Sunday, July 26, 2020

व्यथित राग।














न जाने, क्यों अजनबी सा लगने लगा
अपना ही घर आजकल,
कुछ ज्यादा ही म़जहबी हो गया शायद, 
बेगानोंं का ये शहर आजकल।

झूमते निकल जाया करते थे बेपरवाह

मदमस्त जिस गली से कभी
मुश्किलों भरी सी लगने लगी है नाज़नीं, 
अल्हड सी वो डगर आजकल।

गलतफहमियों की बस्ती मे जो 
पाली थी थोडी सी खुशफहमियां,
न जाने कहाँ गुम होकर के रह गई, 
उल्फ़त की वो नजर आजकल।

वसंती खुशियों का सबब मिलता था 

जिनसे, पत्थरों के शहर को,
जेठ मे भी पातियों से ओंस टपका रहे,
बलखाते वो शजर आजकल।

उजड रहे क्रुर वक्त की आंंधियों मे

बसे हुए कुटुम्ब के कुटुम्ब सारे,
उत्कर्ष के इस चरम पर 'परचेत',
हो रहे कुल-कुनबे, दरबदर आजकल।

1 comment:

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