Wednesday, June 15, 2016

परिणीत सफर, रजत मुकाम


सुभग, सौम्य  मेहरबाँ  रब था, 
 चरम पे अपने यौवन जब था।


 जब होता मन चपल-चलवित,
 पुलकित होता हर इक लब था,
 जब बह जाते कभी जज्बातों में,
 अश्रु  बूँदों से भर जाता टब  था।
 चरम पे अपने यौवन जब था।

     
प्रफुल्लित, उल्लसित आह्लादित,

गिला न शिकवा, सब प्रसन्नचित,
पथ,सेज न पुष्पित, कंटमय थे, 
किंतु विश्रंभ सरोवर लबालब था।
चरम पे अपने यौवन जब था।।


नित मंजुल पहल दिन की होती, 
निशा ताक तुम्हें, चैन से सोती,

हुनर समेट लाता छितरे को भी, 
अनुग्रह,उत्सर्ग,अनुराग सब था।
चरम पे अपने यौवन जब था।


                                                               
दाम्पत्य सफ़र स्वरोत्कर्ष सैर,
मुमकिन न होता तुम्हारे वगैर,
नियत निर्धारित लक्ष्य पाने का ,
ब्यूह-कौशल , विवेक गजब था।
चरम पे अपने यौवन जब था।।



संशय!

इतना तो न बहक पप्पू ,  बहरे ख़फ़ीफ़ की बहर बनकर, ४ जून कहीं बरपा न दें तुझपे,  नादानियां तेरी, कहर  बनकर।