सुभग, सौम्य मेहरबाँ रब था,
चरम पे अपने यौवन जब था।
जब होता मन चपल-चलवित,
पुलकित होता हर इक लब था,
जब बह जाते कभी जज्बातों में,
अश्रु बूँदों से भर जाता टब था।
चरम पे अपने यौवन जब था।
प्रफुल्लित, उल्लसित आह्लादित,
गिला न शिकवा, सब प्रसन्नचित,
पथ,सेज न पुष्पित, कंटमय थे,
किंतु विश्रंभ सरोवर लबालब था।
चरम पे अपने यौवन जब था।।
नित मंजुल पहल दिन की होती,
निशा ताक तुम्हें, चैन से सोती,
हुनर समेट लाता छितरे को भी,
अनुग्रह,उत्सर्ग,अनुराग सब था।
चरम पे अपने यौवन जब था।
दाम्पत्य सफ़र स्वरोत्कर्ष सैर,
मुमकिन न होता तुम्हारे वगैर,
नियत निर्धारित लक्ष्य पाने का ,
ब्यूह-कौशल , विवेक गजब था।
चरम पे अपने यौवन जब था।।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच 16-06-2016 को चर्चा - 2375 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत खूब ... यौवन तो आज भी है ....तभी तो ये दाम्पत्य का सुख भी है ... ऐसे ही जीवन चलता रहे बस ....
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (17-06-2016) को "करो रक्त का दान" (चर्चा अंक-2376) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'