Wednesday, February 19, 2020

ऐ नींद मेरी !


ऐ प्रिय, नींद मेरी !
बस, यूं ही मगर, पता नहीं क्यों,
कुछ अनिश्चित ही लग रही है मुझे,
आज भी मुलाकात तेरी।


मस्तिष्क का मेरा सुक्ष्म 'उम्मीद रनवे'
और उसपर एहसासों की गहरी धुंध,
विचलित हो रहा है मन,
वैसे ही वीजिब्लिटी बहुत कम है,
ऊपर से पोर्ट पर ट्रैफिक कंजेशन।

जिस फ्लाइट से तुम आ रही हो,
उसे निष्ठुर ट्रैफिक कंट्रोलर
डाइवर्ट न कर दे कहीं,
इसी पशोपेश मे हूँ कि
वो आज भी सहीसलामत
लैंड कर पायेगी, अथवा नहीं।

ऐ प्रिय, नींद मेरी !
तेरे आने के इंतजार मे,
मैं पलकें बिछाए बैठा हूँ,
तु आ न आ, मर्जी तेरी।।
              -'परचेत'

Monday, February 10, 2020

An Hinglish poem created just now by 8pm:😊



Everywhere,
don't try to poke your nose,
Let it go, the way it goes.
Pain takes its time to move
so, avoid there to reach earlier.

During the process of
motivating people,
sometimes, you have crossed
all your limits,
and it doesn't happen
for the first time ,
you tried this to breach earlier.

All your optimum ideas and
opinions seem like frozen now,.
Remembering, the way you
used to be fiery in speech earlier.   

You were not such a
horrible preacher,  dear 'Parchet',
to heal the wounded hearts,
you had intentionally loved
the soothe preach earlier.
                                     - 'परचेत'

Saturday, February 8, 2020

टीस एग्जिटकरण की...'शाप'



व्यथा असह्य अंत:करण की,
की जाती अब बयां नहीं है,
जैंसा है, सब वैसा ही रहे,
करने कोई उद्दार न जाए,
कोई भवसागर तरके पार न जाए।

मैं शफरी, मन मेरा भवसागर,
छलकत जाए, अधजल गागर,
अव्यवस्थ नगरी, तरस्त नागर,
चित रोए और चित्कार न जाए,

वहां जैंसा है, सब वैसा ही रहे,
कोई भवसागर तरके पार न जाए।

विध्यमान और अतीत खरोंचा,
सर नोचा, सरबालों को नोचा,
बदल जायेगे ये, कई बार सोचा,
चित लोभी का आधार न जाए,

वहां जैंसा है, सब वैसा ही रहे,
कोई भवसागर तरके पार न जाए।

विनती बस, यही अब जमुनाजी से,
जल अमृत बनकर अब और न रीसे,
कोई पाप का भागी, पुण्य न पीसे,
पापी का बहकर कदाचार न जाए,

इंद्रप्रस्थ मे जैंसा है, सब वैसा ही रहे,
कोई भवसागर तरके पार न जाए।

                ....          . -'परचेत'

Wednesday, February 5, 2020

कुछ अंश मेरी काव्यपुस्तक "तहकी़कात जारी रहेगी" से... 4

शीत-ऋतू, मुफ्त़ भेडों को कंबल देगा,
कुछ ऐसे ही वादों से गिरगिट लुभाए,
लालच के अंधे कोई यह भी न पूछे,
कंबल बनाने को ऊन कहांं से आए।

कुर्सी पाने को किसहद मुफ्त़मारी रहेगी,
तहक़ीकात अभी जारी रहेगी।।

कुछ तो उपचार की कमियां रही होगीं
विध्वंसता मे दुश्मन के मांद की,
वरना आज दीवार यूं न डगमगाती
मानव सब्र के बांध की।

लुचपने की टीस कबतक कष्टकारी रहेगी,
तहक़ीकात अभी जारी रहेगी।।

सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...