शुरुआत करूंगा इन चार ख़बरों से;
पहली खबर अगस्त २०१० की है जिसमे एक नाबालिग शादीशुदा जोड़े को दिल्ली हाई कोर्ट ने प्रोटेक्शन दिया था। जहां लड़के ने 18 साल पूरे नहीं किए थे, जबकि लड़की 16 साल की थी। कोर्ट ने हिंदू मैरिज एक्ट का हवाला देते हुए इस मामले में नाबालिगों की शादी को वैध माना था। जस्टिस बी. डी. अहमद और जस्टिस वी. के. जैन की बेंच ने यह अहम फैसला दिया था। कोर्ट ने कहा कि लड़की अपनी मर्जी से शादी कर चुकी है और वह अपने पति के साथ रहना चाहती है। यह मामला अपहरण व बलात्कार का नहीं, बल्कि धारा-375 (रेप) के अपवाद में आता है जिसमें 15 साल से ऊपर की उम्र की पत्नी की मर्जी से बनाया गया संबंध रेप नहीं है।
दूसरी खबर जो पांच जून, २०१२ की है, वह भी दिल्ली से ही है जिसमे दिल्ली हाई कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि मासिक धर्म शुरू होने पर मुस्लिम लड़की 15 साल की उम्र में भी अपनी मर्जी से शादी कर सकती है। इसी के साथ अदालत ने एक नाबालिग लड़की के विवाह को वैध ठहराते हुए उसे अपनी ससुराल में रहने की अनुमति प्रदान कर दी। जस्टिस एस. रविन्द्र भट्ट और जस्टिस एस.पी. गर्ग ने कहा कि अदालत इस तथ्य का संज्ञान लेती है कि मुस्लिम कानून के मुताबिक, यदि किसी लड़की का मासिक धर्म शुरू हो जाता है तो वह अपने अभिभावकों की अनुमति के बिना भी विवाह कर सकती है। उसे अपने पति के साथ रहने का भी अधिकार प्राप्त होता है भले ही उसकी उम्र 18 साल से कम हो। नाबालिग मुस्लिम लड़कियों के विवाह के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए बेंच ने कहा कि उक्त व्यवस्थाओं से स्पष्ट है कि मासिक धर्म शुरू होने पर 15 साल की उम्र में मुस्लिम लड़की विवाह कर सकती है। इस तरह का विवाह गैरकानूनी नहीं होगा।
तीसरी खबर का रुख करते है- केंद्र सरकार ने बच्चों की यौन अपराधों से रक्षा के लिए एक विशेष विधेयक 2011 प्रस्तावित किया है। इस प्रस्तावित विधेयक में कहा गया है कि 18 साल से कम उम्र के किसी भी व्यक्ति के पास सेक्स गतिविधि के लिए सहमति देने की कानूनी क्षमता नहीं होगी। विधेयक के अनुसार 18 साल से कम उम्र में सहमति से किए गए सेक्स को भी कानूनी रूप से बलात्कार माना जाएगा।
और चौथी खबर भी दिल्ली से ही है जो मई के पहले पखवाड़े की है जिसमे अपहरण और बलात्कार से जुड़े मामले में अदालत ने शारीरिक संबंध बनाने के लिए सहमति देने की उम्र 16 साल से बढ़ाकर 18 साल करने संबंधी केंद्र सरकार के प्रस्ताव को घातक और कठोर करार दिया है। इससे यह हमेशा एक दंडनीय अपराध बना रहेगा। अडिशनल सेशन जज वीरेंद्र भट्ट की अदालत ने कहा कि हमारी सामाजिक मनोवृत्ति और संवेदनशीलता में तेजी से आ रहे बदलाव को ध्यान में रखते हुए सेक्स के लिए सहमति की उम्र का फैसला करते समय अपवाद को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की शादी कम उम्र में ही कर दी जाती है। "Such a move would open floodgates for prosecution of the boys for offence of rape, on the basis of complaints by the parents of the girl, no matter the girl would have been the consenting party and the offer to have sexual intercourse may have come from her side," the judge said.अदालत ने इस टिप्पणी के साथ नाबालिग लड़की के अपहरण और बलात्कार के मामले से जुड़े एक युवक को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया।
अगर उपरोक्त पहली खबर का विश्लेषण करें तो आपको शायद याद दिलाने की जरुरत न पड़े कि आप रेडियो और टीवी पर एक विज्ञापन भी अक्सर सुनते होंगे कि अठारह साल से कम उम्र की लडकी और इक्कीस साल से कम उम्र के लड़के की शादी कानूनन जुर्म है। और साथ ही हमारा संविधान कहता है कि क़ानून सबके लिए समान है वह भले ही किसी भी जाति, धर्म अथवा मजहब का क्यों न हों। कभी- कभार आपको भी नहीं लगता कि आखिर हम किस संविधान की दुहाई देते फिरते है ? उस संविधान की जिसमे लिखा है कि भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है,अर्थात जहां धर्म के आधार पर किसी को भी कोई भेदभाव अथवा विशेषाधिकार प्रदान नहीं किये जायेंगे। दूसरी खबर के विश्लेष्णात्मक पहलू और भी खतरनाक हैं क्योंकि कल यहाँ हर कोई इसका दुरूपयोग करने की कोशिश करेगा। तब यह और भी चिंतनीय बात बन जाती है जब हम आज के बदलते सामजिक परिवेश में अपने इर्द-गिर्द पाते है कि जहां तक मासिक धर्म का सवाल है आज के अधिकाँश बच्चे १०वे- ११वे साल में ही मासिक धर्म वाली स्थिति में पहुँच रहे है। तब कल यदि कोई असामाजिक तत्व किसी १० साल की बच्ची को बहला - फुसलाकर इन कानूनों और निर्णयों का हवाला देकर उससे शादी कर ले या फ़िर अपने नापाक मंसूबों को सही ठहराने की कोशिश करने लगे तो क्या यह समाज और तमाम व्यवस्था यूं ही मूक-दर्शक बनी रहेगी ?
निसंदेह बच्चो को भी काफी हद तक खुद निर्णय लेने की आजादी होनी चाहिए, लेकिन अंधे बनकर पाश्चात्य-मूल्यों और संस्कृति को गले लगाना हमारी एक बड़ी भूल होगी। आज अमेरिका जो बार-बार अपनी जनता का आह्वान कर यह उल्लेख करता है कि उसकी युवा शक्ति भारत और चीन की युवा शक्ति के मुकाबलेअध्ययन और तकनीकी में पिछड़ रही है, तो हमें याद रखना होगा कि यह भी उसकी उस उदार नीति का परिणाम है जिसमे वहाँ के बच्चों को आवश्यकता से अधिक आजादी दी गई । बाल्यावस्था भट्टी में तपते उस गरम लोहे की भांति है, जिसे आप जिस रूप में ढालना चाहें, काफी हद तक ढाल सकते है। आज जिस तरह से मोबाइल, टीवी और अंतर्जाल हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बनते जा रहे है, घरों में जिस तरह उन तक बच्चों की खुली पहुँच है, मनोरंजन और संचार के वे माध्यम बाल-जीवन को काफी हद तक दूषित भी कर रहे है, उनपर कानूनी बंदिशें, कानूनों का भय नितांत आवश्यक है। सिर्फ सोशल मीडिया के सिर सारा दोष मडकर उसपर रोक लगा लेने भर से समस्या का समाधान नहीं होने वाला । आज जब हम गौर से पूरे देश पर एक नजर डालते है तो हर विसंगति की ही भांति हमें कानूनी विसंगतियों का एक विशाल समुद्र नजर आता है। राज्यवार, क्षेत्रवार कदम-कदम पर कानूनी विसंगतियों की भरमार है, तो भला देश के हर नागरिक से देश के प्रति एक जैसा सोचने, एकजुटता की कैसे उम्मीद रख सकते है? अफ़सोस कि आज की हमारी सरकारों को अपने भ्रष्टाचारों से ही फुर्सत नहीं है, तो उनसे भला हम इन गंभीर मुद्दों पर कुछ सोचने और कर पाने की उम्मीद भी कैसे रख सकते है ?
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संस्कृति धर्म से कहीं बढ़कर है। संस्कृति समाज के जीवन का एक आइना है, एक तरीका है, जबकि धर्म व्यक्तिगत आस्था का एक माध्यम। नागरिकों से समाज बनता है, अत: उस समाज के कृत्यों,उनके क्रियान्वयन और समर्पण में समानता लाने,परस्पर सहयोग और सद्भाव बनाए रखने हेतु एक समान संहिता का होना भी अत्यंत आवश्यक है,यदि वह समाज में व्याप्त लिंग असमानता, राजनितिक फायदे के लिए वर्ग विशेष को ख़ास सुविधाए प्रदान करने, जरुरत से ज्यादा महत्व देने और धन और परिसम्पतियों के असमान वितरण पर कारगर रूप से नियंतरण लगाने में मदद करता है। विभिन्न धार्मिक मान्यताओं के वावजूद भी यह आज के शिक्षित समाज की एक कटु सच्चाई है, कि आज हर कोई आधुनिक शिक्षा, खानपान और वस्त्रों के लिए तरस रहा है। अगर हमें सचमुच इस देश को एक समृद्ध धर्मनिरपेक्ष देश तौर पर आगे बढ़ाना है तो यह वक्त का तकाजा है कि तमाम तुच्छ स्वार्थों को छोड़, हम एक जुट होकर देश में समान नागरिक संहिता(Uniform Civil Code ) लागू करने का ईमानदारी से प्रयास करे। मूल धारणा को त्याग हमें यह धारणा बनानी ही होगी कि देश प्रमुख है बाकी सब गौण। आज जो हमारे इस लोकतंत्र के सभी स्तंभों की स्थित है, वह नितांत सोचनीय है। कोई कवि महोदय खूब ही कह गए कि ;
जख्म एक-आद नहीं,तमाम जिस्म ही छलनी है,
और दर्द बेचारा परेशाँ है कि उठूं तो उठूँ कहाँ से !
Convent me padhne wale gurukul ki sanskriti par chal nahin sakte.
ReplyDeleteबहुत सार्थक और समसामयिक आलेख...
ReplyDeleteswab kuch uljha kar rakh diya hae,shadi karne se pahle vakil se salah leni hogi.
ReplyDeleteAJIB SI HI KAHANI BANTI JA RAHI HAE YE.....KHUDA KHER KARE
समझ नहीं आता है कि सच को कितनों तराजुओं में तौला जा रहा है?
ReplyDeleteसबके अपने अपने सच हैं और अपने अपने पैमाने|
ReplyDeleteभारत में अब क़ानून भी धर्म-आधारित होगा। पता नहीं क्या हो गया है देश के पढ़े-लिखे लोगों को भी। इस्लाम धर्म में अनुमति दे दी १५ साल की बच्चियों को स्वेच्छा से विवाह करने की।
ReplyDeleteनाबालिग मुस्लिम लड़कियों के विवाह के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए बेंच ने कहा कि उक्त व्यवस्थाओं से स्पष्ट है कि मासिक धर्म शुरू होने पर 15 साल की उम्र में मुस्लिम लड़की विवाह कर सकती है। इस तरह का विवाह गैरकानूनी नहीं होगा।
एक शर्मनाक और गैरजिम्मेदाराना फैसला है ये।
मासिक धर्म तो १२से १३ वर्ष की अवस्था से ही प्रारम्भ हो जाता है, तो क्या इस कच्ची उम्र में विवाह की अनुमति उचित है ?
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सरकार तो लगातार बाँटने पर तुली हुई है.. कही मजहबी आरक्षण के नाम पर तो कही नौकरी में अल्पसंख्यकों का कोटा तय करके.... हिंसा निवारण अधिनियम तो और भी खतरनाक है...
ReplyDeleteऐसे चाल चरित्र वाली सरकार से हम कैसे एक देश एक क़ानून की उम्मीद कर सकते हैं...
आपकी चिंता जायज है...