अपने दुःख में उतने नहीं डूबे नजर आते हैं लोग,
दूसरों के सुख से जितने, ऊबे नजर आते हैं लोग।
हर गली-मुहल्ले की अलग सी होती है आबोहवा,
एक ही कूचे में कई-कई, सूबे नजर आते हैं लोग।
कहने को है भीड भरा शहर,मगर सब सूना-सूना,
कुदरत के बनाये हुए, अजूबे नजर आते हैं लोग।
कोई दल-दल में दलता, कहीं दलती है मूंग छाती,
सब नापाक ही नापाक, मंसूबे नजर आते है लोग।
बनने को तो आते हैं 'परचेत', सब चौबे से छब्बे जी,
गाडी विकास की पलट जाए,दुबे नजर आते है लोग।
हकीकत को बयान करती उम्दा ग़ज़ल।
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (14 -7 -2020 ) को "रेत में घरौंदे" (चर्चा अंक 3762) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
लाजवाब
ReplyDeleteवाह !लाजवाब आदरणीय सर .
ReplyDeleteआदरणीय, बहुत सुन्दर लाजवाब रचना ! साधुवाद !
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग के नीचे दिए गए लिंक पर मेरी रचनाएँ पढ़ें और अपने विचारों से अवगत कराएं ! लिंक: https: marmagyanet.blogspot.com
--ब्रजेन्द्र नाथ
बहुत सुंदर प्रस्तुति
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ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 15 जुलाई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
यथार्थ रचना
ReplyDeleteआभार आप सभी ब्लॉगर मित्रों का 🙏
ReplyDeleteवाह!लाजवाब!
ReplyDeleteवाह सटीक सार्थक ग़ज़ल "आते हैं लोग"
ReplyDeleteअभिनव सृजन।