मंजुल समर,शीतल बयार, सर्द जाड़े,
वन,हिमनद,गाँव-गलियन,खेत,बाड़े।
ख़ुद बालपन हुआ संबल जिनसे कभी,
चीड़, देवदार, बुराँस वो सब वृक्ष छाड़े।
प्रकट उसमे भी था अग्रज प्रेम होता,
जब लिया करते वो हमको हाथ आड़े।
तरेरकर नयन,रूबरू होते थे जो कभी,
वो वैर-विद्वेष,गिले-शिकवे सब पछाड़े।
उदर वास्ते सुरम्य हिमशिखर बिसरे,
पड़े निन्यानवे के फेर में, गिन पहाड़े।
कोहलू के से बैल बनकर रह गए अब ,
हर रात बीते दारूण यहां, दिन दहाड़े।
बन गए ज्यूँ कि श्वान धोबी का 'परचेत',
हुए कुटुम्ब से महरूम,मुलाज़मत लताडे।