Wednesday, April 29, 2009

टूटा भ्रम !

बात करीब १८-२० साल पुरानी है। तब मैं और मेरा हिमांचली दोस्त सत्येन्द्र लाजपत नगर रेलवे कालोनी में रेलवे फाटक के समीप फ्लैट किराए पर लेकर रहा करते थे। हम दोनों एक ही लिमिटेड कंपनी में एक्जीक्यूटिव थे। उस समय मैं अविवाहित था, जबकि मेरे दोस्त सत्येन्द्र की करीब तीन महीने पहले ही शादी हुई थी। जब सत्येन्द्र की शादी हुई थी तो हम उसके गाँव में, जोकि मनाली वाले रूट पर मंडी के समीप एक पहाडी घाटी में स्थित है, पूरे एक हफ्ता रुके थे । सत्येन्द्र के पिता तब हिमांचल में प्रशासनिक सेवा के एक वरिष्ट अधिकारी थे, अतः गाँव में उनका अच्छा खासा रुतवा था। अब उसकी शादी के तीन महीने बाद ही उसकी बहन की भी शादी थी। अतः हम लोग यानि मैं, सत्येन्द्र और उसकी पत्नी पूर्व-निर्धारित प्लान के मुताविक पांच दिन पहले ही दिल्ली से निकल पड़े थे। सत्येन्द्र को अपनी शादी में इस बात का मलाल था कि व्यस्तता के कारण वह मुझे मनाली घुमाकर नहीं लाया था। उसके पास उस समय मारुती ८०० कार थी, अतः हमने पहले सीधे मनाली का ही रुख किया था, ताकि शादी के बाद थकान की वजह से फिर मनाली जाने से ना चूके। सुबह तड्के चार बजे हम दिल्ली से निकले और आपस में दोनों अदल-बदल कर ड्राइव करते हुए करीब ६०० से अधिक किलोमीटर का पूरा सफ़र तय कर, शाम को मनाली पहुँच गए।

अगले दिन दोपहर तक हम मनाली में ही रुके और उसके बाद शाम तक वापस सत्येन्द्र के गाँव, जोकि नेशनल हाइवे न. २१ से थोडा हटकर था, पहुँच गए थे। चूँकि मैं पिछली बार गाँव में एक हफ्ते रुका था, इसलिए गाँव के काफी युवा मुझे अच्छी तरह से जानते थे और मैं उन लोगो से काफी घुल मिल भी गया था। अगली सुबह से हम शादी की तैयारियों मे जुट गये थे, वह करीब बीस-पचीस परिवारों का गांव था और प्रथा के हिसाब से बारात लड्की वालों के घर पहले दिन शाम को आकर अगले दिन दोपहर मे दुल्हन लेकर वापस अपने गांव लौटती है। हालांकि बारातियों के ठहरने हेतु गांव के ही स्कूल मे इन्तजाम किया गया था, फिर भी मेहमानो की बडी तादात के मद्यनजर हम लोग व्यैकल्पिक इन्तजामों मे जुटे थे । वहां गांव मे बाकी कोई दिक्कत वाली बात नही थी, सिवाये रात को मेहमानों के ठहराने की समस्या के । दूर-दूर तक कोई होटल भी नही था और यधपि गर्मी का मौसम था, फिर भी पहाडी गांवो मे रात को काफ़ी ठन्ड होती है ।

काफ़ी दीमाग लडाने के बाबजूद भी, जब मेहमानों के ठ्हरने की प्रयाप्त व्यवस्था नही हो पाई, तो सत्येन्द्र के पिताजी ने सत्येन्द्र से सलाहकर कुछ मजदूर लेजाकर गांव के उस एकमात्र पुराने मकान को खुलवाने और साफ़ सफ़ाई करवाने को कहा, जो बर्षो से सुनसान पडा था । पिता का यह निर्णय, सत्येन्द्र के लिये किसी बडी चुनौती से कम न था । पिछ्ली बार उसकी शादी पर भी जब उस मकान को खुलवाने की बात चली थी तो उसके विरोध पर ही मामला टाल दिया गया था । मुझे याद था कि जब हम दोनो ही बेचुलर थे तो दिल्ली मे छुट्टी के दिन कमरे पर बैठे-बैठे हम अपने बचपन और गांव के अनुभवों को एक दूसरे को सुनाते थे । सत्येन्द्र अपने बचपन के उस अनुभव को बार-बार दोहराता था, जब वह सात साल का था और गांव मे रहता था, और अक्सर एक खास किस्म की अनोखी आकृति को अपने सामने देखा करता था, कभी घर के आंगन मे तो कभी पास के तालाब के पास । वह जब यह बाते करता था तो मै उसे यह कह्कर झिडक देता था कि वो यार, भूत-पिचाश सब इन्सान के दिमाग का फतूर है और कुछ नही । मै भी काफ़ी सालो तक गांव मे रहा, मैने तो कभी कोई ऐसी चीज नही देखी ।

इस घर के बारे मे भी मैने कई बार सत्येन्द्र के मुह से सुना था कि इस घर के मालिक ने पत्नी से कहासुनी होने पर उसके सिर पर किचन मे तव्वे से वार कर उसकी हत्या कर दी थी, और खुद भी उसी रात घर के आगे खेत में खडे एक पेड से लटककर फांसी लगा ली थी । तबसे यह घर निर्जन पडा था, और गांव वाले उस घर मे रात को अजीव सी हलचल होने की ढेरो कहानियां सुनाते रह्ते थे । दो मजदूरो को लेकर वहां जाने की जब बारी आई तो सतेन्द्र के ना-नुकुर करने पर मैने उसे एक बार पुन: यह कहकर झिड़क दिया कि ओय यार, तू मर्द का बच्चा नही है, बडा ही डरपोक किस्म का इन्सान है । ला चावी मुझे दे, वहां का काम मै करवाता हूं, तु यहाँ के और काम देख। उसने चावी मेरे को पकडाते हुए मुझे एक बार फिर सावधान किया कि अपनी होश्यारी से घुसना उस घर मे । मैने चावी लेते हुए कहा, तू भी न..., जरा आये तो सही वो भूत का बच्चा मेरे सामने, मैं भी तो देखू कैसा होता है भूत ।

वह तीन कमरों का एक पुराना लकडी, लाल मिट्टी और पत्थर का मकान था। पहाडो में भूतल वाला हिस्सा लोग अपने मवेशियों के रहने के लिए और उपरी हिस्सा ( पहली मंजिल) अपने रहने के लिए प्रयोग में लाते है । उस उपरी हिस्से की छत लकडी और चौडे-चौडे पत्थरो की बनी थी, जबकि कमरे का फर्श सिर्फ लकडी और लाल मिटटी से बना था । फर्श पर चलने पर पूरा कमरा हिलता था। शाम होते-होते मजदूरों ने सफाई और पुताई का काम पूरा कर लिया था। अतः मैंने फिर कमरों पर ताले लगाए और वापस सत्येन्द्र के घर आ गया। मुझे इस दौरान कुछ भी असामान्य नहीं लगा था। दो दिन बाद बारात दरवाजे पर पर थी। शाम को स्वागत के बाद खाना-पीना हुआ और फिर बारातियों और मेहमानों को सुलाने का इंतजाम होने लगा। एक दोस्त के नाते मैं सत्येन्द्र के एक भाई की तरह सारे कामो में उसका हाथ बँटा रहा था। ज्यादातर बाराती और घरेलु मेहमान स्कूल के कमरों में ही सुला दिए गए थे, कुछ जो बाकी रह गए थे, उन्हें मैंने उस मकान के दो कमरों में सुला दिया। अब एक कमरा खाली था, रात करीब बारह बजे जब हम लोग भी खा पी चुके तो सत्येन्द्र के पिता ने सत्येन्द्र से कहा कि मुझे और सतेंद्रे के अन्य दोस्तों को भी सुलाने का इंतजाम करे, क्योकि लग्नानुसार शादी के फेरे सुबह पांच बजे होने है, अतः अब सुबह तक के लिए कोई काम नहीं था। मैंने सत्येन्द्र और उसके अन्य दोस्तों से कहा कि ऊपर उस मकान में अभी एक कमरा खाली है, हम लोग वहाँ चलकर सोते है। मेरा इतना कहना था कि सतेंद्र और उसके अन्य दोस्त एक साथ बोल पड़े, ना भाई ना, हम लोग यहीं पर लकडिया जलाकर रातभर आग सेक लेंगे, लेकिन वहाँ नहीं सोयेंगे।

मेरे काफी मनाने पर भी जब वे लोग नहीं माने तो मैंने कहा, ठीक है तुम मरो, मैं तो जा रहा हूँ, आराम से सोने के लिए । कमरे की चावी मेरे ही पास थी, अतः मैंने सत्येन्द्र से एक लालटेन माँगी और चल पड़ा सोने के लिए। कमरे में पहुच मैंने लालटेन एक कोने पर रखी, कमरे के किवाड़ बंद किये और वहाँ खड़ी रखी चारपाई को सीधा कर उसपर एक चद्दर बिछा लेट गया। अभी मुश्किल से पंद्रह मिनट ही हुए होंगे कि बाहर दरवाजे पर दस्तक हुई । लालटेन की धीमी रोशनी कमरे में थी, मैं उठा और हौले से दरवाजा खोला, मगर बाहर कोई नहीं था । मैं समझ गया कि ये जरूर सत्येन्द्र के दोस्तों की मुझे डराने की शरारत होगी। मैंने फिर किवाड़ बाद किये और वापस विस्तर पर आ गया। करीब पांच मिनट बाद फिर दस्तक हुई, मैंने लेटे- लेटे पूछा, कौन है ? मगर कोई जबाब नहीं मिला था, मैं उठा नहीं, लेटा रहा । थोड़ी देर बाद फिर दरवाजा बजा, मैंने थोडा गुस्से में कहा, अबे कौन है, क्यों परेशान कर रहा है, सामने क्यों नहीं आता? मगर बाहर से कोई उत्तर नहीं आया। थोड़ी ही देर और हुई थी कि मैंने महसूश किया कि कमरे के उस कच्चे फर्श पर कोई चल रहा है और उसके चलने से फर्श की लकडी आवाज कर रही है। मैंने गौर से उस आवाज पर अपने कान लगाए तो मुझे लगा कि सिर्फ दो बार लकडी पर ठक-ठक की पैरो की आज आ रही थी, मैं चारपाई से उठा और पैर फर्श पर टिकाते हुए बैठ गया। फिर मैंने भी दो बार पैर की एडी फर्श पर ठोकी तो तुंरत उसी अंदाज में दो बार फिर फर्श से उठने वाली वह ठक-ठक की आवाज मुझे सुनाई दी । मैंने एक बार फिर पैर के तलवे को जमीन पर चार बार ठोका तो जबाब में फिर से चार बार ठक-ठक की आवाज आयी । मेरे दिमाग में अचानक एक बात सूझी कि कहीं कोई बगल वाले कमरे से तो यह ठक-ठक की आवाज नहीं निकाल रहा ? अतः मैंने दरवाजा खोला एक बार बाहर इधर-उधर देखा और फिर बगल वाले कमरे के दरवाजे पर कान लगाए तो अन्दर से वहा सोये लोग गहरी नीद में थे, और उनके नाक से खर्राटे भरने की आवाजे आ रही थी । कुछ पल चुपचाप मैं वहा दरवाजे पर कान लगाए खडा रहा, लेकिन कोई सुराग नहीं मिला, वापस अपने कमरे में लौटने के लिए मुड़ा तो एक पल के लिए मेरी रीढ़ की हड्डी में यह देखकर सिहरन सी दौड़ गयी कि कुछ ही दूरी पर स्थित तालाब के पास एक लम्बी आकृति खड़ी थी और उसके अगल-बगल एक रोशनी का घेरा सा बना था, मानो उस पर कोई टॉर्च की रोशनी फ़ेंक रहा हो। कुछ देर तक मैंने उस आकृति को देखा और फिर आखे मली, पुनः जब उस और नजर डाली तो आकृति गायब थी । मैं जल्दी से कमरे में घुसा और किवाड़ एक बार फिर बंद किये, कमरे में लालटेन की मंद-मंद रोशनी थी । किवांड पर सांकल (कुंडा) लगाने के बाद मैं चारपाई की तरफ मुड़ा तो क्या देखता था कि चारपाई पर बिछा चद्दर अपने आप खिसककर नीचे आ गिरा था । मैं अब काफी सहम सा गया था, मैंने धीरे से झुककर चद्दर उठाई और उसे पुनः चारपाई पर फैला दिया और ज्यों ही मैं फिर से लेटने को हुआ कि एक जोर का घूंसा मेरे चेहरे पर पडा, और मेरे आँखों के आगे तारे टिमटिमाने लगे । मैं अब बुरी तरह सकपका गया था। एक बारी सोचा कि नीचे वापस सत्येन्द्र और दोस्तों के पास चला जाऊ, मगर फिर दिमाग में आया कि वापस जाकर उनसे क्या कहूँगाऔर वे लोग मेरा मजाक उडाएंगे कि बड़ा निडर बना फिरता था । अब तक मुझे भी किसी अदृश्य शक्ति का अहसास हो चुका था, मेरे दिमाग में फिर एक बात आई कि हो न हो उस अदृश्य शक्ति का इस चारपाई से कोई नाता हो, और वह नहीं चाहता कि मैं इस चारपाई पर लेटू, जभी तो उसने वह चद्दर नीचे गिराई और मेरे दुबारा बिछाने पर मेरे एक घूँसा जड़ दिया । अतः मैंने चारपाई में से चद्दर उठाई और उसे नीचे बिछा वहां बैठ गया।

रात के दो बज चुके थे, मैंने जागकर दो और घंटे बिताने का निश्चय किया, वैसे भी अब नींद तो आने से रही थी । चार बजे मैं लालटेन उठा नीचे सत्येन्द्र के घर चला गया और उन्हें यह कहकर उठाने लगा कि पांच बजे से फेरे स्टार्ट है, अतः खड़े उठो चाय-वाय का इंतजाम करते है । सत्येन्द्र और उसके दोस्तों ने सवाल किया कि तू सोया नहीं क्या? मैंने कहा, दो-तीन घंटे सो गया था, अभी उठकर आ गया ताकि तुम लोगो को जगा सकू । मैंने उन्हें उस घटना के बारे में न बताने का फैसला कर लिया था । उन्होंने फिर पूछा कोई दिक्कत तो नहीं हुई वहा? मैंने कहा, अरे दिक्कत कैसी? अकेले कमरे में आराम से सोया । वे सभी लोग मेरा मुह ताक रहे थे ।

फिर अगले दिन बारात बिदा हुई, उसके दो दिन और हम वहाँ रुके । इन दो दिनों में मैं सत्येन्द्र के घर ही सोया था, क्योकि ज्यादातर मेहमान उसी दिन चले गए थे । लेकिन मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि कोई साया लगातार मेरा पीछा कर रहा है । दो दिन बाद हम सुबह वापस दिल्ली के लिए चल पड़े सत्येन्द्र को किसी काम से दो दिन चंडीगढ़ रुकना था, अतः उसने मुझे भी एक दिन चंडीगढ़ ही रुकने को कहा । जब घर से चले तो मैंने उसे कहा, तू आराम से पीछे भाभीजी के साथ बैठ, गपशप लगा, चंडीगढ़ तक ड्राइव मैं करता हूँ । नेशनल हाइवे पर पहुँचने के बाद मैंने गाडी की स्पीड बढा दी । सत्येन्द्र पीछे की सीट पर अपनी बीबी के साथ गपो में मग्न था जबकि मैं नोट कर रहा था कि आगे की मेरी बगल वाली सीट जो कि खाली पडी थी, वह कई बार आगे पीछे हुई थी, मानो कोई सीट ऐडजस्टमेंट कर रहा हो। एक जगह पर कुछ सेकंड के लिए गाडी रोकनी पडी और मैंने गियर न्यूट्रल में छोड़ दिया कि तभी गाडी धक् से आगे झटका मारकर रुक गयी । मैंने देखा कि खड़े खड़े गाडी का गियर एक पर पहुच गया था। मैंने गियर न्यूट्रल में लाकर पुनः गाडी स्टार्ट की और चल पडा, लेकिन अब मैं ज्यादा सतर्क हो गया था, मुझे अन्दर से एक डर सताने लगा था कि हो न हो, यह अनजान चीज कही पर गाडी का स्टेरिंग घुमा कर हमें किसी नाले में पंहुचा दे, या फिर किसी ट्रक से भिडा दे ।

भगवान् का शुक्र था, कि हम लोग ठीक-ठाक चंडीगढ़ पहुच गए थे । एक होटल में हमने दो कमरे लिए और रात का भोजन कर थके होने की वजह से जल्दी सो गए। कमरे में एयर कन्डीशन चल रहा था, इसलिए मैंने चद्दर ओढ़ ली थी । अभी मुश्किल से एक घंटा ही सो पाया हूँगा कि अचानक किसी ने मेरे ऊपर ओढी हुई चद्दर को जैसे एक तरफ को खींचा। मैं कमरे की बत्ती बंद करके सोया था क्योकि आदतन उजाले में मैं ठीक से सो नहीं पाता । कमरे में घुप अँधेरा होने के वावजूद सामने दीवार कर सटे ड्रेसिंग टेबल के शीशे में मेरी शक्ल एकदम साफ़ नज़र आ रही थी, आर्श्चयचकित नजरो से अपना चेहरा शीशे में निहारने के बाद मैंने लाईट जलाई तो कुछ भी असमान्य नहीं था। थोड़ी देर तक सोच में बैठे रहने के बाद, मैंने लाईट खुली छोड़कर एक बार फिर चद्दर ओढ़ ली और लेट गया कि तभी अचानक हाई वोल्यूम पर कमरे में मौजूद टीवी चल पडा। मैं हैरान था, क्योंकि मैंने कमरे में घुसने के बाद टीवी को छुआ तक नहीं था। अब मैं बुरी तरह डर गया था, मैंने दरवाजा खोला और सत्येन्द्र के कमरे के आगे पहुच बेल बजाई । मुझे बदहवास स्थिति में देख सत्येन्द्र ने पूछा कि क्या हुआ । मैंने कहा, क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ । सत्येन्द्र की पत्नी भी उठकर बाहर आ गयी थी और उसने भी मुझे पूछते हुए कहा क्या हुआ भाईसाब ? मैंने कहा कि मैंने तुम लोगो से यह घटना छुपाये रखी मगर...., मैंने उन्हें सारी घटना के बारे में बताया । सत्येन्द्र भी सुनकर हैरान था और उसने मुझे लगभग गाली देते हुए कहा कि तूने उस भूत के बारे में बुरा भला कहा, इसीलिए वह तुझसे नाराज है। सुबह वापस चलकर हमें किसी ओझा के पास जाना होगा। इसीलिये कहता था बेटा कि ज्यादा स्मार्ट मत बनो, गुड रूल ऑफ़ थम्ब, अ हैप्पी स्पिरिट इज अ गुड स्पिरिट ( चाणक्य नीति यह है कि एक खुश आत्मा ही अच्छी आत्मा होती है। )

-गोदियाल

Monday, April 27, 2009

निशानदेह सपना !

सावन अपने प्रचन्ड पर था, और उस साल देश के उत्तरी भागों मे सामान्य से कहीं अधिक बारिश हो रही थी । आज की तरह, तब संचार के बहुत अधिक साधन उप्लब्ध न थे, खासकर उत्तरांचल के पहाडो मे । मै अपने को अन्य गांव वालो से इसलिय अधिक भाग्यशाली समझता था, क्योंकि अपने घर मे तब एक तीन बैन्ड का रेडियो होता था, जिसका कि उस जमाने मे हर साल, पास के पोस्ट आफिस मे सालाना लाइसेन्स फ़ीस जमा करवानी पड्ती थी । रेडियो पर रोज सुबह-शाम समाचारों मे यह जानकारी मिलती रहती थी कि बारिश के कारण आयी बाढ ने कहां क्या तवाही मचाई है । बात सन १९७८-७९ की है । मै तब गांव के पास के ही एक उच्चत्तर माध्यमिक स्कूल मे दसवीं का छात्र था ।

उस रात बादलों की गडगडाहट और बिजली की कड्कन रह-रहकर दिल को यह अह्सास दिला जाती थी कि यहां सब कुछ भगवान भरोसे है, और अगली सुबह का सूरज देख भी पायेगें या नही । रुक-रुक कर पहाडी चट्टानों के टूटकर गिरने की आवाजे दिल को दहला देती थी । एक-एक पल मानो जैसे भारी पड रहा था और मै अपने दादाजी-दादीजी संग एक कमरे मे बैठा, पिताजी की उसी साल सीएसडी कैन्टीन से खरीदकर मुझे दी गयी एचएमटी की घडी को लालटेन के समीप ले जाकर, हर दस-पन्द्रह मिनट बाद समय देखता था।

आखिरकार आसमान मे सब कुछ शान्त हो गया था, एक काली-लम्बी रात के बाद भोर हो गयी थी । मगर सब कुछ पहले जैंसा नही था । आज हमारे घर के आगे के पंया के बडे दरख्त पर भयावह रात के सहमे पक्षियों का कोई शोरगुल नही था । बाहर आकर अपने चारों ओर नजर दौडाई तो पास की सभी पहाडियां जगह-जगह से धंसी पडी थी । कुछ देर बाद स्कूल की घन्टी सुनाई दी तो मैने भी सब कुछ भुलाकर कमरे मे बिखरी अपनी कापी-किताबों को बस्ते मे समेट्ना शुरु किया और कुछ देर बाद स्कूल जा पहुचा । लेकिन स्कूल मे भी सब कुछ सामान्य न था, स्कूल की टिन-चद्दर की छत आधे हिस्से से गायब थी । स्कूल की तीसरी घन्टी बजने पर रोज की तरह सुबह की प्रार्थना के लिये स्कूल प्रागण मे लाईन मे खडे हुए तो हेड-मास्टर साहब ने घोषणा की कि आज न तो प्रेयर होगी और न स्कूल मे पढाई । छठी से आठवीं तक के विद्यार्थी घर जा सकते है , लेकिन नवीं और दसवीं के छात्रो को अध्यापकों के साथ बगल के गांव मे श्रमदान के लिये जाना है जहां रात को बारिश और जमीन धसने से गांव मे भारी तवाही मची है ।

वहां पहुचने पर हमने देखा कि मामला काफ़ी गम्भीर और मंजर भयावह था । गांव के दो मकानों का मलवा तो ऊपर से भुस्खंलन के कारण आये मलवे के साथ नीचे की छोटी पहाडी नदी के किनारे जाकर ठहरा था। जिसमे से एक लाश की सिर्फ़ दोनो टांगे ऊपर की ओर खडी थी और बाकी शरीर मलवे के नीचे दबा पडा था । आस-पास के छोटे-छोटे गांवो से धीरे-धीरे चन्द लोग इकठ्ठा होने लगे थे । फिर हम सभी लोग वहां उपलब्ध औजारो की मदद से जोर-शोर से मलवा हटाने और लाशों तथा घायलो की तलाश मे जुट गये । सरकारी मदद के भरोषे रहते तो चार दिन इन्तजार करना पडता ।

अगले दिन दोपहर तक सारा मलवा खोद्कर हम पांच लाशे निकाल चुके थे । लेकिन गांव के जीवित बचे लोगो के हिसाब से गुमशुदा लोगो की सूची मे कुल आठ लोग थे, पांच लोगो की लाशें तो मिल चुकी थी, मगर बाकी के जिन तीन लोगो का अभी भी कोई अता-पता नही था,वह था लाल सिंह का परिवार, उसकी पत्नी और दो बच्चे । लालसिंह फ़ौज मे कार्यरत थे और उस समय मेघालय मे पोस्टेड थे । उन्हे भी इस दुर्घट्ना के बारे मे टेलीग्राम भेजकर सूचित कर दिया गया था । अब उस घट्ना को चार दिन बीत चुके थे, आकाशबाणी पर इस दैवीय विपदा का समाचार प्रसारित होने के बाद नजदीकी कस्बे से एस एस बी के जवानों की एक टुकडी भी अब मदद के लिये पहुच चुकी थी । लेकिन कोई खास फायदा नही हुआ । लोग कयास लगाने लगे थे कि हो न हो लाल सिंह का परिवार मलवे के साथ आई बरसात के पानी की तेज धार मे बहकर आगे उस छोटी पहाडी नदी मे बह गया हो । अत: इस आशंका के चलते हम दो तीन बच्चे, गांव के दो लोग और दो एस एस बी के जवान नदी के किनारे-किनारे उन्हे ढूढते हुए करीब दो कीलोमीटर नीचे तक चले गये थे कि तभी नदी के किनारे-किनारे पग्डन्डी पर लाल सिंह आता देखाई दिया । वह नजदीकी कस्बे से पैदल ही आ रहा था, क्योंकि भारी बारिश और भूस्खंलन की वजह से एक मात्र मोटर रोड जगह-जगह टूट गयी थी । एकदम समीप आने पर लाल सिंह अपने उन दो गांव वालो के पास टूट कर रह गया और फूट-फूट कर रोने लगा । हम तीनो बच्चे नम आंखो से वह तमाशा देख रहे थे और वो गांव के सयाने लोग तथा एस एस बी के जवान, लाल सिंह को समझाने और दिलाशा देने की कोशिश कर रहे थे ।

कुछ देर तक यह सब चलता रहा, उसके बाद लाल सिंह ने पूछा कि आप लोग कहां जा रहे हो ? तो उन दो गांव वालो ने सारी वस्तुस्थिति उसे समझाई । एक बार पुन: थोडी देर तक रोने के बाद लाल सिंह ने कहा, यहां आप लोगो को कुछ नही मिलेगा, वो लोग ऊपर ही दबे पडे है, मुझे मालूम है वे लोग कहां पर है, वापस चलो । हम लोग बिना कुछ बोले एक बारी सभी लाल सिंह का मुहं ताकने लगे और उसके साथ-साथ वापस गांव की तरफ़ लौट पडे । गांव पहुंच, एक बार फिर काफ़ी देर तक गांव की औरतों का और लाल सिंह का रोना-धोना चलता रहा था और फिर लाल सिहं ने उन एस एस बी के पांच-सात जवानो को एक ऐसी जगह पर से सावधानी से मिट्टी-मलवा हटाने को कहा, जहां पर कि इस भीषण भूस्खंलन के बाद कोई भी सहज अन्दाजा नही लगा सकता था कि इस छोटे से मलवे के ढेर के नीचे तीन जिन्दगियां चिर-निन्द्रा मे सोई पडी होंगी । एस एस बी के जवान फावडे की मदद से धीरे-धीरे मलवा हटा रहे थे, और वहां मौजूद सभी लोग सांस रोके तमाशा देख रहे थे ।

कुछ ही मिनटो मे मिट्टी के नीचे दबे इन्सानी जिस्मों के हिस्से बाहर झांकने लगे थे । लाल सिंह रोये जा रहा था, और गांव के बडे-बुजुर्ग उसे ढाढस बंधा रहे थे । पन्द्रह साल का मै और मेरे कुछ हमउम्र साथियों की मन:स्थिति बडी अजीबोगरीब थी । जहां एक ओर इतने दिनो बाद उन अभागे मृतकों के मिलने की एक अजीब सी खुशी हो रही थी, वहीं मन मे एक अपराध बोध हो रहा था कि उस बेचारे का सब कुछ लुट गया और तू लाशे मिलने पर खुश हो रहा है । हम लोग कभी लाल सिंह के मुह पर देखते थे तो कभी उन लाशो पर । एस एस बी के जवानो ने अब तक सारा मलवा हटा लिया था। वह अभागी मां ( लालसिंह की पत्नी) अपनी दोनो कोहनियों के तले अपनी सात साल की बेटी और दस साल के बेटे को दबाये हुई थी । सारा माहौल एक बार पुन: गमगीन हो गया था । दूसरी तरफ़ एक कौतुहल हमारे नन्हे दिमाग मे भूचाल पैदा किये जा रहा था कि हम लोग तो मृतकों को ढूढ्ने के लिये पिछ्ले चार दिन से भूखे-प्यासे, रात दिन एक किये थे और आखिर लाल सिहं को कैसे मालूम पडा और वह कैसे इतने इत्मिनान से कह रहा था कि ये लोग, यहां इस खास जगह पर दबे पडे है ?

हम बच्चो से जब रहा नही गया तो हम लाल सिंह के पास जा पहुचे । वैसे तो ऐसे मौको पर गांव के बडे-बूढे लोग, बच्चो को ड्पटकर भगा देते थे किन्तु पिछले चार दिनो से वे देख रहे थे कि ये बच्चे कितनी मेह्नत और लगन से इस काम मे जुटे रहे, इसलिये किसी ने हमे कुछ नही कहा । हमने थोडी देर चुपचाप खडे रहकर लाल सिंह को निहारा और फिर एक साथ पूछ बैठे, चाचा, आपको कैसे पता था कि ये लोग यहां….. ! लालसिंह सुबकते हुए बोला, कल रात को यहां आते वक्त, थोडी देर के लिये रेल के डिब्बे मे मेरी आंख लग गयी थी । वो( उसकी पत्नी) मेरे सपने मे आई थी और उसने कहा कि जल्दी गांव पहुचो, वो लोग हमे ढूंढ्ते हुए काफ़ी परेशान है ,जबकी हम तीनो मावत, ऊपर जहां पर हमारा घर था, उसी के बगल मे दबे पडे है, मै बच्चो को निकालने की कोशिश कर रही थी किन्तु निकाल न पायी । लालसिंह फिर जोर-जोर से रोने लगा था और हम सभी बच्चे, आश्चर्यचकित मुद्रा मे एक दूसरे के मुंह ताक रहे थे ।
-गोदियाल

Wednesday, April 22, 2009

तू सच क्यों बोलता है ?

छल-कपट है जिस जग में,
अंहकार भरा है रग-रग में,
उस जगत के हर पहलू को 
एक ही मापक्रम क्यों तोलता है ?
झूठ-फरेब की दुनिया में 'परचेत',
 तू सच क्यों बोलता है ?

पग-पग  हैं मिथ्या धोखे,
बंद पड़ चुके सत्य झरोखे,
हर इंसान को फिर भला तू
एक ही भाव क्यों मोलता है ?
झूठ-फरेब की दुनिया में 'परचेत',
 तू सच क्यों बोलता है ?

निष्कलंक बन गई है दीनता,
चहु दिश फैली मूल्यहीनता,
धूमिल पड़े इस दर्पण में तू
सच्चाई क्यों टटोलता है ?
झूठ-फरेब की दुनिया में 'परचेत',
 तू सच क्यों बोलता है ?

सब जी रहे यहाँ भरम में,
तजकर विश्रंभ धरम-करम में,
इस कलयुग में कटु सत्य को 
सरे-आम क्यों बोलता है ?
झूठ-फरेब की दुनिया में 'परचेत',
 तू सच क्यों बोलता है ?

सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...