Monday, September 27, 2010

अद्भुत खेल !

इधर जोर-शोर से
तैयारियां चल रही थी 
फाइनल टचिंग की,

सरकारी स्तर पर
और उधर, 
खेल गाँव में
सांप जी लेटे हुए थे,
एक अफ्रीकी ऐथेलीट के बिस्तर पर।

अफ्रीकी ऐथेलीट
उसे देखकर बोला,
ये तो भैया मेरे साथ
सरासर रंग-भेद है,
मुझे भी लगता है
कि अबके इस
कॉमन वेल्थ के खेल में कोई बड़ा छेद है।

तभी रूम अटेंडेंट 

दौड़ा-दौड़ा 
उसके पास जाकर बोला,
नहीं भैया जी,  अबके अद्भुत
ये खेल निराले है,
पांच साल में 

सत्तर हजार करोड़ खर्च कर ,
हमने सांप और संपेरे ही तो पाले है। 

Saturday, September 25, 2010

नकारात्मक सोच !

नकारात्मक ख़बरों के लिए कुछ बिके हुए भारतीय मीडिया की तो मैं नहीं जानता, मगर मुझे भी मेरे कुछ दोस्त यह सलाह देते है कि मैं बहुत ज्यादा नकारात्मक लिखता हूँ। मैं उनकी बात को सिरे से नकारता भी नहीं, क्योंकि मैं कोई सतयुगी साधू-महात्मा नहीं ( कलयुगी तो ज्यादातर चंद्रास्वामी के भक्त है ) । मगर मेरा एक मासूम सा सवाल हमेशा रहता है कि वैसे तो मेरा भी मन सकारात्मक लिखने का करता है मगर जब आपके आसपास सभी कुछ नकारात्मक हो तो आप सकारात्मक सोचने की उम्मीद कैसे कर सकते है, जब तक कि अगला अपनी क्रियाशैली न बदल ले ?( यानि खुद भी नकारात्मक करके सकारात्मक बनने का ढोंग रचें )

समयाभाव के कारण बहुत लंबा नहीं लिखूंगा, मगर एक वाकये से अपनी इस नाकारात्मकपन का जस्टिफिकेशन देना चाहूँगा।
मैं मूलत: उत्तराखंड से हूँ , स्वाभाविक है कि मेरे बहुत से करीबी उत्तराखंड में है, जिनसे मेरी रोज बात होती रहती है। दुनिया जानती है कि इसबार मानसून ने उत्तराखंड में क्या कहर बरपाया है। मगर हम दिल्लीवासी नहीं जानते, क्योंकि हम तो कॉमनवेल्थ गेम की तैयारियों में लगे है, उन गेम की जिसने पहले ही देश के माथे पर एक बड़ा कलंक लगा रख छोड़ा है। मैं जानता हूँ कि हमारे देश के ज्यादातर नेता तो इस कदर बेशर्म है कि उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, क्योंकि उन्हें तो सिर्फ पैसा कमाना है। कॉमन वेल्थ नहीं तो ड्रेनेज सिस्टम ही सही, कमा लेंगे, लेकिन मुझे अफ़सोस इस बात का है कि हमारे ज्यादातर हिन्दुस्तानी इनसे बेहतर नहीं।

पचास रूपये कप चाय, यह मत सोचिये कि उत्तराखंडी मौके का नाजायज फ़ायदा उठा रहे है । तीर्थयात्रियों से एक कप चाय की कीमत में, वे कम से कम हम दिल्लीवासियों से बेहतर ईमान के लोग है। लेकिन उनकी मजबूरी है कि वे ऊँची नीची पहाडी पगडंडियों पर कई किलोमीटर पैदल चलकर उन यात्रियों के चाय का इन्तेजाम कर रहे है। साथ ही उन्हें ११० रूपये कीलो आलू और १३० रूपये कीलों प्याज खरीदना पड़ रहा है , क्योंकि पिछले १० दिनों से सभी सड़क मार्गों के टूट जाने से माल की सप्लाई ठप्प है । और यह पता कहाँ हो रहा है? उस मुख्य सड़क पर जिसको मेनटेन करने का जिम्मा केंद्र द्वारा संचालित उस सीमा सड़क संघठन के जिम्मे है जो अपनी लाख कोशिशों के बावजूद भी सड़क नहीं खोल पाया क्योंकि वह भी कल-पुरजो की कमी से जूझ रहा है। क्योंकि देश के ७०००० करोड़ रूपये तो आपकी सरकार ने दिल्ली में लगा दिए । हजारों यात्री भूखे प्यासे पिछले १० दिनों से उत्तराँचल की ठण्ड में सड़कों पर रात गुजार रहे है। हमारे प्रधानमंत्री जी, जब देश की नाक़ कट चुकी, देशी और अन्तराष्ट्रीय मीडिया की वजह से तब जाकर चेत रहे है, आज तक क्या सोये थे ? देश के हर नागरिक ने टैक्स देकर इन्हें यह आयोजन करने की जिम्मेदारी सौंपी थी, अब अगर ये ठीक से नहीं अपनी जिम्मेदारी निभा पाए तो क्या प्रधानमंत्री की इसमें कोई जिम्मेदारी नहीं बनती, जो अब जाके वे खुद को भला मानुस साबित करना चाहते है ? और आप मुझे कहते है कि सकारात्मक सोच रखो ???????????
इन लिंकों पर जरूर एक नजर डालियेगा;
हम क्या सोचकर सकारात्मक सोच रखे ?देशवासियों ने अपने धन का हिस्सा इस आयोजन के लिए टैक्स के तौर पर दिया, दिल्लीवासियों ने पिछले पांच साल से मुसीबतें उठाई, उसके बाद भी आज देश की जो थू -थू हो रही है उसका जिम्मा कौन लेगा ? सी एन एन की साईट पर जो कुछ लोगो के रिमार्क कॉमन वेल्थ के सिलसिले में है उनमे से एक यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ ;

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aTrollsTroll what idiots decided to have the games in this dumpster of a country? 8 minutes ago | Like | Report abuse
svvansong Games will go on..throwing in two million children to clean up the village and venues, will also depute few thousands on clapping and trying kill dengue carriers. Should be done in next couple of days and please don't worry about the security..after creating much hype regarding security and safety t... more
Games will go on..throwing in two million children to clean up the village and venues, will also depute few thousands on clapping and trying kill dengue carriers. Should be done in next couple of days and please don't worry about the security..after creating much hype regarding security and safety threats, it was decided to put additional security through one of Kalmadai's friend's security firm. Bright side is that there wont be any complaints since no one is expecting anything now.
Can't do much about the falling buildings though (shouldn’t really complaint since these are built by 7-10 years old kids) but if someone gets hurt, we'll blame it on Pakistan. Can't care less about countries and athletes pulling out..we’ll win all the medals ourselves.
less
24 minutes ago | Like (1) | Report abuse

Friday, September 24, 2010

अपेक्षा !

मुझे
न जाने

कभी-कभी

 ऐसा  क्यों 

लगता है कि

 अब तो बस इस

भरतखंड का तभी

असल विकास होगा,

 जब बड़ी-बड़ी मछलियों

और मगरमच्छों की बस्ती,

नई दिल्ली-१ से उफनते हुए

     कभी जमुना जी का निकास होगा।

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कोसी की कसम !
यमुना जी, आप सुन रही हैं न ?

Thursday, September 23, 2010

शर्म के मायने !

भगवान् का शुक्रिया अदा कीजिये कि "कॉमन वेल्थ" के नाम पर आज सुबह से अभी तक भ्रष्टों द्वारा बिछाई गई देश के करदाता के खून पसीने की रकम का कोई हिस्सा सरसरी तौर पर टूटकर या ढहकर बेकार नहीं गया। वो कह रहे है कि गेम्स विलेज (खेल गाँव ) खिलाडियों के रहने लायक जगह नही है। सडकों पर इंद्रदेव के कोपभाजन की वजह से बड़े-बड़े गड्डे पड़े है।नाक के नीचे का एक नया बना फूटओवर ब्रिज टूट्कर गिर गया है। नेहरु स्टेडियम मे जहां आज से 09 दिन बाद खेलो का उद्धघाटन होना है, फाल्स सीलिंग गिर गई है। खिलाड़ियों के लिए बिछाये बिस्तरों पर कुत्ते आराम फरमा रहे है। सड़कों पर पिछले पांच सालों से खेलों के नाम पर किये जा रहे निर्माण की वजह से पहले से पके बैठे एक आम दिल्लीवासी का चलना दुभर हो गया है। सुरक्षा के नाम पर आतंकवादी खुले सांड की तरह घूम रहे है। विदेशी चैनल वाले विस्फोटक लेकर या यहाँ खरीदकर स्टिंग ओपरेशन कर रहे है और तब जाकर कोई एक-दो नहीं पूरे १० बैरिकेड खेलगांव के गेट के आसपास लगा दिए गए है। जिनपर सुबह से शाम तथा शाम से रातभर तक खड़े-खड़े पहरा दे रहे पुलिस वाले दिन भर बारिश में भीगकर बीमार पड़ रहे है, क्योंकि देश के कुल ७०००० करोड़ रूपये की ऐसी-तैसी करने वालों के पास अंत में इतने भी पैसे नहीं बचे कि इन सुरक्षाकर्मियों के लिए कोई बूथ वहाँ पर बना सके, ताकि बारिश और मच्छरों से वे अपना बचाव कर पायें।

खेलों के नाम पर देश की साख को वैसें तो बट्टा बहुत पहले ही लग चुका है, इस देश के करोडों करदाताओं के पैसे को पहले ही गटर मे डाल दिया गया है, लेकिन हमारे इसी समाज मे पनपित कुछ बेशर्म अभी भी यह मानने को कदापि तैयार नही कि यह देश के लिये एक शर्म की बात है। जबकि मेरा यह मानना है कि यदि कुछ बाते अगर इन्सान की औकात से बाहर की हो तो उस केस मे अपनी असमर्थता जता देना ही सबसे बेहतर बुद्धिमानी कही जाती है। मेजवान अगर समझदार हो तो वह मेहमान से यह कहने मे तनिक भी नही हिचकिचाता कि हे अतिथि ! मेरे कमजोर नेतृत्व की वजह से परिस्थियां ऐसी बन गई है कि आपका आवाभगत मैं पूरे सत्कार के साथ कर पाने मे असमर्थ हू, और मेरी कमियों की वजह से बहुत से जयचन्द इस देश मे पल-बढ गये है, जिनकी वजह से यह कुव्यवस्था फैली है, और जिनपर मेरा कोई नियन्त्रण नही।

कभी-कभार इंसान जब तक किसी अनुभव से खुद नहीं गुजरता उसे किसी बात का अहसास नहीं हो पाता, लेकिन जब उसे यह अहसास होता है बहुत देर हो चुकी होती है। मैं कल-परसों टूर पर था और वापसी में मेरे मोबाइल की बैटरी ख़त्म हो गई थी क्योंकि मैं अपने सैमसंग फोन का चार्जर ले जाना भूल गया था। अब तलाश शुरू हुई पब्लिक फोन की, आपको आश्चर्य होगा यह जानकार कि विश्व प्रतियोगिता की दावेदारी करने वाले इस देश के एयरपोर्ट पर एक भी पब्लिक फोन बूथ नहीं है, जहाँ से इन परिस्थितियों में कोई यात्री अपने ड्राइवर या फिर घरवालों से बात कर सके। और आजकल कोई दूसरा व्यक्ति भी किसी अनजाने व्यक्ति को इन परिस्थितियों में एक फोन करने के लिए अपना फोन नहीं देता ।

यह खबर आने पर कि अमेरिका का मुल्यांकन है कि भारत, अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की तीसरी बड़ी शक्ति बन गया है, कुछ विभूतियों द्वारा इन तथाकथित कुछ बेशर्मों के साथ मिलकर जश्न मनाया जाता है। यूँ तो वह कौन सा नीच इन्सान होगा जो यह न चाहे कि उसके देश का नाम दुनियांभर मे ऊपर हो, दुनियां की गिनी-चुनी हस्तियों मे शुमार हो जाये उसके देश की हस्ती भी। लेकिन कडवी सच्चाइयों को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। अमेरिका की इस घोषणा को कि भारत दुनिया की तीसरी महाशक्ति बन गया है, हमें इन अमेरिकियों द्वारा हमारा उपहास उड़ाने जैसी बात के तौर पर लेना चाहिए। Where every section is taken care of, where every penny every action can be accounted for and justice dispensed as early as possible is called superpower.

कडवी सच्चाई यह है कि एक खास धर्म के प्रचारक अपनी कुटिल अपेक्षाओं के तहत एक सोची समझी रणनीति के जरिये वह सब हासिल करने मे जुटे है, जो वह आजादी के बाद पचास सालों मे नही कर पाए थे। कारण साफ़ है कि इस देश की सत्ता के वर्तमान समीकरण उनके अपने छिपे एजेंडे के लिए सबसे अनुकूल है और अब उन्हें इस बात का डर सताने लगा है कि कौमनवेल्थ का खेल बिगड़ने की वजह से कहीं उनकी अनुकूल सरकार को अगर जनता सत्ता से बाहर फेंक देती है तो इनका बना बनाया खेल बिगड जायेगा । इसलिये इस आशंका पर भी विचार किया जाना आवश्यक है कि पश्चिम की एक ताकतवर लौबी ने यहाँ के मतदातावों को फूक में चढ़ाकर काबू मे रखने का यह नया शिगूफा छोडा हो, ताकि इन्हे लगे कि देश मे सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है, और देश वास्तव मे प्रगति कर रहा है। जरा इस कौमन वेल्थ की थू-थू का समय और अमेरिका की इस घोषणा के समय पर गौर फरमाए! अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर यह आयोजन ठीक-ठाक निपट भी गया तो क्या हम उस अन्तराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को हासिल कर पायेंगे, जो हम भ्रष्ठाचार की घटनाओं और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के प्रचार/ दुष्प्रचार की वजह से गवां चुके ?

Saturday, September 18, 2010

उलझन !





लगातार
बरसती ही जा रही
सावन की घटाएं हैं ,
बिखरी पड़ी 

प्राकृतिक सौम्य छटाएं हैं ।
नतीजन 

जीवन की हार्ड-डिस्क मे
कहीं नमी आ गई है,
ख़्वाबों की प्रोग्रामिंग सारी
भृकुटियाँ तन रहीं हैं,
हसरतों की टेम्पररी फाइलें भी
बहुत बन रही है।
समझ नही आ रहा कि रखू,
या फिर डिलीट कर दू,
'फ़ोर्मैटिंग' भी तो कम्वख्त इतनी आसां नही !

ख्वाइश !



मैंने कब ये चाहा 
कि मैं भी
बहुत बड़ा 'रिच' होता,
मेरी तो बस, 
इतनी सी ख्वाइश थी
ऐ जिन्दगी,
कि तुझमे भी एक
ऑन-ऑफ का स्विच होता,
जिसे मैं मन माफिक
जब 'जी' में आता,
जलाता और बुझाता।  

Friday, September 17, 2010

शिकायत ऊपरवाले से

हे ऊपरवाले  !
इस दुनिया में,
स्वार्थीजन आपको
खूब अलंकारते है,
भगवान्,ईश्वर, अल्लाह, रब, खुदा
गॉड और न जाने 

किन-किन नामों से पुकारते है।  

निःसंदेह आप खेवनहार हो,
इस दुनिया के पालनहार हो,
खूब लुटाते हो अपने भक्तों पर,
आपकी कृपा हो तो घोड़े-गधे भी 

बैठ जाते है ताजो-तख्तों पर।  

मगर एक बात जो
मुझे अखरती है , माय बाप !
सिर्फ मेरी ही बारी
क्यों कंजूस बन जाते हैं आप ?

मुझे बताओ, ऐ ऊपर वाले !
मुझमे ही सारे गुण तुमने
पाइरेटेड क्यों डाले?
अरे, कम से कम 

लेबल तो निकाल देते,
कुछ नहीं था, तो यार, 

एंटी-वायरस तो ओरिजिनल डाल देते। 

Wednesday, September 15, 2010

इमेज !

यह आज मेल से मिला था, हिन्दी रूपांतरण मनोरंजनार्थ पेश है ;

यूपी से बिहार के राष्ट्रीय राजमार्ग पर लगे तगड़े जाम में एक ड्राइवर फंसा हुआ था । आधा घंटा गुजरा, एक घंटा गुजर गया, लेकिन ट्रैफिक था कि हिलने का नाम ही नहीं ले रहा था। फिर अचानक कुछ लोग आये और उसकी गाडी की खिड़की पर ठक-ठक किया ।
उस ड्राइवर ने अपनी गाडी की खिड़की का शीशा उतारा और पूछा- क्या चल रहा है भाई, ये ऐसा जाम क्यों लग गया ?
वे बोले कि देश के कुछ विख्यात नेतागण सड़क मार्ग से पटना जा रहे थे, तो कुछ नक्सलियों ने उनका अपहरण कर दिया है।
और अब वे नक्सली इनको छोड़ने का प्रति नेता १० लाख रूपये मांग रहे है, और साथ ही धमकी भी दे रहे है कि अगर तुरंत पैसों का इंतजाम नहीं किया तो वे उनके ऊपर पेट्रोल डालकर आग लगा देंगे। इसलिए हम यहाँ एक-एक गाडी वाले के पास जा रहे है ताकि कुछ कलेक्शन कर सके।
अच्छा ये बतावो कि औसतन कितना दे रहे है लोग ? ड्राइवर ने उत्सुकता से पूछा।

ज्यादातर लोग तकरीबन पांच लीटर तो दे ही रहे है !!!!!!!

Friday, September 10, 2010

कुत्ते से करिये मालिक की पहचान !


दिये गये शीर्षक पर कुछ लिखने से पहले एक छोटी सी भंडास निकालना चाहुंगा. आप घबराइये नही, यह भंडास अथवा बद्दुआ मैं उन निर्लज बेशर्मो पर निकाल रहा हूं जिन्होने आम दिल्ली वालों का जीना पिछले एक दशक से दुभर कर रखा है, विकास के नाम पर। कभी फ़्लाईओवर के नाम पर, कभी सडक चौडीकरण के नाम पर, कभी जल निकासी के नाम पर और कभी कौमनवेल्थ के नाम पर। आजकल तो हालात ये हैं कि सुबह से शाम तक की बारह घंटे की दिनचर्या मे चार घंटे तो सिर्फ़ सड्कों पर ही गुजारने पड रहे है, कौमनवेल्थ की रिहर्सल के नाम पर पर लगने वाले जाम की वजह से । देश की तीस हजार करोड की कौमन वेल्थ को तो इस देश के ये कुछ भस्मासुर चट कर गये और ऊपर से धमकी आम जन को कि अगर फ़लां-फ़लां लेन मे घुसे तो.........समझ मे नही आता है कि ये लोकतंत्र है या फिर नादिरशाही ? इन चंद भस्मासुरों ने बिके हुए मीडिया संग मिलकर क्या-क्या सब्जबाग नही दिखाये थे इन दिल्ली वालों को, मसलन पांच गेयर तो छोड दीजिये ये तो कह रहे थे कि अगर गाडी मे छ्टा गेयर भी लगा दिया गया तो उस पर भी गाडिया दौडेगी। यमुना के नीचे से ठां से रेल निकलेगी और सीधे स्टेडियम मे ही जाकर रुकेगी......औटो की जगह उडन खटोले होंगे, ब्लु-लाईन की जगह और पता नही क्या-क्या होंगे। दिल्ली स्वर्ग नजर आयेगी ....... बला....बला..... ।

और हकीकत मे हालात ये है कि हर जगह पैबंद लगाये जा रहे है। बिके हुए मीडिया की मदद से ब्लू लाइन बसें तो सड्क से बाहर करवा दी, आर्थिक विकास दर का दिखावा करने के लिये भूखे-नंगो को भी किस्तों पर वाहन दिलवा दिये और चलने के लिए इनके पास सड़के है नहीं। अरबो रुपये देश के स्वाह करने के बाद जमीनी हकीकत ये है कि आधारभूत ढांचे के नाम पर अब बेशर्मी से लोगो को सलाह दे रहे है कि आप इस दौरान निजी वाहनों की वजाये अधिक से अधिक सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करे, उन वाहनों का जो सडकों से नदारद है। इन्हे तो बस यही दुआ दूंगा कि तुमने हमे तो जीते जी चैन से जीने नही दिया, मगर तुम्हे मरकर भी चैन न मिले।




अब मुख्य विषय पर आता हूं। हालाकि विषय बडा मामूली सा है मगर जो लोग कुत्तों मे रूचि रखते है, उनके लिये है मजेदार। जो लोग कुत्ते पालने का शौक रखते है और अपने घरों मे कुत्ते पालते है, वे शायद इस बात को बखूबी समझते है कि कुत्ते के हाव-भाव बहुत कुछ इन्सानी हाव-भावो से मिलते है। अगर आपको किसी इन्सान के स्वभाव के बारे मे पता लगाना है और अगर उसके घर मे पालतू कुत्ता है,तो आप उस कुत्ते के हाव-भावो पर गौर कीजिये, आपको उसके मालिक के स्वभाव के बारे मे सामान्य जानकारी मिल जायेगी. कुछ एक अपवादों को छोड मेरा अध्य्यन यह कह्ता है कि;
-यदि कुत्ता सरीफ़ है तो समझिये कि मालिक भी सरीफ़ है।
-कुत्ता वफ़ादार तो मालिक वफ़ादार।
-यदि कुत्ता आलसी है तो मालिक एक नम्बर का आलसी मिलेगा।
-यदि कुत्ता काटने को दौड्ता है तो भग्वान बचाये ऐसे मालिक से।
-यदि कुत्ता सिर्फ़ भौंकता बहुत ज्यादा हो तो मालिक की वाचालता पर शक नही होना चाहिये।
-यदि कुत्ता मसखरे बाज है तो मालिक भी चंचल स्वभाव का होगा।
-और यदि कुत्ता गम्भीर स्वभाव का दिखे तो आप समझ सकते है मालिक भी गम्भीर स्वभाव का है।
-यदि चेन पर बंधा हो और सडक पर कोई दूसरा कुत्ता नजर आये तो उस पर काटने को उछलता है, मगर जब खुला छूटा हो और उस वक्त दुम दबा कर चल रहा होता है, तो समझिये कि मालिक चार दीवारी के भीतर शेर बनता फिरता है।
-सिर्फ़ जरुरत पर भौंकता है या काटने को दौडता है तो मालिक समझदार किस्म का मिलेगा।
-घर के अन्दर ही गन्दा कर देता है तो मालिक गंदा है, मगर यदि जब तक उसे बाहर न ले जाया जाये, वह घर मे टायलेट तक नही करता तो मानिये कि मालिक सफ़ाई पसन्द है।
-निर्धारित समय पर ही बाहर ले जाने की जिद अथवा मांग करता है तो मालिक अनुशासनप्रिय है।
-यदि खुद कोई फरमाइश नही करता, अथवा किसी अजनवी के गेट पर आने के बावजूद कोई प्रतिक्रिया नही करता तो मालिक लापरवाह है।
-यह भी नोट करे कि किसी खास वक्त पर मालिक के स्वास्थ्य से मिलती जुलती ही कुत्ते के स्वास्थ्य की भी स्थिति रहती है, कुत्ता कब्ज से परेशान है, लैट्रिग नही कर रहा तो समझिये कि मालिक की भी वही स्थिति है।
-कुत्ते की बनावट से मालिक की पसंद का भी पता चलता है. छोटी नस्ल का कुता यानि घर मे छोटे कद की बीबी, छोटा घर, घर मे छोटे आकार का साजो-सामान, छोटी गाडी इत्यादि, जबकि मध्यम आकार और बडे आकार के डिलडौल कुत्ते का मतलब................... ।
और भी बहुत सी विशेषताये है जो काल और परिस्थितियों के अनुकूल भिन्न-भिन्न है. जैसा कि मैने शुरु मे कहा कि इसमे कुछ अपवाद भी हो सकते है और इस विश्लेषण से किसी सज्जन को कोई ठेस पहुचती हो तो अग्रिम क्षमा याचना। अथ श्री कुत्तापुराण :)

अन्त मे आप सभी को गणेशचतुर्थी और ईद की मंगलमय कामनाये !

Tuesday, September 7, 2010

कोई तन्हा न रहे !



घिर आये है बदरा घने, हो रही तेज बारिश भी,
दिल में इक कसक भी है, लब पे सिफारिश भी।  

शाम ये उल्फत भरी है, कहीं कोई तन्हा न रहे,
मायूस न हो किसी की , छोटी सी गुजारिश भी।  

गुजरें न किसी की शामे उदास, 'मयखाने' में,
दिल में जीने की तमन्ना हो, और ख्वाइश भी। 

सिर्फ खफा रहने से जिन्दगी बसर नहीं होती,
अर्जी में इंतिखाब भी रहे और फरमाइश भी।  

मिलता है हर किसी को हिस्से का ही मुकद्दर,
करें क्यों 'परचेत', तकदीर से आजमाइश भी।  

Sunday, September 5, 2010

सरकारी आंकडे भी भरोसेमंद नही रहे !

सरकार ने माना है कि उसके द्वारा पिछले मंगलवार को जारी इस वित्तीय वर्ष के अप्रैल से जून तिमाही के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की ८.८ प्रतिशत की आर्थिक विकास दर से सम्बंधित आंकडो के आंकलन मे गलतियां थी और वह नये सिरे से इनका आंकलन करेगी। यह बात वित्त मन्त्री ने तब मानी जब कुछ वित्तीय समीक्षकों ने इन आंकडो पर यह कह्ते हुए संदेह व्यक्त किया और आलोचना की कि सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का मुल्यांकन बाजार मुल्य पर किया।

बाजार मुल्य पर किये गये इस मुल्यांकन मे वस्तुओ के उत्पादन और सेवाओं की लागत सिर्फ़ ३.६५ प्रतिशत आंकी गई है, जबकि वास्तविक तौर पर यह दस प्रतिशत से भी अधिक है। साथ ही यह भी दर्शाने की कोशिश की गई कि इस दौरान देश मे उत्पादों का उत्पादन और उसकी आपूर्ति तो छक के है, मगर कोई इन उत्पादों को खरीदने वाला ही नही है।

यह बात भी यहां उल्लेखनीय है कि अनेक वित्तीय समीक्षक यह मानते है कि हमारे देश मे सकल घरेलू उत्पाद को मापने का पैमाना अन्तर्राष्ट्रीय मानको से भिन्न है और अगर हम ईमानदारी से अन्तर्राष्ट्रीय मानकों का पालन इसकी गणना मे करें तो हमारी यह विकास दर ४ प्रतिशत से भी नीचे है।


अगर आपने इस बात को नोट किया हो तो आपको याद होगा कि जिस दिन ये आंकडे जारी हुए थे, एक तरफ़ तो दुनियांभर के समाचार माध्यमों ने भारत के इस आर्थिक विकास की खबर को प्रमुखता दी थी, मगर वहीं दूसरी तरफ़ जरा-जरा सी बातों पर ऊपर उछलने वाला हमारा शेयर मार्केट इतनी उत्साही खबर के बावजूद नीचे लुड्का था, जो यह इंगित करता है कि हमारे शेयर बाजारों को इस बात की पहले ही भनक मिल चुकी थी कि सरकारी आंकडे गलत है। जो कि इन सरकारी आंकडो पर फिर एक बार संदेह उत्पन्न करता है। दूसरे नजरिये से देखें तो सरकार का यह कहना उसकी पौलिसी के हिसाब से सही लगता है कि गेहूं की भांति
ही अन्य उत्पादो को भी अगर सडने के लिये गोदामों मे छोड दो मगर जनता के लिये उसे ऊंचे दामों मे ही बेचो तो खरीददार स्वत: ही नही मिलेंगे।

योजना आयोग द्वारा सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञों की समिति ने पिछले साल भारत में गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने वालों की आबादी 37 प्रतिशत बतायी थी। गावों में इनकी संख्या 42 प्रतिशत से अधिक थी। ध्यान रखने की बात है कि यह आकड़ा वर्ष 2004-05 का है और तेंदुलकर समिति ने उसी वर्ष की तस्वीर इन आंकडो मे पेश की थी। जबकि ग्रामीण विकास मंत्रालय के हाल के आंकडो पर नजर डालें तो गावों की 50 प्रतिशत से ज्यादा आबादी को गरीबी रेखा के नीचे माना जाना चाहिए। साफ है कि २००४ मे एनडीए के सत्ता से हट्ने और युपीए के सत्ता मे आने के बाद देश मे आम आदमी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बद्त्तर हुई है। दूसरे शब्दों मे युपीए के सत्ता मे आने के बाद सुरुआती सालों मे आर्थिक विकास की जो फसल युपीए ने काटी है वह भी एनडीए की ही बोई हुई थी, अन्यथा तो इन सालों मे बदहाली के अलावा देश मे कुछ भी हासिल नही हुआ।

जरा महंगाई के आईने में गरीबी
रेखा के नीचे जीवन जीने वालों की स्थिति का आकलन करिए। जो महंगाई दर एक जमाने मे ३ से ४ प्रतिशत के आस पास झूलती थी वह एक लम्बे अर्से से १० प्रतिशत के नीचे उतरने का नाम ही नही ले रही है। वैसे तो महंगाई का सरकारी आकड़ा स्वयं में एक उपहास का विषय रहा है, किंतु यदि इसी आकड़े की तुलना उस दौर से करें तो इसमे तिगुनी बढ़ोतरी हुई है।

अधिक आयवर्ग के कुछ लोग इस गलतफहमी मे कतई न रहे कि सिर्फ़ उनके द्वारा दिये गये आयकर से ही यह देश चलता है, इस देश के नेता लोग कौमनवेल्थ की बन्दर बांट करते है। पिछले दो दशको की सरकार ने अपने कुटिल राजनैतिक होश्यारी दिखाकर इस देश के हर नागरिक से टैक्स वसूल कर अपनी झोली भरने के नायाब तरीके ढूढ निकाले है। एक गरीब मजदूर जो दिन भर मेहनत करके शाम को १०० मजदूरी पाता है उसमे से दस रुपये परोक्ष कर सरकार की झोली मे भरता है क्योकि इस मजदूरी की रकम से उसने अपनी जरुरत की जो भी आवश्यक वस्तु खरीदनी है, उस पर उसे टैक्स देना पडता है।


कितनी अजीब बात है कि सिर्फ़ लुभावने आंकडे पेश कर दुनिया भर मे अपने आर्थिक विकास और समृद्धि का डंका पीटकर वाहवाही लूटने वाली हमारी ये सरकारे जमीनी हकीकतो को इस तरह नजरअन्दाज करने मे जरा भी शर्म मह्सूस नही करती है। जबकि देश मे मोन्टेक सिहं आह्लुवालिया, रंगराजन, सुब्बाराव मनमोहन सिह और कई बडे-बडे अर्थशस्त्री मौजूद है। सरकार मे बैठे ये लोग यह नही सोचते कि इनकी जरा सी लापरवाही से अथवा जानबूझकर ऐसे हथकंडे अपनाकर ताकि ये अपनी नाकामयाबियों पर पर्दा डालकर लोगो की आंखो मे धूल झोंक सके, खुद की और देश की साख को बट्टा लगता है।
पता नही हममें ऐसी प्रशंसा की आत्ममुग्धता से बचकर नंगी हकीकत को स्वीकार करने की नैतिकता कब आयेगी।

Friday, September 3, 2010

एक लघुतम कथा- मरियल सर्वेसर्वा !

एक देश था, दृढ़, प्रबल, उपायकुशल, साधन संपन्न, सक्षम, साहसी, पराक्रमी, वैश्विक स्तर पर आर्थिक, सैन्य, कूटनीतिक,सांस्कृतिक एवं बौद्धिक , सर्वशक्तिमान के ये जितने पर्याय है, उन सब से परिपूर्ण था वह देश !मगर उस देश का एक दुर्भाग्य यह भी था कि उसने अपने अन्दर गद्दार और कायर निकम्मे भी प्रचुर मात्रा में पाल रखे थे ! वहाँ के कुशल इंजीनियरों और वैज्ञानिकों ने उन्नत किस्म के दिव्यास्त्र, आग्नेयास्त्र दुश्मन के दांत खट्टे करने के लिए बना रखे थे ! देश ने उन अस्त्र-शस्त्रों को चलाने का बटन देश के सर्वेसर्वा के हाथों में दिया हुआ था, और चूँकि सर्वेसर्वा मरियल सा था इसलिए उसे इतनी भर जिम्मेदारी दी गई थी कि वह मौक़ा पड़ने पर सिर्फ बटन दबा दे !



इतना सबकुछ होते हुए भी विडम्बना देखिये कि जरुरत पड़ने पर वह देश अपनी ताकत का इस्तेमाल नहीं कर पाया, क्योंकि उसके लोगो ने अपने आयुद्ध भंडारों का जो रिमोट बटन उस मरियल से सर्वेसर्वा को पकड़ा रखा था, ऐन-वक्त पर वह उसे इस्तेमाल नहीं कर सका ! वजह यह थी कि वह सर्वेसर्वा खुद भी रिमोट से ही चलता था, एवं जिसके पास उसे चलाने का रिमोट बटन था, वह कहीं छिपकर यह सब देख आनंदित हो रहा था ! पूर्व में उस देश के भ्रष्ट नेतावों और आदिवासी जंगली प्रजातियों के मिलन से पैदा हुई एक नई नस्लवादी आदमखोर प्रजाति ने वर्तमान में उस देश में आतंक मचा रखा था! देशवासी असहाय बनकर देखते रहे और एक-एक कर उनका ग्रास बनते चले गए और अंत में वो आदमखोर, एक खूंखार राक्षस की भांति एक दिन पूरे देश को खा गए !

इतिश्री !

Thursday, September 2, 2010

बेचारे पाकिस्तानी गधे !








आपने यह खबर तो अब तक सुन/ पढ़ ही ली होगी कि पाकिस्तानी खिलाडियों पर लगे स्पाट फिक्सिंग के आरोपों से नाराज पाकिस्तानियों ने सोमवार को लाहौर में गधों का जुलूस निकाला और जूते , चप्पल और सडे हुए टमाटरों से उनकी धुनाई कर अपने गुस्से का इजहार किया। प्रदर्शनकारियों ने आरोपियों के नाम पर गधों के गले में जूतों की माला भी पहनाई।प्रदर्शनकारियों ने हर गधे के सिर पर कागज चिपकाकर अपने उन सभी महान क्रिकेट खिलाडियों और अधिकारियों का नाम लिखा था, जो हाल में फिक्सिंग के दोषी है । एक प्रदर्शनकारी ने कहा कि इन खिलाडियों ने देश का सिर नीचा किया है। हम बाढ और आतंकवाद के कारण पहले ही इतनी मुसीबतें झेल रहे हैं और इन खिलाडियों ने हमारी खुशी का मौका भी छीन लिया। कुछ लोगों ने एक गधे के गले में बल्ला तक फँसाकर यह दर्शाने की कोशिश की कि हमारे क्रिकेटर आज किस हाल में पहुँच गए हैं।

आपको बता दूं कि विभाजन के बाद से ही पाकिस्तान में इन गधों को सेक्युलर श्रेणी में रखा गया है, जबकि पाकिस्तान अपने आप को एक पाक-साफ धार्मिक देश मानता है। विभाजन के समय वहाँ इनके जीवित बचने की एक प्रमुख वजह यह मानी गई थी कि जब भी किसी उपद्रवी मुल्ले ने इनसे पूछा कि हे गधों ! तुम बताओ कि तुम हिन्दू हो या फिर मुसलमान? तो ज्यादातर गधों ने बड़ी मासूमियत से यह जबाब दिया था कि मिंयाँ हम ना तो हिन्दू है और न मुसलमान, हम तो सिर्फ गधे है । बस, वहाँ के उपद्रवी मुल्लों को गधों की यह बात भा गई और उन्होंने उन्हें अपना गुलाम बना लिया। तभी से इन गधों ने भी समय-समय पर पाकिस्तान के प्रति अपनी कर्तव्यनिष्ठा का बखूबी पालन किया है और न सिर्फ दैवीय आपदाओं के वक्त बल्कि हर मौसम में इन पाकिस्तानियों की हाँ में हाँ मिलाई है । अभी हाल में आई बाढ़ में गधों ने भी अपने अनेक प्रियजन खोये, उसके बावजूद ये गधे जी-जान से बाढ़ पीड़ितों तक सहायता सामग्री ले जाने, उन्हें सुरक्षित जगहों पर पहुचाने का काम अपनी जान को जोखिम में डाल कर कर रहे है।

उनको थोड़ी राहत तब मिली थी , जब जानवरों की सहायता करने वाली ब्रिटेन की एक संस्था ब्रुक ने पाकिस्तान में बाढ़ से प्रभावित घोड़ों और गधों के लिए एक आपातकालीन सेवा शुरू की थी। इस संस्था का अनुमान है कि हाल की बाढ़ से करीब ७५००० घोड़े-गधे प्रभावित हुए है। बाढ़ के कारण वहाँ आज स्थिति यह है कि खेतों और घाटों के पानी में डूबने की वजह से किसानो और धोबियों ने इन्हें लावारिस छोड़ दिया है। जिसके कारण उन्हें हरी घास तक नसीब नहीं हो रही। खूंटे से बंधे होने के बावाजूद उन्हें ससम्मान चारा नहीं मिल रहा। जनसेवा का उचित फल नहीं मिलने और खुद को निम्न कोटि का करार दिए जाने पर वहां के गधे अपने को काफी लाचार और अपमानित महसूस कर रहे है।

उधर सुनने में आया है कि पाकिस्तानियों के इस अप्रत्याशित अभद्र व्यवहार से वहाँ के गधे सकते में है और साथ ही वे काफी नाराज और भड़के हुए भी है। "इन अहसान फरामोश भिखमंगों ने हमें कभी भी चैन से नहीं रहने दिया" यह कहते हुए अनेकों गधे सड़कों पर उतर आये है। कुछ गधों को वहा के भीड़-भाड़ वाले बाजार में तरह-तरह की बातें करते और अपने क्रोध का इजहार करते हुए पाया गया है।कुछ गधे बैनर भी लिए हुए थे जिस पर लिखा था ;
मैच देखने, खेलने के बहाने जाकर,
खुद तो बाड़े के सुख सहते हो,
मैच फिक्सिंग खुद करते हो,
उसपर गधा हमें कहते हो !
जिस दिन अपनी पर आयेंगे,
ढेंचू-ढेंचू चिल्लायेंगे !
दुलत्ती इतनी खाओगे,
कि गधा कहना ही भूल जाओगे !!
एक अत्यंत क्रोधित गधा तो यहाँ तक कह रहा था कि आने दो इन स्स्सा..... कप्तान सलमान बट्‍ट, मोहम्मद आसिफ और मोहम्मद आमिर को वापिस पाकिस्तान, इनको तो मैं सबक सिखा कर ही दम लूंगा। ये लोग उलाहना तो हमारी जाति के मुहावरों से देते है कि गधे जैसी हरकते मत करो मगर खुद के व्यवहार पर तनिक भी गौर नहीं फरमाते।

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।