगी। बस, यही कहूँगा कि उनकी दिवंगत आत्मा से अनुमति लेकर आपके लिए उनकी कलम का एक अदना सा पैरा यहां आपके समक्ष उन्हें श्रद्धांंजली स्वरूप पेश कर रहा हूँ और भगवान से यही प्रार्थना कि वो इसवक्त जहाँ भी हों, उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे।🙏
बड़ा
सदियों पहले कबीरदास का कहा दोहा आज सुबह से मेरे मस्तिष्क में घूम रहा था तो सोचा कि इसे ही लेखन का विषय क्यों न बनाया जाय। कबीर का वह दोहा था-
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड खजूर
पथिक को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥
यह सही है कि बड़ा होने का मतलब होता है नम्र और विनय से भरा व्यक्ति जो उस पेड की तरह होता है जिस पर फल लदे हैं जिसके कारण वह झुक गया है। बड़ा होना भी तीन प्रकार का होता है। एक बड़ा तो वह जो जन्म से होता है, दूसरा अपनी मेहनत से बड़ा बनता है और तीसरा वह जिस पर बड़प्पन लाद दिया जाता है।
अपने परिवार में मैं तो सब से छोटा हूँ। बडे भाई तो बडे होते ही हैं। बडे होने के नाते उन पर परिवार की सारी ज़िम्मेदारियां भी थीं। पैदाइशी बड़े होने के कुछ लाभ हैं तो कुछ हानियां भी हैं। बड़े होने के नाते वे अपने छोटों पर अपना अधिकार जमा देते हैं और हुकुम चलाते हैं तो उनके नाज़-नखरे भी उठाने पड़ते हैं। उनके किसी चीज़ की छोटे ने मांग की तो माँ फ़ौरन कहेगा- दे दे बेटा, तेरा छोटा भाई है। छोटों को तो बड़ों की बात सुनना, मानना हमारे संस्कार का हिस्सा भी है और छोटे तो आज्ञा का पालन करने लिए होते ही हैं। परिवार में बडे होने के नुकसान भी हैं जैसे घर-परिवार की चिंता करो, खुद न खाकर भी प्ररिवार का पोषण करो आदि। अब जन्म से बडे हुए तो ये ज़िम्मेदारियां तो निभानी भी पड़ेंगी ही।
जन्म से बडे कुछ वो सौभाग्यशाली होते हैं जो बड़े घर में पैदा होते हैं। वे ठाठ से जीते हैं और बडे होने के सारे लाभ उठाते हैं। बडे घर में जन्मे छोटे भी बडे लोगों में ही गिने जाते हैं। इसलिए ऐसे लोगों के लिए पहले या बाद में पैदा होना कोई मायने नहीं रखता। उस परिवार के सभी लोग बडे होते हैं।
दूसरी श्रेणी के बड़े वो होते हैं जो अपने प्ररिश्रम से बडे बन जाते हैं। एक गरीब परिवार में पैदा होनेवाला अपने परिश्रम से सम्पन्न होने और बुद्धि-कौशल से समाज में ऊँचा स्थान पाने वाले लोगों के कई किस्से मशहूर हैं ही। ऐसे लोगों को ईश्वर का विशेष आशीर्वाद होता है और उनके हाथ में ‘मिदास टच’ होता है। वे मिट्टी को छू लें तो सोना बन जाय! अपने बुद्धि और कौशल से ऐसे लोग समाज में अपना स्थान बनाते है और बड़े कहलाते हैं।
ऐसे बडों में भी दो प्रकार की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। कुछ बडे लोग अपने अतीत को नहीं भूलते और विनम्र होते है। उनमें अभिमान नाममात्र को नहीं होता। इसलिए समाज में उनका सच्चे मन से सभी सम्मान करते हैं। दूसरी प्रवृत्ति के बडे लोग वे होते हैं जो शिखर पर चढ़ने के उसी सीड़ी को लात मार देते हैं जिस पर चढ़कर वे बडे बने रहना चाहते हैं। वे अपने अतीत को भूलना चाहते हैं और यदि कोई उनके अतीत को याद दिलाए तो नाराज़ भी हो जाते हैं। इन्हें लोग सच्चे मन से सम्मान नहीं देते; भले ही सामने जी-हुज़ूरी कर लें पर पीठ-पीछे उन्हें ‘नया रईस’ कहेंगे। ऐसे बड़े लोगों के इर्दगिर्द केवल चापलूस ही लिपटे रहते हैं। कभी दुर्भाग्य से जीवन में वे गिर पडे तो उनको कोई साथी नहीं दिखाई देगा। सभी उस पेड के परिंदों की तरह उड़ जाएंगे जो सूख गया है।
तीसरी श्रेणी के बड़े वो होते हैं जिन पर बड़प्पन लाद दिया जाता है। इस श्रेणी में धनवान भी हो सकते हैं या गुणवान भी हो सकते हैं या फिर मेरी तरह के औसत मध्यवर्गीय भी हो सकते हैं जिन्हें कभी-कभी समय एक ऐसे मुकाम पर ला खड़ा कर देता है जब वे अपने पर बड़प्पन लदने का भार महसूस करते हैं। हां, मैं अपने आप को उसी श्रेणी में पाता हूँ!
मैं एक मामूली व्यक्ति हूँ जिसे अपनी औकात का पता है। मैं अपनी क्षमता को अच्छी तरह से परक चुका हूँ और एक कार्यकर्ता की तरह कुछ संस्थाओं से जुड़ा हूँ। जब मुझे किसी पद को स्वीकार करने के लिए कहा जाता है तो मैं नकार देता हूँ। फिर भी जब किसी संस्था में कोई पद या किसी मंच पर आसन ग्रहण करने के लिए कहा जाता है तो संकोच से भर जाता हूँ। कुछ ऐसे अवसर आते हैं जब मुझे स्वीकार करना पड़ता है तो मुझे लगता है कि मैं उस तीसरी श्रेणी का बड़ा हूँ जिस पर बडप्पन लाद दिया जाता है। इसे मैं अपने प्रियजनों का प्रेम ही समझता हूँ, वर्ना मैं क्या और मेरी औकात क्या। क्या पिद्दी, क्या पिद्दी का शोरबा! मुझे पता है कि बड़ा केवल पद से नहीं हो जाता बल्कि अपने कौशल से होता है। ऐसे में मुझे डॉ. शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव की यह कविता [बहुत दिनों के बाद] बार बार याद आती है--
बड़ा को क्यों बड़ा कहते हैं, ठीक से समझा करो
चाहते खुद बड़ा बनना, उड़द-सा भीगा करो
और फिर सिल पर पिसो, खा चोट लोढे की
कड़ी देह उसकी तेल में है, खौलती चूल्हे चढ़ी।
ताप इसका जज़्ब कर, फिर बिन जले, पकना पड़ेगा
और तब ठंडे दही में देर तक गलना पड़ेगा
जो न इतना सह सको तो बड़े का मत नाम लो
है अगर पाना बड़प्पन, उचित उसका दाम दो!