सरकार ने माना है कि उसके द्वारा पिछले मंगलवार को जारी इस वित्तीय वर्ष के अप्रैल से जून तिमाही के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की ८.८ प्रतिशत की आर्थिक विकास दर से सम्बंधित आंकडो के आंकलन मे गलतियां थी और वह नये सिरे से इनका आंकलन करेगी। यह बात वित्त मन्त्री ने तब मानी जब कुछ वित्तीय समीक्षकों ने इन आंकडो पर यह कह्ते हुए संदेह व्यक्त किया और आलोचना की कि सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का मुल्यांकन बाजार मुल्य पर किया।
बाजार मुल्य पर किये गये इस मुल्यांकन मे वस्तुओ के उत्पादन और सेवाओं की लागत सिर्फ़ ३.६५ प्रतिशत आंकी गई है, जबकि वास्तविक तौर पर यह दस प्रतिशत से भी अधिक है। साथ ही यह भी दर्शाने की कोशिश की गई कि इस दौरान देश मे उत्पादों का उत्पादन और उसकी आपूर्ति तो छक के है, मगर कोई इन उत्पादों को खरीदने वाला ही नही है।
यह बात भी यहां उल्लेखनीय है कि अनेक वित्तीय समीक्षक यह मानते है कि हमारे देश मे सकल घरेलू उत्पाद को मापने का पैमाना अन्तर्राष्ट्रीय मानको से भिन्न है और अगर हम ईमानदारी से अन्तर्राष्ट्रीय मानकों का पालन इसकी गणना मे करें तो हमारी यह विकास दर ४ प्रतिशत से भी नीचे है।
अगर आपने इस बात को नोट किया हो तो आपको याद होगा कि जिस दिन ये आंकडे जारी हुए थे, एक तरफ़ तो दुनियांभर के समाचार माध्यमों ने भारत के इस आर्थिक विकास की खबर को प्रमुखता दी थी, मगर वहीं दूसरी तरफ़ जरा-जरा सी बातों पर ऊपर उछलने वाला हमारा शेयर मार्केट इतनी उत्साही खबर के बावजूद नीचे लुड्का था, जो यह इंगित करता है कि हमारे शेयर बाजारों को इस बात की पहले ही भनक मिल चुकी थी कि सरकारी आंकडे गलत है। जो कि इन सरकारी आंकडो पर फिर एक बार संदेह उत्पन्न करता है। दूसरे नजरिये से देखें तो सरकार का यह कहना उसकी पौलिसी के हिसाब से सही लगता है कि गेहूं की भांति ही अन्य उत्पादो को भी अगर सडने के लिये गोदामों मे छोड दो मगर जनता के लिये उसे ऊंचे दामों मे ही बेचो तो खरीददार स्वत: ही नही मिलेंगे।
योजना आयोग द्वारा सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञों की समिति ने पिछले साल भारत में गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने वालों की आबादी 37 प्रतिशत बतायी थी। गावों में इनकी संख्या 42 प्रतिशत से अधिक थी। ध्यान रखने की बात है कि यह आकड़ा वर्ष 2004-05 का है और तेंदुलकर समिति ने उसी वर्ष की तस्वीर इन आंकडो मे पेश की थी। जबकि ग्रामीण विकास मंत्रालय के हाल के आंकडो पर नजर डालें तो गावों की 50 प्रतिशत से ज्यादा आबादी को गरीबी रेखा के नीचे माना जाना चाहिए। साफ है कि २००४ मे एनडीए के सत्ता से हट्ने और युपीए के सत्ता मे आने के बाद देश मे आम आदमी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बद्त्तर हुई है। दूसरे शब्दों मे युपीए के सत्ता मे आने के बाद सुरुआती सालों मे आर्थिक विकास की जो फसल युपीए ने काटी है वह भी एनडीए की ही बोई हुई थी, अन्यथा तो इन सालों मे बदहाली के अलावा देश मे कुछ भी हासिल नही हुआ।
जरा महंगाई के आईने में गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने वालों की स्थिति का आकलन करिए। जो महंगाई दर एक जमाने मे ३ से ४ प्रतिशत के आस पास झूलती थी वह एक लम्बे अर्से से १० प्रतिशत के नीचे उतरने का नाम ही नही ले रही है। वैसे तो महंगाई का सरकारी आकड़ा स्वयं में एक उपहास का विषय रहा है, किंतु यदि इसी आकड़े की तुलना उस दौर से करें तो इसमे तिगुनी बढ़ोतरी हुई है।
अधिक आयवर्ग के कुछ लोग इस गलतफहमी मे कतई न रहे कि सिर्फ़ उनके द्वारा दिये गये आयकर से ही यह देश चलता है, इस देश के नेता लोग कौमनवेल्थ की बन्दर बांट करते है। पिछले दो दशको की सरकार ने अपने कुटिल राजनैतिक होश्यारी दिखाकर इस देश के हर नागरिक से टैक्स वसूल कर अपनी झोली भरने के नायाब तरीके ढूढ निकाले है। एक गरीब मजदूर जो दिन भर मेहनत करके शाम को १०० मजदूरी पाता है उसमे से दस रुपये परोक्ष कर सरकार की झोली मे भरता है क्योकि इस मजदूरी की रकम से उसने अपनी जरुरत की जो भी आवश्यक वस्तु खरीदनी है, उस पर उसे टैक्स देना पडता है।
कितनी अजीब बात है कि सिर्फ़ लुभावने आंकडे पेश कर दुनिया भर मे अपने आर्थिक विकास और समृद्धि का डंका पीटकर वाहवाही लूटने वाली हमारी ये सरकारे जमीनी हकीकतो को इस तरह नजरअन्दाज करने मे जरा भी शर्म मह्सूस नही करती है। जबकि देश मे मोन्टेक सिहं आह्लुवालिया, रंगराजन, सुब्बाराव मनमोहन सिह और कई बडे-बडे अर्थशस्त्री मौजूद है। सरकार मे बैठे ये लोग यह नही सोचते कि इनकी जरा सी लापरवाही से अथवा जानबूझकर ऐसे हथकंडे अपनाकर ताकि ये अपनी नाकामयाबियों पर पर्दा डालकर लोगो की आंखो मे धूल झोंक सके, खुद की और देश की साख को बट्टा लगता है।
पता नही हममें ऐसी प्रशंसा की आत्ममुग्धता से बचकर नंगी हकीकत को स्वीकार करने की नैतिकता कब आयेगी।
बाजार मुल्य पर किये गये इस मुल्यांकन मे वस्तुओ के उत्पादन और सेवाओं की लागत सिर्फ़ ३.६५ प्रतिशत आंकी गई है, जबकि वास्तविक तौर पर यह दस प्रतिशत से भी अधिक है। साथ ही यह भी दर्शाने की कोशिश की गई कि इस दौरान देश मे उत्पादों का उत्पादन और उसकी आपूर्ति तो छक के है, मगर कोई इन उत्पादों को खरीदने वाला ही नही है।
यह बात भी यहां उल्लेखनीय है कि अनेक वित्तीय समीक्षक यह मानते है कि हमारे देश मे सकल घरेलू उत्पाद को मापने का पैमाना अन्तर्राष्ट्रीय मानको से भिन्न है और अगर हम ईमानदारी से अन्तर्राष्ट्रीय मानकों का पालन इसकी गणना मे करें तो हमारी यह विकास दर ४ प्रतिशत से भी नीचे है।
अगर आपने इस बात को नोट किया हो तो आपको याद होगा कि जिस दिन ये आंकडे जारी हुए थे, एक तरफ़ तो दुनियांभर के समाचार माध्यमों ने भारत के इस आर्थिक विकास की खबर को प्रमुखता दी थी, मगर वहीं दूसरी तरफ़ जरा-जरा सी बातों पर ऊपर उछलने वाला हमारा शेयर मार्केट इतनी उत्साही खबर के बावजूद नीचे लुड्का था, जो यह इंगित करता है कि हमारे शेयर बाजारों को इस बात की पहले ही भनक मिल चुकी थी कि सरकारी आंकडे गलत है। जो कि इन सरकारी आंकडो पर फिर एक बार संदेह उत्पन्न करता है। दूसरे नजरिये से देखें तो सरकार का यह कहना उसकी पौलिसी के हिसाब से सही लगता है कि गेहूं की भांति ही अन्य उत्पादो को भी अगर सडने के लिये गोदामों मे छोड दो मगर जनता के लिये उसे ऊंचे दामों मे ही बेचो तो खरीददार स्वत: ही नही मिलेंगे।
योजना आयोग द्वारा सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञों की समिति ने पिछले साल भारत में गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने वालों की आबादी 37 प्रतिशत बतायी थी। गावों में इनकी संख्या 42 प्रतिशत से अधिक थी। ध्यान रखने की बात है कि यह आकड़ा वर्ष 2004-05 का है और तेंदुलकर समिति ने उसी वर्ष की तस्वीर इन आंकडो मे पेश की थी। जबकि ग्रामीण विकास मंत्रालय के हाल के आंकडो पर नजर डालें तो गावों की 50 प्रतिशत से ज्यादा आबादी को गरीबी रेखा के नीचे माना जाना चाहिए। साफ है कि २००४ मे एनडीए के सत्ता से हट्ने और युपीए के सत्ता मे आने के बाद देश मे आम आदमी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बद्त्तर हुई है। दूसरे शब्दों मे युपीए के सत्ता मे आने के बाद सुरुआती सालों मे आर्थिक विकास की जो फसल युपीए ने काटी है वह भी एनडीए की ही बोई हुई थी, अन्यथा तो इन सालों मे बदहाली के अलावा देश मे कुछ भी हासिल नही हुआ।
जरा महंगाई के आईने में गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने वालों की स्थिति का आकलन करिए। जो महंगाई दर एक जमाने मे ३ से ४ प्रतिशत के आस पास झूलती थी वह एक लम्बे अर्से से १० प्रतिशत के नीचे उतरने का नाम ही नही ले रही है। वैसे तो महंगाई का सरकारी आकड़ा स्वयं में एक उपहास का विषय रहा है, किंतु यदि इसी आकड़े की तुलना उस दौर से करें तो इसमे तिगुनी बढ़ोतरी हुई है।
अधिक आयवर्ग के कुछ लोग इस गलतफहमी मे कतई न रहे कि सिर्फ़ उनके द्वारा दिये गये आयकर से ही यह देश चलता है, इस देश के नेता लोग कौमनवेल्थ की बन्दर बांट करते है। पिछले दो दशको की सरकार ने अपने कुटिल राजनैतिक होश्यारी दिखाकर इस देश के हर नागरिक से टैक्स वसूल कर अपनी झोली भरने के नायाब तरीके ढूढ निकाले है। एक गरीब मजदूर जो दिन भर मेहनत करके शाम को १०० मजदूरी पाता है उसमे से दस रुपये परोक्ष कर सरकार की झोली मे भरता है क्योकि इस मजदूरी की रकम से उसने अपनी जरुरत की जो भी आवश्यक वस्तु खरीदनी है, उस पर उसे टैक्स देना पडता है।
कितनी अजीब बात है कि सिर्फ़ लुभावने आंकडे पेश कर दुनिया भर मे अपने आर्थिक विकास और समृद्धि का डंका पीटकर वाहवाही लूटने वाली हमारी ये सरकारे जमीनी हकीकतो को इस तरह नजरअन्दाज करने मे जरा भी शर्म मह्सूस नही करती है। जबकि देश मे मोन्टेक सिहं आह्लुवालिया, रंगराजन, सुब्बाराव मनमोहन सिह और कई बडे-बडे अर्थशस्त्री मौजूद है। सरकार मे बैठे ये लोग यह नही सोचते कि इनकी जरा सी लापरवाही से अथवा जानबूझकर ऐसे हथकंडे अपनाकर ताकि ये अपनी नाकामयाबियों पर पर्दा डालकर लोगो की आंखो मे धूल झोंक सके, खुद की और देश की साख को बट्टा लगता है।
पता नही हममें ऐसी प्रशंसा की आत्ममुग्धता से बचकर नंगी हकीकत को स्वीकार करने की नैतिकता कब आयेगी।
सहमत हूँ . सरकारी आंकड़ें कपोल कल्पना पर आधारित होते हैं ... इसमे कोई शक नहीं है ... डाटा हेर फेर कर तैयार किये जाते हैं ...
ReplyDeleteबाकी जो कुछ बचा तो जोड़ाई मार गयी -गणित की गलती ,शून्य के आविष्कारक के देश में !
ReplyDeleteबाजार कैसा भी हो। गरीब को मिलने वाली रोटी में अर्थव्यवस्था की सार्थकता है।
ReplyDeleteदेर आयद, दुरुस्त आयद!
ReplyDelete--
सरकारी आँकड़े कभी भरोसेमंद नही होते!
जी सहमत हूँ "सरकारी आँकड़े कभी भरोसेमंद नही होते!"
ReplyDeletegondial saahab aajtak to aapko ek engineer..writer. poet our caartunist ke rup me jaante the...aap to economist bhi hain...bahut badhiya post..
ReplyDeleteजागरूक करती पोस्ट ...सब कागजी हेरा - फेरी है
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख जो सरकारी आकडे क़े खोखलेपन को उजागर करती है
ReplyDeleteधन्यवाद.
अब ग़लती मानने से भी क्या फ़र्क पड़ता है ... लोग तो ये ही समझते हैं विकास हो रहा है ... ये सरकार बहुत चालाकी से जनता को पागल बना सकती है ... कॉंग्रेस को महारत हाँसिल है इस काम में ...
ReplyDeleteSTATISTICS IS LIES, DAMN LIES...:)
ReplyDeleteआपको इस तरह सार्वजनिक रूप से हमारी (ताऊ सरकार) पोल नही खोलनी चाहिये.:)
ReplyDeleteरामराम
सरकारी आँकड़े कभी भरोसेमंद नही होते!
ReplyDeleteसहमत हूँ ........