Tuesday, August 26, 2014

जोग लिखी


मंजुल समर,शीतल बयार, सर्द जाड़े, 
वन,हिमनद,गाँव-गलियन,खेत,बाड़े।  

ख़ुद बालपन हुआ संबल जिनसे कभी, 
चीड़, देवदार, बुराँस वो सब वृक्ष छाड़े।
   
प्रकट उसमे भी था अग्रज  प्रेम होता, 
जब लिया करते वो हमको हाथ आड़े।   

तरेरकर नयन,रूबरू होते थे जो कभी,  
वो वैर-विद्वेष,गिले-शिकवे सब पछाड़े। 

उदर वास्ते सुरम्य हिमशिखर बिसरे,  
पड़े निन्यानवे के फेर में, गिन पहाड़े। 

कोहलू के से बैल बनकर रह गए अब ,   
हर रात बीते दारूण यहां, दिन दहाड़े। 

बन गए ज्यूँ कि श्वान धोबी का 'परचेत', 
हुए कुटुम्ब से महरूम,मुलाज़मत लताडे।   

Friday, August 8, 2014

नादाँ !

थाम लो उम्मीद का दामन, छूट न जाए,
  रखो अरमाँ सहेजकर, कोई लूट न जाए।   
तुम्हारे ख़्वाबों से भी नाजुक है दिल मेरा,
  हैंडल विद एक्स्ट्रा केयर,कहीं टूट न जाए।

उलटबासी 
शायद ही बचा रह गया हो कोई धाम,
क्या मथुरा, क्या वृंदावन,क्या काशी,
किस-किस से नहीं पूछा पता उसका,
क्या धोबी,क्या डाकिया,क्या खलासी, 
 सबके सब फ़लसफ़े,इक-इककर खफ़े, 
       लिए घुमते रहे बनाकर सूरत रुआँसी,        
उम्र गुजरी,तब जाके ये अहसास हुआ,
जिंदगी घर में थी, हमने मौत तलाशी। 

Friday, August 1, 2014

मानव निर्मित बढ़ती त्रासदियां !

पिछले  दो दिनों  में लगातार दो प्राकृतिक आपदाओं, एक  उत्तराखंड  और दूसरे  पुणे  ने  लगभग १६० जिन्दगियों  को पलभर में लील  लिया।  इसे प्राकृतिक आपदा कहने में  बड़ा आसान लगता है कि  जी बाढ़ आने , बादल फटने अथवा लैंडस्लाइड  की वजह से ऐसा हो गया ।  जबकि  कड़वी सच्चाई यह है  कि  ये मानव निर्मित आपदाए है।   बादल पहले भी फटते  थे, बाढ़ पहले भी आती थी  और लैंडस्लाइड पहले भी होती थी,  लेकिन सिर्फ कुछ ख़ास मौकों और  प्रकृति के अत्यधिक बिकराल होने पर ही  जन-धन की हानि होती थी।   आज की तरह हर कोस पर ज़रा सा  बारिश होने  या बाढ़ आने से ऐसा नुकशान नहीं हुआ करता था।  हम अगर इतिहास में  थोड़ा सा पीछे जाएँ तो सन १९७० में बिरही नदी पर  सन १८९३ में  बनी विशाल झील के टूटने ने  जो बिकराल रूप  उत्तराखंड  के चमोली से हरिद्वार तक धरा था,  और  भारी जन-धन की जो हानि उस जमाने  में हुई थी, कल्पना करके रूह काँप जाती है कि भगवन न करे, अगर वह घटना तब न होकर आज के इस युग में घटित हुई होती तो क्या हो जाता?  

यहां इसे  एक उदाहरण से समझाना चाहूँगा ; पहाड़ी मार्गों पर कभी अमूमन  इक्का-दुक्का वाहन घंटे भर के  अंतराल से  ही चलते दिखाई देते थे, अत : कहीं पर  कोई लैंडस्लाइड  हो भी  जाती थी तो  किसी राहगीर  के हताहत होने की  सम्भाव्यता ना के बराबर होती  थी।   कल्पना करो  कि अगर इन सड़कों पर  भी  दिल्ली की सड़कों जैसा जाम लगा हो  और ऊपर पहाड़ी से  एक पत्थर भी खिसककर नीचे आ जाए  तो होगा ? 

इसमें कोई  संदेह नहीं  कि  अनियोजित विकास और जंगलों का  बड़े पैमाने पर विनाश प्रकृति के रोष के पीछे मुख्य कारणों में से एक महत्वपूर्ण कारण  है किन्तु हमारे  कुछ बुद्धिजीवी और ज्ञानी  भले ही  सिर्फ इसे ही एक मूल कारण माने , किन्तु  अनेक  सत्यों में से एक बड़ा सत्य इसके पीछे का जो है वह है ,जनसंख्या  विस्फोट।  The truth is that the population explosion,  colossal greed of people, politicians and bureaucrats are mainly responsible for such frequent disasters .  

 मुझे ताज्जुब होता है  कि इस कमरतोड़ महंगाई और तथाकथित सभ्य  जमाने में  भी  बहुत से हिन्दुस्तानी  परिवारों में आठ से दस बच्चों की फ़ौज एक   सामान्य सी बात मानी जा रही है.   जब आज जरुरत थी कि  हम समझदारी  और सख्ती के साथ तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या  को नियंत्रित करते  तब हम सिर्फ अपने तुच्छ राजनैतिक, धार्मिक और आर्थिक कारणों में ही उलझे हुए नजर आते है।   अभी  ताइवान  एक ताजा उदाहरण है।  गैस,  ईंधन पूर्ति  के लिए  आज हमारी लाइफ लाइन बन चुकी है, मगर यदि ताइवान के पास बहुत सी जमीन बाकी होती तो उसे शहर के बीचों बीच सड़क के नीचे से न तो  गैस लाइन बिछानी पड़ती और न ही आज इतना बड़ा हादसा होता।     

पता नहीं,  हम इंसान  कब चेतेंगे !




प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।