Wednesday, December 5, 2012

कौड़ियों के मोल जान- मेरा भारत महान !


अपना देश जब आजादी लेने के लिए छट -पटा रहा था तो उस वक्त के अंग्रेज उन स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े नेताओं से सवाल करते थे कि आप आजादी लेकर क्या करोगे?  तो हमारे उन सैनानियों का एक ही जबाब होता था कि हम समानता के आधार पर एक व्यवस्थित समाज की स्थापना करेंगे, इस देश में राम राज्य लायेंगे, जहां हर नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों के साथ सम्मान से जी सकेगा। आज इस तथाकथित आजादी को हासिल किये हमको 65 साल हो गए मगर जमीनी हकीकत क्या है, यह कल की उस घटना से जाहिर हो जाता है जिसमे दिल्ली के एक ट्रॉमा सेंटर में ऑक्सीजन सप्लाई बंद होने से 4 मरीज जिन्दगी से हाथ धो बैठे। सच में, कितनी सस्ती है यहाँ एक जान की कीमत ! नॉर्वे  जैसे देश भी इसी दुनिया में है जो सिर्फ शक के आधार पर ही चाइल्ड अब्यूज के तहत माता-पिता को 18 महीने के कैद दे देते है, और एक हम हैं कि 4 जिन्दगी लापरवाही का शिकार होकर मौत के मुह में चली गई और हम इसे एक मामूली घटना समझकर ऍफ़डीआई के ही गणित में उलझे है।अब हमारे कुछ भ्रष्ट आला अधिकारी और नेतागण इस घटना पर अफ़सोस जताएंगे और जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए जांच समितिया बिठा देंगे। नतीजा क्या होगा, वही ढाक के तीन पात। ज्यों-ज्यों समय गुजरेगा अपनी रोजे-रोटी में ही उलझे मंद-बुद्धि लोग अन्य घटनाओं की तरह ही इस घटना को भी बिसरा देंगे। ऊपर से जांच के खर्च का बोझ जनता पर अलग। आपदा-प्रबंधन के तहत हम मौक ड्रिल कर रहे है, और उस मौक ड्रिल की हकीकत यह है की अस्पताल में सामान्य परिस्थितियों में भी ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं है। किसे बेवकूफ बना रहे है हम? किसे धोखा दे रहे हैं?     

समझ नहीं आता कि जिस देश में अतीत में एक समृद्ध सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत हुआ करती थी, वहां के लोग आज बौद्धिक रुग्णता, भावना विहीनता और मानसिक दिवालियेपन के इस कगार पर कैसे पहुँच गए। अभी हालिया घटनाओं पर ही नजर डालें तो छट-पूजा के दरमियाँ  बिहार में जो दुखद घटना हुई, हमारा मानसिक दिवालियेपन की कगार पर खडा इलेक्ट्रोनिक मीडिया सर्वप्रथम, उन्ही लालू परसाद जी की प्रतिक्रिया जानने पहुचता है, और उसे खबरिया माध्यमो में बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करता है, जिनकी वजह से बिहार प्रगति की दौड़ में पिछड़ गया। अगर इन्होने अपने 20 साल के शासन के दरमियान बिहार की चिंता के होती तो जहाँ छट -पूजा पर अस्थाई पुल बनाया गया था, वहां एक मजबूत स्थाई पुल खडा होता और लोगो को इस तरह जान न गवानी पड़ती। जब देश को यह मालूम ही नहीं कि सर्वेसर्वा कौन है , राज कौन चला रहा है ? तो यही होगा। एक शराब का माफिया मरा तो हमारे इन लोकतंत्र के खम्बों के दिग्गजों ने  मुद्दे को इस तरह भटका दिया की किसकी गोली किसे लगी मगर जो असल बात जनता में उछल कर आनी चाहिए थी कि उसे सरकारी खर्च पर सरकारी सुरक्षा-कर्मी किस खुशी में मुहैया कराये गए थे ? आम जनता भले ही जान हथेली पर रख घर से बाहर निकलती हो मगर उसे एक ही पते पर 18-18 बंदूकों के लाइसेंस कैसे प्रदान किये गए, यह जानने और बताने की कोशिश  किसी ने नहीं की।   

और आज जो मुद्दा सबसे गरम है, वह है ऍफ़ डी आई का मुद्दा। यह सही है या गलत, उस पचड़े में न जाकर याद दिलाना चाहूँगा की अभी पिछले हफ्ते बंगलादेश में एक कपड़ा फैक्ट्री में आग से तकरीबन 150 लोग मौत के मुह में चले गए। यह फैक्ट्री अमेरिकी कंपनी वाल-मार्ट और यूरोपीय तथा सिंगापुर की कम्पनी के लिए बहुत सस्ते दर पर कपडे तैयार करती थी, माल तैयार हो जाने के बाद जिस पर वाल-मार्ट जैसी नामी अमेरिकी और यूरोपीय कम्पनियां अपने बिल्ले चिपकाकर अपने रिटेल शो-रूमो में धनाड्य और मध्यम-वर्गीय परिवारों को ऊंचे दामो पर बेचती है। जबकि इनका माल तैयार करने वाले वे अभागे बंगलादेशी मजदूर जो अनैतिक परिस्थितियों में खून-पसीना बहाकर महीने-भर का मेहनताना मात्र 2200 रूपये प्राप्त करते थे, जिनकी सुरक्षा के लिए वहाँ कोई इंतजामात भी नहीं किये गए थे। क्या अब यही कंपनिया इस ऍफ़डीआई के जरिये वही खेल इस देश में भी खेलना चाहती है ? और अंत में एक सवाल  महामहिम अमेरिकी राष्ट्रपति श्री ओबामा से यह कि वे भारत व अन्य देशों को आईटी और अन्य क्षेत्रों में आउटसोर्सिंग के सख्त खिलाफ है, तो भाई साहब, वालमार्ट को आउटसोर्सिंग  की यह छूट कैसी ? कपडे भी अपने देश में ही बनवाइए न।                                     

   

9 comments:

  1. आला अधिकारी लड़ें, नेता भी मशगूल |
    शर्मिंदा है मेडिकल, मारे ऊल-जुलूल |
    मारे ऊल-जुलूल, हजारों बन्दे मारो |
    मातु-पिता को जेल, नार्वे में फटकारो |
    रविकर यह दुर्दशा, पड़ा सत्ता से पाला |
    डायलिसिस पर देश, लगाए डाक्टर आला ||

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  2. चिंता जायज़ है .... सटीक और सार्थक लेख

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  3. मानवीय जीवन को कितना मूल्य देते हैं हम, बहुत प्रमाण हैं इसके अब तो।

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  4. शायद हम इतने ज़्यादा हो गए हैं कि‍ हमारी कीमत ही ख़त्‍म हो गई है

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  5. यह सवाल कभी कभी मुझे भी बहुत अन्दर तक झकझोर देता है कि जिसकी बुद्धि का डंका कभी दुनिया में बजता था आज उसी भारतीय की बुद्धि सठिया कैसे गयी है...
    ऍफ़डीआई पर तो आज संसद में खेल हो गया, विरोध का मुखोटा पहले माया-मुलायम ने सरकार का समर्थन ही किया.
    मुझे उत्तरप्रदेश की जनता पर क्रोध आता है कि हर बार माया-मुलायम के ही हाथ में कैसे खेलती रहती है.

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  6. मजे की बात यह है की लोकपाल की मांग पर लाखों की भीड़ सड़कों पर उतर आती है, आरोप-प्रत्यारोपों के चटखारे चैनलों के माध्यम से हर-रोज लिए जाते हैं किन्तु स्वाभिमान अथवा स्वदेशी की हिमाकत कोई नहीं करता, और दुःख इस बात का है की आजादी के बाद भारत एक देश के रूप में नहीं अपितु एक बाजार के रूप में उभरकर सामने आया है, ........

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  7. गोदियाल जी , ओबामा को अच्छी तरह पता है की भारतीय जनता की रगों में स्लेवरी है , इसलिए हर हथकंडा कामयाब हो जाता है विदेशियों का ! और अफ़सोस की राष्ट्रभक्तों की कोई सुनवाई नहीं है हमारे लोकतंत्र में ! इसलिए हमें हर बार खून का घूँट पीकर रह जाना पड़ता है !

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  8. सटीक और सार्थक लेख

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।