Friday, August 8, 2025

साम्यवादी कीड़ा !


लगे है दिल्ली दानव सी,

उन्हें जन्नत लगे कराची है,

तवायफ बनकर लेखनी जिनकी,

भरे दरवारों में नाची है।


हैं साहित्य मनीषी या फिर 

वो अपने हित के आदी हैं,

चमचे हैं राज घरानों के जो

निरा वैचारिक उन्मादी हैं।


अभी सिर्फ एक दशक में ही 

जिनको, मुल्क लगा दंगाई है,

देश के अन्दर अभी के उनको

विद्वेष, नफ़रत दी दिखलाई है।


पहली बार दिखी है ताईद,

मानों पहली बार बबाल हुए,

पहली बार पिटा है मोमिन 

ये पहली बार सवाल हुए।


चाचा से मनमोहन तक मानो

वतन में शांति अनूठी थी,

अब जाकर ही खुली हैं इनकी 

अबतक आंखें शायद फूटी थी।


नहीं साध सका भद्र जिस दनुज को

वो बनता खुद सव्यसाची है,

लगे है दिल्ली दानव सी जिनको

उन्हें जन्नत लगे कराची है।



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फटने को तत्पर, प्रकृति के मंजर।

अभी तक मैं इसी मुगालते में जी रहा था सांसों को पिरोकर जिंदगी मे सीं रहा था, जो हो रहा पहाड़ो पर, इंद्रदेव का तांडव है, सुरा को यूं ही सोमरस ...