देर से ही सही, मगर सभी ब्लोगर मित्रो को विजय दशमी और दशहरा की हार्दिक शुभकामनाये ! तीन-चार रोज के लिए अपने बचपन के दोस्त शुकून और शान्ति को ढूँढने उनकी तलाश में सड़क मार्ग से एक लम्बे और थकाऊ सफ़र पर निकल गया था ! खैर, जैसा कि मुझे पहले से अंदेशा था, दोनों नहीं मिले ! बस, इस सफ़र में कोई मिला भी तो बदइन्तजामी के उबड़-खाबड़ रास्ते और उनपर उडती व्यवस्था की धज्जियों की धूल ! और हद तो तब हो गई, जब राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे एक कसबे के इकठ्ठा लोग बुराई पर अच्छाई की जीत हासिल करने सड़क पर यातायात अवरुद्ध कर बैठ गए ! तकरीबन सवा घंटे के बाद जब रावण जी जलाये गए, तभी जाकर धीरे-धीरे यातायात खुल सका ! मंजिल पर जल्दी पहुँचने की फिराक में जब कुछ कार चालको ने आगे बढ़ने की कोशिश की तो पुलिस के एक सिपाही के आदर्श वचन भी सुनने को मिले ! वे कार चालको से कह रहे थे कि दीखने में तो आप लोग पढ़े लिखे ड्राइवर लगते है और ...... ! "
मैं उमस भरी गर्मी में सीट पर बैठा-बैठा बस अपनी ही दुनिया में गुम था ! कभी पागलो की तरह यह सोच कर हस देता कि बड़ी अजीब है आज की दुनिया ! वैसे तो अमूमन भगवान् राम के पात्र बने व्यक्ति ही रावण पर अग्नि वाण छोड़कर उसे जलाते है, लेकिन तब एक हास्यास्पद स्थिति आ खड़ी होती है जब कहीं कहीं पर आज का रावण खुद तीर छोड़कर अपने ही पुतले को आग के हवाले करने पहुँच जाता है ! कभी उस बहुत पुराने चुटकुले को याद करने की कोशिश करता जिसमे एक नास्तिक किस्म का अंग्रेज होता था और जो कहता था कि भगवान्-खुदा कुछ नहीं होता, सब बकवास है ! लेकिन एक बार वह भारत भ्रमण पर आया, खूब घूमा और लौटते में जब एक पत्रकार ने उनसे इस भ्रमण पर उनकी प्रतिक्रिया चाही तो वे बोले, कि मैंने अपनी राय बदल दी है, मैं मानता हूँ कि भगवान् है, वरना यह देश कैसे चल रहा होता ?
खैर, मैं बात से भटक गया, मैंने आज यह बताने के लिए कलम पकडी थी कि वैसे तो आप लोग सभी गोगल सर्च के बारे में भली भांति जानते है और उस बारे में कुछ बताना अतिशयोक्ति होगी ! लेकिन मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि जब कभी आपके पास फुरसत ही फुरसत हो, और लिखने के लिए कुछ ना सूझ रहा हो तो गोगल सर्च पर अपना निक नेम ( जिस नाम से आप अपने ब्लॉग पर लिखते है) को डालकर सर्च करे ! आप पावोगे कि आपकी सालो पुरानी सारी यादे ताजा हो गई, आपने क्या लिखा था, किसको क्या टिपण्णी दी थी.... इत्यादि-इत्यादि सब मिल जाएगा एक ही जगह, और यकीन मानिए उसे कभी-कभार पढने से भी बड़ा शकुन मिलता है !
...............नमस्कार, जय हिंद !....... मेरी कहानियां, कविताएं,कार्टून गजल एवं समसामयिक लेख !
Tuesday, September 29, 2009
Wednesday, September 23, 2009
एक गांधी यह भी...!
इससे पहले कि मै इस दुर्जन की बात लिखना सुरु करू, एक शेर सुनाने का दिल कर रहा है। पेश-ए-खिदमत है;
सजी फूलों की सेज से, ज़रा सी आस उधार ली हमने,
विरह वेदना की तपीश, अपने गमो में उतार ली हमने,
चंद यादोँ की परिधि मेँ ही ख्वाइशे सिमट के रह गई,
तेरे कुछ खतो के सहारे ही, जिन्दगी गुजार ली हमने !
आदरणीय समीर जी को विस्वास दिलाना चाहता हूँ कि यह शेर अपने पूरे होशो-हवास में मैंने ही बनाया है अतः आप बेहिचक होकर वाह-वाह कर सकते है :)
अब विषय पर लौटता हूँ;
इस बात के लिये हमारी सुरक्षा एजेंसियों और दिल्ली पुलिस की प्रसंशा करनी चाहिए कि उन्होने प्रचार-प्रसार के क्षेत्र मे नक्सलियों की रीढ समझे जाने वाले कोबाद गांधी को दिल्ली से गिरफ़्तार करने मे कामयावी हासिल की। मुम्बई के एक पारसी परिवार मे जन्मा यह शख्स, दून स्कूल का पढा हुआ है, और कट्टर माओ घांदे भाकपा (माओवादी) का पोलित ब्योरो का सदस्य है। यह नक्सलियों के प्रकाशन कार्यो का प्रमुख है, एवं दशको से विदर्भ क्षेत्र में नक्शली विचारधारा के प्रचार प्रसार में लिप्त रहा।
पुलिस और सुरक्षा बलों ने तो अपने काम को मुस्तैदी से अंजाम दे दिया, मगर अब बात आकार वहीं अटक जाती है, जहां से इस बुराई की सीढियां सुरु होती है, यानी राजनीति और उस राजनीति का सौतेला भाई, यानि मानवाधिकार संघठन। जैसा कि इस देश में अमूमन होता आया है कि एक आम आदमी को उचित चिकित्सकीय सहायता मिले ना मिले, एक आम आदमी को उचित सुरक्षा मिले ना मिले, लेकिन इस तरह के लोगो के लिए सब कुछ उपलब्ध रहता है। गिरफ्तारी के बाद इन गांधी जी को भी बेचैनी महसूस होने लगी, अतः पूरी सुरक्षा में इन्हें भी चिकित्सकीय सुविधा उपलब्ध कराई गई। हमारे तथाकथित मानवाधिकार संघठन इनकी पैरवी और खोस-खबर लेने के लिए तुंरत दौड़ पड़े।
सरकार को चाहिए था कि इस तरह के लोगो के साथ किसी भी तरह की रहमदिली न दिखाई जाए और शक्ति के साथ निपटा जाए। इनकी क्या आइडिओलोजी या विचारधारा है, उसे तो देश ने पिछले कुछ सालो में अच्छी तरह से देख ही लिया है। मुठ्ठीभर तथाकथित पढ़े-लिखे लोग, अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए, भोले-भाले आदिवासियों को मोहरा बना उनका ब्रेन वाश ( दिमागी सफाई ) कर, उन्हें हिंसा में झोंक रहे है, और कुछ नहीं। पीपुल वार की जो सुरुँआती विचारधारा थे, वह तो राजनीति की सादगी बरतने के नारे की तरह, पाखंडी और किताबी बात बन कर रह गई है। अफ़सोस इस बात का है कि भ्रष्टाचार ने यहाँ अपनी जड़े इतने गहरे तक डुबो दी है कि एक भी दूध का धुला नजर नहीं आता। देश को चलाने का ठेका लिए चंद नेता और लालफीताशाह, एक मेहनत कश वेतन भोगी, जो कि मेहनत से महीने में १०- १५ हजार रूपये कमाता है, उसके सोर्स से ही इन्कम टैक्स काट लेते है, लेकिन हमारे देश में गावली जैसे अडरवल्ड से नेता बने लोग, जब अपने साढ़े चार करोड़ की चल-अचल सम्पति घोषित करता है, तो उसे कोई नहीं पूछता कि इतना धन आया कहा से? और यह सिर्फ गावली की ही कहानी नहीं बल्कि अधिकाँश नेतावो और कानून के ठेकेदारों का भी यही हाल है! कहने का तात्पर्य यह है कि इन्ही सब विसंगतियों के चलते ही आज एक पढा-लिखा और शांतिप्रिय इंसान भी विद्रोह और हिंसा की राह पर चल पड़ता है!
सजी फूलों की सेज से, ज़रा सी आस उधार ली हमने,
विरह वेदना की तपीश, अपने गमो में उतार ली हमने,
चंद यादोँ की परिधि मेँ ही ख्वाइशे सिमट के रह गई,
तेरे कुछ खतो के सहारे ही, जिन्दगी गुजार ली हमने !
आदरणीय समीर जी को विस्वास दिलाना चाहता हूँ कि यह शेर अपने पूरे होशो-हवास में मैंने ही बनाया है अतः आप बेहिचक होकर वाह-वाह कर सकते है :)
अब विषय पर लौटता हूँ;
इस बात के लिये हमारी सुरक्षा एजेंसियों और दिल्ली पुलिस की प्रसंशा करनी चाहिए कि उन्होने प्रचार-प्रसार के क्षेत्र मे नक्सलियों की रीढ समझे जाने वाले कोबाद गांधी को दिल्ली से गिरफ़्तार करने मे कामयावी हासिल की। मुम्बई के एक पारसी परिवार मे जन्मा यह शख्स, दून स्कूल का पढा हुआ है, और कट्टर माओ घांदे भाकपा (माओवादी) का पोलित ब्योरो का सदस्य है। यह नक्सलियों के प्रकाशन कार्यो का प्रमुख है, एवं दशको से विदर्भ क्षेत्र में नक्शली विचारधारा के प्रचार प्रसार में लिप्त रहा।
पुलिस और सुरक्षा बलों ने तो अपने काम को मुस्तैदी से अंजाम दे दिया, मगर अब बात आकार वहीं अटक जाती है, जहां से इस बुराई की सीढियां सुरु होती है, यानी राजनीति और उस राजनीति का सौतेला भाई, यानि मानवाधिकार संघठन। जैसा कि इस देश में अमूमन होता आया है कि एक आम आदमी को उचित चिकित्सकीय सहायता मिले ना मिले, एक आम आदमी को उचित सुरक्षा मिले ना मिले, लेकिन इस तरह के लोगो के लिए सब कुछ उपलब्ध रहता है। गिरफ्तारी के बाद इन गांधी जी को भी बेचैनी महसूस होने लगी, अतः पूरी सुरक्षा में इन्हें भी चिकित्सकीय सुविधा उपलब्ध कराई गई। हमारे तथाकथित मानवाधिकार संघठन इनकी पैरवी और खोस-खबर लेने के लिए तुंरत दौड़ पड़े।
सरकार को चाहिए था कि इस तरह के लोगो के साथ किसी भी तरह की रहमदिली न दिखाई जाए और शक्ति के साथ निपटा जाए। इनकी क्या आइडिओलोजी या विचारधारा है, उसे तो देश ने पिछले कुछ सालो में अच्छी तरह से देख ही लिया है। मुठ्ठीभर तथाकथित पढ़े-लिखे लोग, अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए, भोले-भाले आदिवासियों को मोहरा बना उनका ब्रेन वाश ( दिमागी सफाई ) कर, उन्हें हिंसा में झोंक रहे है, और कुछ नहीं। पीपुल वार की जो सुरुँआती विचारधारा थे, वह तो राजनीति की सादगी बरतने के नारे की तरह, पाखंडी और किताबी बात बन कर रह गई है। अफ़सोस इस बात का है कि भ्रष्टाचार ने यहाँ अपनी जड़े इतने गहरे तक डुबो दी है कि एक भी दूध का धुला नजर नहीं आता। देश को चलाने का ठेका लिए चंद नेता और लालफीताशाह, एक मेहनत कश वेतन भोगी, जो कि मेहनत से महीने में १०- १५ हजार रूपये कमाता है, उसके सोर्स से ही इन्कम टैक्स काट लेते है, लेकिन हमारे देश में गावली जैसे अडरवल्ड से नेता बने लोग, जब अपने साढ़े चार करोड़ की चल-अचल सम्पति घोषित करता है, तो उसे कोई नहीं पूछता कि इतना धन आया कहा से? और यह सिर्फ गावली की ही कहानी नहीं बल्कि अधिकाँश नेतावो और कानून के ठेकेदारों का भी यही हाल है! कहने का तात्पर्य यह है कि इन्ही सब विसंगतियों के चलते ही आज एक पढा-लिखा और शांतिप्रिय इंसान भी विद्रोह और हिंसा की राह पर चल पड़ता है!
Tuesday, September 22, 2009
बेचारा खान !
अरे नहीं-नहीं, मै अपने वाले खानो की बात नही कर रहा, वे तो मजे मे है, और खूब ऐश कर रहे है । अपना खबरिया मीडिया भी तो आजकल सलमान खान के सारे गुनाहों को भुला, बस दिन-रात उन्ही का गुणगान करने मे लगा है। ऐसा लगता है मानो उन्हे, उनके ऊपर लगे सारे आरोपो मे क्लीन चिट मिल गई हो । यहां अपने देश मे तो किसी को अपने पाप धुलने/धुलाने हो, तो बजाये गंगा मैया की शरण में जाने के, सीधे खबरिया चैनलों का रुख करना चाहिये। हां, ये तो खैर अभी शोध का विषय है कि इस पूजन मे चढावा कितना देना पडता है ? और तो और, अगर आप गरम दिल इन्सान नही है, और पडोसी से उलझना नही चाहते, तो बस, लडने के लिये उकसाने का काम भी इन्हे सौंप दीजिये, कम से कम अपने पी एम ओ का तो यही सोचना है इनके बारे में , चीन की घुसपैठ की खबरों को लेकर ।
हां तो मै बात कर रहा था उस चोर की, जिसे हमारे पडोसी मुल्क पाकिस्तान के लोग अपना अब्बू कहते है, और कहे भी क्यों नही, उनके इसी चोर बाप ने तो उनके हाथों मे एक ऐसी दोनाली बंदूक पकडा दी, जिसकी बदौलत न सिर्फ़ वे दुनिया को धमकाते फिरते है अपितु, अपने आंका, अमेरिका से समय-समय पर ब्लैकमेल के जरिये खूब रंगदारी भी वसूलते रहते है । वैसे, कभी- कभी जब इस विषय मे सोचता हूं तो मुझे हंसी भी आती है और आश्चर्य भी होता है कि दुनियां मे शायद अमेरिका ही एक ऐसा हथियारों का दुकानदार होगा, जो पह्ले पाकिस्तान जैसे ग्राहक को खुद ही फ्री फ़ण्ड मे पैसे देता है, और फिर कहता है कि आजा बेटा, उन पैसो से मेरी दुकान से खरीददारी कर ले। साल के अन्त मे, शेयर होल्डरो के सामने एक धांसू बैलेन्स सीट पेश करने का यह भी एक नायाब तरीका है । सत्यम के राजू को और उसके आडिटर को भी इनसे सीख लेनी चाहिये थी।
जब ये जनाव बेल्जियम में परमाणु सस्थान में कार्यरत थे, मुस्लिम दुनिया का हीरो बनने के लिए इन्होने गोपनीय परमाणु दस्तावेज चुराकर अपने मुल्क पाकिस्तान ले आये. मुझे याद है की ८० और ९० के दशक में इनकी पाकिस्तान में क्या तूती बोलती थी। उस समय अगर ये किसी पाकिस्तानी जनरल से यह कहते कि इनके ही देश में इनके फलां-फलां दुश्मन के घर के ऊपर जहाज से बम गिरा दो तो पाकिस्तानी सैनिक कर्ता-धर्ता शायद वह करने से भी नहीं हिचकिचाते। ये बेचारे खान उस समय अपने को खुदा के बाद दूसरे नंबर पर समझते थे। इन्होने क्या किया, क्या नहीं किया वह तो सभी जानते है, इसलिए उस बारे में अधिक नहीं कहना चाहता। मगर जो मैं कहना चाह रहा हूँ वह यह कि यह भी सत्य है कि इंसान भले ही समझे या न समझे, उसको अपने अच्छे-बुरे कर्मो का फल यही मिल जाता है, और वही ठीक इनके साथ भी हुआ। जन्नत पाने की चाह में जो जहन्नुम ये पिछले कई सालो से भुगत रहे है, उसका खुलासा इनके द्वारा अपनी पत्नी को २००३ में लिखे गए पत्र से साफ जाहिर होता है। जिन्ना की तरह ही चंद दिनों के लिए इन्होने अपने मुस्लिम जगत की वाहवाही लूट ली हो, मगर आज कहीं ना कही अद्नर एक बहुत बड़ा जख्म छुपाये घूम रहे है।
हां तो मै बात कर रहा था उस चोर की, जिसे हमारे पडोसी मुल्क पाकिस्तान के लोग अपना अब्बू कहते है, और कहे भी क्यों नही, उनके इसी चोर बाप ने तो उनके हाथों मे एक ऐसी दोनाली बंदूक पकडा दी, जिसकी बदौलत न सिर्फ़ वे दुनिया को धमकाते फिरते है अपितु, अपने आंका, अमेरिका से समय-समय पर ब्लैकमेल के जरिये खूब रंगदारी भी वसूलते रहते है । वैसे, कभी- कभी जब इस विषय मे सोचता हूं तो मुझे हंसी भी आती है और आश्चर्य भी होता है कि दुनियां मे शायद अमेरिका ही एक ऐसा हथियारों का दुकानदार होगा, जो पह्ले पाकिस्तान जैसे ग्राहक को खुद ही फ्री फ़ण्ड मे पैसे देता है, और फिर कहता है कि आजा बेटा, उन पैसो से मेरी दुकान से खरीददारी कर ले। साल के अन्त मे, शेयर होल्डरो के सामने एक धांसू बैलेन्स सीट पेश करने का यह भी एक नायाब तरीका है । सत्यम के राजू को और उसके आडिटर को भी इनसे सीख लेनी चाहिये थी।
जब ये जनाव बेल्जियम में परमाणु सस्थान में कार्यरत थे, मुस्लिम दुनिया का हीरो बनने के लिए इन्होने गोपनीय परमाणु दस्तावेज चुराकर अपने मुल्क पाकिस्तान ले आये. मुझे याद है की ८० और ९० के दशक में इनकी पाकिस्तान में क्या तूती बोलती थी। उस समय अगर ये किसी पाकिस्तानी जनरल से यह कहते कि इनके ही देश में इनके फलां-फलां दुश्मन के घर के ऊपर जहाज से बम गिरा दो तो पाकिस्तानी सैनिक कर्ता-धर्ता शायद वह करने से भी नहीं हिचकिचाते। ये बेचारे खान उस समय अपने को खुदा के बाद दूसरे नंबर पर समझते थे। इन्होने क्या किया, क्या नहीं किया वह तो सभी जानते है, इसलिए उस बारे में अधिक नहीं कहना चाहता। मगर जो मैं कहना चाह रहा हूँ वह यह कि यह भी सत्य है कि इंसान भले ही समझे या न समझे, उसको अपने अच्छे-बुरे कर्मो का फल यही मिल जाता है, और वही ठीक इनके साथ भी हुआ। जन्नत पाने की चाह में जो जहन्नुम ये पिछले कई सालो से भुगत रहे है, उसका खुलासा इनके द्वारा अपनी पत्नी को २००३ में लिखे गए पत्र से साफ जाहिर होता है। जिन्ना की तरह ही चंद दिनों के लिए इन्होने अपने मुस्लिम जगत की वाहवाही लूट ली हो, मगर आज कहीं ना कही अद्नर एक बहुत बड़ा जख्म छुपाये घूम रहे है।
Monday, September 21, 2009
अंधेर नगरी !
कल रविवार था, एक दोस्त से मिलने गाजियाबाद गया था! लौटते में दिमाग मनोरंजनात्मक पहलू की ओर घूम गया! यों भी जिस दोस्त से मिलने गया था, उसके मनोरंजन का बाजा तो उत्तरप्रदेश सरकार ने पहले से ही बजा रखा था ! बेचारा खीजते हुए बोला कि यार, ये मायावती बहन भी न, पता नहीं क्या-क्या गुल खिलायेगी! सारा फंड तो अपनी मूर्तिया बनाने में खर्च कर दिया, और अब केवल टीवी पर ओपरेटरो पर ३० % (तीस प्रतिशत) टैक्स लगा दिया! वे लोग हमारे से वसूल रहे है! अतः ठीक-ठाक चैनलों वाला पैक खरीदने पर महीने के करीब ५०० रूपये डिश टीवी वाले को देने पड़ रहे है! कोई पूछने वाला ही नहीं है ! दूभर हो गया है इस उत्तरप्रदेश में जीवन तो! उसकी इन्ही मनोरजन की बातो पर गौर फरमाए जा रहा था, सोच रहा था कि मायावती बहन जी ने क्या सोच कर ३०% टैक्स लगाया होगा? क्या वह भी यही चाहती होंगी कि लोग केबल कटवा ले ताकि टीवी पर इन फालतू मीडिया वालो की खबरे न सुन सके ? मन गहमा-गहमी में था, अतः वसुंधरा के पास गाडी मुख्य सड़क पर रोक हम चल दिए गम की दवा की डिस्पेंसरी को !
एक वक्त की डोज ख़रीदी, १०० का नोट उस मर्ज की दवा बेचने वाले हकीम को पकडाया, तो उसने झट से १० रूपये वापस कर दिए ! वैसे मैं अमूमन रेट नहीं देखता, मगर चूँकि दिल्ली में इस एक डोज की कीमत मात्र साठ रूपये है, और वहा उसने ९० रूपये काटे तो मुझे एक बारी रेट देखने पर मजबूर होना पडा! उस पर रेट ८५ रूपये लिखा था! मैंने कहा, भैया, बाकी के पांच रूपये ? वह बोला, नब्बे का ही है जी, मगर इस पर तो MRP 85/-रूपये लिखी है ? मैंने कहा ! वह तपाक से बोला, जी, बाकी बहन जी के खाते में ! उसकी बात सुन मेरे माथे पर बल पड़ गए ! यह आखिर किस बहन जी की बात कर रहा है? क्या और भी बहन जी है यहाँ ? या फिर लोग नाजायज फायदा उठाकर बहन जी के नाम पर झूट मूठ में इस तरह की रंगदारी वसूल रहे है, इस उत्तम परदेश में ? ऊपर वाला जाने ? हम तो गम के मारे थे, दवा के वगैर गुजारा भी न था, अतः एक लम्बी आह भरकर चल दिए !
मै बेचारा गम का मारा,
दुनिया की ठोकरों से हारा,
बोतल बनी है मेरा सहारा,
मै बेचारा गम का मारा !
यहाँ से वहाँ भटक रहा हूँ,
शामे बोतल घटक रहा हूँ,
इसके सिवा न कोई और चारा,
मै बेचारा गम का मारा !
मधु के हम दुत्कारे हुए है,
मदिरा के दुलारे हुए है ,
मयखाना बना है बसेरा हमारा,
मै बेचारा गम का मारा !
Saturday, September 19, 2009
लघु कथा- और ताऊ मर गया !
सन् ८७-८८ की बात है, महानगरी में ताऊ ( दोस्तों द्वारा दिया गया उपनाम ) की पहली नौकरी लगी थी। सुदूर गाँव से चलते वक्त ताऊ को उसके दोस्तों और परिवार के छोटे बडो ने महानगरी के बारे में काफ़ी हिदायते दी थी; मसलन सड़क ढंग से पार करना, पैसे/पर्स जेब में संभाल के रखना, किसी से झगडा मत करना, इत्यादि -इत्यादि ।
धोखे ही धोखे है चिरागों की चकाचौंध में,
दर्रे-दर्रे पर वहाँ कई राज छुपे बैठे है !
हर चीज़ को ज़रा खुली आँखों से देखना,
कबूतर के चेहरे में बाज़ छुपे बैठे है !!
ताऊ का क्रूरता से तो सामना उसी वक्त हो गया था, जब अंतराष्ट्रीय बस अड्डे पर रोडवेज से उतर उसने नारायणा के लिए डीटीसी की मुद्रिका बस पकड़ी थी। हुआ यह कि उसने कंक्टर से पूछना चाहा कि भाई साहब ,क्या यह बस नारायणा जायेगी, तो तपाक से जबाब मिला था "हौर तन्ने के यह मारे घर जात्ती दिख री सै, बोर्ड नि दिख रिया कै" वो तो भला हो उस दूसरे सवारी का जिसने कहा, हां जायेगी, चढ़ जा।
कुछ दिन बाद लाजपत नगर में ताऊ को एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में एक ७५०/- रूपये प्रतिमाह की नौकरी मिल गई। मालिक था एक खूसट बनिया । कर्मचारियो का शोषण कैसे किया जाता है, कोई उनसे सीखे । महानगरी में ताऊ कुछ ही दिन में एक कोल्हू का बैल बन के रह गया । दिन भर लाला ऑफिस में काम करवाता और शाम होते ही कहता कि आज तुझे ट्रक के साथ मुज़फ्फरनगर जाना है, वहां पर लाला को एक पाइप फैक्ट्री लगाने का ठेका मिला था। और आखिर ताऊ के लिए एक मनहूस दिन आया। लाला ने उसे सुबह बिक्री-कर विभाग जाने और वहा से सी फार्म लाने का हुक्म सुनाया। साथ ही १०० रूपये( पचास-पचास के दो नोट) भी दिए और कहा कि यह बाबू को दे देना, साथ ही हिदायत भी दी कि पहले सिर्फ़ एक पचास का नोट ही पकडाना, नही माने तो तब पचास और दे देना। बिक्री कर विभाग पहुच कर ताऊ ने वही किया जो लाला ने सिखा कर भेजा था, लेकिन बाबू नही माना, फ़िर उसने पूरे १०० रूपये और ऍप्लिकेशन फार्म बाबू को दिए और सी फार्म देने को कहा। बाबू ने १०० रूपये जेब में रखे और ताऊ को ५ सी फार्म पकड़ाकर बोला, अन्दर साहब से साइन करवा ले। ताऊ फार्म लेकर अन्दर बैठे उस बाबू के पास गया। उसने पुछा क्या है ? ताऊ ने कहा " साब ये सी-फार्म साइन करने थे ", बाबू बोला कितने लाया है? ताऊ बोला, ५ फार्म । बाबू चिड़ते हुए और हाथ का अंगूठा ऊँगली पर रगड़ते हुए बोला " अरे वो कितने लाया है ?" ताऊ उसका इशारा समझ कर बोला, साब १०० लाया था, मगर जिन साब ने ये फार्म दिए, उन्होंने ले लिए। बाबू बोला "तो ठीक है साइन भी उसी से करवाले, मेरे पास क्यो आया ? "..... ताऊ हडबडाकर उस बाबू की सीट की तरफ़ लपका जिसने फार्म दिए थे, मगर बाबू सीट से गायब था ! ताऊ अन्दर वाले बाबू के पास जाकर इंतज़ार करने लगा। आधा घंटा बीत गया, मगर वह नही लौटा। अन्दर वाला बाबू बोला, चल १००/- रूपये निकाल, मैं साइन कर देता हू। ताऊ क्या करता, अपने पैसो में से १००/- रूपये उसको दिए, उसने साइन किया और कहा कि चपरासी से स्टैंप लगा ले।
ताऊ चपरासी के पास गया, चपरासी ने स्टैंप लगायी और २० रूपये मागने लगा, ताऊ ने किसी तरह १० रूपये में जान छुडाई। चपरासी बोला अरे साब! यहाँ एक फार्म पे स्टैंप लगाने के ५ रुपए होते है, सो आपके २५ रूपये बनते थे, मैं तो २० ही मांग रहा था । चलो खैर, मानो वह ताऊ के ऊपर एहसान कर रहा हो। ऑफिस पहुंचकर ताऊ ने फार्म लाला को दिए, लाला बोला रूपये ५० ही दिए न ? ताऊ इस डर से की कही लाला नौकरी से न निकाल दे, बोला नही साब, १०० रूपये लिए उसने ! और लग गया सीधा सीधा ११०/- रूपये का चूना ताऊ पर ! रात को लाला ने फिर ताऊ को सामान के साथ मुज्ज़फरनगर जाने का हुक्म सुनाया। ताऊ ट्रक लेकर मुज्ज़फरनगर के लिए चल पड़ा। ट्रक में सेरामिक ईंट लदी थी, जबकि बिल में लाला ने लिखवाया था गलवानाइजिंग प्लांट एक्सेसरीज। बागपत चुंगी पर जब ड्राईवर फार्म और बिल लेकर पास बनाने गया, तो उसने फार्म भरने वाले से फार्म पर ईंट लिखा दिया।
फार्म और बिल में अंतर्विरोध देख चुंगी वाले बाबु की बांछे खिल उठी। उसने सारे कागजाद अपने टेबल की दराज में रख दिए और चाय पीने लगा। एक घंटा गुजरा, दो घंटे गुजरे, मगर कागजाद नही मिले। बाबू ने ड्राईवर से ५००/- रुपयों की मांग की थी, रात के ग्यारह बज चुके थे। ड्राईवर लोगो के लिए तो मानो यह रोज की दिनचर्या थी। ड्राईवर पास के ढाबे में खाना खाने चला गया । ताऊ उस उमस भरी गर्मी में ट्रक में बैठा एक अखबार के टुकड़े से हवा कर अपने व्यथित मन को शांत करने में लगा रहा, भूखा-प्यासा! ड्राईवर और क्लीनर खाना खा कर लौटे तो बाबू अंदर की बेंच पर खर्राटे भर रहा था। होते-करते सुबह के तीन बज गए। ड्राईवर ने हिम्मत कर बाबू को उठाया। बाबू ड्राईवर को लगभग गालिया देता हुआ उठा और बोला, यह कंपनी मुझे संदेहास्पद लगती है, इसके सारे बिल पहले मेरे पास लावो, फिर गाड़ी छोडूंगा। ड्राईवर वापस ताऊ के पास आया और उसे एक कहानी समझाई और बाबू के पास भेजा। ताऊ हाथ जोड़कर बाबू के पास पंहुचा और उससे कहा, साब मेरी अभी-अभी नौकरी लगी है, यह मेरा पहला जॉब है, मुझे एक्सपीरिएंस नही है, इसलिए फार्म में यह गलती कर गया। मगर साब, लाला मेरे को नौकरी से निकाल देगा । प्लीज़, कुछ करे ! बाबू को मानो दया आ गई हो , बोला अच्छा तेरी बात पर मै गाड़ी छोड़ रहा हूँ, मगर बर्रिएर वाले को २०० रूपये दे देना ! ताऊ मन ही मन सोच रहा था कि घूस खाने का यह भी एक अच्छा तरीका है। क्या करता, बाप बोलकर बैरियर पर बैठे शख्स को २०० रूपये दिए।
सुबह के चार बज चुके थे, ट्रक अपने गंतव्य की और निकल पड़ा। ताऊ सोच रहा था की ३१ दिन काम करने के ७५० रूपये मिलेंगे और ३६० रूपये अब तक वह अपने जेब से लगा चुका, यानि पहली पगार सिर्फ़ ३९० रूपये। चूँकि यह गलती सीधे-सीधे लाला की ही थी , जिसने ड्राइवर को खुद ही ईंट लिखवाने को कहा था! ताऊ झूट नहीं बोल सकता था क्योंकि वह उसने अपने सस्कारों में नहीं पाया था । मगर उसकी जेब पर घर से लाये जो भी पैसे थे वह ख़त्म हो चुके थे। लाला वेतन तो अभी देगा नहीं, झूठ वह बोल सकता नहीं कि चुंगी वाले ने ५००/- रूपये ही लिए ! अब क्या करे ? बड़ी दिमागी कशमकश के बाद उसने दृढ निश्चय लिया, ट्रक ड्राइवर से कुछ खुसफुसाहट की, उसे अपनी सारी मजबूरी बयान की । ड्राइवर नरम दिल हो गया और गाडी रोक, ताऊ से यह कहा कि अगर लाला तुम्हे फ़ोन पर आने को कहे तो तुम भी यही कहना कि हां, बाबू १०००/- रूपये मांग रहा है, पास के पी सी ओ पर लाला को फोन करने गया,और बोला कि गाडी पकड़ ली गई है, और बाबू १०००/- रूपये मांग रहा है। लाला ने पूछा, तुम्हारे पास इतने पैसे है ? ड्राइवर बोला हाँ ! और इस तरह ताऊ मर गया, हमेशा के लिए, इस महानगरी में !
धोखे ही धोखे है चिरागों की चकाचौंध में,
दर्रे-दर्रे पर वहाँ कई राज छुपे बैठे है !
हर चीज़ को ज़रा खुली आँखों से देखना,
कबूतर के चेहरे में बाज़ छुपे बैठे है !!
ताऊ का क्रूरता से तो सामना उसी वक्त हो गया था, जब अंतराष्ट्रीय बस अड्डे पर रोडवेज से उतर उसने नारायणा के लिए डीटीसी की मुद्रिका बस पकड़ी थी। हुआ यह कि उसने कंक्टर से पूछना चाहा कि भाई साहब ,क्या यह बस नारायणा जायेगी, तो तपाक से जबाब मिला था "हौर तन्ने के यह मारे घर जात्ती दिख री सै, बोर्ड नि दिख रिया कै" वो तो भला हो उस दूसरे सवारी का जिसने कहा, हां जायेगी, चढ़ जा।
कुछ दिन बाद लाजपत नगर में ताऊ को एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में एक ७५०/- रूपये प्रतिमाह की नौकरी मिल गई। मालिक था एक खूसट बनिया । कर्मचारियो का शोषण कैसे किया जाता है, कोई उनसे सीखे । महानगरी में ताऊ कुछ ही दिन में एक कोल्हू का बैल बन के रह गया । दिन भर लाला ऑफिस में काम करवाता और शाम होते ही कहता कि आज तुझे ट्रक के साथ मुज़फ्फरनगर जाना है, वहां पर लाला को एक पाइप फैक्ट्री लगाने का ठेका मिला था। और आखिर ताऊ के लिए एक मनहूस दिन आया। लाला ने उसे सुबह बिक्री-कर विभाग जाने और वहा से सी फार्म लाने का हुक्म सुनाया। साथ ही १०० रूपये( पचास-पचास के दो नोट) भी दिए और कहा कि यह बाबू को दे देना, साथ ही हिदायत भी दी कि पहले सिर्फ़ एक पचास का नोट ही पकडाना, नही माने तो तब पचास और दे देना। बिक्री कर विभाग पहुच कर ताऊ ने वही किया जो लाला ने सिखा कर भेजा था, लेकिन बाबू नही माना, फ़िर उसने पूरे १०० रूपये और ऍप्लिकेशन फार्म बाबू को दिए और सी फार्म देने को कहा। बाबू ने १०० रूपये जेब में रखे और ताऊ को ५ सी फार्म पकड़ाकर बोला, अन्दर साहब से साइन करवा ले। ताऊ फार्म लेकर अन्दर बैठे उस बाबू के पास गया। उसने पुछा क्या है ? ताऊ ने कहा " साब ये सी-फार्म साइन करने थे ", बाबू बोला कितने लाया है? ताऊ बोला, ५ फार्म । बाबू चिड़ते हुए और हाथ का अंगूठा ऊँगली पर रगड़ते हुए बोला " अरे वो कितने लाया है ?" ताऊ उसका इशारा समझ कर बोला, साब १०० लाया था, मगर जिन साब ने ये फार्म दिए, उन्होंने ले लिए। बाबू बोला "तो ठीक है साइन भी उसी से करवाले, मेरे पास क्यो आया ? "..... ताऊ हडबडाकर उस बाबू की सीट की तरफ़ लपका जिसने फार्म दिए थे, मगर बाबू सीट से गायब था ! ताऊ अन्दर वाले बाबू के पास जाकर इंतज़ार करने लगा। आधा घंटा बीत गया, मगर वह नही लौटा। अन्दर वाला बाबू बोला, चल १००/- रूपये निकाल, मैं साइन कर देता हू। ताऊ क्या करता, अपने पैसो में से १००/- रूपये उसको दिए, उसने साइन किया और कहा कि चपरासी से स्टैंप लगा ले।
ताऊ चपरासी के पास गया, चपरासी ने स्टैंप लगायी और २० रूपये मागने लगा, ताऊ ने किसी तरह १० रूपये में जान छुडाई। चपरासी बोला अरे साब! यहाँ एक फार्म पे स्टैंप लगाने के ५ रुपए होते है, सो आपके २५ रूपये बनते थे, मैं तो २० ही मांग रहा था । चलो खैर, मानो वह ताऊ के ऊपर एहसान कर रहा हो। ऑफिस पहुंचकर ताऊ ने फार्म लाला को दिए, लाला बोला रूपये ५० ही दिए न ? ताऊ इस डर से की कही लाला नौकरी से न निकाल दे, बोला नही साब, १०० रूपये लिए उसने ! और लग गया सीधा सीधा ११०/- रूपये का चूना ताऊ पर ! रात को लाला ने फिर ताऊ को सामान के साथ मुज्ज़फरनगर जाने का हुक्म सुनाया। ताऊ ट्रक लेकर मुज्ज़फरनगर के लिए चल पड़ा। ट्रक में सेरामिक ईंट लदी थी, जबकि बिल में लाला ने लिखवाया था गलवानाइजिंग प्लांट एक्सेसरीज। बागपत चुंगी पर जब ड्राईवर फार्म और बिल लेकर पास बनाने गया, तो उसने फार्म भरने वाले से फार्म पर ईंट लिखा दिया।
फार्म और बिल में अंतर्विरोध देख चुंगी वाले बाबु की बांछे खिल उठी। उसने सारे कागजाद अपने टेबल की दराज में रख दिए और चाय पीने लगा। एक घंटा गुजरा, दो घंटे गुजरे, मगर कागजाद नही मिले। बाबू ने ड्राईवर से ५००/- रुपयों की मांग की थी, रात के ग्यारह बज चुके थे। ड्राईवर लोगो के लिए तो मानो यह रोज की दिनचर्या थी। ड्राईवर पास के ढाबे में खाना खाने चला गया । ताऊ उस उमस भरी गर्मी में ट्रक में बैठा एक अखबार के टुकड़े से हवा कर अपने व्यथित मन को शांत करने में लगा रहा, भूखा-प्यासा! ड्राईवर और क्लीनर खाना खा कर लौटे तो बाबू अंदर की बेंच पर खर्राटे भर रहा था। होते-करते सुबह के तीन बज गए। ड्राईवर ने हिम्मत कर बाबू को उठाया। बाबू ड्राईवर को लगभग गालिया देता हुआ उठा और बोला, यह कंपनी मुझे संदेहास्पद लगती है, इसके सारे बिल पहले मेरे पास लावो, फिर गाड़ी छोडूंगा। ड्राईवर वापस ताऊ के पास आया और उसे एक कहानी समझाई और बाबू के पास भेजा। ताऊ हाथ जोड़कर बाबू के पास पंहुचा और उससे कहा, साब मेरी अभी-अभी नौकरी लगी है, यह मेरा पहला जॉब है, मुझे एक्सपीरिएंस नही है, इसलिए फार्म में यह गलती कर गया। मगर साब, लाला मेरे को नौकरी से निकाल देगा । प्लीज़, कुछ करे ! बाबू को मानो दया आ गई हो , बोला अच्छा तेरी बात पर मै गाड़ी छोड़ रहा हूँ, मगर बर्रिएर वाले को २०० रूपये दे देना ! ताऊ मन ही मन सोच रहा था कि घूस खाने का यह भी एक अच्छा तरीका है। क्या करता, बाप बोलकर बैरियर पर बैठे शख्स को २०० रूपये दिए।
सुबह के चार बज चुके थे, ट्रक अपने गंतव्य की और निकल पड़ा। ताऊ सोच रहा था की ३१ दिन काम करने के ७५० रूपये मिलेंगे और ३६० रूपये अब तक वह अपने जेब से लगा चुका, यानि पहली पगार सिर्फ़ ३९० रूपये। चूँकि यह गलती सीधे-सीधे लाला की ही थी , जिसने ड्राइवर को खुद ही ईंट लिखवाने को कहा था! ताऊ झूट नहीं बोल सकता था क्योंकि वह उसने अपने सस्कारों में नहीं पाया था । मगर उसकी जेब पर घर से लाये जो भी पैसे थे वह ख़त्म हो चुके थे। लाला वेतन तो अभी देगा नहीं, झूठ वह बोल सकता नहीं कि चुंगी वाले ने ५००/- रूपये ही लिए ! अब क्या करे ? बड़ी दिमागी कशमकश के बाद उसने दृढ निश्चय लिया, ट्रक ड्राइवर से कुछ खुसफुसाहट की, उसे अपनी सारी मजबूरी बयान की । ड्राइवर नरम दिल हो गया और गाडी रोक, ताऊ से यह कहा कि अगर लाला तुम्हे फ़ोन पर आने को कहे तो तुम भी यही कहना कि हां, बाबू १०००/- रूपये मांग रहा है, पास के पी सी ओ पर लाला को फोन करने गया,और बोला कि गाडी पकड़ ली गई है, और बाबू १०००/- रूपये मांग रहा है। लाला ने पूछा, तुम्हारे पास इतने पैसे है ? ड्राइवर बोला हाँ ! और इस तरह ताऊ मर गया, हमेशा के लिए, इस महानगरी में !
कृपया ज़रा इस सच का भी सामना करे !
पहले स्पष्ट कर दूं कि मेरा किसी भी व्यक्ति अथवा सम्प्रदाय की धार्मिक भावनाओं को न कभी ठेश पहुचाने का कोई उद्देश्य रहा है, और न कभी ऐसी कोई कोशिश करूंगा ! चिटठा जगत पर जो लोग मुझे जानते है, वे यह भी बखूबी जानते है कि पिछले साल-छः महीने में किस तरह कुछ गिनेचुने लोगो द्वारा आम लोगो की धार्मिक भावनाओं और आस्थाओ को चोट पहुचाने का जब भी यहाँप्रयास किया गया, मैंने उसका पुरजोर विरोध किया !
हम सभी लोग जानते है कि आज के इस तकनीकी युग में हम लोग जब कभी अपने परिवारों के साथ सैर पर जाते है तो फोटो खीचते/खिचवाते है, वीडियो बनाते है, ताकि कालांतर में अपनी उन स्मृतियों को ताजा कर सके !
अब मै कुछ उन इस्लाम के चैम्पियनों, जो यहाँ पर ब्लॉग के जरिये लोगो को बड़े-बड़े उपदेश देते फिरते है, उनसे पूछना चाहता हूँ कि जो फोटो मैंने नीचे दी है, उसकी क्या उपयोगिता है ? ( गंभीरता से प्रश्न कर रहा हूँ, कृपया इसे हलके में न ले ) यदि कोई उपयोगिता नहीं है तो मेरा उनसे निवेदन है कि बजाय यहाँ पर उपदेश सुनाने के अपने समाज में जाए और इस बुराई को दूर करने का प्रयास करे ! खूबसूरती देखने के लिए ही होती है, ढकने के लिए नहीं (एक सीमा में ) !
हम सभी लोग जानते है कि आज के इस तकनीकी युग में हम लोग जब कभी अपने परिवारों के साथ सैर पर जाते है तो फोटो खीचते/खिचवाते है, वीडियो बनाते है, ताकि कालांतर में अपनी उन स्मृतियों को ताजा कर सके !
अब मै कुछ उन इस्लाम के चैम्पियनों, जो यहाँ पर ब्लॉग के जरिये लोगो को बड़े-बड़े उपदेश देते फिरते है, उनसे पूछना चाहता हूँ कि जो फोटो मैंने नीचे दी है, उसकी क्या उपयोगिता है ? ( गंभीरता से प्रश्न कर रहा हूँ, कृपया इसे हलके में न ले ) यदि कोई उपयोगिता नहीं है तो मेरा उनसे निवेदन है कि बजाय यहाँ पर उपदेश सुनाने के अपने समाज में जाए और इस बुराई को दूर करने का प्रयास करे ! खूबसूरती देखने के लिए ही होती है, ढकने के लिए नहीं (एक सीमा में ) !
आज मेरे पेट में भी सनसनी है !
आज मेरे पेट में भी सनसनी है, दो बातो की सनसनी है: पहली सनसनी तो इन इंडिया टीवी वालो ने पैदा की है ! वैसे आप लोगो को भी बता दूं कि अब त्योहारों का मौसम आ गया है, और अगर आप पुराना टीवी कबाडे में फेंककर, नया टीवी खरीदना चाहते है लेकिन अपनी पुरानी चीज से मोह आपको ऐसा करने से रोक रही है, तो मेरा सजेसन है कि अगर आप थोडा गरम किस्म के इंसान है तो किसी दिन शाम को एक पत्थर अथवा कोई सख्त वस्तु हाथ में पकड़कर इंडिया टीवी चैनल लगाकर समाचार सुनने बैठ जाइए, आपका काम आसन हो जायेगा! अब मैं आपको अपना पेटदर्द वाली बात बताता हूँ ! शायद आप लोगो ने भी परसों यानी १७ सितम्बर की शाम को इंडिया टीवी पर लद्दाख में चीन से लगी अग्रिम पोजीशन पर भारतीय सेना की तैनाती की उनके(इंडियाटीवी) साहसिक कवरेज़ को देखा होगा , तो आपने भी नोट किया होगा कि इनके सवाददाता और एंकर बार-बार यह दोहरा रहे थे कि " भारतीय सैनिक चीनी सीमा पर ....."वैसे तो कमोवेश हमारे सभी खबरिया चैनलों का भी यही हाल है पर मैं इन लोगो से विनम्र निवेदन करूंगा कि आप बोलने से पहले अपने तथ्यों को ठीक कर लिया करे ! वह चीनी सीमा नहीं, वह भारतीय इलाका है, जिसमे चीन जबरन कब्जा किये बैठा है ! अन्तराष्ट्रीय सीमा वहा से काफी आगे है !
दूसरी सनसनी : दिल्ली और एनसीआर में रहने वाले लोग, जो कि कल दफ्तर से शाम को अपने घरो को लौट रहे थे, अथवा किसी काम से जमुना पार गए हो, उन्होंने महसूस किया होगा कि दिल्ली और एन सी आर में विश्वकर्मा जी बहुत आ गए है, या पैदा हो गए है ! दो तरह के विश्वकर्मा जी सक्रीय है, एक वह जो सृजनात्मक कार्यो से नगर वासियों को परेशान किये है और एक वो कलयुगी विश्वकर्मा जो साल में तकरीबन ८-१० बार ही दर्शन देते है लेकिन विकास के वजाय विनाश ज्यादा करते है!जिनकी वजह से घंटो सड़के जाम हो जाती है और न सिर्फ आम आदमी परेशान होता है बल्कि देश को भी अरबो रूपये का चूना लग जाता है अनावश्यक तेल की खपत की वजह से ! कभी कावडे के रूप में, कभी नमाज अता करते मुल्लो के रूप में, कभी दिवाली तो कभी गुरु जयंती और कभी क्रिश्मस के रूप में ! और अब एक समस्या और जो साल दर साल विकराल रूप धारण कर रही है वह है, विश्वकर्मा जी का जलावतरण करने की समस्या ! पता नहीं हमारी यह सरकार कब इस बारे में सोचेगी और यहाँ भी सादगी बरतने के लिए नियम कानून बनाएगी ! आर्श्चय होता है कि गंगा-यमुना को प्रदुषण मुक्ति के नाम पर अरबो का बजट साफ़ करने वाले ये समाज के ठेकेदार, जो कि कभी-कभार तो पूजा की हवन सामग्री को भी नदी में अवतरित करने पर लोगो पर जुर्माना ठोक देते है, और जब इतने सारे भारी भरकम विश्वकर्मा नदियों में डुबोये जाते है, तब ये लोग पता नही कहा सोते रहते है ?
दूसरी सनसनी : दिल्ली और एनसीआर में रहने वाले लोग, जो कि कल दफ्तर से शाम को अपने घरो को लौट रहे थे, अथवा किसी काम से जमुना पार गए हो, उन्होंने महसूस किया होगा कि दिल्ली और एन सी आर में विश्वकर्मा जी बहुत आ गए है, या पैदा हो गए है ! दो तरह के विश्वकर्मा जी सक्रीय है, एक वह जो सृजनात्मक कार्यो से नगर वासियों को परेशान किये है और एक वो कलयुगी विश्वकर्मा जो साल में तकरीबन ८-१० बार ही दर्शन देते है लेकिन विकास के वजाय विनाश ज्यादा करते है!जिनकी वजह से घंटो सड़के जाम हो जाती है और न सिर्फ आम आदमी परेशान होता है बल्कि देश को भी अरबो रूपये का चूना लग जाता है अनावश्यक तेल की खपत की वजह से ! कभी कावडे के रूप में, कभी नमाज अता करते मुल्लो के रूप में, कभी दिवाली तो कभी गुरु जयंती और कभी क्रिश्मस के रूप में ! और अब एक समस्या और जो साल दर साल विकराल रूप धारण कर रही है वह है, विश्वकर्मा जी का जलावतरण करने की समस्या ! पता नहीं हमारी यह सरकार कब इस बारे में सोचेगी और यहाँ भी सादगी बरतने के लिए नियम कानून बनाएगी ! आर्श्चय होता है कि गंगा-यमुना को प्रदुषण मुक्ति के नाम पर अरबो का बजट साफ़ करने वाले ये समाज के ठेकेदार, जो कि कभी-कभार तो पूजा की हवन सामग्री को भी नदी में अवतरित करने पर लोगो पर जुर्माना ठोक देते है, और जब इतने सारे भारी भरकम विश्वकर्मा नदियों में डुबोये जाते है, तब ये लोग पता नही कहा सोते रहते है ?
Friday, September 18, 2009
सच बोलने का इनाम !
अभी-अभी नेट पर एक खबर पढ़ रहा था;
Congress on Tharoor comment: Action at appropriate time
Reacting to the controversy over Shashi Tharoor’s comment on Twitter, Congress spokesperson on Friday said, “Action will be taken at an appropriate time.”
जाति तौर पर यह कौंग्रेस का अंदरूनी मामला है और वह इसे किस रूप में लेते है, उनका अपना अधिकार क्षेत्र है, अतः उस पर टीका-टिपण्णी करना मै उचित नहीं समझता! लेकिन लीक से हटकर कुछ बाते कहना चाहता हूँ ; मसलन कल परसों की ही तो बात है, जब कौंग्रेस ने जसवंत सिंह की किताब पर उन्हें बीजेपी द्बारा निष्काषित करने पर कहा था कि बीजेपी के अन्दर किसी नेता को अभिव्यक्ति की भी स्वतंत्रता नहीं है ! और जब खुद की बारी आई तो >>>>>>>>>> !
दूसरी बात यह कि जब यह खबर आई थी तो शायद मै सबसे पहला व्यक्ति रहा हूँगा जिसने कि चिट्ठा जगत पर यह टिपण्णी दी थी कि मैं शशि थरूर की बात का समर्थन करता हूँ! उसका कारण यह नहीं था कि उन्होंने इकोनोमी क्लास में सफ़र करने वालो को मवेशी कहा, बल्कि वह इसलिए कि उन्होंने एक हकीकत वयां की, बस उनका अंदाजे बया थोडा बड़े घराने के बिगडैल लड़के जैसा था ! आप लोग भी जब हवाई जहाज से "कैटल क्लास में" लम्बी यात्रा करते होंगे तो आपने नोट किया होगा कि सफ़र कितना कष्टदायक रहता है! दिल्ली से त्रिवेंद्रम के चार घंटे के सफ़र में ही इंसान कुकडू कू बोलने लगता है तो ज़रा सोचिये, जो इंसान दिल्ली से न्युयोर्क की सीधी फ्लाईट पकड़कर १७-१८ घंटे उस इकोनोमी क्लास की सीट में, जिसमे कि आप ठीक से पैर भी पूरे नहीं पसार पाते, उसकी १७-१८ घंटे में क्या हालत होती होगी? ऊपर से बीच में उठकर थोडा टायलेट की तरफ जाना चाहो तो तभी क्रू का अनाउंसमेंट कि मौसम खराब होने की वजह से विमान परेशानी महसूस कर रहा है अतः कृपया अपनी सीट पर बैठे रहिये और सीट बेल्ट बांधे रखे !
कहने का तात्पर्य मेरा यह है कि क्या कभी हमने इस ओर ध्यान देने की कोशिश की कि इकोनोमी क्लास में सफ़र करने वाला यात्री क्या दिक्कत महसूस कर रहा है ? क्या कभी हमने सोचा कि विमान में सीटे घटाकर, सीटो के मध्य इतनी जगह बना सके कि यात्री खुलकर बैठ सके? उन्होंने न सिर्फ इस बात को इस देश के लोगो के लिए ही उठाया है अपितु पूरी दुनिया के उन लोगो के लिए उठाया है जो इकोनोमी क्लास में सफ़र करते है ! और एक बात और कि तमाम राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय विमान कंपनियों को उनको कम से कम बिजनेस क्लास का एक टिकट फ्री देना चाहिए, क्योंकि उन्होंने उनके विमान के बिजनेस क्लास की अहमियत सिर्फ एक ट्वीट से बढा दी है!
Congress on Tharoor comment: Action at appropriate time
Reacting to the controversy over Shashi Tharoor’s comment on Twitter, Congress spokesperson on Friday said, “Action will be taken at an appropriate time.”
जाति तौर पर यह कौंग्रेस का अंदरूनी मामला है और वह इसे किस रूप में लेते है, उनका अपना अधिकार क्षेत्र है, अतः उस पर टीका-टिपण्णी करना मै उचित नहीं समझता! लेकिन लीक से हटकर कुछ बाते कहना चाहता हूँ ; मसलन कल परसों की ही तो बात है, जब कौंग्रेस ने जसवंत सिंह की किताब पर उन्हें बीजेपी द्बारा निष्काषित करने पर कहा था कि बीजेपी के अन्दर किसी नेता को अभिव्यक्ति की भी स्वतंत्रता नहीं है ! और जब खुद की बारी आई तो >>>>>>>>>> !
दूसरी बात यह कि जब यह खबर आई थी तो शायद मै सबसे पहला व्यक्ति रहा हूँगा जिसने कि चिट्ठा जगत पर यह टिपण्णी दी थी कि मैं शशि थरूर की बात का समर्थन करता हूँ! उसका कारण यह नहीं था कि उन्होंने इकोनोमी क्लास में सफ़र करने वालो को मवेशी कहा, बल्कि वह इसलिए कि उन्होंने एक हकीकत वयां की, बस उनका अंदाजे बया थोडा बड़े घराने के बिगडैल लड़के जैसा था ! आप लोग भी जब हवाई जहाज से "कैटल क्लास में" लम्बी यात्रा करते होंगे तो आपने नोट किया होगा कि सफ़र कितना कष्टदायक रहता है! दिल्ली से त्रिवेंद्रम के चार घंटे के सफ़र में ही इंसान कुकडू कू बोलने लगता है तो ज़रा सोचिये, जो इंसान दिल्ली से न्युयोर्क की सीधी फ्लाईट पकड़कर १७-१८ घंटे उस इकोनोमी क्लास की सीट में, जिसमे कि आप ठीक से पैर भी पूरे नहीं पसार पाते, उसकी १७-१८ घंटे में क्या हालत होती होगी? ऊपर से बीच में उठकर थोडा टायलेट की तरफ जाना चाहो तो तभी क्रू का अनाउंसमेंट कि मौसम खराब होने की वजह से विमान परेशानी महसूस कर रहा है अतः कृपया अपनी सीट पर बैठे रहिये और सीट बेल्ट बांधे रखे !
कहने का तात्पर्य मेरा यह है कि क्या कभी हमने इस ओर ध्यान देने की कोशिश की कि इकोनोमी क्लास में सफ़र करने वाला यात्री क्या दिक्कत महसूस कर रहा है ? क्या कभी हमने सोचा कि विमान में सीटे घटाकर, सीटो के मध्य इतनी जगह बना सके कि यात्री खुलकर बैठ सके? उन्होंने न सिर्फ इस बात को इस देश के लोगो के लिए ही उठाया है अपितु पूरी दुनिया के उन लोगो के लिए उठाया है जो इकोनोमी क्लास में सफ़र करते है ! और एक बात और कि तमाम राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय विमान कंपनियों को उनको कम से कम बिजनेस क्लास का एक टिकट फ्री देना चाहिए, क्योंकि उन्होंने उनके विमान के बिजनेस क्लास की अहमियत सिर्फ एक ट्वीट से बढा दी है!
Wednesday, September 16, 2009
AUSTERITY (तपस्या): इन्हें कब से त्याग, तप की जरुरत महसूस होने लगी?
कल पाकिस्तान के एक प्रमुख दैनिक डॉन की वेब साईट पर उसके नई दिल्ली स्थित रिपोर्टर श्री जावेद नकवी का लेख पढ़ रहा था "Is India really a big nation, which behaves small? " यूँ तो आदतन पाकिस्तानी लेखको की न सिर्फ जुबान अपितु कलम भी पूर्वाग्रह में डूबी रहती है, मगर कुछ बाते जरूर उन्होंने काफी सटीक ढंग से लिखी है, और जो कुछ क्षण को सोचने पर मजबूर करती है! और जैसा कि हमारे मीडिया की जिम्मेदाराना (गैर शब्द नहीं लिखूंगा) हरकतों पर हर कोई उंगली उठाता है, तो उन्होंने भी उठाई है, और जमकर उठाई है!
एक बात और जो सोचने पर मजबूर करती है, वह यह है कि जबसे इंडियन एक्सप्रेस ने सत्ता में बैठे इन नेताओं के पांच सितारा होटल-प्रेम का भंडा-फोड़ किया, तब से अपराधी का आपराधिक मन नए फंडे अपनाकर, अपनी छवि सुधारने और क्षति नियंत्रण में लगा है! और इसमें इनकी भरपूर मदद कर रहा है,, हमारा वह तथाकथित सेकुलर और चापलूस मीडिया! अभी ऐसे ही एक मीडिया की एक हेड लाइन पढ़ रहा था,, लिखा था (अग्रेजी हेडिंग थी उसे हिन्दी में अनुवाद कर लिख रहा हूँ) "ट्रेन पर हुए पथराव ने राहुल के सुरक्षा प्रबंधों की पोल खोली" ! अब इन्हें कौन पूछे कि भाई, क्या चाहते थे आप कि लुधियाना से दिल्ली तक पूरी रेलवे लाइन के दोनों तरफ पुलिस फोर्स लगा देते, राहुल भैया के लिए? क्या पता नौटंकी में उस्ताद इन्ही के किसी रंग कर्मी की यह करतूत रही हो, ताकि इनके युवराज को सुरक्षा कारणों की दुहाई देकर आगे से और ट्रेन से सफ़र ना करना पड़े ! कितनी अजीब बात है कि आगे-पीछे की बोगियों पर पत्थर लगते है और उस बोगी पर एक भी पत्थर नहीं लगता, जिसमे भैया बैठे थे !!
अंत में मैं एक बात और कहना चाहता हूँ कि कितने शर्म की बात है कि आजादी के ६२ सालो के बाद भी हमारे नेताओं को उनके आँका AUSTERITY(तपस्या, त्याग ) के उपदेश दे रहे है, और शर्मिन्दा होने के वजाए, ये नेता इस बात पर उन आकाँवो का महिमा मंडन करने पर तुले है! मैं पूछता हूँ कि दुनिया के तथाकथित सबसे बड़े लोकतंत्र के सवा सौ करोड़ की आवादी के इस देश के सांसद को क्या आज भी यह बताने की जरुरत है कि वह कौन से होटल में कितने रूपये प्रतिदिन के किराये पर रहे और कौन सी क्लास में यात्रा करे ?
एक बात और जो सोचने पर मजबूर करती है, वह यह है कि जबसे इंडियन एक्सप्रेस ने सत्ता में बैठे इन नेताओं के पांच सितारा होटल-प्रेम का भंडा-फोड़ किया, तब से अपराधी का आपराधिक मन नए फंडे अपनाकर, अपनी छवि सुधारने और क्षति नियंत्रण में लगा है! और इसमें इनकी भरपूर मदद कर रहा है,, हमारा वह तथाकथित सेकुलर और चापलूस मीडिया! अभी ऐसे ही एक मीडिया की एक हेड लाइन पढ़ रहा था,, लिखा था (अग्रेजी हेडिंग थी उसे हिन्दी में अनुवाद कर लिख रहा हूँ) "ट्रेन पर हुए पथराव ने राहुल के सुरक्षा प्रबंधों की पोल खोली" ! अब इन्हें कौन पूछे कि भाई, क्या चाहते थे आप कि लुधियाना से दिल्ली तक पूरी रेलवे लाइन के दोनों तरफ पुलिस फोर्स लगा देते, राहुल भैया के लिए? क्या पता नौटंकी में उस्ताद इन्ही के किसी रंग कर्मी की यह करतूत रही हो, ताकि इनके युवराज को सुरक्षा कारणों की दुहाई देकर आगे से और ट्रेन से सफ़र ना करना पड़े ! कितनी अजीब बात है कि आगे-पीछे की बोगियों पर पत्थर लगते है और उस बोगी पर एक भी पत्थर नहीं लगता, जिसमे भैया बैठे थे !!
अंत में मैं एक बात और कहना चाहता हूँ कि कितने शर्म की बात है कि आजादी के ६२ सालो के बाद भी हमारे नेताओं को उनके आँका AUSTERITY(तपस्या, त्याग ) के उपदेश दे रहे है, और शर्मिन्दा होने के वजाए, ये नेता इस बात पर उन आकाँवो का महिमा मंडन करने पर तुले है! मैं पूछता हूँ कि दुनिया के तथाकथित सबसे बड़े लोकतंत्र के सवा सौ करोड़ की आवादी के इस देश के सांसद को क्या आज भी यह बताने की जरुरत है कि वह कौन से होटल में कितने रूपये प्रतिदिन के किराये पर रहे और कौन सी क्लास में यात्रा करे ?
इसतरह दूसरो को मुफ्त वाशिंग पाउडर बांटने से पहले,
तनिक अपना मैला गिरेवाँ भी टटोल लिया होता यारो !!
मेरा भारत महान !
Tuesday, September 15, 2009
झलकियाँ:
बाघा बॉर्डर: कल सुरेश चिपलूनकर जी का एक लेख पढा कि किस तरह पाकिस्तानी मीडिया हमारी उन बहनों को जो देश सेवा का जज्बा लेकर सेना और अर्द्धसैनिक बलों में भर्ती हुई है, उन्हें गालियाँ देता है! यूं ही ख्यालो में खोया, सोच रहा था कि हम हिन्दुस्तानी भी बड़े अजीब किस्म के प्राणि है! शान्ति-शान्ति करते हुए भी हमने तीन-तीन प्रत्यक्ष गुलामिया झेली ! परोक्ष गुलामी तो रोज ही झेलते है, क्योंकि गुलामी झेलना हमारे खून में है,मगर फिर भी सुधरने का नाम नहीं लेते! आप लोगो में से बहुतो ने बाघा बॉर्डर पर प्रत्यक्ष तौर पर जाकर और टेलीवीजन पर देखा होगा कि किस तरह शाम के वक्त सीमा पर किवाड़ खोलते वक्त दोनों देशो के जवान नौटंकी करते है ! मेरा कहना यह है कि क्या वाकई इस नौटंकी की जरुरत है, खासकर भारत के लिए? हम भारतीयों में इतना अहम् कब आयेगा कि हम अपने को उस दो कौडी के पाकिस्तान से ऊपर समझने लगे? क्या ही अच्छा होता कि वह किवाड़ सदा के लिए ही बंद कर दिया जाता! और जब कभी-कभार खोलने की जरुरत पड़ती भी, तो गेट खोलते वक्त खोलने वाला जवान गले से जोर से खंगारने के बाद मुह में आये थूक को सीमा के उस तरफ थू करके थूक देता!
फर्जी मुठभेड़: जैसा कि मै पहले भी कई बार लिख चुका कि इसमें कोई बहुत बड़ा आर्श्चय नहीं होना चाहिए अगर हमारे देश में इतनी होने वाली फर्जी मुठभेडों के साथ ही अहमदाबाद वाली मुठभेड़ भी फर्जी निकल आये ! लेकिन इससे सम्बंधित रिपोर्ट को जिस तरह गुजरात उपचुनाव (१० सितम्बर) से ठीक पहले हाईकोर्ट की रोक के बावजूद खूब हो-हल्ला करके उछाला गया( हालांकि उसका इनको फायदे की वजाए नुकशान ही उठाना पडा) क्या यह सब देख मन में संदेह नहीं होता?
कॉमनवेल्थ खेल: हर हिन्दुस्तानी को ईश्वर से यह प्रार्थना करनी चाहिए कि कामनवेल्थ खेलो से पहले हमारी सारी तैयारियां नियत समय पर हो जाए और खेल एक ठीक-ठाक ढंग से निपट जाए, क्योंकि इसमें पूरे देश की नाक का सवाल है ! और तब हमारे लिए इसका महत्व और भी बढ़ जाता है कि जब हम जानते हो कि विदेशो में स्थित भारत विरोधी लॉबी हमें नीचा दिखाने की पुरजोर कोशिश कर रही हो! लेकिन मेरा सवाल यह है कि सालो से यह जानते हुए भी कि २०१० के खेल भारत में होने है, हमारी सरकारे क्या कर रही थी? कही ऐसा तो नहीं कि दिल्ली और केंद्र में बैठी सरकारे अपने पिछले कार्यकाल में यह मानकर चल रही थी, कि अगली बार किसी भी कीमत पर ये सत्ता में नही आयेंगी, अतः सारा टेंशन आने वाली सरकार के लिए छोड़ दो! लेकिन सौभाग्य और दुर्भाग्यबश ये पुनः सत्ता में आ गए और पासा उलटा पड़ गया ?
और चलते-चलते एक कविता: रहम करो !
इस तरह ख़ाक में मिलाकर,
न अरमान जाइए !
कातिल दुनिया की,
तुम्हे लग जाएगी नजर,
गुस्से को थूकिये, जान-ए-जाँ,
और बात मेरी मान जाईये !!
जालिम जमाने में,
गुजरना पडेगा तुम्हे उस,
अंजुमन के पास से अकेले-अकेले,
कोई सिरफिरा-ए-इश्क का मारा,
कहीं तुम्हारी नाजुक कलाई न मरोड़ दे !
यों बेपरदा होकर,
क्यों जाती हो छत पर,
मेरी जान! ईद का मौसम है,
और आस-पडोश का कोई उन्मत्त,
तुम्हे चाँद समझकर रोजा न तोड़ दे !!
फर्जी मुठभेड़: जैसा कि मै पहले भी कई बार लिख चुका कि इसमें कोई बहुत बड़ा आर्श्चय नहीं होना चाहिए अगर हमारे देश में इतनी होने वाली फर्जी मुठभेडों के साथ ही अहमदाबाद वाली मुठभेड़ भी फर्जी निकल आये ! लेकिन इससे सम्बंधित रिपोर्ट को जिस तरह गुजरात उपचुनाव (१० सितम्बर) से ठीक पहले हाईकोर्ट की रोक के बावजूद खूब हो-हल्ला करके उछाला गया( हालांकि उसका इनको फायदे की वजाए नुकशान ही उठाना पडा) क्या यह सब देख मन में संदेह नहीं होता?
कॉमनवेल्थ खेल: हर हिन्दुस्तानी को ईश्वर से यह प्रार्थना करनी चाहिए कि कामनवेल्थ खेलो से पहले हमारी सारी तैयारियां नियत समय पर हो जाए और खेल एक ठीक-ठाक ढंग से निपट जाए, क्योंकि इसमें पूरे देश की नाक का सवाल है ! और तब हमारे लिए इसका महत्व और भी बढ़ जाता है कि जब हम जानते हो कि विदेशो में स्थित भारत विरोधी लॉबी हमें नीचा दिखाने की पुरजोर कोशिश कर रही हो! लेकिन मेरा सवाल यह है कि सालो से यह जानते हुए भी कि २०१० के खेल भारत में होने है, हमारी सरकारे क्या कर रही थी? कही ऐसा तो नहीं कि दिल्ली और केंद्र में बैठी सरकारे अपने पिछले कार्यकाल में यह मानकर चल रही थी, कि अगली बार किसी भी कीमत पर ये सत्ता में नही आयेंगी, अतः सारा टेंशन आने वाली सरकार के लिए छोड़ दो! लेकिन सौभाग्य और दुर्भाग्यबश ये पुनः सत्ता में आ गए और पासा उलटा पड़ गया ?
और चलते-चलते एक कविता: रहम करो !
इस तरह ख़ाक में मिलाकर,
न अरमान जाइए !
कातिल दुनिया की,
तुम्हे लग जाएगी नजर,
गुस्से को थूकिये, जान-ए-जाँ,
और बात मेरी मान जाईये !!
जालिम जमाने में,
गुजरना पडेगा तुम्हे उस,
अंजुमन के पास से अकेले-अकेले,
कोई सिरफिरा-ए-इश्क का मारा,
कहीं तुम्हारी नाजुक कलाई न मरोड़ दे !
यों बेपरदा होकर,
क्यों जाती हो छत पर,
मेरी जान! ईद का मौसम है,
और आस-पडोश का कोई उन्मत्त,
तुम्हे चाँद समझकर रोजा न तोड़ दे !!
Monday, September 14, 2009
भैया की नौटंकी और बहिना का केक !
आप लोग भी कल से सभी संचार माध्यमो के जरिये एक खबर काफ़ी जोर-शोर से पढ, सुन और देख रहे होगें कि भैया जी ने बहिना को बिना बताये ही अपने उत्तम प्रदेश की “सरप्राइज विजिट “ कर दी और नेपाल से सटे एक गांव मे एक दलित महिला के घर रुके । बताया जाता है कि एक बूढी दलित महिला ने भैया के इस अचानक आगमन पर खूब आंसू भी बहाये । समझ मे नही आता कि भैया जी ने इस तरह की नौटंकी कर कौन सी नई बात कर दी ? आपको याद होगा कि ऐसी ही नौटंकिया भैया जी ने मुलायम सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल मे भी बहुत बार की थी, नतीजा क्या निकला ? हां, अगर कुछ अन्होनी हो जाये, तो दो-चार पुलिस अधिकारियो और सुरक्षा कर्मियो के लिये ये मुसीबत जरूर खडी कर सकते है ।
कोई इनसे पूछे कि ऐसी नौटंकिया करके ये जनाव किसे बेवकूफ़ बना रहे है ? जब केन्द्र की सत्ता इनके और इनकी माता जी के इर्द-गिर्द घूम रही है, फिर क्या ये उन दलित महिलाओ को वह दाल जो वे ८० से १०० रुपये कीलो खरीद रहे है, उसके पुराने भाव २५-३०रुपये प्रति कीलो की दर से मुहैया करा सकते है? क्या ये उनके अकाल और भुखमरी को यह जनाव दूर कर सकते है ? जिस पैसे को बहिना ने मूर्तिया बनाने पर युं ही जाया कर दिया, क्या केन्द्र की सत्ता मे रहते हुए ये उस पैसे के दुरुपयोग को रोक नही सकते थे, और उसका इस्तेमाल सूखा राहत पर नही किया जा सकता था क्या ? मुलायम सिंह के काल मे जो सपने इन्होने उन भोले-भाले दलितो को दिखाये, उनका क्या हुआ ?
दूसरी तरफ़, आपको याद होगा कि अभी कुछ दिन पहले मैने एक लेख “अंधेर नगरी” शीर्षक से इसी ब्लोग पर लिखा था। और जिसमे मैने इस बात का उल्लेख किया था कि गाजियाबाद के एक शराब विक्रेता द्वारा शराब के पौवे पर एम आर पी से पांच रुपये अधिक लेने पर जब मैने उससे ऐतराज जताया था तो उसने मुझे टका सा जबाब दिया था कि “पांच रुपये बहिन जी के खाते मे” ! कल किसी काम से दिल्ली से नोएडा जाना हुआ। यह जानने के लिये कि उस शराब विक्रेता की बात मे कितनी सच्चाई है, मैने जानबूझ कर वहां की शराब की एक दुकान से वही ब्रैन्ड फिर से खरीदा, जबकि मुझे मालूम था कि इसके एक तिहाई कम दाम पर वह मुझे वह दिल्ली से मिल सकती है। उस विक्रेता ने भी ९० रुपये काटे, उससे भी मैने वही सवाल किया कि भैया इस पर एमआरपी तो ८५ रुपये है, तो उसका जबाब सुन मै दंग रह गया । उसने कहा कि भैया, ऊपर से आदेश है कि हर पौवे पर पांच रुपये, अद्द्धे पर दस रुपये और बोतल पर १५ रुपये एमआरपी रेट से अधिक लिये जायें। मैने उसे जब गाजियाबाद वाले विक्रेता की कही बात उसे बताई कि वह कह रहा था कि पांच रुपये बहन जी के खाते मे….. तो वह बोला, कि उसने आपको एकदम दुरस्त बात बताई ।
अब आप लोग खुद ही सोच लीजिये कि क्या यह अतिरिक्त बोझ उपभोक्ता पर नही पड रहा ?क्या कोइ यह जानने की कोशिश करेगा कि यह अतिरिक्त वसूली आखिर जा कहां रही है? क्या केक की कीमत वसूलने का यह नया फन्डा है, इस अन्धेर नगरी मे ? क्या सिर्फ़ वोट की राजनीति से हटकर भैया और केक की राजनीति से हटकर बहिना के पास इन बातो और आम जनता की तकलीफ़ो के बारे मे सोचने की फुर्सत है?
मुद्दतें हुई इन अधरों को, मदिरा का इक घूँट तक छुए हुए,
साकी भी न जाने क्यों आजकल, अश्कों के ही जाम परोसता है !
कोई इनसे पूछे कि ऐसी नौटंकिया करके ये जनाव किसे बेवकूफ़ बना रहे है ? जब केन्द्र की सत्ता इनके और इनकी माता जी के इर्द-गिर्द घूम रही है, फिर क्या ये उन दलित महिलाओ को वह दाल जो वे ८० से १०० रुपये कीलो खरीद रहे है, उसके पुराने भाव २५-३०रुपये प्रति कीलो की दर से मुहैया करा सकते है? क्या ये उनके अकाल और भुखमरी को यह जनाव दूर कर सकते है ? जिस पैसे को बहिना ने मूर्तिया बनाने पर युं ही जाया कर दिया, क्या केन्द्र की सत्ता मे रहते हुए ये उस पैसे के दुरुपयोग को रोक नही सकते थे, और उसका इस्तेमाल सूखा राहत पर नही किया जा सकता था क्या ? मुलायम सिंह के काल मे जो सपने इन्होने उन भोले-भाले दलितो को दिखाये, उनका क्या हुआ ?
दूसरी तरफ़, आपको याद होगा कि अभी कुछ दिन पहले मैने एक लेख “अंधेर नगरी” शीर्षक से इसी ब्लोग पर लिखा था। और जिसमे मैने इस बात का उल्लेख किया था कि गाजियाबाद के एक शराब विक्रेता द्वारा शराब के पौवे पर एम आर पी से पांच रुपये अधिक लेने पर जब मैने उससे ऐतराज जताया था तो उसने मुझे टका सा जबाब दिया था कि “पांच रुपये बहिन जी के खाते मे” ! कल किसी काम से दिल्ली से नोएडा जाना हुआ। यह जानने के लिये कि उस शराब विक्रेता की बात मे कितनी सच्चाई है, मैने जानबूझ कर वहां की शराब की एक दुकान से वही ब्रैन्ड फिर से खरीदा, जबकि मुझे मालूम था कि इसके एक तिहाई कम दाम पर वह मुझे वह दिल्ली से मिल सकती है। उस विक्रेता ने भी ९० रुपये काटे, उससे भी मैने वही सवाल किया कि भैया इस पर एमआरपी तो ८५ रुपये है, तो उसका जबाब सुन मै दंग रह गया । उसने कहा कि भैया, ऊपर से आदेश है कि हर पौवे पर पांच रुपये, अद्द्धे पर दस रुपये और बोतल पर १५ रुपये एमआरपी रेट से अधिक लिये जायें। मैने उसे जब गाजियाबाद वाले विक्रेता की कही बात उसे बताई कि वह कह रहा था कि पांच रुपये बहन जी के खाते मे….. तो वह बोला, कि उसने आपको एकदम दुरस्त बात बताई ।
अब आप लोग खुद ही सोच लीजिये कि क्या यह अतिरिक्त बोझ उपभोक्ता पर नही पड रहा ?क्या कोइ यह जानने की कोशिश करेगा कि यह अतिरिक्त वसूली आखिर जा कहां रही है? क्या केक की कीमत वसूलने का यह नया फन्डा है, इस अन्धेर नगरी मे ? क्या सिर्फ़ वोट की राजनीति से हटकर भैया और केक की राजनीति से हटकर बहिना के पास इन बातो और आम जनता की तकलीफ़ो के बारे मे सोचने की फुर्सत है?
मुद्दतें हुई इन अधरों को, मदिरा का इक घूँट तक छुए हुए,
साकी भी न जाने क्यों आजकल, अश्कों के ही जाम परोसता है !
गरीब-गुरबों की भाषा का दिवस !
बडी खुशी की बात है कि आज हमारा देश ’राष्ट्र भाषा हिन्दी दिवस’ इस खास दिन पर मना रहा है । मगर वास्तविक तौर पर इस राष्ट्र भाषा की स्थिति क्या है, यह बताने की जरुरत नही। तारीफ़ करनी होगी उन अंग्रेजो की, जिन्होने न सिर्फ़ दुनिया को गुलामी की जंजीरो मे जकडा, अपितु हर एक इन्सान पर गुलामियत की एक ऐसी अनोखी छाप भी छोड दी जो, अब शायद मिटाये ना मिटे। उनकी वह भाषा अब सभ्य और अमीर कहलाने वाले लोगो की भाषा बन चुकी है। हमारे इस भारत देश मे ही देख लीजिये कि हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी आज एक गरीब-गुरबे की भाषा बन कर रह गई है। भाषा ने दिमागी तौर पर भी इन्सान-इन्सान मे अमीर-गरीब का एक ऐसा खासा अन्तर खडा कर दिया है कि यहां आपके मुख से निकले शुरुआती शब्द आपकी पह्चान और समाज मे आपकी हैसियत का माप-दण्ड बन जाते है। इसे एक उदाहरण के तौर पर इस तरह से देख सकते है कि मान लीजिये, आप देश के किसी अजनवी शहर मे जाते है, और एक होटल मे कमरा पूछने हेतु उसके स्वागत कक्ष मे पहुचकर कमरे और किराये के बारे मे जानकारी लेते है। अगर आपने अपना सुरुआती परिचय हिन्दी मे देकर पूछताछ की तो आप पायेंगे कि आपके साथ उस होटल के कर्मचारियों का व्यवहार उतना गर्मजोशी भरा नही है, जितना कि तब होता, यदि आपने अंग्रेजी मे पूछताछ की होती ।
मै यह एक भाषायी मानसिकता का अन्तर बता रहा हूं, जो हमारे बीच है। दक्षिण के राज्यों, विशेषकर तमिलनाडु मे चले जाइये, आपको अंग्रेजी और हिन्दी की मह्ता मे क्या फर्क है, एकदम साफ मह्सूस हो जायेगा। ऐसा भी नही है कि सारा दक्षिण भारत ही हिन्दी से नफ़रत करता हो , कुछ लोग इसके अपवाद भी है, जो अपनी इस राष्ट्र भाषा से लगाव भी रखते है, ऐसे ही लोगो मे यहां इस चिठठा जगत मे अनेकों सम्मानित चिठ्ठाकार भी है, जो दक्षिण से सम्बद्ध होते हुए भी, जिन्हे हिन्दी से प्रेम है, कुछ उम्र दराज दक्षिण भारतीय चिट्ठाकारो का हिन्दी प्रेम मुझे नितांत सराह्नीय लगा ।
खैर, इन सब बातों से आप सभी लोग भी भली भांति परिचित है, इसलिये इस बारे मे अधिक कुछ नही कहुंगा ! जो मै आज के इस सुअवसर पर यहां कहना चाहता हूं, वह यह कि आज हम हिन्दी के हजारों चिठ्ठाकार यहां अपनी-अपनी मौलिक, समसामयिक, राजनैतिक, आर्थिक और मनोरंजनात्मक रचनाओ और विचारो को इस प्लेटफार्म पर एक दूसरे से न सिर्फ़ बांटते है अपितु एक दूसरे के सुख-दुख मे भी भागीदार बनते जा रहे है । और यह सब सम्भव हो पाया है उन लोगो और सस्थाओं के अथक प्रयास से, जिन्होने हमे यहां हिन्दी मे लेखन की सुविधा उपलब्ध कराई ।
तो आईये, आज हम सब "गरीब" हिन्दी चिठ्ठाकार मिलकर इस खास अवसर पर और कुछ नही तो उन सब लोगो और संस्थाओ का अभिनन्दन एवं हार्दिक धन्यवाद करें, जिन्होने अपने अथक प्रयास से हमारे लिये हिन्दी लेखन को आसान बनाने मे अपना मह्त्वपूर्ण योगदान दिया ।
तज दिया सबल ने, निर्बल के मुख है डेरा,
हिन्दी हूँ मै, वतन है हिन्दोस्तां मेरा !!जय हिन्द !
मै यह एक भाषायी मानसिकता का अन्तर बता रहा हूं, जो हमारे बीच है। दक्षिण के राज्यों, विशेषकर तमिलनाडु मे चले जाइये, आपको अंग्रेजी और हिन्दी की मह्ता मे क्या फर्क है, एकदम साफ मह्सूस हो जायेगा। ऐसा भी नही है कि सारा दक्षिण भारत ही हिन्दी से नफ़रत करता हो , कुछ लोग इसके अपवाद भी है, जो अपनी इस राष्ट्र भाषा से लगाव भी रखते है, ऐसे ही लोगो मे यहां इस चिठठा जगत मे अनेकों सम्मानित चिठ्ठाकार भी है, जो दक्षिण से सम्बद्ध होते हुए भी, जिन्हे हिन्दी से प्रेम है, कुछ उम्र दराज दक्षिण भारतीय चिट्ठाकारो का हिन्दी प्रेम मुझे नितांत सराह्नीय लगा ।
खैर, इन सब बातों से आप सभी लोग भी भली भांति परिचित है, इसलिये इस बारे मे अधिक कुछ नही कहुंगा ! जो मै आज के इस सुअवसर पर यहां कहना चाहता हूं, वह यह कि आज हम हिन्दी के हजारों चिठ्ठाकार यहां अपनी-अपनी मौलिक, समसामयिक, राजनैतिक, आर्थिक और मनोरंजनात्मक रचनाओ और विचारो को इस प्लेटफार्म पर एक दूसरे से न सिर्फ़ बांटते है अपितु एक दूसरे के सुख-दुख मे भी भागीदार बनते जा रहे है । और यह सब सम्भव हो पाया है उन लोगो और सस्थाओं के अथक प्रयास से, जिन्होने हमे यहां हिन्दी मे लेखन की सुविधा उपलब्ध कराई ।
तो आईये, आज हम सब "गरीब" हिन्दी चिठ्ठाकार मिलकर इस खास अवसर पर और कुछ नही तो उन सब लोगो और संस्थाओ का अभिनन्दन एवं हार्दिक धन्यवाद करें, जिन्होने अपने अथक प्रयास से हमारे लिये हिन्दी लेखन को आसान बनाने मे अपना मह्त्वपूर्ण योगदान दिया ।
तज दिया सबल ने, निर्बल के मुख है डेरा,
हिन्दी हूँ मै, वतन है हिन्दोस्तां मेरा !!जय हिन्द !
Sunday, September 13, 2009
मेरा पोता ! बडा होकर नेता बनेगा !!
रविवार का दिन, काफ़ी दिनो बाद जाके आसमान साफ़ हुआ । सुबह की भीनी-भीनी धूप और मुहल्ले के पार्क मे एक बेंच पर बैठे मिश्रा जी मिल गये । अपनी रिटायर्ड जिन्दगी की अपने नाती-पोतो के संग सुबह की सैर का मजा ही कुछ और होता है ! बच्चे खेलने मे व्यस्त थे, और मिश्रा जी लगे आज की राजनीति का दुख्डा रोने । देश मंदी की मार झेल रहा है, ये कहते है कि इनके पास साधनों की कमी है। एक तरफ़ हमारे जवान-जवान सैनिक पुराने पड चुके हथियारो से ही दुश्मन से लोहा लेने को मजबूर है, पाकिस्तानी सीमा पर आतकंवादियों से जुझने के लिये उनके पास अन्धेरे मे देख सकने वाले उपकरणों की भारी कमी है । दूसरी तरफ़ अगर किसी नेता का हैलीकौप्टर कहीं गुम हो जाये तो उसे ढूढने हेतु इनके पास सारे उपकरण उपलब्ध है । तीन दशको से पूर्व खरीदे गये लडाकू जहाजो को भी आज हमारे सैनिको को कफ़न सिर पर बाध कर उडाना पड रहा है । ये कहते है कि नये लडाकू जहाज खरीदने के लिये इनके पास धन उप्लब्ध नही है, दूसरी तरफ़ इनके मन्त्री एक-एक लाख रुपये रोज के किराये के कमरों मे महिनो से रह रहे है । जिन भूखे-नंगो ने कभी अपने घर मे पूरे पांव पसार कर सोने के लिये बिस्तर नही पाया था ,उन्हे हवाई जहाजों की एकोनोमी क्लास की सीटे अब संकरी महसूस होती है। कोई उन्हे अगर इस फिजूल खर्ची के बारे मे पूछ्ता है तो कहते है, हम अपने पैसों से ऐश कर रहे है । कोई आम आदमी अगर ऐसा कह्ता तो ये सीबीडीटी वाले तुरन्त उसके घर पहुच पूछ्ना सुरु कर देते कि यह पैसा तेरे पास कहां से आया ? लेकिन इनकी दफ़े तो ये भी पता नही कहां मर गये? आज हर जगह इन्ही की तूती बोलती है, आजकल तो बस हरामखोरो और कमीनों का ही जमाना है, जनता भी मूर्ख …………..!
मिश्रा जी कहे जा रहे थे और मै उनकी हां मे हां मिलाये जा रहा था, कि तभी उनका छोटे बेटे का चार वर्षीय बेटा, यानि मिश्रा जी का पोता उनके पास पहुंच गया । गुस्सैल सा मुंह बनाये था, और आते ही लगा दनादन दादा को लात मारने । मैने पूछा कि ये जनाव क्यो इतने नाराज है ? वे बोले, सबेरे उठते ही चाकलेट की मांग रख दी थी, मैने किसी तरह समझाया बुझाया कि मै नाश्ते के बाद तुम्हें चाकलेट खरीद कर दूंगा । ये जनाव भी हमारे आजकल के किसी नेता से कम नही हैं । किसी और भाई-बहन को कोई अच्छी चीज़ देख ले तो बस छीन कर ले लेगा। जब छीनने मे कामयाव न रहे तो एकदम चिकनी-चुपडी मीठी-मीठी बातें करने लगेगा, लेकिन जब अपने पास इसके कोई बढिया चीज हो और कोइ दूसरा भाई-बहन जरा मांग ले तो बस बुल डौग की तरह गुर्राने लगता है । गली मोहल्ले के बच्चो को पटाने मे भी उस्ताद है! पढ्ने के नाम पर पिछले साल भर इसे एक से दस तक की गिनती सिखाते-सिखाते थक गया पर मजाल कि ये जनाव थ्री से आगे बढे हो । मैने कहा, हां, आपके कहने से तो लगता है कि इन जनाव मे नेता बनने के सभी गुण विध्यमान है । चौकलेट दिलाने की जिद के साथ-साथ पोते जी के जुल्म भी बढते ही जा रहे थे, अत: मिश्रा जी ने उसे गोद मे उठाते हुए घर की तरफ़ को रुख किया और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले : “ बडा होकर मेरा पोता भी बहुत बडा नेता बनेगा” !
मिश्रा जी कहे जा रहे थे और मै उनकी हां मे हां मिलाये जा रहा था, कि तभी उनका छोटे बेटे का चार वर्षीय बेटा, यानि मिश्रा जी का पोता उनके पास पहुंच गया । गुस्सैल सा मुंह बनाये था, और आते ही लगा दनादन दादा को लात मारने । मैने पूछा कि ये जनाव क्यो इतने नाराज है ? वे बोले, सबेरे उठते ही चाकलेट की मांग रख दी थी, मैने किसी तरह समझाया बुझाया कि मै नाश्ते के बाद तुम्हें चाकलेट खरीद कर दूंगा । ये जनाव भी हमारे आजकल के किसी नेता से कम नही हैं । किसी और भाई-बहन को कोई अच्छी चीज़ देख ले तो बस छीन कर ले लेगा। जब छीनने मे कामयाव न रहे तो एकदम चिकनी-चुपडी मीठी-मीठी बातें करने लगेगा, लेकिन जब अपने पास इसके कोई बढिया चीज हो और कोइ दूसरा भाई-बहन जरा मांग ले तो बस बुल डौग की तरह गुर्राने लगता है । गली मोहल्ले के बच्चो को पटाने मे भी उस्ताद है! पढ्ने के नाम पर पिछले साल भर इसे एक से दस तक की गिनती सिखाते-सिखाते थक गया पर मजाल कि ये जनाव थ्री से आगे बढे हो । मैने कहा, हां, आपके कहने से तो लगता है कि इन जनाव मे नेता बनने के सभी गुण विध्यमान है । चौकलेट दिलाने की जिद के साथ-साथ पोते जी के जुल्म भी बढते ही जा रहे थे, अत: मिश्रा जी ने उसे गोद मे उठाते हुए घर की तरफ़ को रुख किया और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले : “ बडा होकर मेरा पोता भी बहुत बडा नेता बनेगा” !
Saturday, September 12, 2009
अपराध से बडा गुनाह है अपराधी का बचाव !
अभी हाल ही मे दिल्ली मे आयोजित सी बी आई के अधिवेशन मे हमारे माननीय प्रधान मंत्री ने एक बहुत ऊंची बात कही थी कि जांच ऐजेंसियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई बडी मछली बचकर न निकले। लेकिन जमीनी हकीकत तो कुछ और ही बयां कर रही है । पंढेर का हत्या के मामले मे उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय से साफ़ बच निकलना, एवम आरुषी हत्या कांड की उलझती गुत्थी, कश्मीर मे सोपियन कांड के अभियुक्तो की जमानत, इत्यादि-इत्यादि, इसी कडी का एक हिस्सा है । इस देश मे हर कोई अपनी मजबूरी जताने मे उस्ताद है। सरकार कानूनो का हवाला देकर अपनी मजबूरी जताती है, सुरक्षा और जांच से जुडी ऐजेंसिया राजनैतिक हस्त:क्षेप की बात करते है तो अन्धी न्याय व्यवस्था, अप्रयाप्त सबूतो का रोना रोकर अपने दामन को पाक-साफ़ दिखाने मे कोई कसर बाकी नही छोडती ।
सवाल यह नही कि किसकी क्या मजबूरी है, सवाल यह है कि क्या पीडित को इसी तरह का न्याय इस देश मे मिलेगा ? यहा अगर कुछ भी हो जाये, हमारी ये सरकारें तो बस, लोगो की आखों मे धूल झोंकने हेतु तुरंत जांच ऐजेंसियो का गठन कर देती है । लेकिन उन जांचो का परिणाम क्या निकलता है, यह हम सभी लोग बखूबी जानते है । खूब पब्लिक के पैसे की ऐश उडाई जाती है सालो तक, और फिर उसके बाद जांच से सम्बंधित फाईले इनके मंत्रालय मे सालो धूल फांकती रहती है । यदि एक अपराधी को उसके कर्मो की उचित सजा दिलाने मे हमारी व्यवस्था इतनी नाकाम है, तो क्या ये हमारा तथाकथित ’तंत्र’ किसी निर्दोष मृतक को उसका जीवन वापिस कर सकता है? किसी अबला की आबरू लौटा सकता है ? यदि नही, तो फिर किस बात का लोकतंत्र ?
देश की एक केन्द्रीय जांच ऐजेंसी के नाते सी बी आई को पूरा देश एक निर्णायक और विश्वसनीय जांचकर्ता के तौर पर देखता था । लेकिन कुछ सालो से जिस तरह इस ऐजेंसी के संदिग्ध कार्यकलापो और दुरुपयोग के किस्से सामने आये है, उससे लोगो का पूरी कानून व्यवस्था से ही भरोसा उठ गया है । अभी हाल ही मे सी बी आई के पूर्व निदेशक श्री जोगिन्दर सिंह जी ने जिस तरह खुलासा किया कि चारा घोटाले की जांच के दौरान श्री गुजराल ने उन्हें जांच रोकने को कहा था, उससे यही साबित होता है कि किसी भी बडी मछ्ली को तो कोई ईमानदार अफ़सर भी चाह कर भी कभी नही पकड सकते। समझ मे नही आता कि आखिर हमारी सरकार को सी बी आई को एक स्वतंत्र जांच ऐजेन्सी का दर्जा देने मे दिक्कत क्या है ? लोगो को बडे-बडे उपदेश देने वाले देश के ये पालनहार, अगर सिर्फ़ इस वजह से कि ऐसा करने से कही उनका अपना ही पूरा आपराधिक लाव-लश्कर लपेटे मे न आ जाये, और अपराध करने वालो मे भय पैदा हो जाये, ये इसलिये सी बी आई को जान बूझकर एक स्वाययत संस्था का दर्जा नही देना चाहते, तो मै समझता हूं कि देश का वह मुखिया ही सबसे बडा अपराधी है। क्योंकि ऐसा न करके वह अपराध को बढावा दे रहा है ।
सवाल यह नही कि किसकी क्या मजबूरी है, सवाल यह है कि क्या पीडित को इसी तरह का न्याय इस देश मे मिलेगा ? यहा अगर कुछ भी हो जाये, हमारी ये सरकारें तो बस, लोगो की आखों मे धूल झोंकने हेतु तुरंत जांच ऐजेंसियो का गठन कर देती है । लेकिन उन जांचो का परिणाम क्या निकलता है, यह हम सभी लोग बखूबी जानते है । खूब पब्लिक के पैसे की ऐश उडाई जाती है सालो तक, और फिर उसके बाद जांच से सम्बंधित फाईले इनके मंत्रालय मे सालो धूल फांकती रहती है । यदि एक अपराधी को उसके कर्मो की उचित सजा दिलाने मे हमारी व्यवस्था इतनी नाकाम है, तो क्या ये हमारा तथाकथित ’तंत्र’ किसी निर्दोष मृतक को उसका जीवन वापिस कर सकता है? किसी अबला की आबरू लौटा सकता है ? यदि नही, तो फिर किस बात का लोकतंत्र ?
देश की एक केन्द्रीय जांच ऐजेंसी के नाते सी बी आई को पूरा देश एक निर्णायक और विश्वसनीय जांचकर्ता के तौर पर देखता था । लेकिन कुछ सालो से जिस तरह इस ऐजेंसी के संदिग्ध कार्यकलापो और दुरुपयोग के किस्से सामने आये है, उससे लोगो का पूरी कानून व्यवस्था से ही भरोसा उठ गया है । अभी हाल ही मे सी बी आई के पूर्व निदेशक श्री जोगिन्दर सिंह जी ने जिस तरह खुलासा किया कि चारा घोटाले की जांच के दौरान श्री गुजराल ने उन्हें जांच रोकने को कहा था, उससे यही साबित होता है कि किसी भी बडी मछ्ली को तो कोई ईमानदार अफ़सर भी चाह कर भी कभी नही पकड सकते। समझ मे नही आता कि आखिर हमारी सरकार को सी बी आई को एक स्वतंत्र जांच ऐजेन्सी का दर्जा देने मे दिक्कत क्या है ? लोगो को बडे-बडे उपदेश देने वाले देश के ये पालनहार, अगर सिर्फ़ इस वजह से कि ऐसा करने से कही उनका अपना ही पूरा आपराधिक लाव-लश्कर लपेटे मे न आ जाये, और अपराध करने वालो मे भय पैदा हो जाये, ये इसलिये सी बी आई को जान बूझकर एक स्वाययत संस्था का दर्जा नही देना चाहते, तो मै समझता हूं कि देश का वह मुखिया ही सबसे बडा अपराधी है। क्योंकि ऐसा न करके वह अपराध को बढावा दे रहा है ।
Thursday, September 10, 2009
दादा भाई बनने की राह !
यूँ ही विचार मग्न था कि अपने एक गुरूजी याद आ गए ! कालेज के दिनों की बात है, हमारी क्लास में कोई भी छात्रा नहीं थी! हमारे एक मराठी गुरूजी थे, डॉक्टर जोशी, बहुत ही मिलनसार किस्म के इन्सान, एक ऐसा इंसान जो बहुत से गुरुओ के बीच कैम्पस में अपनी एक अलग छबि बनाने में कामयाब थे ! हमारी क्लास के किसी विद्यार्थी को कैम्पस ग्राउंड में किसी छात्रा के साथ घूमते देख लेते तो क्लास में आकर पूछते , "क्यों बेटा, दादा भाई नारोजी बनने की राह पर हो क्या" ? शुरू में तो हमने गुरूजी का यह डायलोग हल्के में ही लिया, मगर जब थोडा समझदार हुए तो अड़ गए कि पहले अपने इस डायलोग का राज बतावो फिर हम तबियत से क्लास में पढेंगे ! मजबूर होकर, न चाहते हुए भी उन्हें अपने डायलोग का राज खोलना पडा था! पूरी क्लास वह गूढ़ राज सुनने के लिए सांस रोके बैठी थी! वे बोले, 'दादा' का मतलब तो आप लोग जानते ही हो, यानी 'बड़ा भाई' ! भाई का मतलब भाई, और मराठी में पति को 'नौरो' बोलते है! तो इसका मतलब यह हुआ कि कहीं घूमते हुए जब कोई लडकी को उसके जानने वाला कोई मिल जाए तो वो कहती है " ये मेरे दादा है " , कुछ दिनों बाद वह संकुचाती हुई कहती है "यह मेरा भाई है", और फिर जब सिलसिला और आगे बढ़ता है तो कहती है यह मेरे 'नौरोजी' है ! तो इस तरह दादा भाई नौरोजी बन जाते है लोग !
अब आप पूछोगे कि इतना गलत ख़याल आपके दिमाग में कैसे आया ? तो जनाब, आपको बताता चलू कि पिछले सन्डे को बच्चो को घुमाने चिडियाघर ले गया था,( काफी समय से नहीं गए थे इस लिए) लौटते में, समय था इसलिए पुराने किले का रुख किया, मगर अफ़सोस कि उस पर दुरात्माओं ने कब्जा जमा लिया है! उन्हें देख, मेरी बेटी ने सवाल किया, पापा, ये ऐसे क्यों बैठे है, हिल-डुल भी नहीं रहे? मैंने कहा, बेटा रिसेसन चल रहा है न,, लगता है ये लोग भूखे है, इसलिए .............. ..........................भगवान् इनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे !
Tuesday, September 8, 2009
लघुकथा- कमीना शेर !
अभी शादी हुए मात्र चार ही साल तो हुए थे! बहुत खुश रहती थी ऋचा अपने उस भरे पूरे परिवार के साथ ! पति के साथ ही उसी दफ्तर में नौकरी करती थी! बेटा जब तीन महीने का था, दोनों बेफिक्र हो उसे उसके दादा- दादी के पास छोड़ उसी बाइक में सवार हो ऑफिस आते-जाते, जो ऋचा को उसके मामा ने शादी पर उपहार में दी थी! ऋचा के जेठ-जेठानी भी दोनों बैक मैं नौकरी करते थे, घर में हर तरफ खुशहाली थी! मगर अचानक एक दिन न जाने उनकी खुशहाली को किसकी नजर लग गई ! ऋचा फिर एक बार उम्मीद से थी, और तबियत ढीली होने की वजह से उस दिन छुट्टी कर गई थी ! दीपक सुबह अकेले ही ऑफिस गया था! और शाम को लौटते वक्त ब्लू लाइन बस रूपी काल का ग्रास बन गया!
अशक्त ऋचा बहुत तड़पी! बार-बार सिर पीटकर किस्मत को यही कोसती रही कि मैं क्यों नहीं आज दीपक संग दफ्तर गई ! खैर, समय बलवान होता है, और उसके समक्ष सभी को झुकना पड़ता है! कुछ दिनों के रोने पीटने के बाद घर के हालात कुछ सामान्य तो हुए, मगर अमूमन जैसा कि देखने में आता है, हवाए अब बदली-बदली सी थी!सास-ससुर और घर के अन्य सदस्यों का बर्ताव एकदम अलग था, ऋचा के साथ ! तंग आकार ऋचा उस घर को सदा के लिए छोड़, पिता के घर वापस आ गई !
दोनों बच्चो, प्रतीक और दीपिका को नाना-नानी की देखरेख में छोड़ उसने फिर से अपनी नौकरी ज्वाइन कर ली ! लेकिन बूढे माँ-बाप दिन रात इसी चिंता में डूबे थे कि हमारे बाद ऋचा किस तरह इतना लंबा जीवन सफ़र तय करेगी? काफी सोच विचार कर, और गहमा-गहमी के बाद उन्होंने ऋचा को दोबारा शादी के लिए राजी कर लिया था ! अखबारों में इश्तिहार दिए गए, लेकिन कोई सुयोग्य रिश्ता नहीं मिला! फिर एक दिन शाम को कालोनी के पार्क में बैठे-बैठे मोहल्ले के एक अन्य वृद्ध सज्जन ने उन्हें अपनी जान-पहचान में एक रिश्ता बताया!
साहिबाबाद के एक स्टील प्लांट में मैनेजर, मुकेश सिंह एक नहीं, अपितु दो बार का विधुर था ! पहली शादी के चंद रोज के बाद कुल्लू में हनीमून के दौरान ही एक दुर्घटना में पत्नी को खो देने के बाद, उसने दूसरी शादी की थी, मगर प्रसव के दौरान वह भी चल बसी ! माता-पिता द्बारा प्रारम्भिक जांच पड़ताल के बाद मुकेश और ऋचा की मुलाकात कराई गई, और दोनों ने एक दूसरे को पसंद कर लिया! मुकेश को ऋचा की सारी शर्ते भी मंजूर थी! अतः साधे ढंग से दोनों की शादी करा दी गई! प्रारम्भिक छह महीनो तक तो ऋचा ने अपने दोनों बच्चे, सात साल के प्रतीक और तीन साल की ऋचा को माँ-बाप के पास ही छोडे रखा, लेकिन मुकेश की बच्चो के प्रति आत्मीयता और लगाव को देख, अच्छी तरह से आस्वस्थ हो जाने के बाद, जुलाई में अपने घर के नजदीकी पब्लिक स्कूल में दोनों का दाखिला करवा कर अपने साथ ले आई थी! करीब दो महीने तो सब कुछ सामान्य चला, बच्चे भी नए घर में काफी खुश थे!
मगर जंगल के उस नए राजा के दीमाग में तो कुछ और ही पक रहा था! चूँकि शेरनी ने उससे पहले ही यह शर्त मनवा ली थी कि उसके इन दो बच्चो के अलावा तीसरा नही ! मगर जंगल का वह कमीना राजा कैसे दूसरे शेर के बच्चो को अपना बच्चा मान लेता! उसे तो अपना बंश आगे बढाने की चिंता खाए जा रही थी! शैतानी दिमाग झाडियों में पड़े-पड़े तरकीबे सोचने में लगा था! और फिर उसके दिमाग ने वह शैतानी चाल चलने की सोच डाली जिसकी शेरनी ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी! कमीने शेर को तो बस शेरनी को किसी तरह आगे संतान उत्पत्ति के लिए विवश करना था! स्कूल की छुट्टी के बाद बच्चे सीधे क्रेच में जाते थे, और शाम को जब ऋचा घर लौटती तो उन्हें भी साथ घर ले आती ! एक दिन जब शेरनी भोजन की तलाश में गई थी, मौका पाकर शेर ने दोपहर के समय ही बच्चो को क्रेच से उठा लिया और फिर ...................! पुलिस ने नाले से दोनों बच्चो के अवशेष निकाल पोस्ट मॉर्टम के लिए भेज दिए थे ! पुलिस की शक्ति बरतने के बाद मुकेश ने भी सच्चाई उगल दी थी, और जड़-पत्थर बनी ऋचा सोच रही थी कि एक शिक्षित और सभ्य सा दिखने वाला इंसान भी कहां तक अपने कमीनेपन की हदे लाँघ देता है !
अशक्त ऋचा बहुत तड़पी! बार-बार सिर पीटकर किस्मत को यही कोसती रही कि मैं क्यों नहीं आज दीपक संग दफ्तर गई ! खैर, समय बलवान होता है, और उसके समक्ष सभी को झुकना पड़ता है! कुछ दिनों के रोने पीटने के बाद घर के हालात कुछ सामान्य तो हुए, मगर अमूमन जैसा कि देखने में आता है, हवाए अब बदली-बदली सी थी!सास-ससुर और घर के अन्य सदस्यों का बर्ताव एकदम अलग था, ऋचा के साथ ! तंग आकार ऋचा उस घर को सदा के लिए छोड़, पिता के घर वापस आ गई !
दोनों बच्चो, प्रतीक और दीपिका को नाना-नानी की देखरेख में छोड़ उसने फिर से अपनी नौकरी ज्वाइन कर ली ! लेकिन बूढे माँ-बाप दिन रात इसी चिंता में डूबे थे कि हमारे बाद ऋचा किस तरह इतना लंबा जीवन सफ़र तय करेगी? काफी सोच विचार कर, और गहमा-गहमी के बाद उन्होंने ऋचा को दोबारा शादी के लिए राजी कर लिया था ! अखबारों में इश्तिहार दिए गए, लेकिन कोई सुयोग्य रिश्ता नहीं मिला! फिर एक दिन शाम को कालोनी के पार्क में बैठे-बैठे मोहल्ले के एक अन्य वृद्ध सज्जन ने उन्हें अपनी जान-पहचान में एक रिश्ता बताया!
साहिबाबाद के एक स्टील प्लांट में मैनेजर, मुकेश सिंह एक नहीं, अपितु दो बार का विधुर था ! पहली शादी के चंद रोज के बाद कुल्लू में हनीमून के दौरान ही एक दुर्घटना में पत्नी को खो देने के बाद, उसने दूसरी शादी की थी, मगर प्रसव के दौरान वह भी चल बसी ! माता-पिता द्बारा प्रारम्भिक जांच पड़ताल के बाद मुकेश और ऋचा की मुलाकात कराई गई, और दोनों ने एक दूसरे को पसंद कर लिया! मुकेश को ऋचा की सारी शर्ते भी मंजूर थी! अतः साधे ढंग से दोनों की शादी करा दी गई! प्रारम्भिक छह महीनो तक तो ऋचा ने अपने दोनों बच्चे, सात साल के प्रतीक और तीन साल की ऋचा को माँ-बाप के पास ही छोडे रखा, लेकिन मुकेश की बच्चो के प्रति आत्मीयता और लगाव को देख, अच्छी तरह से आस्वस्थ हो जाने के बाद, जुलाई में अपने घर के नजदीकी पब्लिक स्कूल में दोनों का दाखिला करवा कर अपने साथ ले आई थी! करीब दो महीने तो सब कुछ सामान्य चला, बच्चे भी नए घर में काफी खुश थे!
मगर जंगल के उस नए राजा के दीमाग में तो कुछ और ही पक रहा था! चूँकि शेरनी ने उससे पहले ही यह शर्त मनवा ली थी कि उसके इन दो बच्चो के अलावा तीसरा नही ! मगर जंगल का वह कमीना राजा कैसे दूसरे शेर के बच्चो को अपना बच्चा मान लेता! उसे तो अपना बंश आगे बढाने की चिंता खाए जा रही थी! शैतानी दिमाग झाडियों में पड़े-पड़े तरकीबे सोचने में लगा था! और फिर उसके दिमाग ने वह शैतानी चाल चलने की सोच डाली जिसकी शेरनी ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी! कमीने शेर को तो बस शेरनी को किसी तरह आगे संतान उत्पत्ति के लिए विवश करना था! स्कूल की छुट्टी के बाद बच्चे सीधे क्रेच में जाते थे, और शाम को जब ऋचा घर लौटती तो उन्हें भी साथ घर ले आती ! एक दिन जब शेरनी भोजन की तलाश में गई थी, मौका पाकर शेर ने दोपहर के समय ही बच्चो को क्रेच से उठा लिया और फिर ...................! पुलिस ने नाले से दोनों बच्चो के अवशेष निकाल पोस्ट मॉर्टम के लिए भेज दिए थे ! पुलिस की शक्ति बरतने के बाद मुकेश ने भी सच्चाई उगल दी थी, और जड़-पत्थर बनी ऋचा सोच रही थी कि एक शिक्षित और सभ्य सा दिखने वाला इंसान भी कहां तक अपने कमीनेपन की हदे लाँघ देता है !
Monday, September 7, 2009
हमारे बस का है क्या ?
शुरुआत एक जोक से करता हूँ; हो सकता है यह मशहूर जोक आपने पहले कई बार सुना हो, चलो एक बार और सुन लीजिये ! हुआ यूं कि वाशिंगटन डी.सी. की 'बाउंड्री वाल' टूट गई ! टेंडर निकला, कोटेसन मगाए गए ! जैसा कि आजकल यूरोप और अम्रेरिकी महादीप में एक गलतफमी पसरी पडी है कि भारत और चीन इस दुनिया की नई आर्थिक शक्तियाँ बन कर तेजी से उभर रही है, तो गलतफमी का नाजायज फायदा उठाने में इन तथाकथित दोनों नई आर्थिक शक्तियों के लोग भी माहिर है! दोनों फटाफट पहुचे टेंडर भरने ! सीनियरटी के हिसाब से पहले चीन वाले ने भरा ७०० डालर, टेंडरिंग अथॉरिटी ने पूछा ७०० डॉलर कैसे ? चीनी बोला, ३०० डॉलर का मटीरिअल, ३०० डॉलर का लेबर, और १०० डालर मेरा प्रोफिट ! और अब इंडिया वाले ने अपना टेंडर कोटेसन सबमिट किया! उसने भरा २७०० डॉलर ! टेंडरिंग अथॉरिटी ने पूछा २७०० डॉलर कैसे? वह बोला, यार, १००० डालर तेरे, हजार मेरे, और काम ७०० डॉलर में इस चीनी से करवा लेंगे, "मेड इन चाइना" !!!!! :-)))
ये तो महज एक जोक था, मगर अफ़सोस कि हकीकत भी इससे बहुत भिन्न नहीं है ! हम जितनी मर्जी डींगे हांक ले, लेकिन अन्ततोगत्वा प्रश्न वही बना रहता है कि हमारे बस का कुछ है भी ?अब देश की सुरक्षा का मामला ही ले लीजिये ! आज अखबार में पढ़ रहा था कि हमारे यहाँ बनने वाली हर तीन मिसायिलो में से एक खराब निकलती है! हमारे परमाणु दावों पर तो पहले ही हमारे ही वैज्ञानिक उंगली उठाकर हमें संदेह में डाल चुके है कि परमाणु मामले में हमारी सैन्य तकनीकी क्षमताये कितनी विस्वसनीय है ! ऊपर से हमारा अविस्वस्नीय पडोशी मार्केट में अपनी साख बनाए रखने के लिए, कभी हमारे २० टुकड़े करने की सोचता है तो कभी हमारे नाम की नकली दवाईया विश्व बाजार में बेचेने लगता है ! अब सवाल यह उठता है कि हम क्या इन सब बातो को चुपचाप सुनते रहेंगे या कुछ करेंगे भी ? अभी कुछ दिन पहले टीवी पर एक प्रोग्राम देख रहा था, जिसमे एक वरिष्ट सुरक्षा विशेषज्ञं चीन के हैलीकॉप्टर के भारतीय सीमा में घुस आने के मामले में कह रहे थे कि ऐसी छोटी-मोटी घटनाये तो होती ही रहती है ! एंकर ने एक सटीक प्रश्न पूछा कि यदि भारत का कोई हैलीकॉप्टर चीनी सीमा में घुस जाए, तो क्या चीन भी उसे छोटी मोटी घटना मानकर हमारी तरह ही नकार देगा ? इस पर साहब की बोलती बंद !
अफ़सोस कि दुनिया की तथाकथित महाशक्ति बनने के सपने देखने वाले हम लोग एक अदने से नेपाल को माकूल जबाब दे पाने में अक्षम है, पाकिस्तान और बांग्लादेश की तो खैर बात दूर रखो ! आज हमारे देश में जो भी विदेशो के जरिये गैर कानूनी हथियारों, नकली नोटों, और आतंकवाद का धंधा किया जा रहा है वह अधिकाँशत नेपाल के जरिये भारत पहुँच रहा है ! तो क्यों नहीं हम नेपाल के साथ सारे परम्परागत और भोगोलिक संबंधो को यथावत रखते हुए, नेपाल से लगी सीमा को सील कर वहां भी आने-जाने की एक ठोस प्रणाली लागू कर देते है ? वैसे भी वहाँ हावी मावोवादी साठ साल पुरानी भारत-नेपाल संधि के पक्ष में नहीं दीखते ! जो लोग यह तर्क देते है कि ऐसा करने से नेपाल भारत से बिदक जायेगा और चीन पैर पसार लेगा, तो वैसे भी ४१०० किलोमीटर लम्बी हमारी सीमा पर चीन ने कहाँ नहीं पैर पसार लिए है? वहाँ भी पसार लेगा तो क्या ?
ये तो महज एक जोक था, मगर अफ़सोस कि हकीकत भी इससे बहुत भिन्न नहीं है ! हम जितनी मर्जी डींगे हांक ले, लेकिन अन्ततोगत्वा प्रश्न वही बना रहता है कि हमारे बस का कुछ है भी ?अब देश की सुरक्षा का मामला ही ले लीजिये ! आज अखबार में पढ़ रहा था कि हमारे यहाँ बनने वाली हर तीन मिसायिलो में से एक खराब निकलती है! हमारे परमाणु दावों पर तो पहले ही हमारे ही वैज्ञानिक उंगली उठाकर हमें संदेह में डाल चुके है कि परमाणु मामले में हमारी सैन्य तकनीकी क्षमताये कितनी विस्वसनीय है ! ऊपर से हमारा अविस्वस्नीय पडोशी मार्केट में अपनी साख बनाए रखने के लिए, कभी हमारे २० टुकड़े करने की सोचता है तो कभी हमारे नाम की नकली दवाईया विश्व बाजार में बेचेने लगता है ! अब सवाल यह उठता है कि हम क्या इन सब बातो को चुपचाप सुनते रहेंगे या कुछ करेंगे भी ? अभी कुछ दिन पहले टीवी पर एक प्रोग्राम देख रहा था, जिसमे एक वरिष्ट सुरक्षा विशेषज्ञं चीन के हैलीकॉप्टर के भारतीय सीमा में घुस आने के मामले में कह रहे थे कि ऐसी छोटी-मोटी घटनाये तो होती ही रहती है ! एंकर ने एक सटीक प्रश्न पूछा कि यदि भारत का कोई हैलीकॉप्टर चीनी सीमा में घुस जाए, तो क्या चीन भी उसे छोटी मोटी घटना मानकर हमारी तरह ही नकार देगा ? इस पर साहब की बोलती बंद !
अफ़सोस कि दुनिया की तथाकथित महाशक्ति बनने के सपने देखने वाले हम लोग एक अदने से नेपाल को माकूल जबाब दे पाने में अक्षम है, पाकिस्तान और बांग्लादेश की तो खैर बात दूर रखो ! आज हमारे देश में जो भी विदेशो के जरिये गैर कानूनी हथियारों, नकली नोटों, और आतंकवाद का धंधा किया जा रहा है वह अधिकाँशत नेपाल के जरिये भारत पहुँच रहा है ! तो क्यों नहीं हम नेपाल के साथ सारे परम्परागत और भोगोलिक संबंधो को यथावत रखते हुए, नेपाल से लगी सीमा को सील कर वहां भी आने-जाने की एक ठोस प्रणाली लागू कर देते है ? वैसे भी वहाँ हावी मावोवादी साठ साल पुरानी भारत-नेपाल संधि के पक्ष में नहीं दीखते ! जो लोग यह तर्क देते है कि ऐसा करने से नेपाल भारत से बिदक जायेगा और चीन पैर पसार लेगा, तो वैसे भी ४१०० किलोमीटर लम्बी हमारी सीमा पर चीन ने कहाँ नहीं पैर पसार लिए है? वहाँ भी पसार लेगा तो क्या ?
Sunday, September 6, 2009
बेदर्दी तू तो अंबर से है !
रैन गगन से जब-जब ,
निर्मोही घन बरसे है,
विरहा का व्याकुल मन,
पिया मिलन को तरसे है।
सूखा जगत तनिक
रहे भी तो क्या नीरद,
तू न जाने दुख विरहा का,
बेदर्दी, तू अंबर से है।
विराग दंश सहते जब
तेरा मन भर आता है ,
गरज-घुमडके नयन नीर ,
यत्र-तत्र बिखरा जाता है।
देख उसे थामे जो अंसुअन,
ममत्व निभाती घर से है,तू न जाने दुख विरहा का,
बेदर्दी, तू अंबर से है।
निर्मोही घन बरसे है,
विरहा का व्याकुल मन,
पिया मिलन को तरसे है।
सूखा जगत तनिक
रहे भी तो क्या नीरद,
तू न जाने दुख विरहा का,
बेदर्दी, तू अंबर से है।
विराग दंश सहते जब
तेरा मन भर आता है ,
गरज-घुमडके नयन नीर ,
यत्र-तत्र बिखरा जाता है।
देख उसे थामे जो अंसुअन,
ममत्व निभाती घर से है,तू न जाने दुख विरहा का,
बेदर्दी, तू अंबर से है।
Saturday, September 5, 2009
मुझे पालने वाले सब मर गए !
बस यूँ ही परछाइयों में से इंसान ढूंढ लाने को दिल करता है,
पत्थर फ़ेंक कोई शीशे का मकान तोड़ जाने को दिल करता है !
सन्नाटों की चादर ओढे, कब्रों में सोये है जो मुदत्तो से बेफिक्र,
कभी-कभी न जाने क्यों फिर से उन्हें जगाने को दिल करता है !
आज कुछ भडांस निकालने का दिल कर रहा है ! कहाँ से शुरू करू ? चलो पहले मूर्ख लोगो से ही शुरुआत की जाए ! एक खबर पढ़ रहा था कि अपने मुख्यमंत्री के गम में १२२ से अधिक लोग आंध्रा में मर गए ! निहायत बेवकूफ लोग है ! जिन्हें अपने जीवन की ही कीमत मालूम नहीं, उनसे सहानुभूति जताना भी मुर्खता है ! इन्हें कौन समझाए कि यहाँ हर कोई अपने कर्मो की गति मरता है, आखिर इतने सारे सत्यम और मेटास के निवेशको की 'हाय' का असर कही तो होगा! बस कोई न कोई बहाना ढूंढते रहते है! फसलो को नुकशान की वजह से किसानो द्बारा आत्महत्या तो सिर्फ एक उम्दा बहाना मात्र है, इन्हें तो बस आत्महत्या करनी है ! क्या पता जानबूझकर फसल को इस तरह बोते होंगे कि वो ठीक से उगे ही ना, और इन्हें मौका मिल जाए !
साथ ही एक सलाह अपने नेताओ को भी दूंगा कि Hire a good chopper pilot otherwise an incompetent pilot can actually make you devine. और जब कभी हमारे इन नेतावो की मरने की इच्छा हो भी तो इन मीडिया वालो को पहले से हिदायत दे दे कि उनके साथ मरने वाले पायलटो और सचिवो इत्यादि के अंतिम संस्कार की भी थोडा बहुत खबरे भी अपने चैनलों पर दे दिया करे, अन्यथा साथ में मरने वाले उन बेकसूरों का मनोबल गिरता है !
चलो भडास तो निकाल चुका, अब कुछ अच्छी बाते हो जाए! अभी कल-परसों में अखबारों में एक खबर पढी थी कि अमिताभ जी ने अपने ब्लॉग पर लिखा है कि उन्हें सबसे ज्यादा शर्मिन्दा उस वक्त होना पड़ा था, जब वे इलाहाबाद में सातवी कक्षा में पढ़ते थे, तो गोल कीपर होने के नाते बहुत सारे गोल खा गए थे, इसलिए उन्हें शर्मिन्दगी उठानी पडी! मैं सोच रहा था कि बड़े लोगो की बाते भी बड़ी ही होती है, एक हम है, जो हर चार कदम पर किसी ना किसी वजह से जलील होते ही रहते है ! हाँ यह जरूर है कि हर इंसान के जीवन के भिन्न-भिन्न तरह के कुछ अविस्मर्णीय क्षण होते है, जिन्हें इंसान जब कभी याद करता है है, तो या तो खूब हंसता है या फिर दिल खोल के रोता है ! हर इंसान के अन्दर एक बच्चा छुपा होता है जो यदा कदा उसे बचकानी हरकते करने को मजबूर कर देता है !
ऐसा ही एक वाकिया काफी साल पहले का अपने साथ का भी है, जिसे जब कभी सड़क पर ड्राइव करते हुए याद करता हूँ तो मुह से हंसी रुकती नहीं ! हुआ यह कि हम आफिस के चार मित्र नोएडा से गाजियाबाद एक दफ्तर के ही मित्र की बहन की शादी में शरीक होने जा रहे थे! नोएडा निवासी एक मित्र के पिता कनाट प्लेस में एक कंपनी के चार्टर्ड अकाऊंटेंट थे, और उन्होंने अभी-अभी नई स्कॉर्पियो ली थी! अतः हमारे लिए यह एक जॉय राइडिंग भी थी ! चूँकि शादी में जा रहे थे, अतः आज की मानसिकता के हिसाब से स्वाभाविक तौर पर मयूर विहार फेस ३ के रास्ते बियर का लुफ्त उठाते हुए हम चल रहे थे! औरचूँकि मैं उस रास्ते से भली भांति परिचित था, अतः ड्राइविंग सीट मैंने ही संभाल रखी थी! एक मित्र बार-बार पिछली सीट से पूछ रहा था कि यार ये खाली बोतले कहाँ फेंके ? मैंने कहा, ला मेरे पास पकडा दे ! ज्यों ही हापुड़ वाली सड़क की लाल बत्ती पर पहुंचे सड़क के ठीक पली पार विपरीत दिशा में एक ट्रक लाल बत्ती पर खडा था, वहाँ पर सड़क के बीच में उस दौरान कोई डिवाईडर नहीं था! ट्रक एक सरदार जी चला रहे थे और ड्राविंग सीट वाला पूरा दरवाजा खोले हुए थे ! मैं भी थोडा झांझ में आ गया था और जोर-जोर से हसे जा रहा था, अतः मैंने स्कॉर्पियो को ट्रक के ड्राइविंग सीट के दरवाजे से एकदम सटा कर लगाते हुए, बिजली की सी फूर्ती के साथ एक-दो नहीं, बल्कि पूरी सात खाली बियर की बोतले सरदारजी की सीट के नीचे खिसका दी थी! सरदार जी भी इस अप्रत्यासित घटना से सकपका से गए थे, और "ओये तेरी भैण की...." बोलकर शायद ट्रक में रखी अपनी लोहे की रौड ढूंढ रहे थे! मैं हँसता ही जा रहा था और काम पूरा करने के बाद मैंने तुंरत गाडी तेजे से आगे बड़ा दी ! करीब पचास मीटर आगे जाकर मैंने गाडी धीमी की, खिड़की से गर्दन बाहर निकाल कर ट्रक की तरफ देखा! अब तक शायद पूरी वस्तुस्थिति सरदार जी की भी समझ में आ गई थी, और हाथ ऊपर उठा कर मानो खाली बीयर की बोतले देने के लिए मेरा शुक्रिया अदा किया था उन्होंने ! साथ बैठे मेरे तीनो मित्रगण जो अब तक साँस रोके बैठे थे, मेरी वह बचकानी हरकत को देख,एक साथ जोर से हंस पड़े थे !
अब शीर्षक वाली घटना भी बताता चलू, कालेज के दिनों में यूनिवर्सिटी कैम्पस में खाली पीरिअड में हम लोग जब बैठे रहते थे तो चूँकि कैम्पस की बाउंड्री दीवार जगह-जगह से टूटी थी, और उसमे से आस-पास की बस्ती के मवेशी घास चुंगने के लिए, बार-बार कैम्पस के अन्दर घुस आते थे ! चौकीदार बेचारा बड़ा परेशान था, और मवेशियों के मालिको को गालिया दिए फिरता था! एक दिन हम पांच-सात विद्यार्थी खाली पीरिअड में बैठे गप-शप कर रहे थे, तभी वह अपना रोना लेकर हमारे पास आया कि उसे इन गाय- बछडो की वजह से कॉलेज प्रशाशन से रोज डांट खानी पड़ती है, क्या करू ? ये हरामखोर लोग दूध खुद पी जाते है, और फिर बछडो को सड़क पर छोड़ देते है ! हमने उससे कहा कि तुम कुछ पतली रस्सियों और कागज़ के गत्तों का इंतजाम करो, हम तुम्हारी समस्या हल कर देंगे ! वह तुंरत ले आया ! हमने स्केच पेन से मोटे मोटे अक्षरो में उन कागज़ के गत्तों पर लिखा " मुझे पालने वाले सब मर गए " और वे डिसप्ले बोर्ड, रस्सी पर टांग उन गाय, बछडो के गले में लटका दिए !और फिर अगले दिन से वे मवेशी उधर नहीं दिखे !
पत्थर फ़ेंक कोई शीशे का मकान तोड़ जाने को दिल करता है !
सन्नाटों की चादर ओढे, कब्रों में सोये है जो मुदत्तो से बेफिक्र,
कभी-कभी न जाने क्यों फिर से उन्हें जगाने को दिल करता है !
आज कुछ भडांस निकालने का दिल कर रहा है ! कहाँ से शुरू करू ? चलो पहले मूर्ख लोगो से ही शुरुआत की जाए ! एक खबर पढ़ रहा था कि अपने मुख्यमंत्री के गम में १२२ से अधिक लोग आंध्रा में मर गए ! निहायत बेवकूफ लोग है ! जिन्हें अपने जीवन की ही कीमत मालूम नहीं, उनसे सहानुभूति जताना भी मुर्खता है ! इन्हें कौन समझाए कि यहाँ हर कोई अपने कर्मो की गति मरता है, आखिर इतने सारे सत्यम और मेटास के निवेशको की 'हाय' का असर कही तो होगा! बस कोई न कोई बहाना ढूंढते रहते है! फसलो को नुकशान की वजह से किसानो द्बारा आत्महत्या तो सिर्फ एक उम्दा बहाना मात्र है, इन्हें तो बस आत्महत्या करनी है ! क्या पता जानबूझकर फसल को इस तरह बोते होंगे कि वो ठीक से उगे ही ना, और इन्हें मौका मिल जाए !
साथ ही एक सलाह अपने नेताओ को भी दूंगा कि Hire a good chopper pilot otherwise an incompetent pilot can actually make you devine. और जब कभी हमारे इन नेतावो की मरने की इच्छा हो भी तो इन मीडिया वालो को पहले से हिदायत दे दे कि उनके साथ मरने वाले पायलटो और सचिवो इत्यादि के अंतिम संस्कार की भी थोडा बहुत खबरे भी अपने चैनलों पर दे दिया करे, अन्यथा साथ में मरने वाले उन बेकसूरों का मनोबल गिरता है !
चलो भडास तो निकाल चुका, अब कुछ अच्छी बाते हो जाए! अभी कल-परसों में अखबारों में एक खबर पढी थी कि अमिताभ जी ने अपने ब्लॉग पर लिखा है कि उन्हें सबसे ज्यादा शर्मिन्दा उस वक्त होना पड़ा था, जब वे इलाहाबाद में सातवी कक्षा में पढ़ते थे, तो गोल कीपर होने के नाते बहुत सारे गोल खा गए थे, इसलिए उन्हें शर्मिन्दगी उठानी पडी! मैं सोच रहा था कि बड़े लोगो की बाते भी बड़ी ही होती है, एक हम है, जो हर चार कदम पर किसी ना किसी वजह से जलील होते ही रहते है ! हाँ यह जरूर है कि हर इंसान के जीवन के भिन्न-भिन्न तरह के कुछ अविस्मर्णीय क्षण होते है, जिन्हें इंसान जब कभी याद करता है है, तो या तो खूब हंसता है या फिर दिल खोल के रोता है ! हर इंसान के अन्दर एक बच्चा छुपा होता है जो यदा कदा उसे बचकानी हरकते करने को मजबूर कर देता है !
ऐसा ही एक वाकिया काफी साल पहले का अपने साथ का भी है, जिसे जब कभी सड़क पर ड्राइव करते हुए याद करता हूँ तो मुह से हंसी रुकती नहीं ! हुआ यह कि हम आफिस के चार मित्र नोएडा से गाजियाबाद एक दफ्तर के ही मित्र की बहन की शादी में शरीक होने जा रहे थे! नोएडा निवासी एक मित्र के पिता कनाट प्लेस में एक कंपनी के चार्टर्ड अकाऊंटेंट थे, और उन्होंने अभी-अभी नई स्कॉर्पियो ली थी! अतः हमारे लिए यह एक जॉय राइडिंग भी थी ! चूँकि शादी में जा रहे थे, अतः आज की मानसिकता के हिसाब से स्वाभाविक तौर पर मयूर विहार फेस ३ के रास्ते बियर का लुफ्त उठाते हुए हम चल रहे थे! औरचूँकि मैं उस रास्ते से भली भांति परिचित था, अतः ड्राइविंग सीट मैंने ही संभाल रखी थी! एक मित्र बार-बार पिछली सीट से पूछ रहा था कि यार ये खाली बोतले कहाँ फेंके ? मैंने कहा, ला मेरे पास पकडा दे ! ज्यों ही हापुड़ वाली सड़क की लाल बत्ती पर पहुंचे सड़क के ठीक पली पार विपरीत दिशा में एक ट्रक लाल बत्ती पर खडा था, वहाँ पर सड़क के बीच में उस दौरान कोई डिवाईडर नहीं था! ट्रक एक सरदार जी चला रहे थे और ड्राविंग सीट वाला पूरा दरवाजा खोले हुए थे ! मैं भी थोडा झांझ में आ गया था और जोर-जोर से हसे जा रहा था, अतः मैंने स्कॉर्पियो को ट्रक के ड्राइविंग सीट के दरवाजे से एकदम सटा कर लगाते हुए, बिजली की सी फूर्ती के साथ एक-दो नहीं, बल्कि पूरी सात खाली बियर की बोतले सरदारजी की सीट के नीचे खिसका दी थी! सरदार जी भी इस अप्रत्यासित घटना से सकपका से गए थे, और "ओये तेरी भैण की...." बोलकर शायद ट्रक में रखी अपनी लोहे की रौड ढूंढ रहे थे! मैं हँसता ही जा रहा था और काम पूरा करने के बाद मैंने तुंरत गाडी तेजे से आगे बड़ा दी ! करीब पचास मीटर आगे जाकर मैंने गाडी धीमी की, खिड़की से गर्दन बाहर निकाल कर ट्रक की तरफ देखा! अब तक शायद पूरी वस्तुस्थिति सरदार जी की भी समझ में आ गई थी, और हाथ ऊपर उठा कर मानो खाली बीयर की बोतले देने के लिए मेरा शुक्रिया अदा किया था उन्होंने ! साथ बैठे मेरे तीनो मित्रगण जो अब तक साँस रोके बैठे थे, मेरी वह बचकानी हरकत को देख,एक साथ जोर से हंस पड़े थे !
अब शीर्षक वाली घटना भी बताता चलू, कालेज के दिनों में यूनिवर्सिटी कैम्पस में खाली पीरिअड में हम लोग जब बैठे रहते थे तो चूँकि कैम्पस की बाउंड्री दीवार जगह-जगह से टूटी थी, और उसमे से आस-पास की बस्ती के मवेशी घास चुंगने के लिए, बार-बार कैम्पस के अन्दर घुस आते थे ! चौकीदार बेचारा बड़ा परेशान था, और मवेशियों के मालिको को गालिया दिए फिरता था! एक दिन हम पांच-सात विद्यार्थी खाली पीरिअड में बैठे गप-शप कर रहे थे, तभी वह अपना रोना लेकर हमारे पास आया कि उसे इन गाय- बछडो की वजह से कॉलेज प्रशाशन से रोज डांट खानी पड़ती है, क्या करू ? ये हरामखोर लोग दूध खुद पी जाते है, और फिर बछडो को सड़क पर छोड़ देते है ! हमने उससे कहा कि तुम कुछ पतली रस्सियों और कागज़ के गत्तों का इंतजाम करो, हम तुम्हारी समस्या हल कर देंगे ! वह तुंरत ले आया ! हमने स्केच पेन से मोटे मोटे अक्षरो में उन कागज़ के गत्तों पर लिखा " मुझे पालने वाले सब मर गए " और वे डिसप्ले बोर्ड, रस्सी पर टांग उन गाय, बछडो के गले में लटका दिए !और फिर अगले दिन से वे मवेशी उधर नहीं दिखे !
Thursday, September 3, 2009
कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है;
कि एक निर्दोष अपने इस भारत देश में,
बेवजह दस साल जेल में गुजार जाता है !
आगे इस बेशर्मी का आलम यह है कि,
बदले में भरपाई सिर्फ सौ हजार पाता है !
और दोषी जो अरबो खा जाए चारे संग,
वह नाम अपना सत्ता में शुमार पाता है !
कल शायद आपने भी इस खबर पर गौर किया होगा; MUMBAI: In an important judgment, the Bombay high court on Tuesday ordered the Maharashtra government to pay Rs 1 lakh as compensation to a
40-year-old man who languished in prison for over 10 years for a crime he did not commit. Malegaon resident Bapu Mali was in jail for five years as an undertrial, battling rape and murder charges. Even after being acquitted by the trial court, Mali had to spend five more years in prison as he could not shell out the bail amount when his case went into appeal.
"This is a sorry state of affairs,'' a division bench of Justice Bilal Nazki and Justice A R Joshi said, while upholding the trial court order acquitting Mali. "Not only the prosecuting agency, but also the courts are involved (for Mali languishing in jail). This is a reflection on our own system which needs to be corrected.''
कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है;
कि ऊँची उड़ान वाले इस भारत देश में,
जब कोई उड़न खटोला गुम हो जाता है !
तो उसे तलाश करने वालो की नजरो में ,
यहाँ क्यों आसमानी फर्क नजर आता है !
एक की खोज में हमने सब झोंक डाला,
तो एक गुमे हुए को साल गुज़र जाता है !
ये भी अभागे थे जिनका हैलीकोप्टर एक साल पहले कहीं गुम हो गया था, मगर चूँकि ये न तो नेता थे और न किसी राज्य के मुख्यमंत्री, अतः इनके परिजनों के आंसू निर्झर बह रहे है अभी तक :
Aug 03, 2008: Chief Pilot V P Singh, co-pilot R Gaur, flight engineer Santosh Kumar and technician Ashwini Kumar were on board the chopper, which took off from Hyderabad at 3 PM on Sunday. All contacts with the copter were lost at about 4 PM.
The helicopter was supposed to land at regional headquarters of Bastar at Jagdalpur in Chhattisgarh at 4.30 pm for refuelling, which never happened, and whereabouts of the Bell-430 had not been known to either Andhra Pradesh or Chhatisgarh, officials said.
Chhattisgarh Government had hired the helicopter from Ranbaxy-owned Ran Air to take its Home Minister Ram Vichar Netam to Ranchi from Raipur.
कि एक निर्दोष अपने इस भारत देश में,
बेवजह दस साल जेल में गुजार जाता है !
आगे इस बेशर्मी का आलम यह है कि,
बदले में भरपाई सिर्फ सौ हजार पाता है !
और दोषी जो अरबो खा जाए चारे संग,
वह नाम अपना सत्ता में शुमार पाता है !
कल शायद आपने भी इस खबर पर गौर किया होगा; MUMBAI: In an important judgment, the Bombay high court on Tuesday ordered the Maharashtra government to pay Rs 1 lakh as compensation to a
40-year-old man who languished in prison for over 10 years for a crime he did not commit. Malegaon resident Bapu Mali was in jail for five years as an undertrial, battling rape and murder charges. Even after being acquitted by the trial court, Mali had to spend five more years in prison as he could not shell out the bail amount when his case went into appeal.
"This is a sorry state of affairs,'' a division bench of Justice Bilal Nazki and Justice A R Joshi said, while upholding the trial court order acquitting Mali. "Not only the prosecuting agency, but also the courts are involved (for Mali languishing in jail). This is a reflection on our own system which needs to be corrected.''
कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है;
कि ऊँची उड़ान वाले इस भारत देश में,
जब कोई उड़न खटोला गुम हो जाता है !
तो उसे तलाश करने वालो की नजरो में ,
यहाँ क्यों आसमानी फर्क नजर आता है !
एक की खोज में हमने सब झोंक डाला,
तो एक गुमे हुए को साल गुज़र जाता है !
ये भी अभागे थे जिनका हैलीकोप्टर एक साल पहले कहीं गुम हो गया था, मगर चूँकि ये न तो नेता थे और न किसी राज्य के मुख्यमंत्री, अतः इनके परिजनों के आंसू निर्झर बह रहे है अभी तक :
Aug 03, 2008: Chief Pilot V P Singh, co-pilot R Gaur, flight engineer Santosh Kumar and technician Ashwini Kumar were on board the chopper, which took off from Hyderabad at 3 PM on Sunday. All contacts with the copter were lost at about 4 PM.
The helicopter was supposed to land at regional headquarters of Bastar at Jagdalpur in Chhattisgarh at 4.30 pm for refuelling, which never happened, and whereabouts of the Bell-430 had not been known to either Andhra Pradesh or Chhatisgarh, officials said.
Chhattisgarh Government had hired the helicopter from Ranbaxy-owned Ran Air to take its Home Minister Ram Vichar Netam to Ranchi from Raipur.
Subscribe to:
Posts (Atom)
प्रश्न -चिन्ह ?
पता नहीं , कब-कहां गुम हो गया जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए और ना ही बेवफ़ा।
-
स्कूटर और उनकी पत्नी स्कूटी शहर के उत्तरी हिस्से में सरकारी आवास संस्था द्वारा निम्न आय वर्ग के लोगो के लिए ख़ासतौर पर निर्म...
-
पहाड़ों की खुशनुमा, घुमावदार सडक किनारे, ख्वाब,ख्वाहिश व लग्न का मसाला मिलाकर, 'तमन्ना' राजमिस्त्री व 'मुस्कान' मजदूरों...
-
शहर में किराए का घर खोजता दर-ब-दर इंसान हैं और उधर, बीच 'अंचल' की खुबसूरतियों में कतार से, हवेलियां वीरान हैं। 'बेचारे' क...