Monday, December 31, 2012

नूतन वर्ष की वधाईयां !


सच कहूं  तो  इस बार इस नववर्ष  की बेला पर मन में कोई ख़ास उत्साह नहीं है, फिर भी जीवन रूपी कारवां  उम्मीदों के सहारे ही आगे बढ़ता है  इसलिए आप सभी को नूतन वर्ष की बहुत-बहुत वधाईयां ! 

आइये इस नए  साल को हम "समाज की दरिंदगी को दण्डित करने का वर्ष "    के रूप में मनाये।  


कार्टून कुछ बोलता है- मिर्च पाउडर स्प्रे !


Friday, December 28, 2012

नए साल में फिर से करेंगे मिलकर नए घोटाले----- हम भारत वाले----हम भारत वाले-------!


साल ख़त्म होने को आया, दुनिया बहुत बोल चुकी। यूं समझिये कि साल भर बोलती रही इसलिए अब मैं क्या बोलू, और सिर्फ मेरे बोलने भर से होगा भी क्या ? वैसे भी मुहंफट हूँ।  कुछ ऐसा-वैसा बोल गया जो चाचा कुदाल-सब्बल अथवा अंग्रेजन माई की शान में गुस्ताखी हो तो खामखा इस बुढापे में काला पानी की सजा भी भुगतनी पड़ सकती है। मजाक नहीं कर रहा, जो कुछ दृष्ठि-गौचर  इस पूरे साल के दरमियाँ हुआ उससे तो यही आभास मिलता है कि एक अघोषित तानाशाही में जी रहे है। जैसा तीसरा चश्मदीद तैयार हुआ चौथा भी  हो जाएगा। बहुत ज्यादा मुश्किल काम थोड़े ही है, कम से कम हमारे इस महान लोकतांत्रिक देश में तो।

खैर, छोडिये, जब सब कुछ भगवान् भरोसे छोड़ ही दिया गया है तो अरदास, कीर्तन-भजन, कब्बाली और कैंडल मार्च में ही भलाई है। वैसे आपको बताता चलू कि अभी कल-परसों मैंने जब कहीं पर पढ़ा था कि हालिया बलात्कार की जांच के सम्बन्ध में जो आयोग बैठाया गया है उसने इ-मेल के जरिये जनता के सुझाव मांगे है। इस कबाड़ी माइंड में भी एक तथाकथित धाँसू आइडिया आया था, सोचता हूँ कि वहां भेजने से बेहतर आप लोगो से ही शेयर कर लेता हूँ। 

हाँ, तो वो धाँसू आइडिया ये था कि बजाये किसी तथाकथित सख्त क़ानून बनाने के पचड़ो में पड़ने से बेहतर मेरी राय में ये होता कि सिर्फ  एक संसोधन संविधान में और एक संशोधन दंड सहिता में किया जाता। संविधान में यह संसोधन किया जाता कि वकील और जज के लिए किसी भी मुक़दमे को स्थगित करने  और मुक़दमे का निपटारा करने की समय सीमा तय करने की व्यवस्था होती। यानि  की एक जज अथवा वकील चार से अधिक स्थगन और अगली तारिख नहीं ले सकता।  जो भी करना हो अधिकतम चार तारीखों और इन तारीखों की एक निश्चित समय सीमा में ही करना होगा। आजकल देखा यह जा रहा है कि जुडीशियरी काम के लोड का बहाना करके और वकील अपने मुवक्किल से अधिक पैसे ऐंठने के चक्कर में तारीख पे तारीख लिये और दिए जाते है। 

अब आती है बात दंड-सहिता में सशोधन की; तो  सिर्फ इतना संसोधन किया जाता कि देश के चिड़िया घरों में तीन और पिंजडा- ब्लोकों  की व्यवस्था का प्रावधान होता;  1) आदम-खोर ब्लोंक  2) मल-खोर ब्लोंक और 3) घूस-खोर ब्लॉक ! 
आदम-खोर पिंजड़े में बलात्कारियों और जघन्य अपराध करने वाले दरिंदो  (राजनीतिक दरिंदो सहित) को कम से कम एक साल तक रखने की वयवस्था होती। इसी तरह  मल-खोर पिंजड़े में  घोटालेबाजों को  और घूस-खोर में बड़े घूसखोरों को रखने की व्यवस्था होती। प्रत्येक ब्लोंक के पिंजरे के आगे उसमे रखे जाने वाले नर-पशु का काला चिट्ठा उसकी प्रोफाइल (जीवनी)  भी पर्दर्शित की जाती और आम जनता के लिए चिड़ियाघर में सशुल्क प्रवेश हफ्ते में सातों दिन उपलब्ध रहता। 

चलिए, अब आप मेरे उपरोक्त  सुझाव पर मनन कीजिए और नए साल के सुअवसर पर मेरा यह पुराना री-मिक्स  गुनगुनाइए;                                          

करवा लो जितनी जांचे,
आयोग जितने बिठा ले,
नए साल में फिर से करेंगे,
मिलकर नए घोटाले !
हम भारत वाले, हम भारत वाले !!

आज पुराने हथकंडों को छोड़ चुके है,
क्या देखे उस लॉकर को जो तोड़ चुके है,
हर कोई जब लूट रहा है देश-खजाना,
बड़े ठगों से हम भी नाता जोड़ चुके हैं,
नया जूनून है, नई उमंग है ,
सब हैं कारनामे काले !
हम भारत वाले, हम भारत वाले !!

अभी लूटने है हमको कई और खजाने,
भ्रष्टाचार के दरिया है अभी और बहाने,
अभी तो हमको है समूचा देश डुबाना,
धन- दौलत के  नए हमें हैं खेल रचाने,
आओ मेहनतकश पर मोटा टैक्स लगाए,
नेक दिलों को भी खुद जैसा बेईमान बनाए,
वो दिन भी अब दूर नहीं जब
पड जाएँ ईमानदारी के लाले !
हम भारत वाले--- हम भारत वाले !!

कर लो जितनी जांचे,
आयोग जितने बिठा ले,
नए साल में फिर से करेंगे,
मिलकर नए घोटाले !
हम भारत वाले---हम भारत वाले !!


जय हिंद !

Wednesday, December 26, 2012

अपनी शान कहते थे तुझे !

आन,बान,शान, आह बिखरी,
दरिंदगी अब हर राह बिखरी। 

नजर दौड़ाता हूँ जिधर भी ,  
अस्मत और कराह बिखरी। 



चेहरे है सभी कुम्हलाये हुए, 
व्यथा-वेदना अथाह बिखरी।   

  
लुंठक लूट रहे है वाह वाही, 

चाटुकारों की सराह बिखरी।


पैरोकारी के साम्राज्य पथ पर ,   

शठ-कुटिलों की डाह बिखरी।

Monday, December 24, 2012

अरे वो अधर्मी !


अरे वो अधर्मी, 
बड़ी ही अजब है तेरी ये बेशर्मी, 
कड़क सर्दी में भी ताप रहा देश,
बलात्कार एवं भ्रष्टाचार की गर्मी।  
अरे वो अधर्मी !

ऐसा चल रहा है सुशासन तेरा, 
सदय पे जुल्म, शठ पे नरमी,
डरा-डरा सा है हर वतन-परस्त,     
जेड-प्लस तले घूम रहे कुकर्मी।  
अरे वो अधर्मी !!

Wednesday, December 19, 2012

दीन हम, दयनीय हमारी प्राथमिकताएं !


जीवन-जगत को देखने, परखने और भोगने का इंसान का दृष्टिकोण, व्यवस्था के प्रति उसका रुख, जीवन में सफलताएँ हासिल करने हेतु प्राथमिकताओं का चयन और उन पर उचित समय में क्रियानवन, न सिर्फ उस इंसान बल्कि जिस समाज और देश में वह रहता है, उसका भी भविष्य निर्धारित करता है। आज जो कुछ हमारे आस-पास घटित हो रहा है,सभ्यता, तरक्की और विकास के नाम पर जो कुछ हम कर रहे है, उनको देखकर लगता है कि न सिर्फ नीयत ही हमारी डोल गई है अपितु, अपनी प्राथमिकताये तय करते वक्त हमसे जाने-अनजाने कहीं बहुत बड़ी गड़बड़ भी हो गई है। 

और इन गड़बड़ियों की एक मुख्य वजह यह भी है कि हम लोग संकीर्ण स्वार्थों में इस कदर डूब गए है कि दीर्घकाल में उसका हम पर, हमारे समाज पर और हमारे देश पर क्या असर पड़ने वाला है, उसकी हम लेशमात्र भी चिंता नहीं करते। हाँ, परम्परानुसार दिखावे के लिए अर्थी को कन्धा देते वक्त दो-चार घडियाली आंसू बहाना हम हरगिज नहीं भूलते। किसी भी प्राथमिकता के प्रति प्रतिबद्धता, सम्बद्धता और आबद्धता तो हमारे लिए मानो दूर की कौड़ी बनकर रह गई है। उत्थान की बात जब हमारे जहन में आती है तो हमें यह नही भूलना चाहिए कि प्रगतिशीलता का आधार सतत जागरूकता है। जागरूक हुए बगैर शायद प्रगतिशीलता का भ्रम पालना हमारी सबसे बड़ी मूर्खता कहा जाएगा। और, यह भी एक निर्विवाद सत्य है कि जहां सतत जागरूकता रहती है, उस समाज में सतत परिवर्तनशीलता का गुण भी अवश्य पाया जाता है। 

अभी हाल में हमने देखा कि देश में खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की भागीदारी हेतु क़ानून बनाने के लिए हमारी सरकर ने क्या एड़ी-चोटी का जोर लगाया। अभी कल ही एक खबर पर नजर गई कि अमेरिकी कृषि व्यवसाय से जुड़े एक बड़े व्यावसायिक घराने, कारगिल इंक(Cargill inc ) ने घोषणा की है कि वह भारत के गुजरात, महाराष्ट्र और ओरिसा राज्यों में मौजूद अपने तीन खाद्य तेल संयंत्रों में उत्पादन क्षमता विस्तार एवं एक नई मक्का मिलिंग इकाई में 500 करोड़ रुपए का निवेश करने जा रही है। इसके लिए 134 अरब डॉलर की यह अमेरिकी कंपनी, जो कि दुनिया की सबसे बड़ी खाद्य-प्रसंस्करण और विनिमय व्यापार इकाइयों में सुमार है, भारत के कर्नाटक राज्य जोकि मक्का उत्पादक राज्यों में शीर्ष पर है, उसके देवनगिरि में इसके लिए जमीन प्राप्त कर रही है, जिसमे वे 800 से 1000 टन क्षमता वाली High fructose corn syrup (HFCS )मक्की मिल लगायेंगे। आप शायद इस बात से वाकिफ होंगे कि कारगिल इंडिया पहले से ही यहाँ पर रथ, नेचर फ्रेस और पूरिता इत्यादि बाजार ब्रांडों के साथ वनस्पति तेल का उत्पादन और व्यापार कर रही है। 

यह खबर निश्चित तौर पर मंदीग्रस्त सरकार और उसके अर्थव्यवस्था एवं जनता, खासकर कर्नाटक के उन लोगो के लिए एक उत्साह्वर्दक खबर हो सकती है, जो कि सिर्फ इस सीमित नजरिये से इस खबर को देख रहे है कि इससे उनके देश, राज्य में विदेशी निवेश आ रहा है, और साथ ही रोजगार के अवसर उनके लिए उत्पन्न होने जा रहे है। और यह सच भी है किन्तु इस सुखद सच के पीछे का जो भयावह अनूठा सच है, उसे शायद हम या तो देख नहीं पा रहे या फिर तात्कालिक जरूरतों के आगे हमने उस दीर्घकालिक सच को सिरे से नजरअंदाज कर दिया है। और वह सच क्या है, आइये अब उसकी विस्तार से चर्चा करते है ;

400 करोड़ की लागत से कारगिल इंक कर्नाटक में जो मक्का मिल लगाने जा रही है उसमे उच्च फलशर्करा मक्की शरबत (HFCS )का उत्पदान किया जाएगा। क्या है यह उच्च फलशर्करा मक्की शरबत (HFCS) ? FRUCTOSE, यानि प्राकृतिक चीनी जोकि शहद और पके हुए फलों को खाने से नेचुरल रूप में हमें मिलती है उसे अंगरेजी की वैज्ञानिक भाषा में  Fructose (फलशर्करा) कहा जाता है। उच्च फलशर्करा मक्की शरबत (एचऍफ़सीएस) एक कैलोरी प्रदान करने वाला मीठा पदार्थ है जिसे खाद्ध्य-पदार्थों और पेय-पदार्थों में मीठास उत्पन्न करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। विशेष रूप से संसाधित और खाद्य पदार्थों और संचयित पदार्थों में इसका इस्तेमाल किया जाता है। इसे 1960 के दशक में सर्वप्रथम जापान में उत्पादित किया गया था, और आगे चलकर यह यूरोप और अमेरिका की प्रोसेसिंग इंडस्ट्री की रीढ़ बन गया। आज इसे तमाम शीतल पेय, सलाद ड्रेसिंग, चटनी, जैम, सॉस, आइसक्रीम और ब्रेड सहित खाद्य उत्पादों की किस्म में पाया जा सकता है। आज खाद्य पदार्थों में पाये जाने वाले उच्च fructose कॉर्न सिरप के दो प्रकार होते हैं:
1) एचएफसी 55 (मुख्य शीतल पेयों में इस्तेमाल फार्म) में 55% और 45% fructose ग्लूकोज है। 
2) एचएफसी 42 (मुख्य सिरप, आइसक्रीम, डेसर्ट, और पके हुए माल में डिब्बाबंद फल में इस्तेमाल प्रपत्र) 42% और 58% fructose ग्लूकोज शामिल हैं।


उपरोक्त विवरण से आप यह तो समझ ही गए होंगे कि  उच्च फलशर्करा मक्की शरबत (HFCS) किसे कहते है और यह किस काम आता है। अब चलते है इसके दुष्प्रभावों की ओर,  आज जहां एक और हमारे समक्ष वक्त के साथ चलने की चुनौती है, वहीं कृत्रिम खाद्य-पदार्थों के इस्तेमाल से व्यक्ति और समाज विशेष को होने वाले शारीरिक नुक्शानो का मडराता ख़तरा भी है। आज जहां आधुनिक शहरी रहन-सहन, मिलावटी खाद्य-पदार्थों और फास्ट-फ़ूड की वजह से हमारी वर्तमान और भावी पीड़िया उच्च रक्तचाप, मधुमेह,  शारीरिक अक्षमता और दिल के खतरों से पहले ही जूझ रही है, वहीं  समय से पहले जन्म, जन्म के समय कम वजन, हृदय दोष, प्रजनन मुद्दों, और तमाम विफलताओ जैसे कई विकास दोष, मिर्गी, पाचन मुद्दों और ऊपरी श्वसन क्रिया,पाचन कैंसर, आत्मकेंद्रित, बचपन का मोटापा, इत्यादि का कामयाब होने का श्रेय काफी हद तक एचऍफ़सीएस को जाता है। 

15-20 साल पहले तक  तो शायद, एचएफसी सिर्फ खाने के लिए ठीक था, किन्तु आज  इसका सेवन एक गैर-जरूरी स्तर पर  खतरनाक हो सकता है। क्योंकि आज यह खाद्य-पदार्थ फसलों के नवाचार या उच्च उपज फसलों के नाम में आनुवंशिक परिवर्तन (genetically modified foods आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों) के द्वारा बनाये जा रहे है। इससे ग्रस्त मरीजो पर स्वास्थ्य सेवाओं में भी इसके लिए  उसकी असहनीयता  (इनटॉलेरेंस) की माप के लिए एक परीक्षण किया जाता है जिसको  Fructose Hydrogen Breath test कहा जाता है। और जिसमे अक्सर यह पाया गया है कि इसके 80% मरीजों में  असहिष्णुता अथवा असहनीयता बहुत अधिक मात्रा में पाई  जाती है।  अत: आप यह मानकर चलिए कि यह उच्च फलशर्करा मक्की शरबत (HFCS) मनुष्य के स्वास्थ्य का दुश्मन है। क्योंकि यह  एक सुपर संसाधित रसायन है और आनुवंशिक रूप से संशोधित किये गए  खाध्य-पदार्थ में कीटनाशक के इस्तेमाल की भी पूरी गुंजाईश रहती है। और आज यह हमारे  किन-किन खाद्य-पदार्थो में सम्मिलित है, पता लगा पाना एक टेडी खीर है। 

डिस्क्लेमर: इस आलेख को लिखने का अर्थ यह कतई न लगाया जाए कि  चूंकि कारगिल इंक इसके लिए भारत में प्लांट लगा रही है अत : उसके विरोध स्वरुप मैंने यह सब लिखा है। मुझे नहीं मालूम कि उक्त कंपनी किस उद्देश्य से और किस प्रक्रिया के तहत इसमें अपना उत्पादन करेगी और कहाँ उसका इस्तेमाल करेगी। मेरा इस लेख को लिखने का उद्देश्य सिर्फ पाठक -वर्ग को उच्च फलशर्करा मक्की शरबत (HFCS) से उत्पन्न होने वाले खतरों से अवगत कराना मात्र है, अत: यह  कारगिल इंक के प्रति किसी भी दुर्भावना से प्रेरित होकर नही लिखा गया है। यदि मेरी कोई दुर्भावना है तो वह सिर्फ अपने उन लोगो और सरकार के प्रति हो सकती है, जो एक तरफ तो नागरिकों के स्वास्थ्य के प्रति घडियाली आंसू बहाते है, नशा मुक्ति की बड़ी-बड़ी बातें करते है  और दूसरी तरफ विकास के नाम पर  इस तरह के पदार्थों के इस्तेमाल का दायरा बढाते है। अगर हम  गौर फरमाएं तो अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा पिछले चार सालों में कई बार यह दोहरा चुके है की 30-35 तक की उम्र का उनका युवा वर्ग चीन और भारत के युवाओं से पिछड़ रहा है। इसकी एक ख़ास वजह HFCS का अधिक सेवन भी है, जिससे उनका ज्यादातर युवावर्ग शाररिक रूप से असंतुलित हुए जा रहा है। एक सवाल यह भी उठता है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद ये कंपनिया यैसे प्लांट अपने देश में लगाने की बजाये हमारे जैसे देशों में ही लगाने के क्यों इतने उत्सुक है ?

अब चलते-चलते एक छोटी सी मन की भड़ास: जब से यह दिल्ली की छात्रा के साथ दरिंदगी का मामला प्रकाश में आया है, संसद, विधान सभाओं, खबरिया माध्यमो और टीवी चैनलों पर खूब घडियाली आंसू बहाए जा रहे है। और उन्हें सुनकर , पढ़कर मैं पके जा रहा हूँ  क्योंकि एक भी  के  ने यह सवाल नहीं उठाया कि  जनता की सेक्योरिटी के लिए जो सुरक्षाबल थे, उन्हें तो इन घडियाली आंसू बहाने वालों ने   हड़प रखा है, जनता तो असुरक्षित होगी ही ! आप देखें की एक तथाकथित वीआइपी जो एयर पोर्ट आ -जा रहा हो, आपने भी गौर फरमाया होगा कि उसको प्राप्त ब्लैक कमांडो के अलावा भी एयर पोर्ट से नै दिल्ली के हर चौराहे पर सफ़ेद वर्दी वाले 5-5 ट्राफिक पुलिस के जवान और एक से दो जिप्सिया खडी  रहती है, जबकि बाकी दिल्ली में कई जगहों पर ट्रैफिक लाईट पर एक भी ट्रैफिक कर्मी नहीं होता और लोग खुद ही घंटों जाम में जूझ रहे होते है।  ये हाल तो सिर्फ दिल्ली का बया कर रहा हूँ ! इसलिए यही कहूंगा कि  जागो...... राजनीतिक  स्वार्थ के लिए दूसरों पर ये कितनी  जल्दी आरक्षण थोंपते है लेकिन एक महिला आरक्षण बिल  संसद में कब से धूल  फांक रहा है, अगर वह समय पर पास हुआ होता  और संसद में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व होता तो क्या वे महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार को रोकने के लिए कोई सख्त क़ानून नहीं बनाते?   इसलिए बस, अब जागो वरना   कश्मीर के मशहूर उर्दू कवि वृज नारायण चकबस्त जी का यह  शेर सही सिद्ध हो जाएगा - "मिटेगा दीन भी और आबरू भी जाएगी, तुम्हारे नाम से दुनिया को शर्म आएगी।"                              

Tuesday, December 18, 2012

मर्जी के मालिक कारिंदे है।














आबरू बचाते कुछ मर गये, कुछ जिंदे है,
दरख़्त की शाख पर बैठे, डरे-डरे परिंदे है

खौफजदा है सभी यहां,निवासी  शहर के , 
क्योंकि बेख़ौफ़  घूमते फिर रहे दरिंदे है।
  
इस कदर फैला है  दहशत का ये आलम,,     
दरवान सोये है, और सरपरस्त उनींदे है।

शर्म से सर हिन्द का,झुक रहा बार-बार,
बेशर्म बने बैठे सब सरकारी नुमाइन्दे है।
    
फरियाद करें भी तो करें किससे 'परचेत', 
मर्जी के मालिक, हो गए सब कारिंदे है।
    

Monday, December 17, 2012

मूर्खता और लालच !


गत सप्ताह एक विवाह समारोह में सम्मिलित होने हेतु उत्तराखंड की यात्रा पर था। वहाँ एक परिचित के मुख से सुनी एक पुरानी आंचलिक कहानी को यहाँ लिपिबद्ध कर रहा हूँ। संभव है कि कुछ लोग इस कहानी से पहले से वाकिफ हो फिर भी  उम्मीद करता हूँ कि कुछ पाठकगण, खासकर बच्चों को पसंद आयेगी


एक गाँव में एक निर्धन मगर बहुत ही चालाक किस्म का किसान रहता था। घर की परिस्थितियों के अनुरूप किसान की पत्नी खान-पान में भी मितव्ययता बरतने का भरसक प्रयास करती थी, लेकिन किसान को यह पसंद न था। फलस्वरूप उसने अपनी पत्नी से कहा कि आइन्दा वह जब भी भोजन पकाए  तो दो आदमियों का खाना अतिरिक्त बनाया करे, भले ही उस अतिरिक्त भोजन को उन्हें दूसरे वक्त में ही क्यों न खाना पड़े। 

एक दिन किसान लकड़ी लेने जंगल गया तो उसे वहाँ दो खरगोश के बच्चे मिल गए। वह उन्हें घर ले आया और उनका पालन-पोषण करने लगा। एक दिन वह अपने बैलों संग हल जोतने के लिए खेतों में गया था तो वह एक खरगोश भी साथ ले गया था। हल लगाते वक्त उसने उस खरगोश को हल के ठीक पीछे रस्सी से बांध दिया  बैल हल को खीचते तो आगे-आगे हल चलता और उसके ठीक पीछे-पीछे वह खरगोश चलता  

जब हल जोतने का यह क्रम चल ही रहा था, तभी कहीं से बैलों के दो व्यापारी वहाँ आ पहुंचे। उन्होंने किसान से पुछा कि क्या उसके  बैल बिकाऊ हैं? किसान से सकारात्मक जबाब मिलने पर वे मोल-भाव करने लगे, तभी एक व्यापारी पूछ बैठा कि उसने उस खरगोश को हल से इस तरह क्यों बाँध रखा है? किसान स्वाभाव से ही बहुत चालक किस्म का था, उसने उस व्यापारी की उत्सुकता को भांप लिया और कहने लगा कि यह खरगोश तो उसकी जान है, बहुत ही आज्ञाकारी किस्म का है, वह इसको जो भी काम  बताता है, वह उसे तत्परता से करता है,  दूसरी तरफ वह उसके और उसकी बीवी के बीच संदेशवाहक का काम भी करता है। 

किसान की बातें सुनकर दोनों व्यापारी काफी चकित हुए। बैलों के मोलभाव की बात आई तो किसान ने कहा कि इतनी जल्दी भी क्या है भाई!  दोपहर के भोजन का समय हो रहा है, इसलिए घर चलकर भोजन कर, तदुपरांत  आराम से बैठकर मोलभाव करते है। दोनों व्यापारी किसान की बात मान गए। किसान ने झट से उस खरगोश को हल पर बंधी रस्सी से खोला और उसे गोद में उठाकर उसके कानो में बोला; "जा मेरे लाडले, घर जा, मालकिन को बोलना कि दो मेहमानों के लिए भी भोजन पका के रखना, हम बस थोड़ी देर में पहुँच रहे है।" यह कहकर उसने खरगोश को छोड़ दिया। छूटते ही खरगोश सरपट भागकर झाड़ियों में कही विलुप्त हो गया। व्यापारी कौतुहल भरी  निगाहों से यह सब देख रहे थे। 

थोड़ी देर बाद वे लोग जब किसान के घर पहुंचे तो व्यापारी यह देखकर चकित रह गए कि खरगोश किसान के घर में खूंटे से बंधा था। किसान की पत्नी ने खाना भी  दो आदमियों का अतिरिक्त पकाया हुआ था। व्यापारी यह सब देख यही समझ बैठे कि यह सब उस खरगोश की ही करामात है, जबकि हकीकत यह थी कि किसान की बीवी ने खाना तो किसान के निर्देशानुसार पहले से ही अतिरिक्त पका के रखा था और जिस खरगोश को किसान ने खेत से छोड़ा था वो तो कहीं जंगल  में भाग गया था, घर में बंधा खरगोश दूसरा वाला था। दोनों ही व्यापारी उस खरगोश पर फ़िदा थे, अत: दोनों ने किसान से कहा कि इस बारी बैल रहने दे, और ये बता की खरगोश को कितने में बेचेगा। चालाक किसान तो इसी मौके की तलाश में था, अत: उसने झट से कहा  कि वैसे तो मैं  खरगोश को बेचना नहीं चाहता था किन्तु चूंकि आप मेरे मेहमान है अत: मैं आपकी बात को भी नहीं टाल सकता और वैसे कीमत तो इसकी 25000 रुपये है, किन्तु तुम 20000 रूपये ही देकर ले जा सकते हो।    

व्यापारियों ने किसान को खुशी-खुशी 20000 रूपये चुकता किये और खरगोश लेकर चल पड़े।  जब वे अपने गाँव के समीप पहुंचे तो उन्होंने भी उस खरगोश के कानो में कहा की जाओ मालकिन से कहना कि हम बस थोड़ी देर में पहुँच ही रहे है, वह दो आदमियों का खाना तैयार रखे। यह कहकर जैसे ही उन्होंने खरगोश को आजाद किया, खरगोश सरपट भागकर कही अदृश्य हो गया। वे दोनों व्यापारी जब घर पहुंचे तो देखा की न तो वहां कोई खरगोश था और न ही घर की मालकिन ने उनके लिए खाना तैयार करके रखा था। व्यापारी ने अपनी पत्नी से पूछा कि क्या वहां कोई खरगोश नहीं आया था ? उसकी पत्नी ने तुरंत  प्रतिसवाल  किया कि आप किस खरगोश की बात कर रहे है? 

व्यापारियों को समझते देर न लगी कि उनके साथ धोखा हुआ है। वे उलटे पाँव किसान के गाँव पहुंचे और दोनों ही किसान पर बिगड़ने लगे कि उसने उनके साथ छल किया है। चालाक किसान ने उन्हें शांत कराया और पूछा कि खरगोश को आदेश देने से पहले क्या उन्होंने उसे अपना घर दिखाया था? दोनों व्यापारी सकपकाने लगे और एक स्वर में बोले कि उन्होंने खरगोश को अपना घर तो नहीं बताया था। अब बारी चालक किसान के बिगड़ने की थी, वह विलाप करने का नाटक करते हुए बोला अरे मूर्खों ! तुमने यह क्या कर दिया, मेरे लाडले खरगोश को  बिना अपना घर दिखाए ही आदेश देकर छोड़ दिया, बेचारा पता नहीं उस अन जान जगह पर कहाँ जंगलों में इधर-उधर भटक रहा होगा। अरे, तुमने ये क्या कर दिया? दोनों ही व्यापारियों को अपनी गलती का अहसास हुआ और वे किसी अपराधी की तरह ग्लानी सी महसूस करने लगे।     

किसान उन्हें सांत्वना देते हुए अपने घर के अन्दर ले गया और चूंकि सर्दियों का मौसम था इसलिए उसने अपनी पत्नी को उनके लिए चाय बनाने को कहा। जिस कमरे में किसान ने उन्हें बिठाया था उसके दरवाजे और खिड़की के बीच में बाहर की तरफ से  किसान ने एक बकरा भी बाँध रखा था। बकरा लेटा  हुआ, अपने दोनों जबड़ो को हिलाता हुआ जुगाली कर रहा था। चाय पीते-पीते व्यापारियों ने एक साथ किसान से पूछा कि भई, तुम्हारा यह कमरा काफी गरम है, क्या बात है? किसान झट से बकरे की तरफ इशारा करते हुए बोला; सब अपने इस एयरकंडीशन की वजह से है। व्यापारियों ने आँखें फाड़ते हुए उसके तरफ देखकर  प्रश्नवाचक स्वर में  कहा, एयरकंडीशन ????  किसान बोला, हाँ भाई, सही सूना आपने! यही तो मेरा एयरकंडीशन है, बाहर से जितनी भी ठंडी हवा आती है उसे , यह खा जाता है, (जुगाली करते बकरे के मुह की तरफ उंगली से इशारा करते हुए ) देखो, अभी भी खा रहा है। जबकि उन व्यापारियों के गर्मी महसूस करने की वजह यह थी कि एक तो वे गरम-गरम चाय पी रहे थे और दूसरा, कमरे की जिस दीवार से सटकर वे बैठे थे, उसके ठीक पिछ्ले भाग में दीवार से सटा किसान की रसोई का चूल्हा था, जो उसवक्त जल रहा था, इसलिए कमरे में गर्मी थी। 

किसान की बात सुनकर दोनों व्यापारी आपस में फुसफुसाने लगे कि हमारे गाँव में तो यहाँ से भी ज्यादा ठण्ड है, क्यों न इसे ही खरीद ले। उन्होंने किसान से बकरे का भाव पूछा तो किसान ने वही रटा-रटाया जबाब दिया,कि  वैसे तो 25000/- रुपये है किन्तु तुम्हे मैं 20000 रूपये में दे दूंगा। अब दोनों व्यापारी उस बकरे को अपने गाँव ले आये और कमरे के बाहर बाँध दिया। रात को कड़ाके की सर्दी पडी और सुबह तक बकरा ठण्ड के मारे स्वर्ग सिधार चुका था। अगले दिन दोनों व्यापारी भागते-भागते किसान के गाँव पहुंचे तो किसान की पत्नी ने बताया कि वह तो जंगल गए है इस वक्त।  दोनों ही व्यापारी वक्त जाया नही करना चाहते थे, अत: वे भी किसान को पकड़ने  जंगल की और चल पड़े। इस बीच किसान जब अकेला जगल में जा रहा था तो उसके पीछे रास्ते में एक भालू पड गया। किसान उससे बचने के लिए एक पेड़ के पीछे छुपा तो भालू  ने मय पेड़  उसे पकड़ने की कोशिश की। किसान न सिर्फ चालाक बल्कि बहादुर किस्म का भी था। उसने झट से भालू के दोनों हाथ पकड़ लिए और उसे वहीं रस्सी से लपेटकर पेड़ से बांध दिया। उसके बाद किसान ने भालू के पिछवाड़े पर एक जोर की लात मारी तो भालू ने मल त्याग दिया। 

इस बीच किसान की नजर जंगल में उसी की तरफ आते दोनों व्यापारियों पर पडी तो उसे मामला भांपते देर न लगी। उसने फ़टाफ़ट अपनी जेब से कुछ रूपये निकाले और उन्हें भालू द्वारा विसर्जित मल में अच्छी तरह लोट-पोट कर दिया। ज्यों ही व्यापारी  एकदम उसके नजदीक पहुंचे तो किसान  एक-एक कर भालू के मल में लिपटे नोटों को निकाल-निकालकर साफ़ करने लगा और उन्हें सुखाने लगा। व्यापारियों ने उत्सुकताबश तुरंत पूछा कि किसान तुम ये क्या कर रहे हो? चालाक किसान बोला, मत पूछो भाई कि मैं क्या कर रहा हूँ। यही भालू तो मेरी रोजी का साधन है..............क्योंकि यह मल के साथ-साथ अपने पेट से नोट भी त्यागता है, जिन्हें साफ कर मैं अपनी रोजी-रोटी चलाता हूँ। दोनों ही व्यापारी एक साथ उछल पड़े, और बोले, अरे यह तो बड़ा ही अजूबा है, पहली बार ऐसा देखा और सूना है। वे किसान से बकरे के बदले दिए गए पैसे वापस मांगना भी भूल गए और बोले, तुम इस भालू को कितने में बेचोगे ? 

किसान ने एक बार फिर वही रटा-रटाया जबाब दिया कि वैसे तो इसकी कीमत 25000 रूपये है किन्तु तुम्हारे लिए मात्र 20000/- रूपये। लेकिन इस बारी किसान ने एक शर्त यह रखी कि चुकी वह भालू उसको जी-जान से प्यार करता है और उससे अलग नहीं होगा, इसलिए वे लोग उस भालू को उसके वहां से चले जाने के दो घंटे बाद ही खोलें। लालची व्यापारी किसान की हर बात मानने को तैयार थे, अत: किसान को भालू की कीमत देकर उन्होंने विदा कर दिया और जब उसके कहे अनुसार दो घंटे बाद उन्होंने भालू को खोला तो क्रोधित भालू  उनपर झपटा और पलभर में दोनों व्यापारियों को  उसने मार डाला।     

इतिश्री !                                                                                                                       

Friday, December 7, 2012

सिराज-उद- दौलाह और मीर कासिम की इस हार के मायने? -एक तुलनात्मक लेखा-जोखा !


क्या सचमुच अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के बैनर तले प्लासी और बक्सर का युद्ध एक बार पुन: जीत लिया है?सवाल कुछ लोगो के लिए मामूली सा, कुछ के लिए गंभीर और कुछ के लिए हास्यास्पद भी हो सकता है, किन्तु अठारह्वीं सदी (सन 1754-1764)और इक्कीसवी सदी( सन 2004-2014)  के इन दो महत्वपूर्ण युद्धों के बीच मुझे तो अनेक समानताएं नजर आ रही है। मसलन, बंगाल के नवाब अलीवर्दी खान की विधवा घसीटी बेगम और लॉर्ड क्लाईव की बढ़ती महत्वकांक्षाएं तब भी भारतीय उप-महांद्वीप  के विनाश का कारण बनी थी और शायद अब भी (??!!)  जयचंदों की मदद के सहारे तब भी बहुत से मीर जफ़र मुर्सीदाबाद की कुर्सी पर नजरें गडाए बैठे थे और आज भी बहुत हैं। राजा नाबा किशन देव जो कि ईस्ट इंडिया कम्पनी को फाइनेंस करते थे,  तब भी बहुत थे और आज भी बहुत हैं।1764 में जब बक्सर के युद्ध में मीर कासिम साह आलम  और सुजाउद दौलाह के सहयोग से अंग्रेजो को हारने की कोशिश में था तो अंग्रेजो को अवध और मद्रास से भितरघातियों का तब भी जमकर सहयोग मिला था और आज भी मिल रहा है। हाँ, तब भी कुछ बहादुर किस्म के टीपू सुलतान इस देश में मौजूद थे, और आज भे है, मगर न तबके टीपू सुल्तानों की कुछ चली और न आज चलती दिख रही है।    

आइये, अब थोड़ा नजर ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारत आते वक्त की भू-राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों  और उसके बाद के कुछ ख़ास परिणामों पर भी डाल लेते है; सन 1601 में रॉयल चार्टर के तगमे तले East of the Cape of Good Hope के सपने को साकार करने के लिए इस कंपनी ने इस उप-महाद्वीप में अपना झंडा गाडा था, और शायद (इस शायद शब्द को कृपया सिर्फ आशंका के तौर पर ही देखें ) आज यह एफडीआई के तगमे तले East of the Cape of Good Hope के सपने को साकार करने जा रही है। अंग्रेजों के साथ व्यापार समझौता करने के लिए तब भी सलीम जहांगीर मौजूद थे और आज भी इनकी कमी नहीं है। अंग्रेज यहाँ घुसे इसलिए कि तब भी पश्चिम में उनके व्यापार हालात खस्ताहाल थे और आज भी हैं। तब भी इस भारत भूमि में भ्रष्टाचार अपने चरम पर था जिसकी वजह से ये अंग्रेज आसानी से यहाँ घुस गए थे, और आज हालात उससे भी बद्दतर है। तब भी बेशर्मी  की सारी हदे पार कर यहाँ के लोग सिर्फ अपने निहित स्वार्थों में उलझे हुए थे, और आज तो इन्होने बेशरमी को भी शर्मिन्दा कर दिया है।  और इसका ताजा उदाहरण है, भारतीय ओलंपिक एसोशियेशन और भारतीय मुक्केबाजी फैडरेशन का विश्व विरादरी से निलंबन। चीन तब भी प्रत्यक्ष तौर पर इस क्षेत्र में अपना दब-दबा कायम करने की फिराक में था और आज भी है, और इसका ताजा उदाहरण है, माले में भारतीय कंपनी जीएमआर का ठेका रद्द होना। आपको जानकार आश्चर्य होगा कि सन 1700 में जहां विश्व के मुकाबले ब्रिटेन की जीडीपी सिर्फ 2.88 प्रतिशत थी वहीं चीन  की  जीडीपी 22.3 प्रतिशत और भारत की जीडीपी 24.4 प्रतिशत थी।  और सन 1870 तक जहां ब्रिटेन की जीडीपी में दस गुना का उछाल  आया वही  घटकर भारत की वह जीडीपी सिर्फ 12.2 प्रतिशत रह गयी थी, क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी का मकसद सिर्फ इस मुहावरे तक सीमित हो गया था कि  'a lass and a lakh a day',  परिणामत: सामने आये 34 भयंकर अकाल। इस दौरान एक सेर चावल की कीमत हुआ करती थी 170 रूपये।  उस दरमिया ज़रा वारेन हेस्टिंग की रिपोर्ट के ये अंश पढ़िए   "In 1772, Warren Hastings estimated that perhaps 10 million Bengalis had starved to death, equating to perhaps a third of the population."      

क्षमा चाहता हूँ, मैं आपको डरा नहीं रहा, हो सकता है कि मैं ही गलत हूँ, किन्तु सिर्फ आशंकाएं व्यक्त करने और सजगता बनाए रखने में हर्ज क्या है ? क्योंकि अकारण ही सही, मगर परिस्थितियां ख़ास भिन्न आज भी नहीं है।  और मैं अपने को  कबीर के समकक्ष तो नहीं रख सकता मगर कबीर की ही भांति मैं भी यही दोहा गुनगुना तो सकता हूँ कि ;
चलती चक्की देखकर दिया कबीर रोए, 
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोए। 

लेकिन मेरे इस देश में ऐसे समझदारों की भी कोई कमी  नहीं है, जो तत्काल उपदेशात्मक जबाब इस तरह दे डालते है कि ;
कबीरा तेरी झोपडी गल कट्टों  के पास,
जो जैसा करे वैसा भरे, तू क्यों भला उदास। 

इसलिए बस इतना ही कहूंगा कि  हम हिन्दुस्तानियों को सोने की आदत बहुत है जभी तो चिरकाल में हमें सोने वाली चिड़िया की संज्ञा दी जाती थी। इसलिए दोस्तों, बस यही कहूंगा कि सोओ मगर जागते भी रहो !                

                      

चित्र-विचार !

आज आपसे अनुरोध करूंगा कि इस तनिक संशोधित चित्र पर नजर डालिए और विचारिये !










छवि एक्सप्रेस ट्रिब्यून से साभार !



Wednesday, December 5, 2012

कौड़ियों के मोल जान- मेरा भारत महान !


अपना देश जब आजादी लेने के लिए छट -पटा रहा था तो उस वक्त के अंग्रेज उन स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े नेताओं से सवाल करते थे कि आप आजादी लेकर क्या करोगे?  तो हमारे उन सैनानियों का एक ही जबाब होता था कि हम समानता के आधार पर एक व्यवस्थित समाज की स्थापना करेंगे, इस देश में राम राज्य लायेंगे, जहां हर नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों के साथ सम्मान से जी सकेगा। आज इस तथाकथित आजादी को हासिल किये हमको 65 साल हो गए मगर जमीनी हकीकत क्या है, यह कल की उस घटना से जाहिर हो जाता है जिसमे दिल्ली के एक ट्रॉमा सेंटर में ऑक्सीजन सप्लाई बंद होने से 4 मरीज जिन्दगी से हाथ धो बैठे। सच में, कितनी सस्ती है यहाँ एक जान की कीमत ! नॉर्वे  जैसे देश भी इसी दुनिया में है जो सिर्फ शक के आधार पर ही चाइल्ड अब्यूज के तहत माता-पिता को 18 महीने के कैद दे देते है, और एक हम हैं कि 4 जिन्दगी लापरवाही का शिकार होकर मौत के मुह में चली गई और हम इसे एक मामूली घटना समझकर ऍफ़डीआई के ही गणित में उलझे है।अब हमारे कुछ भ्रष्ट आला अधिकारी और नेतागण इस घटना पर अफ़सोस जताएंगे और जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए जांच समितिया बिठा देंगे। नतीजा क्या होगा, वही ढाक के तीन पात। ज्यों-ज्यों समय गुजरेगा अपनी रोजे-रोटी में ही उलझे मंद-बुद्धि लोग अन्य घटनाओं की तरह ही इस घटना को भी बिसरा देंगे। ऊपर से जांच के खर्च का बोझ जनता पर अलग। आपदा-प्रबंधन के तहत हम मौक ड्रिल कर रहे है, और उस मौक ड्रिल की हकीकत यह है की अस्पताल में सामान्य परिस्थितियों में भी ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं है। किसे बेवकूफ बना रहे है हम? किसे धोखा दे रहे हैं?     

समझ नहीं आता कि जिस देश में अतीत में एक समृद्ध सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत हुआ करती थी, वहां के लोग आज बौद्धिक रुग्णता, भावना विहीनता और मानसिक दिवालियेपन के इस कगार पर कैसे पहुँच गए। अभी हालिया घटनाओं पर ही नजर डालें तो छट-पूजा के दरमियाँ  बिहार में जो दुखद घटना हुई, हमारा मानसिक दिवालियेपन की कगार पर खडा इलेक्ट्रोनिक मीडिया सर्वप्रथम, उन्ही लालू परसाद जी की प्रतिक्रिया जानने पहुचता है, और उसे खबरिया माध्यमो में बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करता है, जिनकी वजह से बिहार प्रगति की दौड़ में पिछड़ गया। अगर इन्होने अपने 20 साल के शासन के दरमियान बिहार की चिंता के होती तो जहाँ छट -पूजा पर अस्थाई पुल बनाया गया था, वहां एक मजबूत स्थाई पुल खडा होता और लोगो को इस तरह जान न गवानी पड़ती। जब देश को यह मालूम ही नहीं कि सर्वेसर्वा कौन है , राज कौन चला रहा है ? तो यही होगा। एक शराब का माफिया मरा तो हमारे इन लोकतंत्र के खम्बों के दिग्गजों ने  मुद्दे को इस तरह भटका दिया की किसकी गोली किसे लगी मगर जो असल बात जनता में उछल कर आनी चाहिए थी कि उसे सरकारी खर्च पर सरकारी सुरक्षा-कर्मी किस खुशी में मुहैया कराये गए थे ? आम जनता भले ही जान हथेली पर रख घर से बाहर निकलती हो मगर उसे एक ही पते पर 18-18 बंदूकों के लाइसेंस कैसे प्रदान किये गए, यह जानने और बताने की कोशिश  किसी ने नहीं की।   

और आज जो मुद्दा सबसे गरम है, वह है ऍफ़ डी आई का मुद्दा। यह सही है या गलत, उस पचड़े में न जाकर याद दिलाना चाहूँगा की अभी पिछले हफ्ते बंगलादेश में एक कपड़ा फैक्ट्री में आग से तकरीबन 150 लोग मौत के मुह में चले गए। यह फैक्ट्री अमेरिकी कंपनी वाल-मार्ट और यूरोपीय तथा सिंगापुर की कम्पनी के लिए बहुत सस्ते दर पर कपडे तैयार करती थी, माल तैयार हो जाने के बाद जिस पर वाल-मार्ट जैसी नामी अमेरिकी और यूरोपीय कम्पनियां अपने बिल्ले चिपकाकर अपने रिटेल शो-रूमो में धनाड्य और मध्यम-वर्गीय परिवारों को ऊंचे दामो पर बेचती है। जबकि इनका माल तैयार करने वाले वे अभागे बंगलादेशी मजदूर जो अनैतिक परिस्थितियों में खून-पसीना बहाकर महीने-भर का मेहनताना मात्र 2200 रूपये प्राप्त करते थे, जिनकी सुरक्षा के लिए वहाँ कोई इंतजामात भी नहीं किये गए थे। क्या अब यही कंपनिया इस ऍफ़डीआई के जरिये वही खेल इस देश में भी खेलना चाहती है ? और अंत में एक सवाल  महामहिम अमेरिकी राष्ट्रपति श्री ओबामा से यह कि वे भारत व अन्य देशों को आईटी और अन्य क्षेत्रों में आउटसोर्सिंग के सख्त खिलाफ है, तो भाई साहब, वालमार्ट को आउटसोर्सिंग  की यह छूट कैसी ? कपडे भी अपने देश में ही बनवाइए न।                                     

   

Monday, December 3, 2012

खता मेरी ही थी, जो मैं तुमसे दिल लगा बैठा।













तेरी चौखट पे न होता, आज इस तरह ठगा बैठा,
खता अपनी ही थी कि जो तुमसे दिल लगा बैठा।

पूछके देखो ज़रा उससे ,क्या होती है नींद चैन की,
जो वाट जोहता किसी की, रहे रातों को जगा बैठा।

ऐ नादां, हमने तेरे लिए क्या-क्या न ठुकरा दिया,
जो थे  कुछ सगे उनको भी, खुद से दूर भगा बैठा।

आज हमदर्दी का तुम्हारी, है यह आलम कि मैं ,
हूँ बेगानॉ की महफ़िल में, इक अकेला सगा बैठा।

योवन की दहलीज पर, गर यूं न बहकते कदम,
अपने को ही क्यों होता 'परचेत', देकर दगा बैठा।












Saturday, December 1, 2012

नहीं मालूम, कौन सही है, कौन गलत !


कल  जब निम्नांकित खबर पर नजर गई तो  मेरे अंतर्मन से जो शब्द रूपी पुष्प छूटे वे ये थे कि इन फिरंगियों ने अपनी औलादे तो बिगडैल और निकम्मी बना ही डाली है, अब ये भारतियों  के पीछे पड़ गए है कि अगर इनके बच्चे अनुशासित निकले तो आगे चलकर ये हमारे बच्चों पर राज करेंगे, इसलिए इनके बच्चों को भी बिगाड़ो ;   

ओस्लो: नॉर्वे में बाल शोषण के कथित मामले के तहत गिरफ्तार भारतीय दंपति पर उनके बच्चे के साथ ‘निरंतर बुरा बर्ताव’ करने का आरोप लगाया गया है. इसके लिए अभियोजन पक्ष ने माता-पिता के लिए कम से कम 15 महीने की कैद की मांग की है. आंध्रप्रदेश के चंद्रशेखर वल्लभानेणि एक सॉफ्टवेयर पेशेवर हैं और उनकी पत्नी अनुपमा भारतीय दूतावास में एक अधिकारी हैं. इन दोनों को ही ओस्लो की पुलिस ने हिरासत में ले लिया था। इनका कुसूर यह था की इनके 7 साल के बच्चे ने अपने स्कूल की बस में पैंट में ही पेशाब कर दिया था, जिसकी जानकारी उसके पिता को की गई तो बच्चे के पिता ने उसे धमकाया कि अगर उसने ऐसा दोबारा किया तो वह उसे भारत वापस भेज देंगे।




मगर, वक्त का जबाब देखिये, आज की निम्नांकित खबर पढ़कर सोचता हूँ कि शायद हमारे ही संस्कारों में कहीं खोट है। वे तो हमें आइना दिखा रहे है ;  

विशाखापत्तनम:  6 साल की बेटी पर कपबोर्ड से दस रूपये   चुराने   के शक में एक माँ ने न सिर्फ उसे बुरी तरह से पीटा, बल्कि उसपर गर्म फ्राईपेन से वार कर उसके चेहरे को जलाया भी। इस बात का पता तब चला जब बृहस्पतिवार को वह बच्ची चाइल्डलाइन नामक एनजीओ ने देखी। 

आप भी चिंतन कीजिये !


Wednesday, November 28, 2012

नयनों का क्या भरोसा, कब नूर छोड़ देंगे।











तनिक तुम अगर अपना गुरुर छोड़ देंगे,
हम ये गंवारू समझ और शऊर छोड़ देंगे। 

न सिर्फ तुम्हारी नापसंद,बल्कि जहां सारा, 
इक इशारे पे तुम्हारे, हम हुजूर छोड़ देंगे। 

तृष्णा न बची बाकी,क्या सखी,क्या साकी, 
संग-कुसंगती का हम, हर सुरूर छोड़ देंगे। 

सर पे 
रखके हाथ, न खिलाया करो कसमे, 
मद्यपान न सही धुम्रपान जुरूर छोड़ देंगे। 

बसाना ही है 'परचेत', तो दिल में बसाओ, 
नयनों का क्या भरोसा, कब नूर छोड़ देंगे।


छवि गुगुल से साभार  !

Tuesday, November 27, 2012

गली से इठला के निकलती है,चांदनी भी अब तो











देखके लट-घटा माथे पे उनके,मनमोर हो गए है, 
अफ़साने मुहब्बत के इत्तफ़ाक़,घनघोर हो गए है।

कलतक खाली मकां  सा लगता था ये दिल मुआ,
 हुश्नो-आशिकी के इसपे ,अब कई फ्लोर हो गए है। 

गली से इठला के गुजरती है, चांदनी भी अब तो, 
वो क्या कि चंदा के दीवाने, कई चकोर हो गए है। 

वो क्या जाने देखने की कला, टकटकी लगाकर,  
खुद की जिन्दगी से दिलजले जो, बोर हो गए है।   

राह चलते तनिक उनसे, कभी नजर क्या चुराई,  
नजरों में ही उनकी 'परचेत',अपुन चोर हो गए है।  

Wednesday, November 21, 2012

ओ रे कसाब !




गर किया होता तूने 
एक ठों काम नायाब,
फिर चुकाना क्यों पड़ता 
इसतरह तुझे 
अपने कर्मों का हिसाब !
ओ रे कसाब !!

नरसंहार का 
एक अकेला 
तू ही नहीं गुनहगार,
क्योंकि इन बीहडो में  
हर रोज होता है,
हजारों निर्दोषों का शिकार!
अद्भुत और फरेब भरी 
यहाँ की रीति से, 
कुछ बन्दूक से 
तो कुछ कूटनीति से, 
फिर भी कोई माँगता नहीं 
उनकी इस 
कुटिलता का हिसाब,
मगर तुम 
फंस गए जनाब !
ओ रे कसाब !!

तू  छला गया, 
इसलिए दुनिया छोड़ 
चला गया,
मगर ये कुटिल,
अपनी कुटिलता के  
तीर और कमान से,  
गुलछर्रे उड़ा रहे यहाँ 
आम खर्च पर शान से,
पहनकर चेहरे पर , 
शराफत का नकाब,
मगर तुमने  वो 
क्यों नहीं पहना जनाब ? 
ओ रे कसाब !! 


सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...