Wednesday, June 27, 2012

अब जाकर गगन देखो !


शान-ओ-शौकत के लिए, लूटने की इनकी लगन देखो,  
दौलत दिखे जहाँ, झपटते है कैसे,होकर ये नगन देखो। 


करतल लिए जपते हैं माला, नैतिकता एवं आदर्श की, 
सहज हैं चेहरे मगर इनके शठ-दिलों की अगन देखो।     

खुल जाए जो एक बार किस्मत किसी अंगूठा छाप की, 
कुर्सी पे बैठ करता है मक्कार कैसे पटुता से गबन देखो।   

लोकतंत्र को समझ लिया इन्होने, इक पुश्तैनी बपौती,
सिंहासन पे काबिज रहने की पीढ़ी दर पीढ़ी लगन देखो।   

देश के खाली खलीतों से इनकी, और न खिदमत होगी, 
धरा तो लूट खाई है हरामखोरों, अब जाकर गगन देखो।   

खलीते=जेबें 
चित्र  गूगल साभार !

Monday, June 25, 2012

माही और मानसिकता !


आखिरकार वही हुआ जिसका डर था। २० जून, २०१२  की रात करीब ग्यारह बजे दिल्ली के निकट हरियाणा के कासन की ढाणी नामक स्थान पर ७० फीट गहरे बोरवेल में गिरी   माही को २४ जून को सेना, एनएसजी, और पुलिस  के जाबाजों के अथक परिश्रम के बाद बाहर निकाल तो लिया गया, मगर उस रूप में नहीं जिस रूप में  अपने जन्मदिन का केक काट नन्हे मन में फूली समाई,इठलाती हुई  माही घर के बाहर गली में खेलते हुए, किलकारियां मारते हुए  उस मकान मालिक द्वारा बिछाई गई मौत की सुरंग में घुस गई थी, जिसके मकान मे उसके माँ-बाप किराये पर रहते है l 

बोरवेल में फंसी नन्ही जान  की सलामती के लिए हर  करने वालों ने अपना काम किया l  तमाशबीनो ने तमाशा देखा,मौके पर जमा लोगों की नजर उस सुरंग पर जमी रही जिसमे माही गिरी थी l   प्रशासन ने घडियाली आंसू बहाए, दुआ मांगने वालों ने  दुआओं और हवनो का दौर जारी रखा। अन्धविश्वासी लोग शहर से लेकर गांव तक  पूजा-अर्चना कर माही की सकुशल वापसी के लिए प्रार्थना करते रहे। अमूमन मौके का फायदा उठाने वालों ने यहाँ भी कोई चूक नहीं कीl माही की मौत से इस  देश का सुप्त प्रशासन कितना जागता है, यह कहना तो फिलहाल अँधेरे में तीर चलाने जैसा है, मगर नन्ही माही की मौत के बाद,  कुछ दिनों तक  इस देश  के हर शहर गाँव और कस्बे  का हर छोटा-बड़ा गड्ढा और सीवर के खुले मैनहोल यहाँ के निवासियों को मुह-चिढाते से जरूर नजर आयेंगे और फिर जब इस देश के अल्प-स्मृति के लोग सब कुछ भुला बैठेंगे तो ये गड्ढे, मेनहोल और बोरवेल फिर अपने एक नये शिकार की तलाश में जुट जायेंगे।

पिछले करीब सात सालों से, जबसे हमारे इस तेज-तर्रार  मीडिया, जिसे सिर्फ  मैडम और युवराज के विदेशी ठिकानों की जानकारी न होने के अलावा बाकी  धरती, आकाश और पाताल, तीनो लोको के कोनो -कोनो से हर खबर को ढूढ़ लाने की महारत हासिल है, द्वारा इन बोरवेलीय हादसों की विस्तृत लाइव रिपोर्टे प्रस्तुत की जाने लगी है, उसे देखकर इतना अहसास तो होता ही है कि तीन क्या दस-दस गुलामियाँ भी अगर हम हिन्दुस्तानी झेल लें, तब भी हम नहीं सुधर सकते है। बहुत ही नायब किस्म की चमड़ी और बुद्धि के बने इंसान हैं हम, जिस पर चढी लापरवाही और बेशर्मी की अटूट परत मानवीय संवेदनशीलताओं को इंसान के अन्दर घुसने से रोकती है 
         Lindy Chamberlain and baby Azaria pictured shortly 
              before her disappearance in 1980

अभी कुछ हफ़्तों पहले एक आस्ट्रेलियाई साईट पर एक खबर पढ़ रहा था। संक्षेप में खबर यह थी कि आज से करीब ३२ साल पहले १९८० में लिंडी चैम्बरलेन और उसके पति माइकेल अपनी दो माह की बच्ची अजारिया के साथ वहाँ के एक पिकनिक स्पोट 'एर्स  रॉक  ' पर टेंट लगाकर अपनी छुट्टियों का आनंद ले रहे थे कि तभी  कैम्प वाली जगह से अचानक डिंगो ( आस्ट्रेलियाई  जंगली कुत्ता )  ने हमलाकर उस नन्ही जान को उठा ले गया और अपना  ग्रास बना लिया । यह घटना ऐसी थी जिसका कोई चश्मदीद  नहीं था और  इस घटना के बाद जब टीवी पर वह खबर दिखाई गई और अजारिया के माता पिता को दिखाया गया तो सिर्फ इस आधार पर आस्ट्रेलियाई  लोगो का इन पर शक होने लगा कि इन्होने खुद अपनी उस नन्ही जान को मार डाला, क्योंकि टीवी पर साक्षात्कार देते वक्त यह जोड़ा सहज नजर आ रहा था, उनके चेहरों पर वहाँ के नागरिकों को कोई शिकन नजर नहीं आ रही थी। अत: इन पर मुकदमा दायर कर दिया गया। लिंडी को आजीवन कारावास के तौर पर तीन साल जेल में बिताने पड़े। लिंडी रातो को चिल्लाती रही कि ‘A dingo’s got my baby  !’, मगर उसकी किसी ने एक न सुनी  बाद में (१९८६ में )  उस चट्टान की तलहटी में डिंगो के छुपने के स्थान पर से उस बच्ची के कपडे मिले थे, जिसके आधार पर लिंडी को जेल से रिहा कर दिया गया था यह सबूत भी एक रोचक अंदाज में मिले थे जब १९८६ में एक अंग्रेज पर्वतारोही डेविड ब्रेट इस चट्टान पर चढ़ने के प्रयास में फिसलकर गिर मरा और गिरकर जहां पर वह अटका ठीक उसी स्थान पर उसे निकालने गए बचाव दल को नन्ही अजारिया के कपडे मिले थे   आखिरकार गत माह कोर्ट ने उन्हें यह कहकर बरी कर दिया कि  नन्ही अजारिया को डिंगो ही उठाकर ले गया था कोर्ट के फैसले के बाद अब ६३ वर्षीय लिंडी  सिर्फ कोर्ट को थैंक्यू- थैंक्यू  ही बोलती रह गई  विस्तृत खबर आप यहाँ भी देख सकते हैं     

इस वाकिये  को सुनाने का मेरा तात्पर्य यह था कि आस्ट्रेलिया की एक माँ जो निर्दोष होते हुए भी ३२ सालों तक यह दंश झेलती रही वह सिर्फ इसलिए कि उसने अपनी नन्ही बेटी को टेंट में थोड़ी देर के लिए अकेला रख छोड़ा  था और दूसरी तरफ ये भारतीय माता पिता है जो ग्यारह बजे रात भी बच्चे को गली में छोड़ देते है, और फिर हमारे तेज-तर्रार मीडिया के समक्ष बजाये अपनी लापरवाही, अपना दोष कबूल करने के, इस दुखद घटना का सारा दोष व्यवस्था के सिर मढने में ज़रा भी नहीं चूकते
ताकि यह सजा लोगो के लिए एक सबक पेश कर सके, क्या ही अच्छा होता कि क़ानून माही की मौत की जिम्मेदारी माही के माता-पिता पर डालता, क्या ही अच्छा  होता कि जो व्यक्ति उस बोरवेल को खुला छोड़ने के लिए जिम्मेदार है, उसे पकड़कर कुछ समय के लिए उसे उल्टा लटकाकर बचाव के लिए खोदे गए समानांतर गड्डे में डाल दिया जाता ताकि उसे अहसास हो सके कि गड्डे में गिरी माही ने जीते जी क्या कष्ट झेला होगा, जो उसे बचाने उस समानांतर गड्डे में उतरा होगा उसने कितने साहस का परिचय दिया और किस  मानसिक तनाव को झेला होगा।   

जिस तरह से एक पर एक ये घटनाएं घटती रहती है, उससे यह बात तो साफ़ है कि हम भले ही जितने मर्जी बड़े-बड़े दावे कर ले, जहां तक बुनियादी सुरक्षा मानकों को लागू करने का सवाल है, हमारी मानसिकता, हमारी सोच, हमारा सामाजिक और आर्थिक तानाबाना अभी भी तीसरी दुनिया के देशों से बदतर है। यहाँ मानव-जीवन  और मानवीय मूल्यों की कोई कीमत नहीं है लोग अगर इस तरह क़ानून की भावना की उपेक्षा करने पर उतर आयें तो दुनिया की कोई भी सरकार उसे लागू नहीं कर सकती। पश्चिम की दुनिया इसीलिए हमारे से बेहतर है, क्योंकि वे लोग अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी को बखूबी समझते है   


 छवि नेट से साभार !
   

Saturday, June 23, 2012

खलीतों पर भारी पड़ रहा, इन गजराजों को पालना,

स्वयं स्तुति और संतुष्टि पहुँची जब सदयता निभाने, 
इक मर चुके रेपिस्ट की भी जान बख्श दी प्रतिभा ने ! 
जाने जा किधर रहा है, अरुण मधुमय यह देश हमारा,    
कर दिया इसे पराभूत, एक बुझती शिखा की विभा ने !
आमजन का उठ गया है इस व्यवस्था पर से भरोसा,   
शठ-स्तवन शुरू  किया जबसे, कुटिलों की जिब्हा ने ! 
खलीतों पर भारी पड़ रहा,  इन गजराजों को पालना,   
की सैर भी करोड़ों   की 'परचेत', एक अकेली इभा ने



Wednesday, June 20, 2012

भागीरथ के पुरखे तर ही जायेंगे, इसकी क्या गारंटी है ?


कहाँ से शुरू किया जाये, इसी उहापोह में काफी वक्त जाया कर गया सन् अस्सी के दशक की बात है, कॉलेज के दिनों में जब तत्कालीन वितमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी द्वारा पेश केन्द्रीय वार्षिक बजट का भिन्न-भिन्न विशेषज्ञों द्वारा किये गए विश्लेषण को किसी पत्रिका में पढ़ रहा था, और वहाँ लिखी प्रतिक्रिया में व्यक्त की गई चंद बातें, जिसमे कहा गया था कि पूर्वी राज्य और उत्तर के पर्वतीय इलाके जिनकी अपनी तो कोई ख़ास आय है नहीं, के लिए केंद्र को अपनी आय में से खर्च की एक बड़ी मद इनके लिए आरक्षित रखनी पड़ती है, दिल  को भेदती सी निकल गई थी। आहत युवा-मन बस यही सोचता रह गया था कि ऐ काश, हमारा क्षेत्र भी आर्थिक रूप से एक साधन-संपन्न क्षेत्र होता तो शायद वह बात इतनी न अखरती। और फिर तब शुरू होते थे मन के ख्याली पुलाव   काल्पनिक  दुनिया  में गोते     लगाता  युवा-मन सोचता कि अगर  मैं एक वैज्ञानिक किस्म का बलशाली और रसूकदार इंसान होता तो अपने पहाड़ों से निकलने वाली सारी नदियों को बाँध के जरिये वहीं पहाड़ों में ही रोककर, और फिर अत्याधुनिक तकनीकी का इस्तेमाल कर उसको हाइड्रोजन में तब्दील कर अणु-परमाणुओं की तरह  गोलों में इस तरह भरता कि फिर जब जरुरत हो तो उसे पानी में तब्दील करके इस्तेमाल किया जा सके एक गोले में इतने पर्याप्त पानी को हाइड्रोजन में तब्दील करके संग्रहित किया जा सके कि मैदानी भू-भाग के एक किसान के लिए एक ही गोला उसकी सिंचाई जरूरतों के लिए काफी हो और फिर ऋषिकेश में एक बड़ी दूकान खोलकर, किसी धन्ना सेठ की तरह पसरकर बैठता, और उन गोलों को बाकी देश, सरकार और विदेशों को निर्यात करता। उस माल को खरीदने वालों की कतार लगी रहती, माल ऑर्डर पर तैयार किये जाते और फिर उस आय से पूरे उत्तराखंड को मालामाल बना देता। जो सरप्लस स्टाक बचता उसे हवाई मार्ग से सीधे बंगाल की खाड़ी में उतारने की व्यवस्था होती फिर कोई यह कहने की जुर्रत न करता कि राष्ट्रीय आय में इन इलाकों की अपनी कोई ख़ास भागेदारी नहीं है  

खैर, यह तो थी तब की एक आक्रोशित युवा-मन की लम्बी काल्पनिक उडान। मगर यथार्थ में सच्चाई यह है कि अपने इन पहाड़ों में पिछले तीस सालों की मशक्कत के बाद जो चंद बाँध खड़े किये भी गए थे, उनकी भी हवा निकलनी शुरू हो गई है। अफ़सोस इस बात का है कि इन्हें रोकने के तर्क और वजहें वैज्ञानिक आधार पर कम और आस्था के आधार पर अधिक दी  जा रही हैं। हालांकि जहां तक पर्यावरण संरक्षण का सवाल है, मैं भी इस बात का पुरजोर समर्थक हूँ कि जरुरत के मुताविक प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल करते वक्त हमें हर हाल में अपने पर्यावरण को अपने लिए और भविष्य के लिए संरक्षित और सुरक्षित रखना है मगर क्या हकीकत में ऐसा हो रहा है ? क्या इसके प्रति हम और हमारी सरकारें वाकई गंभीर है ? इसे संरक्षित और सुरक्षित रखने का ठेका किसकी कीमत पर? क्या इसके संरक्षण हेतु उठाये जा रहे कदम ईमानदारी से उचित समय पर उठाये गए है और क्या वाकई मानव हित में है ? ये वो कुछ सवाल है जो आज हमारे समक्ष मुंह बाए खड़े है   

मेरे अपने अध्ययन के हिसाब से इन परियोजनाओं का विरोध करने वाले आज दो तरह के लोग मैदान में है। एक वो लोग है जिनमे से अधिकाँश को दुनियादारी से कुछ लेना-देना ही नहीं है। ये लोग हर हाल में गंगा की अविरल धार को बहते देखना चाहते है। मगर ये लोग भूल जाते है कि गंगा की जिस निर्मल-अविरल धार की ये बात कर रहे है, क्या उसे ये सिर्फ पहाड़ों में ही देखना चाहते है ? मैदानी क्षेत्रों में बहती उस गंगा का क्या हश्र है, क्या इन्हें मालूम नहीं ? और जिन पहाड़ों में ये गंगा की निर्मल धार की ये वकालात करते है, उसे सबसे ज्यादा प्रदूषित यही लोग करते है। यात्रा सीजन में खासकर सुबह के वक्त एक-दो नहीं हजारों की तादाद में कतार में इन साधू-महात्माओं को देख लीजिये कि वहीं ये नदी किनारे स्नान कर करे है और वहीं शौच ! क्या तब इन्हें उस गंगा की निर्मलता का ख्याल नहीं आता, जब इनके अपने खुद के पिछवाड़े आग लगती है? 

दूसरे वे संभ्रांत, शिक्षित लोग है, जिनमे से ज्यादातर ने उत्तराखंड देखा ही नहीं। जिन्हें यह नहीं मालूम कि  चुल्हा जलाने के लिए जब घर में माचिस की डिबिया ख़त्म हो जाती है तो एक पहाडी को सिर्फ एक नई माचिस की डिब्बी खरीदने हेतु कई-कई किलोमीटर की पैदल  चढ़ाई-उतार तय करके दूकान तक पहुंचना होता है  इन  बुद्धिजीवियों द्वारा तर्क दिए जाते है कि इससे गंगा के मैदानों में कृषि प्रभावित होगी, इससे गंगा की धार सूख जाएगी, इससे पहाड़ों की प्राकृतिक खूबसूरती को नुकशान पहुंचेगा...  इत्यादि...इत्यादि !   मैं भी यह अच्छी तरह से जानता हूँ कि इससे प्राकृतिक बहाव और प्राकृतिक खूबसूरती पर अवश्य कुछ फर्क पडेगा, किन्तु जिन पहाड़ियों के समक्ष भूख का सवाल खडा हो वे क्या इन बातों की परवाह करेंगे? अक्सर यह भय दिखाया जाता है कि इससे भूकंप आयेंगे और ये बांध टूट जायेंगे, तो उन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सुरक्षित तो परमाणु सयंत्र भी नहीं है और इंसान को आखिरकार बिजली तो चाहिए ही उसके वगैर तो आज गुजारा ही नहीं। वैसे भी ये जल-बिजली सयंत्र प्रकृति की अनदेखी करके नहीं लगाए जाते है। हर परियोजना  सभी पहलुओं जिनमे पर्यावर्णीय पहलू भी शामिल है के उचित अध्धयन के बाद ही मंजूर की जाती है। रही बात गंगा के बहाव में कमी की, तो  यदि हर चीज तरीके से इस्तेमाल की जाए तो नुकशान कम और फायदे ज्यादा है। पहाडी नदियों में पानी के मात्रा सिर्फ नवम्बर से फरवरी-मार्च तक कम रहती है। सरकार अगर यह क़ानून पारित कर दे कि इन चार महीनो  में सिर्फ एक सीमित मात्रा में ही विद्युत उत्पादन होगा और एक निश्चित पानी की मात्रा नदियों में छोडनी ही पड़ेगी तो धारा और बहाव कम होने की बजाये उचित स्तर पर बनाए रखे जा सकते है। इसी तरह बरसात में इन बांधों की झीले मैदानी भागों में आने वाले बाढो को नियंत्रित करेंगी। हाँ, एक ही नदी पर एक निश्चित मात्रा से अधिक बाँध बंनाने पर रोक लगाई  जानी जरूरी है
A view of Srinagar (Garhwal) Dam Project site

अब जो लोग पर्यावरण के नुकशान की बात करते है वे ज़रा इस परियोजना पर नजर डाले; यह है श्रीनगर (गढ़वाल) जलविद्युत परियोजना। इस परियोजना को भी हाल ही में उत्तराखंड में चल रही  अन्य परियोजनाओं की तरह विराम लगा दिया गया। इससे इसमें कार्यरत कंपनियों में काम कर रहे स्थानीय ६५० से अधिक लोग तत्काल बेरोजगार हो गए। बात इतनी सी ही नहीं है, अब तक सिर्फ इसी परियोजना पर अरबों रुपये खर्च हो चुके है, उसका भार किस पर पडा ?  और यदि इसे बीच में ही रोकना था तो शुरू ही क्यों किया गया था ? ऊपर  के चित्र को गौर से देखिये ; (चित्र को बड़ा देखने हेतु कृपया उस पर किल्क करें ) ये जो बीच नदी में कंक्रीट के बड़े- बड़े पिलर खड़े कर दिए गए है, और नदी को सुरंग में डाला गया है।  बरसात में इस नदी में चीड-देवदार के पूरे-पूरे पेड़ बहकर आते है, अन्य जंगली घास-पेड़ों का मालवा भी बहकर आता है, वह  जब यहाँ आकर इकठ्ठा होगा तो क्या होगा किसी ने सोचा ?

सरकार और राजनेताओं के बिना सोचे-समझे लिए गए अविवेकपूर्ण निर्णय आखिरकार इस खस्ताहाल देश पर ही भारी पड़ेंगे, इसकी अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ेंगे  एक तरफ इन्होने इन परियोजनाओं को ठप्प कर दिया और दूसरी तरफ नई परियोजना के लिए चमोली गढ़वाल में भूमि अधिग्रहित करने में जुटे है जिसका स्थानीय जनता पुरजोर विरोध भी कर रही है  इन सत्तासीन लोगों ने तो इनसे अपने स्वार्थों की सिद्धि पहले ही कर ली है, इसलिए इनपर कोई फर्क नहीं पड़ता,  भुगतना तो हर हाल में आम जनता को ही है। बड़े बाँध यदि असुरक्षित थे तो जितना धन उन पर लगाया गया, उतना वहाँ की छोटी बड़ी सेकड़ों नदियों पर छोटे-छोटे बाँध बनाकर छोटी पनविध्युत परियोजनाए और सिंचाई के साधनों में वृदि करके वहा के जीवन स्तर को और तमाम देश के स्तर को सुधारा जा सकता था     रही बात आस्था की तो भैया,  गंगा मैया जब स्वर्ग से निकली थी तो उनका पहला सामना तो शिवजी की जटा रूपी बाँध से ही हो गया था         

Saturday, June 9, 2012

देखिएगा कि अन्ना भी न कन्फ्युजियायें !


" वे ईमानदार आदमी हैं और करप्शन में उनके शामिल होने का 
सीधा सबूत नहीं है। बहरहाल कोई रिमोट कंट्रोल है जो उनके फैसलों को तय 
करता है और इसलिए उन पर संदेह है।"

एक बात मैं  बिना विद्वेष  के कह सकता हूँ  कि इस मौजूदा दौर में देश-व्यापी भ्रष्टाचार के  विरुद्ध  आन्दोलन का जो बिगुल बजा, उसका क्रेडिट  सर्वथा अन्ना  को जाता है और इसमें कोई शक की गुंजाइश भी नहीं होनी चाहिए कि अपनी काली करतूतों को दबाने की जो महारथ हमारे इन भ्रष्ट नेताओं को हासिल है , बेचैनी भले ही तमाम  देश का नागरिक महसूस कर रहा हो , किन्तु अगर  अन्ना  बिगुल न बजाते, त्रस्त लोग  साथ न आते,  राजशाही और नौकरशाही के भ्रष्टाचार भले ही रोज उजागर होते, किन्तु लीपा-पोती के ये कुशल कामगार  पेरिस प्लास्टर की पुट्टी  और उच्च गुणवता वाले पेंट का  वो अद्भुत मिश्रण  इस्तेमाल  करते कि  इनके जीते जी तो क्या, इनकी अगली पुस्तों तक भी  इनकी इस  कारीगरी का रंग फीका नहीं पड़ता 


लेकिन न जाने क्यों कभी-कभार मन का विश्वास डगमगाने लगता है,  और सवाल पूछने लगता है कि क्या सचमुच  अन्ना  इस डूबती नैया को  पार  लगायेंगे ?
मेरी समझ में यह नहीं आता कि  उन्हें  ईमानदार  और अच्छा बताने की जरुरत क्या है? उनकी इस इमानदारी और अच्छाई  से देश को फ़ायदा क्या हुआ ? क्या यह एक तथ्य नहीं है कि  एक शक्तिविहीन अच्छा आदमी  भ्रष्टाचारियों के लिए  एक ढाल बन रहा है ?  इन सज्जन ने अच्छा वक्त कब इंजॉय  किया जो ये कहें कि इस वक्त वे बुरे दौर से गुजर रहे है ? अन्नाजी कहते है कि इन्हें रिमोट कंट्रोल से संचालित किया जा रहा है , क्या इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठे व्यक्ति को रिमोट से संचालित किया जा सकता है ? और यदि सचमुच वे रिमोट से संचालित हो रहे है तो  फिर वह एक अच्छा इंसान कहाँ से हुआ ? मान लें कि उन्होंने कोई मौद्रिक लाभ नहीं लिया, फ़िर भी कुर्सी से तो चिपके है , यह जानते हुए भी कि उनके अधीन लोगो और उनके विश्वासपात्रों ने  इस देश के साथ बहुत बड़ा धोखा किया । उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि क्या लूट चल रही है , फ़िर यदि वे अच्छे इंसान है और देश के हित की सोचते है तो फिर उन लुटेरों का बचाव क्यों किया जाता है उनके द्वारा ? और इसके बावजूद कोई यदि यह तर्क देता है कि  उन्हें इन घोटालों की जानकारी नहीं थी तो  वे तो फिर एक  अयोग्य  व्यक्ति हुए, अच्छे और ईमानदार इंसान कहाँ से हुए? साझा सरकार की मजबूरी बताते है, इसका मतलब क्या बस यही होता है कि साझा धर्म निभाते हुए आप सत्ता में बने रहने के लिए देश का नुकशान करवाओ? देश बड़ा है या फिर आपकी सत्ता ?  

खिन्न  और दुखी मन से यह कहना पड़ रहा है कि अन्ना और टीम अन्ना पहले सोच ले फिर बोलें  तो बेहतर होगा, और जो बोले उसमे एक सुर हो सभी का  ऐसे में  तो करप्ट लोगो की ही मौज़ है, वे तो यही चाहते है कि इनके बीच फूट पड़ जाए,  कोई कुछ बोलेगा, कोई कुछ तो जनता का भी विश्वास उठेगा ।  कुछ चाटुकार मीडिया भी दो नावों में सवार होकर चलता है  एक तरफ यह दिखाना कि  वो भी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे है  और दूसरी तरफ इस जुगत में रहना कि अन्ना या फिर टीम अन्ना कुछ उल्टा-सीधा बोले ताकि लोगो का उनपर से विश्वास उठे और भ्रष्टाचारियों को फायदा पहुंचे । विरोधी लाख ये कहे कि इनका कोई गुप्त एजेंडा है  और ये तो आर एस एस  के लोग है, तो लोगो को तो आर एस एस की तारीफ़ करनी चाहिए कि कम से कम उनके लोग  भ्रष्टाचार के खिलाफ तो बोल रहे है, लड़ रहे है  देश का भला देखना है तो लक्ष्य पर नजर रखिये और गौण चीजों को महत्व न दें । और चलते चलते एक छोटी सी नज्म ; 

वृक्षों की झुरमुटों में, कुछ खौफ के साये नजर आ रहे है,
निकल ही गए जब घर से, अब  ये न पूछो,कहाँ जा रहे है !
दब जायेगी इन  तेवरों की गूँज, या लिखेगी नई इबारत,
देखना है, सज रही फूलों की सेज है, या अर्थी सजा रहे है !  
न अगर  राजा ही बेईमान है, न कोई दरवारी ही भ्रष्ट ,
देश-प्रजा से रूबरू होने में,  फिर क्यों लजा रहे हैं ! 
बोलिएगा वो यूं एक साथ, कि शक की गुंजाइश न रहे ,
रणभूमि से भ्रष्टाचार के खात्मे का जो बिगुल बजा रहे है ! 
  

Thursday, June 7, 2012

समान नागरिक संहिता(Uniform Civil Code ) - आवश्यकता और अनिवार्यता !


शुरुआत करूंगा इन चार ख़बरों से; 

पहली खबर अगस्त २०१० की  है जिसमे एक नाबालिग शादीशुदा जोड़े को दिल्ली हाई कोर्ट ने प्रोटेक्शन दिया था। जहां लड़के ने 18 साल पूरे नहीं किए थे, जबकि लड़की 16 साल की थी। कोर्ट ने हिंदू मैरिज एक्ट का हवाला देते हुए इस मामले में नाबालिगों की शादी को वैध माना था। जस्टिस बी. डी. अहमद और जस्टिस वी. के. जैन की बेंच ने यह अहम फैसला दिया था। कोर्ट ने कहा कि लड़की अपनी मर्जी से शादी कर चुकी है और वह अपने पति के साथ रहना चाहती है। यह मामला अपहरण व बलात्कार का नहीं, बल्कि धारा-375 (रेप) के अपवाद में आता है जिसमें 15 साल से ऊपर की उम्र की पत्नी की मर्जी से बनाया गया संबंध रेप नहीं है। 

दूसरी खबर  जो पांच जून, २०१२ की है, वह भी दिल्ली से ही है जिसमे दिल्ली हाई कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि मासिक धर्म शुरू होने पर मुस्लिम लड़की 15 साल की उम्र में भी अपनी मर्जी से शादी कर सकती है। इसी के साथ अदालत ने एक नाबालिग लड़की के विवाह को वैध ठहराते हुए उसे अपनी ससुराल में रहने की अनुमति प्रदान कर दी। जस्टिस एस. रविन्द्र भट्ट और जस्टिस एस.पी. गर्ग ने कहा कि अदालत इस तथ्य का संज्ञान लेती है कि मुस्लिम कानून के मुताबिक, यदि किसी लड़की का मासिक धर्म शुरू हो जाता है तो वह अपने अभिभावकों की अनुमति के बिना भी विवाह कर सकती है। उसे अपने पति के साथ रहने का भी अधिकार प्राप्त होता है भले ही उसकी उम्र 18 साल से कम हो। नाबालिग मुस्लिम लड़कियों के विवाह के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए बेंच ने कहा कि उक्त व्यवस्थाओं से स्पष्ट है कि मासिक धर्म शुरू होने पर 15 साल की उम्र में मुस्लिम लड़की विवाह कर सकती है। इस तरह का विवाह गैरकानूनी नहीं होगा। 

तीसरी खबर का रुख करते है- केंद्र सरकार ने बच्चों की यौन अपराधों से रक्षा के लिए एक विशेष विधेयक 2011 प्रस्तावित किया है। इस प्रस्तावित विधेयक में कहा गया है कि 18 साल से कम उम्र के किसी भी व्यक्ति के पास सेक्स गतिविधि के लिए सहमति देने की कानूनी क्षमता नहीं होगी। विधेयक के अनुसार 18 साल से कम उम्र में सहमति से किए गए सेक्स को भी कानूनी रूप से बलात्कार माना जाएगा।

और चौथी खबर भी दिल्ली से ही है जो मई के पहले पखवाड़े की है जिसमे अपहरण और बलात्कार से जुड़े मामले में अदालत ने शारीरिक संबंध बनाने के लिए सहमति देने की उम्र 16 साल से बढ़ाकर 18 साल करने संबंधी केंद्र सरकार के प्रस्ताव को घातक और कठोर करार दिया है। इससे यह हमेशा एक दंडनीय अपराध बना रहेगा। अडिशनल सेशन जज वीरेंद्र भट्ट   की अदालत ने कहा कि हमारी सामाजिक मनोवृत्ति और संवेदनशीलता में तेजी से आ रहे बदलाव को ध्यान में रखते हुए सेक्स के लिए सहमति की उम्र का फैसला करते समय अपवाद को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की शादी कम उम्र में ही कर दी जाती है। "Such a move would open floodgates for prosecution of the boys for offence of rape, on the basis of complaints by the parents of the girl, no matter the girl would have been the consenting party and the offer to have sexual intercourse may have come from her side," the judge said.अदालत ने इस टिप्पणी के साथ नाबालिग लड़की के अपहरण और बलात्कार के मामले से जुड़े एक युवक को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया।

अगर उपरोक्त पहली खबर का विश्लेषण करें तो आपको शायद याद दिलाने की जरुरत न पड़े कि आप रेडियो और टीवी पर एक विज्ञापन भी अक्सर सुनते होंगे कि अठारह साल से कम उम्र की लडकी और इक्कीस साल से  कम उम्र के लड़के  की शादी कानूनन जुर्म है  और साथ ही हमारा संविधान कहता है कि क़ानून सबके लिए समान है वह भले ही किसी भी जाति, धर्म अथवा  मजहब का क्यों न हों। कभी- कभार आपको भी नहीं लगता कि आखिर हम किस संविधान की दुहाई देते फिरते है ? उस संविधान की जिसमे लिखा है कि भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है,अर्थात जहां धर्म के आधार पर किसी को भी कोई भेदभाव अथवा विशेषाधिकार प्रदान नहीं किये जायेंगे दूसरी  खबर के विश्लेष्णात्मक पहलू और भी खतरनाक हैं क्योंकि कल यहाँ हर कोई इसका दुरूपयोग करने की कोशिश करेगा। तब यह और भी चिंतनीय बात बन जाती है जब हम आज के बदलते सामजिक परिवेश में अपने इर्द-गिर्द  पाते है कि जहां तक मासिक धर्म का सवाल है आज के अधिकाँश बच्चे १०वे- ११वे साल में ही मासिक धर्म वाली स्थिति में पहुँच रहे है। तब कल यदि कोई असामाजिक तत्व किसी १० साल की बच्ची को बहला - फुसलाकर  इन कानूनों और निर्णयों  का हवाला देकर उससे शादी कर ले या फ़िर अपने नापाक मंसूबों को सही ठहराने की कोशिश  करने लगे तो क्या यह समाज और तमाम  व्यवस्था यूं ही मूक-दर्शक बनी रहेगी ?       

निसंदेह बच्चो को भी काफी हद तक खुद निर्णय लेने की आजादी होनी चाहिए, लेकिन अंधे बनकर  पाश्चात्य-मूल्यों और संस्कृति को गले लगाना हमारी एक बड़ी भूल होगी आज अमेरिका जो बार-बार अपनी जनता का आह्वान कर यह उल्लेख करता है कि उसकी युवा शक्ति भारत और चीन की युवा शक्ति के मुकाबलेअध्ययन और तकनीकी में  पिछड़ रही है, तो हमें याद रखना होगा कि यह भी उसकी उस उदार नीति का परिणाम है जिसमे वहाँ के  बच्चों को आवश्यकता से अधिक आजादी दी गई      बाल्यावस्था  भट्टी में तपते उस गरम लोहे की भांति है, जिसे आप जिस रूप में ढालना चाहें, काफी हद तक ढाल सकते है आज जिस तरह से मोबाइल,  टीवी और अंतर्जाल हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बनते जा रहे है, घरों में जिस तरह  उन तक बच्चों की खुली पहुँच है, मनोरंजन और संचार के वे माध्यम बाल-जीवन  को काफी हद तक दूषित भी कर रहे है, उनपर कानूनी बंदिशें, कानूनों का भय नितांत आवश्यक है सिर्फ सोशल मीडिया के सिर सारा दोष मडकर उसपर रोक लगा  लेने  भर से समस्या का समाधान नहीं  होने वाला   आज  जब हम गौर से पूरे देश पर  एक नजर डालते है तो हर विसंगति की ही भांति हमें कानूनी विसंगतियों का एक विशाल समुद्र नजर आता है। राज्यवार, क्षेत्रवार कदम-कदम पर कानूनी विसंगतियों की भरमार है, तो भला  देश के हर नागरिक से देश के प्रति एक जैसा सोचने, एकजुटता की कैसे उम्मीद रख सकते है?  अफ़सोस   कि आज की हमारी सरकारों को  अपने भ्रष्टाचारों से ही फुर्सत नहीं है, तो उनसे भला हम इन गंभीर मुद्दों पर कुछ सोचने और कर पाने की उम्मीद भी कैसे रख सकते है ?   
  
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संस्कृति धर्म से कहीं बढ़कर है संस्कृति समाज के जीवन का एक आइना है, एक तरीका है, जबकि धर्म व्यक्तिगत आस्था का एक माध्यम नागरिकों से समाज बनता है, अत: उस समाज के कृत्यों,उनके क्रियान्वयन और समर्पण में समानता लाने,परस्पर सहयोग और सद्भाव बनाए रखने हेतु एक समान संहिता का होना भी अत्यंत आवश्यक है,यदि वह समाज में व्याप्त लिंग असमानता, राजनितिक फायदे के लिए वर्ग विशेष को ख़ास सुविधाए प्रदान करने, जरुरत से ज्यादा महत्व देने और धन और परिसम्पतियों के असमान वितरण पर कारगर रूप से नियंतरण लगाने में मदद करता है। विभिन्न धार्मिक मान्यताओं के वावजूद भी यह आज के शिक्षित समाज की एक  कटु सच्चाई है, कि आज हर कोई आधुनिक शिक्षा, खानपान और वस्त्रों के लिए तरस रहा है अगर हमें सचमुच इस देश को एक समृद्ध धर्मनिरपेक्ष देश तौर पर आगे बढ़ाना है तो यह वक्त का तकाजा है कि तमाम तुच्छ स्वार्थों को छोड़, हम एक जुट होकर  देश में  समान नागरिक संहिता(Uniform Civil Code )  लागू करने का ईमानदारी से प्रयास करे। मूल धारणा को त्याग हमें यह धारणा बनानी ही होगी कि देश प्रमुख है बाकी सब गौण  आज जो हमारे इस लोकतंत्र के सभी स्तंभों की स्थित है, वह नितांत सोचनीय है  कोई कवि महोदय खूब ही कह गए कि ;
जख्म एक-आद नहीं,तमाम जिस्म ही छलनी है, 
और दर्द बेचारा परेशाँ है कि उठूं तो उठूँ कहाँ से !  

कार्टून कुछ बोलता है-प्लानिंग कमीशन !


Tuesday, June 5, 2012

उत्तराखंड में पैर पसारते वाइज !

जहाँ तक जातिगत वैमनस्यता का सवाल है उत्तराखंड, जिसे देवभूमि के नाम से भी अलंकारित किया जाता है, में कुछ चुनिन्दा अवसरों, खासकर चुनावी मौसम में सीमित स्तरों पर ही इसके दर्शन होते दिखाई देते है। मगर आजादी के बाद से इस राज्य का पर्वतीय इलाका मैदानी क्षेत्रो से जुड़े चंद कस्बों में हुए छिट-पुट साम्प्रदायिक दंगों के कुछ अपवादों को छोड़, अब तक अमूमन धार्मिक विद्वेष से अछूता ही रहा है। और उसकी जो दो प्रमुख वजहें रही है, उनमे से पहली है, वहाँ के लोगो का सौहार्दपूर्ण और मित्रतापूर्ण व्यवहार और दूसरी वजह यह है कि यूं तो अल्पसंख्यक इस राज्य के पूरे इलाकों में बिखरे पड़े है किन्तु अगर राज्य बनने के बाद जुड़े मैदानी क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो पूरे पहाडी क्षेत्र में अल्पसंख्यकों की आबादी का , वहाँ की कुल आबादी के मात्र दो से पांच प्रतिशत तक होना। ये बात और है कि अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से मुसलमानों की कुल आवादी का प्रतिशत यहाँ बढ़ गया है। आज नैनीताल, उधमसिंह नगर, हरिद्वार और देहरादून जिलों में मुसलमानों की प्रभावशाली उपस्थिति है। राज्य के उधमसिंह नगर जिले में 20 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है तो हरिद्वार में 37 प्रतिशत। नैनीताल में 15 प्रतिशत और देहरादून में दस प्रतिशत मुसलमान हैं। राज्य की सत्तर में से दस सीटों पर मुसलमान निर्णायक भूमिका निभाता है। उधमसिंह नगर के सितारगंज, किच्छा, जसपुर, नैनीताल के कालाढूंगी, हल्द्वानी, हरिद्वार के बाहदराबाद, मंगलौर, पीरान कलियर, लालढांग, देहरादून के सहसपुर सीटों पर मुस्लिम मत निर्णायक स्थिति में हैं। इस तरह आज इस राज्य की कुल आबादी का करीब १५ % मुस्लिम और २ प्रतिशत सिख तथा ईसाई तथा अन्य धर्मों से सम्बंधित आबादी है, बाकी की करीब ८३ प्रतिशत आबादी हिन्दू आबादी है।



इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत सदियों से एक विविधताओं वाला देश है और अनेको धर्मों के लोग लम्बे समय से इस देश में सहिष्णुता और सहस्तित्व के सौहार्दपूर्ण वातावरण में जीवन यापन करते आए है, लेकिन अब लगता है कि उत्तराखंड में भी शनै:- शनै: धार्मिक अलगाववाद और विद्वेष के बीज तेजी से बोये जा रहे है। और इन बीजों को एक सोची समझी विश्वव्यापी रणनीति के तहत बोने का काम कर रहे है, धर्म-गुरु (वाइज )। कुछ समय से जम्मू और कश्मीर, जो कि एक मुस्लिम बहूल क्षेत्र है, वहां से भी खबरे आ रही थी कि कुछ क्रिश्चियन मिशनरियां वहाँ पर लालच देकर धर्म परिवर्तन करवा रही है। और अभी हाल में इनकी करतूतों का भंडाफोड़ तब हुआ जब गत माह के तीसरे सप्ताह में हिमांचल से लगे उत्तराखंड के पुरोला के मोरी प्रखंड के कलीच गांव में धर्मांतरण को लेकर दो समुदायों के बीच हुआ विवाद मारपीट तक जा पहुंचा। विस्तृत खबर यहाँ देखिये


घटना की सूचना लगते ही गांव पहुंची राजस्व पुलिस ने मामला शांत कराया। बंगाण क्षेत्र के कलीच गांव में बीते चार सालों से धर्म परिवर्तन के मामले सामने आ रहे थे और ये धर्म-गुरु वहाँ की जनजातीय आवादी के एक बड़े हिस्से को अपने झांसे में लेकर धर्मपरिवर्तन करा चुकी है। कलीच गांव के प्रधान जगमोहन सिंह रावत सहित दर्जनों ग्रामीणों ने हिमाचल प्रदेश से आए धर्म प्रचारकों द्वारा प्रलोभन देकर ग्रामीणों को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किए जाने तथा धर्मांतरण कर चुके करीब डेढ़ दर्जन परिवारों द्वारा गांव में माहौल खराब करने का आरोप लगाते हुए डीएम को प्रेषित ज्ञापन में ग्राम प्रधान जगमोहन रावत, सामाजिक कार्यकर्ता प्रभुलाल, चैन सिंह, अशोक चौहान, सूरदास आदि ने आरोप लगाया कि बाहर से आ रहे धर्म प्रचारक तथा धर्मांतरण कर ईसाई बन चुके परिवार गांव के अन्य लोगों को भी सालाना 50 से 80 हजार रुपये देने का प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन के लिए फुसला रहे हैं। विरोध करने पर वे मारपीट पर उतारू हो जाते हैं। ऐसे में गांव का माहौल खराब हो रहा है।

ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक बड़ा नेटवर्क है जो आदिवासी और जनजातीय इलाकों को अपना निशाना बनाकर कमजोर वर्ग के लोगो को प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन करवा रहे है। हालांकि हाल की घटनाओं और आरोपों के सम्बन्ध में अभी जांच चल रही है, लेकिन ऐसा नहीं कि इन बातों में ख़ास सच्चाई न हो।

जिस तरह आज पहाड़ का मूल निवासी रोजी रोटी के लिए तेजी से मैदानों की तरफ पलायन कर रहा है, और बाहर से आये ये वाइज तथा बाहर का कामगार और व्यवसाई वर्ग इस क्षेत्र में अपनी पैठ बना रहे हैं, ऐसा न हो कि आने वाले वक्त में वहाँ बचे-खुचे हिन्दुओं की स्थिति भी एक दिन कश्मीरी पंडितों जैसी हो जाए और चार-धाम जाने के लिए यात्रियों को कश्मीर में बर्फानी बाबा के दर्शनार्थ जाने वाले यात्रा-सुरक्षा तामझाम वाले अंदाज में इन तीर्थ-स्थलों के रास्तों पर से होकर गुजरना पड़े। आज जरुरत हमें इस बारे में सोचने और सजग रहने की हैं।

प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।