Wednesday, March 25, 2009

हाँ, इनकी जय हो !

इन्होने ऊँच-नीच के अहसास को,
पिछले बासठ सालो से,
हर हिन्दुस्तानी के दिल में
आरक्षण से जगाये रखा,
इसलिए इनकी जय हो !

इन्होने जाति-धर्म, क्षेत्र के हास को
पिछले बासठ सालो से,
छद्म-निरपेक्षता के अंगारों पर,
समाज में सुलगाये रखा,
इसलिए इनकी जय हो !

इन्होने गरीबी के उपहास को
पिछले बासठ सालो से,
अमीरो की जुबान में ,
तरतीब से सजाये रखा,
इसलिए इनकी जय हो !

इन्होने गुलामी के दास को
पिछले बासठ सालो से,
हर छोटे-बड़े नेता के घर में
दामाद बनाके बिठाये रखा,
इसलिए इनकी जय हो !

इन्होने अपने  भोग-विलास को
पिछले बासठ सालो से,
चंदे और दलाली की विसात पर
बार और कोठो में पनपाये रखा,
इसलिए इनकी जय हो !

Saturday, March 21, 2009

आखिरी रात !

बदचलन थी, कलमुही पता नहीं किसका पाप अपने साथ लिए फिर रही थी। माँ-बाप ने उस बेचारे शरीफ लड़के के मत्थे मड दी, अब वह ऐसा नहीं करता तो और क्या करता? इसीलिए तो बड़े बुजुर्ग कह गए कि लड़कियों को ज्यादा छूट मत दो। गाँव-मोहल्ले के स्कूल में प्राईमरी और ज्यादा-से ज्यादा आठवी-दसवी तक पढ़-लिख कर दो-चार अक्षर वांचने सीख जाए, बस। ज्यादा पढ़-लिखकर कौन सा उसे प्रधानमन्त्री की गद्दी सँभालने जाना है। बड़ी क्लास में जाकर यही सब करती फिरती है। परिवार की तो नाक कटाई ही, साथ में गाँव और इलाके का नाम भी मिटटी में मिला दिया।

इलाके का जो भी छोटा बड़ा वाशिंदा, उस घटना के बारे में सुनता, बस यही चर्चा शुरु कर देता था । यहाँ तक कि वहाँ की औरतो के मुख से भी यही बोल फूट रहे थे। और तो और, अगले ही दिन स्थानीय अखबार भी इसी खबर से पटे पड़े थे, कि शवो की पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट और पुलिस के शक को आधार बनाकर, कि प्रमोद ने तब सब कुछ जानने के बाद जहर खा दिया होगा, और फिर यह सब देखकर बीना के पास भी फांसी लगाने के सिवा कोई चारा न रहा होगा...... ! ऐसी ही तरह-तरह की कहानिया अखबारों ने अपने तरीके से गढी थी, और जिनका निचोड़ भी यह निकलता था कि सारा का सारा दोष बीना का ही था।

जहां एक और बीना के मायके में सन्नाटा पसरा पड़ा था, शादी में सरीक होने आये, उनके नाते-रिश्तेदार, सभी धीरे-धीरे खिसकने लगे थे। वहीं प्रमोद के गाँव में उसके घर से कुछ दूरी पर स्थित एक घर में, एक शख्स ऐसा भी था, जिसकी आँखों में उदासी की ओंश बिखरी पड़ी थी और दिल के समंदर में एक खामोश तूफ़ान, मुह से बाहर निकलने को बेताब था। उसका मन कर रहा था कि वह अभी बीना के पिता के पास जाये और उनसे कहे कि बीना का अंतिम संस्कार रुकवा दो, और पुलिस से कहो कि पहले उसके पेट में मौजूद शिशु और प्रमोद का डीएनए टेस्ट करवाएं, और इन भेडों के झुंड से कहो कि तब जाकर दोषी और निर्दोष का फैसला करे। किन्तु फिर अगले पल दिमाग के किसी कोने से आती सर्द सामाजिक पिछडेपन की एक ठंडी वयार उस घुमड़ते तूफ़ान को बार-बार दबा देती थी । वह चेहरा हर तरफ से इसके परिणाम और दुष-परिणामो को अपनी समझ और भावनावो के तराजू में, तोल रहा था । अन्दर ही अन्दर उसे भी हमारे इस पुरुष प्रधान तालिबानी समाज की रुग्ण मानसिकता का एक अनजान भय सताए जा रहा था। बहुत देर तक पाप-पुण्य के इसी तराजू को टटोलते-टटोलते उसकी आँखे भी थक गयी और उसने अपने अन्दर के तूफ़ान और खीझ को कहीं दबा कर शांत कर दिया।

कल ही उस शख्स की आकस्मिक मौत की खबर पा, मैं मन ही मन बुरी तरह से विचलित हो उठा था। गोपाल मेरे बचपन का दोस्त था, मेरी उससे आखिरी मुलाक़ात चार साल पहले गर्मियों की छुट्टियों मे गाँव मे हुई थी। जब मैं परिवार के साथ छुट्टियां बिताने गाँव गया हुआ था, तो वह भी गाँव मे छुट्टी लेकर अपने लिए एक आलिशान घर बनवा रहा था । मेरा गाँव, उसके गाँव के ही रास्ते में थोडा आगे चलकर था, अतः अपने गाँव आते जाते वक्त हमें उसी के गाँव से होकर गुजरना पड़ता था। उसे देख मैंने अपने चिर-परिचित अंदाज़ मे कटाक्ष करते हुए पुछा था कि क्यो भई, कोई लंबा हाथ मारा है, जो इतना आलिशान घर बनवा रहा है? वह भी एक पल के लिए अपनी वही अनोखी ठहाके मारने वाली हँसी हंस गया था बस, बोला कुछ नही । कुछ देर रूककर, अपने बगल वाले खाली पड़े खेत की ओर इशारा करते हुए वह बोला, तू भी बना ले यहाँ पर, दोनों अडोसी-पडोसी बन कर रहेंगे । मैंने फिर मजाक किया, कहाँ यार, मेरी कोई ऊपरी इन्कम नही है, तेरे पास कुछ माल-ताल है तो बता ? उसने फिर ठहाका लगाया था।

रात को सोते वक्त भी मैं उसी के बारे मे सोचने लगा । उसके अतीत को खंगालते हुए मुझे अपना वो बचपन का याराना याद आ जाता, जब छुट्टी के दिनों में हम दोनों अक्सर लोगो के खेतो से ककडीयां ( खीरा ) चुराते थे या फिर केले के पेडो से कच्चे केले तोड़, स्कूल जाने वाले पैदल पहाडी रास्ते पर गड्डा खोदकर उनको मिटटी मे दबा देते थे और स्कूल से आते-जाते वक्त गड्डे के ऊपर आग जलाते रहते थे, ताकि उष्मा पाकर केले जल्दी पक जाएँ । अगर किसी और बच्चे ने उस गड्डे को छेड़ने की हिम्मत कर दी तो दोनों मिलकर उसकी धुनाई कर डालते थे। उसकी शादी के बाद, मैंने अक्सर उसके चेहरे को मुरझाया हुआ ही पाया था। मैं तब कंपनी की तरफ़ से कुछ समय के लिए पोस्टिंग पर मुंबई गया था। कंपनी को बॉम्बे-पुणे एक्सप्रेस वे पर एक बड़ा ठेका मिला था। मैंने गोपाल से कभी छुट्टियों मे बच्चो को मुंबई घुमाने लाने को कहा तो वह तुंरत मान गया था, और मुझसे उसी साल मुंबई आने का वादा किया था। मैंने नवी मुंबई के नेरुल मे आर्मी हाऊसिंग वेलफेयर सोसाइटी मे एक फ्लैट किराए पर लिया था, क्योंकि वहाँ से मेरा नवी मुंबई ऑफिस और साईट दोनों नजदीक पड़ते थे। एक दिन गोपाल का फ़ोन आया कि वे अगले हफ्ते मंबई घूमने आरहे है । मैंने उसे कहा कि तेरा स्वागत है, बच्चो को भी लेकर आना।

और नियत समय पर अगले सफ्ताह वह पूरे दल-बल के साथ मेरे घर आ धमका था। मैंने भी ऑफिस से छुट्टी ली और दोनों परिवार दिन भर मुंबई और आस-पास के दर्शनीय स्थलों को घूमने के बाद शाम को थके-हारे कुटिया पर लौट आये। दोनों गृहणी, यानी मेरी और उसकी पत्नी, अपने गप-शप और किचन में भोजन की तैयारी में व्यस्त हो गयी, बच्चे खेलने में मग्न थे । हम दोनों ने भी छत पर दरी बिछा अपना मनोरंजन का झाम-ताम खोल डाला। थोड़ी देर बाद ही वह झूमने लगा था और मन के अन्दर छुपाये अपने सारे दर्दो-गम को उगलने लगा था ।

गोपाल ने बोलना शुरू किया ; श्रीनगर पोलिटेक्निक से सिविल ट्रेड का डिप्लोमा करने के ६ महीने बाद मुझे पी डब्लू डी में जेई की नौकरी मिली थी । उस समय बीना के गाँव की ओर जाने वाली मोटर रोड बन रही थी। मुझे साईट इंजिनियर के तौर पर उस सड़क के काम की निगरानी करने का डिपार्टमेन्ट से हुक्म हुआ था । मैंने बीना के मायके में, उसके घर से ठीक आगे वाले घर पर एक कमरा मामूली किराये पर ले लिया था । मैंने जब पहली बार बीना को देखा तो मुझे वह काफी भा सी गई थी, अतः बहुत जल्दी मैंने उसके साथ एक अच्छी-खासी पहचान बना ली थी और धीरे-धीरे यह पहचान दोस्ती में तब्दील हो गयी। आपसी बातचीत में मैंने महसूस किया था कि वह एक बहुत ही समझदार किस्म की एक उच्च संस्कारों की लड़की थी। उसके विचारो को सुन, कभी-कभी मैं इस सोच में पड़ जाता था कि अगर यह लड़की गाँव में पैदा न होकर किसी शहर में पैदा हुई होती, और अगर उसे उचित माहौल मिलता तो वह कहा तक पहुँच सकती थी।

जब वह इंटरमीडीएट में दाखिल हुई थी तो वह स्कूल उसके गाँव से बहुत दूर था, और उस गाँव से एक-दो बच्चे ही उस स्कूल में जाते थे और जब कभी, वहा साथ में जाने के लिए उसे गाँव से कोई नहीं मिलता था, तो वह मुझे साथ चलने को कहती। इसी बीच उसने मुझे यह भी बताया था कि उन दिनों उसके स्कूल के आस-पास एक लड़का उसे काफी परेशान कर रहा था। और बाद में चलकर मुझे मालूम पड़ा कि वह और कोई नहीं, बल्कि मेरे ही गाँव का प्रमोद था। मैंने अपने तरीके से प्रमोद को बहुत समझाने की कोशिश की थी, मगर वह अपने पिता के पुलिस में होने का रॉब झाड़ते हुए मुझे भी उससे न उलझने की चेतावनी दे गया था। और फिर उसने धीरे-धीरे बीना पर उससे शादी करने का दबाब डालना शुरू कर दिया था।

कुछ समय बाद मेरा दूसरी साईट पर तबादला हो गया था, अतः मैंने बीना का गाँव छोड़ दिया था। और न जाने कब मौका पाकर उसने उसके स्कूल से घर के रास्ते में उस घृणित कृत्य को अंजाम दे डाला जिसकी फिराक में वह महीनो से पड़ा था। लोक-लाज के भय से बीना इस इस अप्रत्याशित घटना के सदमे को खुद ही घुट घुट कर पी रहे थी कि तब उस पर एक और मुसीबत आन पड़ी, जब उसे यह अहसास होने लगा कि उसके पेट में प्रमोद का पाप पल रहा है। उस घटना के बाद से प्रमोद भी गायब हो गया था। काफ़ी सोचने के बाद उसने अपनी माँ के जरिये से, पिता को उसका रिश्ता प्रमोद से करवाने को कहा था। बीना के पिता जब रिश्ता लेकर प्रमोद के घर गए तो प्रमोद ने अपने पिता के साथ मिलकर तत्काल अपनी मंजूरी दे दी।और फिर दो महीने बाद शादी भी हो गई।

मेरा बीना से काफी समय से संपर्क नहीं हो पाया था, लेकिन उसकी शादी के कुछ रोज पहले, मुझे तब वह स्कूल से गाँव जाने वाले रास्ते पर मिली थी, जब मैं अपनी साईट से गाँव लौट रहा था। बुझी-बुझी सी दीख रही थी, अतः जब मैंने बहुत जोर दिया तो मुझसे किसी को न बताने का बचन लेकर, उसने जो अपनी दास्ताँ सुनाई, सुनकर मैं दंग रह गया था। साथ ही उसने कहा कि आने वाली १७ तारीख को उसकी शादी है और वही उसकी जिंदगी की आखिरी रात भी है। मैंने उससे कोई भी जल्दबाजी वाला कदम न उठाने की कई बार गुजारिश की थी, मगर उसने मेरी एक न सुनी और साथ ही मुझे यह भी आगाह किया था कि जितना हो सके, मैं उसके इस लफडे से दूरी बनाए रखु, क्योंकि मैं उसके बहुत करीब था, और लोग आरोप मेरे सिर पर भी मड सकते थे। और फिर अपनी शादी की उस आखिरी रात को बड़े ही सहज ढंग से अपने प्लान के मुताविक, बीना ने पहले प्रमोद को दूध में जहर खिलाया और फिर खुद पंखे से लटक गयी। फिर एक लम्बी सांस लेते हुए गोपाल बोला,मगर यार, मुझे यह आत्मग्लानि जिंदगी भर कचोटती रहेगी कि मैं अगर समय रहते प्रमोद को सबक सिखा देता तो शायद इस कहानी का अंत इस तरह नहीं होता।


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Thursday, March 19, 2009

विकाश और सोना!

हालांकि इस आधुनिक विज्ञान के युग में इस तरह की बाते हमें सरासर दकियानूसी और हमारे मात्र पुराने ख्यालातों को उजागर करने वाली लगती है, मगर किसी घटना से सम्बंधित कुछ ऐसे तथ्य भी कभी-कभार हमारे समक्ष आ जाते है जो हमें ऐसी किसी सरसरी तौर पर फालतू सी लगने वाली बात पर भी गौर करने को मजबूर कर देती है। ऐसी ही एक कहानी सुदूर उत्तराँचल के पहाडो में हुई एक सड़क दुर्घटना से सम्बंधित है। यह भी हो सकता है कि इस कहानी में भी अनेको पेंच हो, मसलन विकाश अपनी नवविवाहिता से संतुष्ट न रहा हो और उससे छुटकारा पाने के लिए उसने यह नाटक रचा हो और फिर उसके बाद लोगो को झांसा देकर वहां से सदा के लिए चला गया हो। लेकिन कुछ बाते ऐसी जरूर है, जो एक पल के लिए इंसान को सोचने पर मजबूर करती है। उस घटना को घटे करीब अठारह साल बीत चुके है, और उस इलाके के उन कुछ लोगो के लिए आज भी यह एक खौफनाक दु:स्वप्न जैसा है, जो उस घटना के चश्मदीद गवाह थे। वे आज भी उस जगह की ओर, भरी दोपहर में भी अकेले जाने में कतराते है, जहां पर यह घटना घटी थी। इस वाकिये से जुड़ा हर इंसान, बस एक ही तर्क आज भी देता है कि आखिर विकाश गया तो गया कहाँ? जबकि उन्होंने अपनी आँखों के सामने, ८०-९० किलोमीटर प्रतिघंटे की तेज रफ़्तार से भागती कार को बिना रुके सड़क से फिसलकर पहाडी ढलान पर लुड़कते देखा था? क्या उसे जमीन निगल गयी, या फिर आसमान उड़ा कर ले गया? अगर वह जिन्दा होता तो क्या इतने सालो के बाद भी, एक बार अपने गाँव, अपने परिवार की खोस-खबर लेने नहीं आता ?


सितम्बर का महिना ख़त्म होने को आया था। पहाडो में धीरे-धीरे सर्दी का मौसम अपने पैर पसारने लगा था। दुर्घटनास्थल पर आस-पास के गाँवों से दोपहर से जमा भीड़ अब छटने लगी थी। सूर्यदेव भी धीरे-धीरे पास की पहाडियों के पीछे खिसकने लगे थे। लोग हतप्रभ भी थे, और सहमे हुए भी । हर एक की जुबान पर एक ही सवाल था कि आख़िर विकाश गया तो गया कहाँ? कुछ लोग इस उम्मीद पर कि शायद कार के दुर्घटनाग्रस्त होते वक्त, विकाश पहाडी ढलान पर कहीं कार से बाहर छिटककर गिर गया हो और किसी पेड या झाडी में अटक गया हो, ऊपर सड़क की धार से नीचे खाई तक कई बार चक्कर लगा चुके थे, मगर सब बेकार। कुछ लोग कह रहे थे कि कंही वह बच निकला हो और कहीं भाग गया हो, मगर फिर सवाल उठता कि आख़िर वह अपनी पत्नी को इस हालत में छोड़ भागेगा क्यो? जितने मुह उतनी बातें।

प्रत्यक्षदर्शियों की बात पर विश्वास करे तो जब कार ऊपर पहाडी चोटी की सड़क पर 80-90 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ़्तार से दौड़ रही थी तो उन्होंने कार की ड्राविंग सीट और साथ वाली सीट दोनों खाली देखी थी। इकट्टा हुए लोग, उन प्रत्यक्षदर्शियों की बाते सुन-सुनकर सवाल करते, अरे क्या पागलो जैसी बात कर रहे हो सबके सब, जब ड्राविंग सीट पर कोई नही था तो, कार इतनी तेजी से क्या भूत भगा के ले जा रहा था? लेकिन इस तरह के प्रत्यक्षदर्शी एक-दो नही, बड़ी तादाद में थे, जिन्होंने अपनी आँखों से वह खौफनाक नज़ारा देखा था और इस बात की पुष्टि कर रहे थे कि कार खाली थी। उनमे से कुछ वे लोग थे, जो सड़क के किनारे की बनी दुकानों पर बैठे चाय पानी पी रहे थे, और कुछ पास के हाईस्कूल के वे बच्चे भी थे, जो इंटरवल में सड़क के किनारे खेल रहे थे ।

अचानक आन पड़ी इस मुशीबत से विकाश के वृद्ध पिता की आँखे मानो भाव शून्य हो गई थी। क्या करू? वे कुछ भी समझ पाने की स्थिति में नही थे। हँसते-खेलते परिवार को मानो किसी की नज़र लग गई हो। विकाश की पत्नी, प्रीति की लाश उस स्थान से जहां पर से कर पहाडी ढलान पर सड़क से नीचे लुड्की थी, वहाँ से करीब दो सौ मीटर दूर सड़क से करीब बीस फिट नीचे एक चीड के पेड़ के तने पर अटकी हुई थी। शाम होते-होते, उस जगह पर कोई अगर रह गया था तो विकाश के पिता और उनके गाँव के दस -बारह लोग। ख़बर मिलने पर अभी कुछ देर पहले ही पास के गाव का पटवारी तो पहुँच गया था, मगर पुलिस अभी तक नही पहुँची थी । रात की सर्दी से बचने के लिए लोग आस पास पड़ी लकडिया और अलाव इकठ्ठा करने लगे थे, क्योंकि जब तक पुलिस नही पहुँचती और लाश को अपने कब्जे में नही ले लेती वे उसे वहाँ पर छोड़ कर अपने घरो को नही जा सकते थे। रात हो जाने की वजह से अब रात के वक्त पुलिस के पहुँचने की सम्भावनाये भी क्षीण हो चुकी थी।

जलती हुई लकडियो पर हाथ सेकते वृद्ध पिता याद कर रहे थे, वह गुजरा वक्त, जब वे सेना में कार्यरत थे और उनका लाडला विकास पैदा हुआ था तो तब से आज तक के उसके पूरे जीवन चक्र को। अति उत्साहित जवान पिता ने ग्यारवे दिन नामकरण संस्कार में एक अच्छी खासी पार्टी का आयोजन किया था । लाइनपंडित ने पूजापाठ कर माँ- बाप से लग्नानुसार 'व' से नवजात शिशु का नामकरण करने को कहा। माँ-बाप ने उसका नाम विकाश रख दिया था। पार्टी में धडाधड थ्री एक्स की बोतलों के सील टूटे जा रहे थे। नशे में चूर उनका जिगरी दोस्त शम्भू अन्दर के कमरे से माँ की गोद से उठा कर विकाश को बाहर के कमरे में, जहाँ पार्टी चल रही थी, ले आया और ठीक उस टेबल के ऊपर उसे हथेली में झुलाने लगा, जिस पर स्नैक्स, पकोडे, गोश्त इत्यादि रखा था। इस नए-नए नए रंगरूट, विकाश को भी न जाने क्या चडी कि उसने भी उसी वक्त अपनी शैम्पेन खोल दी और टेबल पर रखे सामान पर छिडकाव कर दिया। वहां मौजूद सभी गणमान्य फौजी महानुभाव नशे में इतने धुत थे कि किसी ने भी यह नोट नही किया और बड़े चाव से स्नैक्स खाया गया । इस बात का खुलासा उस जिगरी दोस्त ने बाद में किया था।


कुछ साल बाद उन जिगरी दोस्त के यहाँ लड़की पैदा हुई । बस फिर क्या था उनकी मानो मन कि मुराद पूरी हो गई हो। दोनों परिवारों ने पहले से तय कर रखा था कि अगर लड़की हुई तो वह आगे चलकर विकाश की दुल्हन बनेगी। पूरे जोश- खरोश के साथ दोनों परिवार रिश्तेदारी में परिवर्तित हो गए थे। और दोनों मित्रगण और उनकी पत्निया, समधी- समधिन बन गए थे। लड़की का नाम सोना रखा गया। सोना की माँ, जब भी मौका मिलता या नन्ही सोना रो रही होती या किसी बात की जिद कर रही होती तो उसको पड़ोस में विकाश की माँ की गोद में यह कहकर छोड़ जाती कि संभालो अपनी बहु को। कुछ साल बाद उनकी पलटन रुड़की से गुरुदासपुर शिफ्ट हो गई थी । अभी शिफ्ट हुए मुस्किल से तीन महीने ही हुए थे कि बांग्लादेश युद्ध छिड गया, एक सुबह तडके पश्चिम सीमा पर पाकिस्तानी बमबर्षको ने ताबड़तोड़ बमबारी कर दी । छावनी के अनेक क्वाटर नष्ट हो गए थे, जिनमे से एक उनके जिगरी दोस्त शम्भू का भी था। बुरी तरह से घायल सोना के माँ-बाप, सोना को विकाश की माँ की गोद में डाल स्वर्ग सिधार गए। करीब दो साल की सोना को कोई विशेष चोट नही लगी थी ।


दिन बीते, सोना अब थोडी बड़ी हो गई थी, वह विकाश के माता पिता को ही अपना माता पिता समझती थी । ज्यो-ज्यो वह बड़ी होती गई उसकी सास उसे यह अहसास कराती गई कि वह उनकी बहु है और विकाश, उसका पति । जब सोना नौ साल की हुई तो उसे भी इस बात का थोड़ा-थोड़ा अहसास होने लगा था, अतः वह विकाश का ख़ास ख्याल रखने लगी थी । जबकि दूसरी ओर विकाश को इसकी जरा भी भनक नही थी और न ही उसके माँ- बाप इस पक्ष में थे कि अभी से उसको इस बात का अहसास दिलाया जाए । १९७७ की गर्मियों की छुट्टियों में वे लोग दादा-दादी के पास गाँव आए हुए थे कि अचानक एक दिन दोपहर को सोना को तेज़ बुखार आया और उसी रात नन्ही सोना की जिंदगी लील गया । विकाश तब पंद्रह बर्ष का था, उसे सोना के जाने का दुःख तो बहुत हुआ मगर वह अभी तक इस बात से बेखबर था कि उसके माता पिता ने बचपन में ही उसकी शादी सोना से कर दी थी और सोना उसकी पत्नी थी ।

दो साल बाद १०वी के बोर्ड की परीक्षा के बाद विकाश फिर गर्मियों की छुट्टिया विताने दादा-दादी के पास आया था । रोज सुबह वह दादाजी के साथ जंगल में मवेशियों को घास चुगाने ले जाता । और दोपहर बाद घर लौट आता । एकदिन दादाजी पास के एक गावं में किसी काम से गए हुए थे। अतः विकाश अकेले ही अपने मवेशियों को लेकर जंगल चला गया । उस दिन तेज गर्मी थी, अतः मवेशी, जगल की पहाडी पर बनी झील में पानी पीने जल्दी पहुँच गए । चारो तरफ़ से घने चीड और बांज के पेडो और हिस्सर और किन्गोड़ की झाडियों के बीच में स्थित यह झील, गर्मी में हर प्यासे को बड़ा सकून पहुंचाती थी । विकाश को नीचे पहाडी ढलान से ऊपर झील तक पहुँचने में थोड़ा वक्त लग गया था, अब तक मवेशी पानी पीकर आसपास फिर घास चरने में मग्न हो गए थे । जैसे ही विकाश झील पर पहुँचा, यह देख हक्का-बक्का रह गया कि झील में नौ से बारह साल की चार कन्याये स्नान कर रही थी। अभी वह अपनी आँखों को मल ही रहा था कि अचानक ९-१० साल की एक कन्या झील से बाहर निकल, उसकी तरफ़ दौडी । विकाश के यह देख मानो होसोहवास ही उड़ गए कि जो बच्ची उसकी और लपक कर आरही थी वह हूबहु सोना थी। विकाश के पास पहुँच, वह उछलकर उसके गले से झूल गई और उसके चेहरे को चूमने लगी। विकाश कुछ समझ पाता कि तभी झील से एक बारह साल की, उन कन्यावो में सबसे सीनियर दीखने वाली कन्या बाहर आई और सोना को विकाश से अलग करते हुए उसका हाथ पकड़ वापस झील में ले गई । जैसे ही वे दोनों झील के उस पर पहुँची कि सभी कन्याये अचानक गायब हो गई । विकाश यह सब देख थर-थर काँप रहा था । उसने जल्दी से सभी मवेशियों को इकठ्ठा किया और गावं की और तेजी से बढ़ने लगा ।

घर पहुँच उसने ये सारी बातें अपनी दादी को बताई । दादी भी यह सुन एकदम सकते मे आगई और उन्हें किसी अनहोनी का डर सताने लगा । दादी ने उसे समझाया कि फिर कभी उस तरफ़ मत जाना और इस बात का जिक्र भी किसी से नही करना, क्योंकि जिस जगह वह झील है उसके पास ही गाँवो के उन बच्चो को दफनाया जाता है जो असमय काल का ग्रास बन जाते है। अतः सोना को भी उसी झील के पास दफनाया गया था और अब वह लगता है आछरी ( परी ) बन गई है । यह सुन विकाश के शरीर में एक ठंडी सिहरन सी दौड़ गई । बाद में यह बाद विकाश के पिता को भी उसकी दादी ने बताई थी। बाद में ग्रेजुएसन कर विकाश शहर में नौकरी करने आ गया । अभी उसे नौकरी लगे साल भर ही हुआ था कि अचानक उसे लौटरी खरीदने का चस्का लग गया । एक दिन वह दिवाली के अवसर पर उसने २५ लाख के दिवाली बम्पर का एक टिकट खरीदा । टिकट एजेंट से टिकटों के बण्डल में से उसने एक टिकट छाँट कर बाहर निकIलना चाहा लेकिन उसे महसूस हुआ कि कोई उसका हाथ रोकते हुए उसे दूसरी टिकट खीचने को प्रेरित कर रहा है । न चाहते हुए भी विकाश ने वही टिकट खरीद ली जो उसे लगा कि कोई जबरन उससे खरीदवाना चाहता है । अगले दिन उस समय उसकी खुसी का ठिकाना नही रहा जब लॉटरी का पहला इनाम उसके टिकट पर लगा था ।

ढेर सारा धन मिलने के बाद, जिंदगी मजे से गुजरने लगी, उस जमाने में १५-२० लाख आज के एक करोड़ के बराबर थे। इस बीच उसने एक कार भी खरीद ली थी। कार चलाते वक्त वह कई बार यह भी महसूस कर चुका था कि जब वह ड्राइविंग सीट पर होता है तो कोई अदृश्य शक्ति सड़क पर चलती कार में उसके साथ स्टेयरिंग घुमाती, मानो ड्राइविंग सीख रही हो । पहली बार वह जब अपनी गाड़ी ख़ुद चलाकर शहर से गाँव लाया था, तो उसने अपने पिता को बताया था कि कैसे पहाडी मोडो पर उसकी गाड़ी का हार्न अपने आप बज जाता था, किसी ढलान पर अगर गाड़ी स्पीड पकड़ लेती तो मोड़ पर पहुचते ही स्पीड स्वतः ही कम होने लगती । मानो उन पहाडी संकरी सडको पर ड्राइव करते कोई उसका खास ध्यान रख रहा हो ।

दिन गुजरते गए, पिता ने उसकी मंगनी दूर के रिश्ते के ही एक परिवार में कर दी थी । विकाश को भी प्रीति काफ़ी पसंद थी । अतः ३ महीने बाद शादी का मुहूर्त निकला और धूमधाम से शादी हो गई । विकाश और प्रीति दोनों शादी के बाद से बड़े खुस थे। शादी के कुछ दिनों बाद वे एक दिन पहले प्रीति के मायके गए थे और आज वापस अपने गाँव लौट रहे थे, और फिर ......। रात धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी, हवाए सा-सा कर पहाड़ की छोटी और लम्बे चीड के दरख्तों से टकरा रही थी, कि तभी यह देख उन सभी बड़े-बूढे लोगो की जो रात को जंगल में प्रीति की लाश की चौकीदारी कार रहे थे, मानो सांस रुक सी गयी थी, जब उन्होंने देखा कि जिस चीड के पेड़ के तने पर प्रीति की लाश अटकी थी वह पेड़ और उसके बगल में कुछ दुरी पर स्थित दूसरा चीड का पेड़, जोर से झूलते हुए मानो एक-दूसरे के गले मिल रहे हो। वह दृश्य देख, बस यही ख़याल सब के दिल को छू जाता कि कही सोना तो विकाश को........ ?

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Tuesday, March 17, 2009

लच्छी !

मेवाराम और उसका परिवार उस गाँव में उसकी पिछली तीन पुश्तो से रहते चले आ रहे थे। मूलतः वे लोग पहाडो में बसने वाली भोटिया जाति से सम्बद्ध थे। परिवार में वह, उसकी बीबी और चार बच्चे। जिंदगी गरीबी से जूझती मगर सीमित आवश्यकतावो की वजह से ठीक-ठाक ही गुजरती जाती थी, कहने को ज्यादा उतार-चड़ाव नही थे, बस एक शांत और सीमित कही जाने वाली ज़िन्दगी थी।

चार बच्चो में लच्छी सबसे बड़ी थी और जवानी की सतरहवी देहलीज में प्रवेश कर चुकी थी। वह गाँव के ही सरकारी स्कूल से आठवी तक पढ़ी थी। उसी गाँव के प्रधान का बेटा शेर सिंह, जिसे शेरू के नाम से पुकारा जाता था, गाँव छुट्टी आया हुआ था। लोग कहते थे कि वह गाँव से सैकडो मील दूर, एक बड़े शहर में किसी बड़े सरकारी अफसर के घर पर नौकर था। क्योंकि वह काफ़ी सालो से बड़े साहब के पास काम कर रहा था, इसलिए उनके परिवार से काफ़ी घुलामिला था, और बड़े साहब और उसका परिवार उस पर काफ़ी भरोंषा करते थे। मगर इधर जब भी वह गाँव छुट्टी आता,लोगो को शेरू का एक दूसरा ही चेहरा नजर आता था। लोग उसे प्रधान की आवारा और बदचलन औलाद कहकर संबोधित करते। शेरू की नज़र एक दिन जब लच्छी पर पड़ी,तो उसका दिल मचलने लगा, वह उसके आसपास मंडराने की कोशिश करने लगा। शेरू शहर का मंझा हुआ एक वेशर्म किस्म का इंसान था, भली भांति जानता था कि कहाँ क्या दांव खेलना है, और अपनी इसी खूबी के चलते, वह लच्छी के घर तक पैंठ बनाने में सक्षम हो गया और उसके माता पिता से लच्छी से शादी की अपनी मनसा जाहिर कर दी। हालाँकि लच्छी, शेरू में जरा भी दिलचस्प नही थी, मगर प्रधान के दवाव और माता पिता की जोर जबरदस्ती के बीच उसकी एक न चली। शायद माँ बाप भी यह सोच रहे थे कि शेरू के साथ शादी कर, शहर जाकर उनकी बेटी सुख-चैन की जिंदगी बसर कर सकेगी, अतः एक सूक्ष्म ढंग से लच्छी की शादी शेरू से कर दी गई।

शादी के बाद शेरू लच्छी को अपने साथ शहर ले आया, शहर पंहुच शेरू ने अपनी नवविवाहिता के साथ कुछ महीनो तक खूब मौज मस्ती की। उसे साब की कोठी के प्रांगण में ही बने सर्वेंट क्वाटर में से एक मिला था, अतः गृहस्थी जुटाने में ज्यादा दिक्कत लच्छी को नहीं हुई। इस बीच घर से लच्छी के लिए पिता का पत्र आया, कुशल क्षेम लिखी थी। लच्छी ने भी जबाब में पत्र लिखा और लिखा कि वह भी मजे में है, आप लोग उसकी बिलकुल भी चिंता न करे। माता-पिता, बेटी का ख़त पाकर बड़े खुश हुए थे कि चलो लच्छी शादी के बाद खुश तो है। मगर, जैसा कि शेरू स्वाभाव से आवारा था, उसका मन धीरे-धीरे लच्छी से भरने लगा था और वह बात-वेबात पर उसे मारने-पीटने लगा। वह लच्छी से छुटकारा पाने के तरीके सोचने लगा। गाँव से शहर आए लच्छी को एक साल से भी ऊपर हो गया था, अब उसके लिए जिंदगी यहाँ पर दूभर सी हो गई थी, माँ- बाप, भाई-बहनों की याद पल-पल सताती और वह एकांत में जाकर खूब रोती। इस बीच बड़े साब का तबादला, दक्षिण के किसी शहर में हो गया, और बड़े साहब अपने परिवार समेत दूसरे शहर के लिए शिफ्ट करने की तैयारी करने लगे। शेरू ने भी मौका उचित समझ इसे गवाने न देने का निश्चय किया। साब के ड्राईवर के एक रिश्तेदार, जोकि टैक्सी चलाता था,के साथ लच्छी का सौदा तय कर लिया। प्लान के मुताविक बड़े साब से यह कहकर कि अपनी पत्नी को किसी जान पहचान वाले के साथ गाँव भेज रहा हू, उसे वह गाजिआबाद के मोहन नगर स्थित बस अड्डे ले गया।


जैसे ही ऑटो से उतरकर वे दोनों सड़क किनारे खड़े होकर बस का इंतज़ार करने लगे, तय प्लान के मुताविक वह व्यक्ति, जिसके साथ शेरू ने लच्छी का सौदा किया था, ऋषिकेश-ऋषिकेश... की आवाजे मारता हुआ उनके पास पहुंचा और अनजान सा बनते हुए शेरू से पूछा, कहाँ जाना है बाबूजी? शेरू भी झट से बोला ऋषिकेश, वह बोला, दो जने हो ! शेरू बोला, नहीं, पत्नी की तरफ इशारा करते हुए फिर बोला, सिर्फ इनको जाना है। वह आदमी बोला, तो आजायिए बहनजी, मैं आपको ऋषिकेश छोड़ दूंगा, मेरी टैक्सी में बस आगे की एक सीट ही बची है पीछे की सीट तो भर गयी है, जितना भाडा बस का पड़ता है, आप उतना ही दे देना, क्योंकि मुझे एक पार्टी को लेने जल्दी ऋषिकेश पहुचना है। लच्छी के मना करने के बाबजूद भी शेरू ने उसे यह बहला-फुसलाकर मना लिया कि, एक तो टैक्सी में तुम अकेली नहीं हो, और भी सवारी है। दूसरा आगे की सीट पर आराम से बैठ कर जावोगी, बस में वैसे भी तुम्हे उल्टी होती है और तीसरे यह जनाब तुम्हे ऋषिकेश से आगे की बस में भी बिठा देंगे।


घबराई लच्छी न चाहते हुए भी टैक्सी में बैठ गयी, उसके बैठते ही उस शख्स ने गाडी आगे बढा दी। शहर की भीडभाड वाली जगह से निकल कर टैक्सी शुनशान रास्तो पर आ गयी। लच्छी को तो यह भी नहीं मालुम था कि ऋषिकेश का रास्ता जाता किधर से है? कुछ देर बाद उसने टैक्सी मुख्य मार्ग से हटा कर गन्ने के खेतो के बीच से गुजरने वाली एक पगडण्डी पर डाल दी। लच्छी सहमी हुई तो जरूर थी मगर, इस बात से बेखबर थी कि पीछे बैठी सवारिया कोई और नहीं, बल्कि उसी शख्स के अपने लोग थे। कुछ दूर जाकर उसने गाडी एक खेत के बीचो-बीच मोड़ दी। अब लच्छी को किसी अनहोनी का अंदेशा साफ़ नजर आने लगा था, उसने पीछे मुड़कर पिछली सीट पर बैठे लोगो से कहा कि भाईसाब, आप इनसे पूछते क्यों नहीं हो कि ये गाडी कहा ले जा रहे है। उसकी बात सुनकर चारो ने एक जोर का ठहाका लगाया। लच्छी ने गिडगिडाकर उनसे रहम की भीख मांगी, मगर बेरहम भेडियों पर इसका कोई असर नही पड़ा। करीब हफ्ता भर तक उन्होंने लच्छी को एक शुनशान ट्यूबवेल के झोपडे में बंधक बनाए रखा और फिर एक दिन उसे दोपहर में अर्ध-विछिप्त हालत में उसी बड़े साहब के बंगले के बाहर एक कोने पर डाल गए।

कुछ देर बाद जब लच्छी को होश आया तो वह बहुत घबरायी हुई थी। वह अपने कपड़ो को सँभालते हुए दौड़कर बंगले के अन्दर गयी मगर बंगला खाली पड़ा था, सर्वेंट क्वाटर भी खाली पड़ा था। उसी बंगले से लगते, दूसरे बंगले के गेट पर खड़े चौकीदार से उसने शेरू वाले बंगले के बारे में पूछा। अधेड़ उम्र के चौकीदार ने बताया की चार-पांच रोज पहले उस साहब का तबादला दक्षिण भारत के किसी शहर में हो जाने की वजह से वे लोग यहाँ से शिफ्ट कर गए है।चौकीदार की बात सुनकर लच्छी की समझ में धीरे-धीरे पूरी कहानी आने लगी। वह समझ चुकी थी कि यह सब शेरू की चाल थी, और उसी ने यह जानते हुए कि अब शीघ्र वे इस शहर को छोड़ने वाले है, उससे छुटकारा पाने के लिए यह सारा ताना-बाना बुना था। मगर अब तक बहुत देर हो चुकी थी, लच्छी का सब कुछ लुट चूका था। बेसहारा, अब इस बड़े शहर में अकेले जाए तो जाए कहाँ ? शाम होने को आई थी और इस अचानक आई विपदा से पागल सी हो गई लच्छी को तब ध्यान आया कि सामने के फ्लाई ओवर के ठीक नीचे पिल्लरो के बगल में रहने वाले, जिन दो अनाथ बच्चो को वह कभी-कभार घर का बचा-खुचा खाना दे आती थी, वही अब उसके रात गुजारने का एक मात्र सहारा रह गया है, अतः वह तुंरत उनके पास चली गई।


रात घिर आई थी,थकी हारी, भूखी प्यासी लच्छी उन बच्चो के बगल में जाकर सो गई। मगर जिंदगी वहां भी इतनी आसान नही थी। आधी रात के करीब पास ही से पहले से उसपर नज़र गडाये कुछ गिद्ध झपट पड़े। दोनों अनाथ बच्चो ने विरोध किया तो उन्हें भी मार पीटकर भगा दिया। लच्छी और बच्चो ने चिल्लाने की कोशिश भी की, मगर फलाई ओवर के ऊपर और अगल बगल से गुज़र रहे भारी ट्रैफिक के शोरगुल में उनकी चीख कहीं दबकर रह गई। अब जैंसे मानो यह रोज का किस्सा हो गया था। लच्छी अनजान और खौफनाक जानवरों से भरे पड़े इस शहर में जाए तो जाए कहा? लच्छी के पास एक तो वापस गाँव जाने का कोई साधन नही था, और साथ ही उसे अब यह बात भी अन्दर से खाए जा रही थी कि अगर वह किसी तरह गाँव चली भी गई तो क्या सब कुछ जानकर भी घर वाले उसे स्वीकार करेंगे ? गम में डूबी लच्छी ने सोचा कि एक बार पिता को पत्र भेजकर देखती हूँ। उसने अपने पिता को पत्र लिखा कि पापा में बहुत थक गई हूँ, आप लोगो की बहुत याद आती है, यह शहर मुझे अब काटने दौड़ता है, क्या मैं आप लोगो के पास, गाँव आ जाऊ ? चूँकि फ्लाईओवर बड़े साब की कोठी के पास ही था और बड़े साब के शिफ्ट होने के बाद से अब तक खाली पड़ा था, और गेट के पास लगे लैटर बॉक्स तक उसकी पहुँच थी, अतः उसने वही पता अपने पत्र में प्रयोग किया था। पिता ने पत्र माँ को सुनाया कि देख हमारी लच्छी गाँव वापस आना चाहती है, माँ ने भी पिता को जोर दिया कि जल्दी जबाब लिखो कि वह शिघ्राती-शीघ्र आ जाए।


पिता ने लच्छी को जबाब में लिखा कि बेटी हमें भी तेरी बहुत याद आती है, तू जब फुरसत मिले, अपने पति के साथ गाँव चली आना। लच्छी ने फिर पत्र लिखा, पापा, मैं अगर आऊंगी तो अकेले ही आऊंगी, क्योंकि अब शेरू मेरे साथ नहीं आ सकता और मैं आपके पास सदा के लिए ही रहने के लिए आऊंगी। उम्मीद करती हूँ कि आप लोगो को इस बात पर ऐतराज़ नही होगा ? लच्छी का यह पत्र पाकर, पिता मेवाराम के माथे पर लकीरें खिंच गई मगर पास खड़ी लच्छी की माँ को उन्होंने यही कहा कि लच्छी जल्दी आने वाली है। मेवाराम, बेटी के इस पत्र को पाकर चिंतिति हो गया था और बार बार भगवान् से प्रार्थना कर रहा था कि लच्छी के जीवन में कोई अनहोनी न हो। फिर यह सोचकर कि, जैसा कि अमूमन हो जाता है, लच्छी और उसके पति के बीच भी कोई पारिवारिक मन-मुटाव हो गया होगा जिसकी वजह से लच्छी ने ऐसा लिखा होगा। फिर पिता ने लच्छी को पत्र लिखा कि बेटी, कुछ दिनों के लिए हमारे पास आ जा, इससे तेरा मन बहलाव भी हो जायेगा और शेरू को समझने का समय भी मिल जायेगा, मगर ये जो तू कह रही है कि तू सदा के लिए यहाँ आना चाहती है तो बेटा, शादी के बाद, बेटी का असली घर उसका ससुराल ही होता है, इसलिए हम तुझे ऐंसी सलाह कभी नही देंगे कि तू ससुराल में सब कुछ छोड़-छाड़ कर, सदा के लिए यहाँ आ जा, लोग क्या कहेंगे?

घर में माँ और लच्छी के भाई-बहन, रोज लच्छी के आने की राह ताकने लगे थे। दूर पहाडी कसबे से इस गाँव में आने वाली एक मात्र गाडी शाम के वक्त सवारियों को लेकर गाँव पहुँचती थी। रोज जब गाडी आती तो परिवार के लोग उस राह पर बहुत देर तक टकटकी लगाए रहते, जिस राह से मुसाफिर बस से उतरकर, गाँव की पगडण्डी पर आता था, और जब कोई न आता तो सभी उदास हो जाते। एक रोज मेवाराम किसी काम से दूसरे गाँव से लौट रहा था कि तभी रास्ते में दो पुलिस वाले मिल गए, जो दूर कसबे की कोतवाली की तरफ़ से आये थे। मेवा राम को कुछ पूछने के बाद उन्होंने बड़े शहर के थाने से आया वह पत्र सौंप दिया, जिसमे लिखा था कि आपका पता, जो हमें शव के पास से मिले पत्र से मिला,हमें आपको सूचित करते हुए खेद है कि लच्छी ने कुछ रोज पहले शहर के एक फ्लाईओवर के पास, तेज रफ़्तार ट्रक के आगे कूदकर आत्महत्या कर ली है। उसके शव को अस्पताल के शवगृह में सुरक्षित रखा गया है, अतः आप लोग आकर मृतक को पहचानने और पंचनामा कर शव का अंतिम संस्कार करने में प्रसाशन की मदद करे। पत्र पढ़कर पिता टूटकर रह गया था, शाम ढल चुकी थी, घर जाकर लच्छी की माँ को क्या बतायेगा? इसी सोच में बूढा बाप, धीरे-धीरे गाँव की तरफ डग बढाने लगा। दूर गाँव में किसी रेडियो पर एक पहाडी गीत बज रहा था, गीत कुछ इस तरह का था कि लच्छी, अब घर आ जा, शाम हो गई है !

Saturday, March 14, 2009

फिरंगी शांता !

पहली बार वह फ्रैंकफर्ट होते हुए मिआमी जा रहा था, अन्यथा उसने अपनी पिछली ३-४ ट्रिप वाया हीथ्रो ( लंदन) होते हुए ही तय की थी । दिल्ली से हीथ्रो अथवा फ्रंकफुर्ट का करीब ८- ८.३० घंटे का सफर उतना कष्टदायी और उबाऊ नही लगता, जितना की वहाँ से मिआमी तक का ९- ९.३० घंटे का लगता है। इसका एक कारण यह भी है कि आदमी जब शुरुआती उड़ान पकड़ता है तो वह मानसिक और शारीरिक रूप से तरोताज़ा होता है। इसलिए यह सब आसानी से झेल लेता है, मगर ज्यों-ज्यों वह बीच में ४-५ घंटे के स्टॉप ओवर के बाद आगे बढ़ता है, उसकी शारीरिक क्षमताये जबाब देने लगती हैं। यही वज़ह है कि लोग इतनी लम्बी हवाई उड़ान के बाद कुछ दिनों तक जेट-लेग का शिकार होते हैं। लुफ्थांसा के विमान में बैठे-बैठे, वह अब तक विस्की के दो पैग ले चुका था, मगर आँखे थी कि झपकने का नाम ही नही ले रही थी। वह अपने अतीत को खंगालने लगा। उसका अतीत उसके सामने एक चल-चित्र की तरह परत दर परत खुलता चला गया।

राकेश २४ साल का था, जब उसने अपने पूरब को छोड़, सुदूर पश्चिम के एक विकसित राष्ट्र की और, या यूँ कहे कि दुनिया के एक सबसे विकशित राष्ट्र की और रुख किया था। जिंदगी की जद्दो-जहद में इन्सान को कितने कष्टों का सामना करना पड़ता है , क्या- क्या सपने पालता है इंसान, और फिर उनको सच में बदलने के लिए क्या क्या जोखिम नही उठाता, यही सब कुछ इस वक्त राकेश की आंखो में घूम रहा था। उसके भी दिल में एक ऊँचे दरख्त को पाने की भरपूर चाह थी । अमेरिका आने के लिए उसे कितनी मस्श्कत करनी पड़ी थी, और उसके बाद………… ! पिछले १४ साल का पूरा लेखा- जोखा उसके सामने था ।

चंडीगढ़ से होटल प्रबंधन मे डिग्री लेने के बाद उसने तकरीबन एक साल मसूरी के एक होटल मे बतौर स्टूअर्ड्स नौकरी की । इस नौकरी के दौरान ही उसकी मुलाकात एक बेहद मिलनसार और उदार दिल अमेरिकी स्टीव जॉन्सन और उसकी प्रेमिका मार्या से हुई । स्टीव विश्व बैंक के साक्षरता और गरीबी उन्मूलन से संबंधित गैर सरकारी संस्थावो (N.G.O) को आर्थिक मदद से संबंधित कार्यो से जुडा हुआ था और उतराखंड मे चल रहे ऐसे कार्यक्रमों मे विश्व बैंक का प्रतिनिधित्व करता था। स्टीव जब भी देहरादून आता, नाईट हाल्ट के लिए मसूरी के इसी होटल मे ठहरता था। पिछली बार जब वह मसूरी आया था तो राकेश की ड्यूटी उसी के कमरे में थी। स्मार्ट और प्लेजिंग पर्सनेलिटी और मेहमान को सर्व करने का राकेश का अंदाज़ स्टीव और उसकी महिला मित्र को बहुत भाया । अबकी बार, जब वे मसूरी आए थे तो उन्होंने रिसेप्शन पर पहले राकेश के बारे में ही पूछा था। इस बार की विजिट में राकेश, स्टीव के बहुत करीब आ गया था । इस बीच राकेश, जिसका की अपना एक ही सपना था कि अमेरिका जाना है, वहाँ जाने के उपलब्ध सभी वैध तरीको में असफल प्रयास कर चुका था, उसने मौका पाकर अपनी समस्या स्टीव के सामने रखी। स्टीव कुछ कहता इससे पहले ही मार्या बोल पड़ी ” कमौन राकेश ! डोंट लूज हार्ट….. हम तुम्हे शीघ्र ही अमेरिका आने का एक मौका देंगे। मार्या जिस विश्वास के साथ उसे आश्वासन दे रही थी, और इस बीच स्टीव जिस तरह से अपनी गर्दन हिला कर हामी भर रहा था उससे राकेश को आशा की एक किरण नज़र आने लगी थी।

कुछ दिन रुकने के बाद स्टीव और उसकी महिला मित्र अमेरिका वापस लौट गए। करीब ३ हफ्ते बीते होंगे कि एक दिन अचानक दोपहर में होटल की रेसप्शनिस्ट ने एक कुरिएर का पैकेट राकेश के हाथ में थमाया ! राकेश ने बिना समय गवाए जल्दी से लिफाफा खोला और उस वक्त उसकी खुसी का ठिकाना नही रहा, जब उसने स्टीव का एक लैटर जो उसके नाम था, और साथ में दो और लैटर, एक लैटर जो किसी संस्था के लैटर हेड पर था, और अमेरिकन कोउन्सूलेट जनरल न्यू देलही के नाम था। और एक और पत्र जो उसने किसी संस्था के नाम देहरादून के एड्रेस पर लिखा था । स्पोंसर लैटर में, जिसमे कि राकेश को स्टीव ने अपनी आरगेनाइजेशन से संबंधित एनजीओ बताया था, और उसे मिआमी में एक अंतराष्ट्रीय सेमिनार में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया था। साथ में कुछ फार्म और ब्रौचेर भी संलग्न किए गए थे। राकेश को लिखे पत्र में स्टीव ने उसे कुछ आवश्यक निर्देश दिए थे, ताकि अमेरिकी कोंसुलेट पर वीसा आवेदन के वक्त और साक्षात्कार के दौरान कोई दिक्कत न हो।

आर्थिक रूप से भी कोई खास दिक्कत नही थी, अतः उसने तुरंत सभी कागजात और टिकट ट्रेवल एजेंट के माध्यम से तैयार कराये और स्टीव के निर्देशानुसार उसकी देहरादून स्थित संस्था से ‘स्पोंसेर कम नो ओब्जेक्शन लैटर’ तैयार कर दिल्ली में अमेरिकन एम्बेसी पर वीसा के लिए आवेदन किया। किस्मत साथ दे रही थी, इसलिए बिना देरी के उसको वीसा मिल गया। बस फिर क्या था, वह दिन गिनने लगा था और घर पर उसके अमेरिका जाने की तैयारिया सुरु हो गई थी ! सामान पैक करते वक्त माँ कभी कभार फफक कर रो पड़ती ! माँ को आख़िर बेटे के बारे में दिल में बहुत सारी चिन्ताए जो घर कर रही थी। बेटा अपना घर, शहर, देश छोड़कर सात समंदर पार जा रहा था । लेकिन राकेश पर तो जैसे अमेरिका जाने का भूत सवार था।

आख़िर विदाई की घड़ी भी आ गई। माता पिता और उसके दो ख़ास मित्र उसे विदा करने नई दिल्ली के इंदिरा गाँधी अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे तक आए। देर रात की फलाइट थी, हवाई अड्डे के प्रस्थान मुख्य द्वार पर उस वक्त उसको यह देख बड़ी निराशा हुई थी कि वह देहरादून से साथ आए माता पिता और मित्रो को ठीक से गले भी नही मिल पाया, क्योंकि भीड़ की वजह से वहाँ तैनात ट्राफिक पुलिश के जवानों ने टैक्सी को जल्दी हटाने के लिए ड्राइवर पर दबाब डालना सुरु कर दिया था। पुलिश वाले धडाधड़ चालान काटे जा रहे थे । ड्राइवर देहरादून का था इस लिए उसे पार्किंग के बारे में भी ठीक से जानकारी नही थी । अतः जैसे ही सIमान उतारा और राकेश ट्राली लेकर आया , पुलिश वाले ने टैक्सी आगे बढाने को कह दिया। माता पिता और मित्र गाड़ी से ही हाथ हिलाते रह गए।

अपने देश से बिल्कुल हट कर एक भिन्न तरह की अजनबी धरती पर उतरने के बाद , वहाँ की चकाचौन्द और अपने देश और वहाँ के ढांचागत अन्तर को देख वह हतप्रभ था। साथ ही वहाँ की चिपचिपाहट भरी जून की गर्मी से परेशान भी था, वैंसे तो जून के महीने में मिआमी चूँकि तटीय शहर होने की वज़ह से वहाँ का तापमान ७५ से १०० डिग्री फ़ारेनहाइट तक रहता है मगर स्वैटिंग इंसान को परेशान कर देती है । खास कर उस इंसान को जो ठंडी जगह से गया हो । एयरपोर्ट से अपने एक दूर के रिश्तेदार के यहाँ ग्रेटर मिआमी जाने के लिए उसने ७ डॉलर में कैब ली और अपने गंतव्य पर जा पहुंचा। भारत से यहाँ तक की उसकी यह एक वैध एंट्री थी, मगर तै समय पर लौटने से बचने के लिए फिर वह उस देश में ख़ुद ही गुम हो गया था। यहाँ आकर अब उसे मेह्सूश हो रहा था की दूर के ढोल कितने सुहावने लगते है। वक्त बेवक्त माँ के हाथ की बनी रोटियों की याद आ जाती । पेट पालने और कुछ कमाने की चाह में महीनों एक गैस स्टेशन की नौकरी करके गुजारे, और फिर मिआमी से जैक्सनविल्ले जाने वाले हाईवे पर बोकारटन के पास एक मोटल में स्ट्वार्ड की जॉब पकड़ ली।

दिन गुजरे, साल गुजर गए। एक दिन किसी काम से जब वह मिआमी से वेस्ट पाम बीच जाते वक्त मंगोनिया पार्क स्टेशन पर उतरा था तो उसकी नज़र एक हिन्दुस्तानी सी दिखने वाली लड़की पर जा टिकी। वीक एंड की छुट्टी थी, अतः वह अपना वक्त जाया करने के पूरे मूड में था। लड़की बेंच पर अकेली बैठ थी, वह उसके इर्दगिर्द घूमने लगा। जाने उसमे ऐसा क्या था की राकेश उस पर मुग्ध सा हो गया था। लड़की भी समझदार थी, जल्दी भांप गई की यह जनाब क्या चाहते हैं । वह बिना नज़र हटाये राकेश को देख मंद मंद मुश्कुराने लगी ! बस फिर क्या था ! राकेश को मानो टी-टी ने हरी बत्ती दिखला दी हो, वह बेंच के दुसरे सिरे पर बैठता हुआ ‘हाई’ बोल गया । लड़की ने भी ‘हाई’ में ही जबाब दिया । बस फिर जो कहानी सुरु हुई तो अगले सवा घंटे तक चलती चली गई ! राकेश मन ही मन आश्चर्यचकित था कि अभी कुछ देर पहले तक अनजाने से दो लोग, कैसे इतनी सारी बात कर गए और अपने- अपने बारे में इतना सब कुछ बता गए ! उसने अपना नाम शांता बताया था ! और फिर मिलने के लिए अगले वीक एंड पर, राकेश से फ्लोरिडा प्रान्त के दुसरे तट सरासोता बीच पर आने के लिए कह गई थी ! सरासोता बीच अपने सफेद बालू और शांत और एकांत जगह के लिए सैलानियों के लिए एक पसंदीदा जगह है ! सरासोता खाडी पर लोग बोटिंग और फिशिंग का लुफ्त उठाने भी बड़ी तादाद में आते हैं ! वैसे तो मिआमी बीच भी एक बड़ी खूबसूरत जगह है मगर वहl पर काफी भीड़ भाड़ रहती है !

अगले वीक एंड पर तय समय के आधार पर राकेश सरासोता बीच जा पहुंचा ! उसे यह जान कर खुसी हुई कि शांता पहले से उसका इंतज़ार कर रही थी ! इस बार शांता का मिलने का अंदाज़ भी काफी निराला था जो की राकेश को दिल तक छु गया था ! छुट्टी का दिन होने की वजह से राकेश अपना पूरा वक्त शांता को समर्पित करना चाहता था ! आसमान पर हलकी बदली छाई हुई थी और तापमान भी तकरीबन ७० डिग्री फ़ारेनहाइट के आसपास था , इस खुशनुमा मौसम मे बीच पर बैठे-बैठे दोनों घंटो बाते करते रहे ! राकेश यह जानकर अति उत्साहित था कि शांता का ओरिजिन भी उत्तराखंड ही था ! शांता के पिता कृष्ण मोहन पन्त पिछले ३० सालो से यूरोप की एक बहुत बड़ी फर्म जिरोक्स में अमेरिका के विल्सनविल स्थित ऑफिस में रिसर्च एंड डेवलोप्मेंट डिविजन मैं बतौर साइंटिस्ट नियुक्त थे! भारत से निकलने के बाद कुछ साल तक वे इस फर्म के यूरोप स्थित हेड ऑफिस में सर्विस इंजिनियर के पद पर कार्यरत रहे और बाद में उन्हें कंपनी ने अपने यू एस स्थित कार्यालय में ट्रान्सफर कर दिया और तभी से वे लोग अमेरिका में रह रहे थे ! वैसे शांता का जन्म तो अमेरिका में ही हुआ था ! मगर वह अपनी माँ के साथ बचपन में कई बार उत्तराखंड आई थी और वहाँ की हर चीज़ से वाकिफ थी ! उसे भी यह जान कर बहुत खुसी हुई की जिस ६ फ़ुट लंबे हैण्डसम नौजवान से वह मिली है वह भी उत्तराखंड का ही है !

महीने गुजरे और साल गुजर गया ! दोनों की मुलाकातों और फ़ोन पर बातो का सिलसिला अब इतना बढ़ चुका था कि कब दोनों एक दुसरे को दिलो जान से चाहने लगे, दोनों को पता ही न चला ! इस बीच दो तीन बार वह शांता के घर जो कि हिअलेह में था, भी हो आया था ! शांता की माँ एक सरल स्वभाव की हंसमुख महिला थी ! पिछले २५-३० सालो से अमेरिका में रहने के वावजूद भी वह अपने उत्तरांचल की सैली को नही छोड़ पाई थी ! राकेश को शांता की माँ का बात बात पर आधा गदवाली और आधा अंग्रेजी मिक्स वह डायलोग ” फुंड गो ” ( जिसे शुद्ध पहाडी भाषा में ‘ फुनै सौर’ या ‘फुंड सौर’ तथा हिन्दी में मजाकिया शैली में ‘दूर हट‘ कहते हैं बहुत अच्छा लगता था ! घर की सारी सजावट में भी पूरी तरह हिन्दुस्तानियत रची बसी थी ! लेकिन वह अभी तक शांता के पिता से नही मिल पाया था ! जहा एक और वह मन ही मन शांता को अपनी जीवन संगनी बनाने का निर्णय ले चुका था, वही बहुत सी आशंकावो के चलते उसकी रातो की नींद भी छीन ली थी !

इस बार के सप्ताहान्त में दोनों ने फ्लोरिडा से बाहर जाने का प्लान बनाया था, अतः दोनों तय कार्यक्रम के अनुसार सुबह-सबेरे शांता कि गाड़ी से जोर्जिया के मकोन शहर को निकल पड़े ! मकोन पहुँचने का वेंसे तो नजदीकी रास्ता लेस्बर्ग और लेक सिटी होते हुए निकलता था मगर दो प्रमियों को किस बात कि जल्दी अतः उन्होंने तटीय हाइवे से पहले सवान्नाह और फिर वहाँ से डब्लिन होते हुए मकोन निकलने का फ़ैसला किया ! राकेश एक अनुभवी और कभी-कभी, कुछ-कुछ अनाडी ड्राईवर की भांति ड्राइव करता हुआ १०० मील प्रति घंटा की रफ़्तार से हाइवे पर गाड़ी भगाए जा रहा था ! बातो के बीच में राकेश की हर नई बात पर शांता ‘अजी तुसी ग्रेट हो जी’ वाला डायलोग मारती थी, अतः वह भी उसे अब ‘ माय फिरंगी शांता’ कह कर संबोधित करता था! वह जब भी शांता को जरा सा भी ध्यानमग्न अथवा खामोश देखता तुंरत कहता,एक शेर अर्ज है :

हर्ज क्या है तनिक पूछने में, हाल-ए-जनाब,
जान-ए-मन, चुप रहकर न सितम ढाया करो,
मुरदों की ज़ियारत के लिए कभी-कभार
ऐ गुलबदन, क़ब्रिस्तान भी घूम आया करो !


शेर सुनकर शांता वाह-वाह करती, हाइवे पर थोडी देर रुकने और एक मोटल में नाश्ता करने के बाद वे फिर हँसी मजाक और सफर का पूरा लुफ्त उठाते हुए अपने गंतव्य की और बढ़ने लगे : राकेश ने एक पुराना गदवाली गीत जो की वह शांता को एकांत के पालो में पहले भी कई बार सुना चुका था गुनगुनाना शुरु किया !

ट्रिप से लौटने के दौरान शांता ने अगले वीकएंड पर उसकी मुलाकात अपने पिता से करवाने कि बात कही ! राकेश तो मानो इसी पल का इंतज़ार कर रहा था! उसने हामी भर दी ! घर पहुचकर डाईनिंग टेबल पर शांता ने जब पिता से राकेश के बारे में बात छेडी तो उसके पिता ने कोई खास इंटेरेस्ट नही दिखाया ! मानो उनके दिमाग में कुछ और ही पक रहा हो ! शांता ने बात को वही खत्म करना उचित समझा ! अगले दिन फिर नाश्ते पर उसने अपने पापा से राकेश की बात उठाई और एक साफ़ अंदाज़ में यह संकेत दे दिया की वे एक दुसरे को चाहते है ! उसको इस बात पर इतना सीरियस देख पिता ने उससे राकेश के बारे में जानकारी ली की वह क्या करता है? कहाँ का रहने वाला है ? कब और कैंसे अमेरिका आया, इत्यादि इत्यादी…! चूँकि शांता अब तक राकेश के बारे में बहुत कुछ जानती थी अतः उसने पिता को उसके बारे में सारी जानकारी दे दी ! उसने साथ ही यह भी बताया की वीकएंड पर राकेश आपसे मिलना चाहता है ,पिता ने भी मिलने की हामी भरी और ऑफिस को निकल पड़े !

राकेश, शांता के कहे अनुसार समय पर उसके घर पहुँच गया, शांता ने ही उसे पिता से परिचय कराया ! हIलाँकि शांता ने राकेश के बारे में पहले ही पिता को सब कुछ बता दिया था फिर भी शांता के पिता ने राकेश से पुनः सारी बातें पूछी ! और फिर वही हुआ जिसका राकेश को डर था ! शांता के पिता ने राकेश की और मुखातिब होकर थोड़ा गंभीर मुद्रा में बोलना शुरू किया ! देखो राकेश, जहा तक तुम्हारा और शांता का दोस्ती का सवाल है, मुझे इसमे कोई ऐतराज नही है लेकिन रही बात इस दोस्ती को संबंधो तक ले जाने की, तो मुझे भी इस बात की खुशी थी की तुम उत्तराखंड के हो और हम भी कभी उत्तराखंड के थे ! लेकिन जहा तक शांता के भविष्य का सवाल है ! यह तुम भी भली भांति जानते हो कि तुम गैर कानूनी ढंग से इस देश में रह रहे हो ! और ०९/११ के बाद यहाँ कि सरकार गैर कानूनी ढंग से रह रहे लोगो के प्रति काफ़ी शक्त हो गई है और कभी भी अपनी गिरफ्त में ले सकती है ! राकेश के बोलने से पहले ही शांता ने सफाई दी ” नही पापा, राकेश यहाँ पर पिछले ८ सालो से रह रहा है और उसने अटोर्नी के मार्फत ग्रीन कार्ड पाने के लिए ऑलरेडी आवेदन कर दिया है और उसे शीघ्र ही ग्रीन कार्ड मिल जाएगा” ! पिता बोले तुम चुप रहो, यह इतना आसान खेल नही है वैसे भी सरकार ने आब्रजन कानूनों को काफी शक्त कर दिया है ! साथ ही उन्होंने खुलासा किया कि उन्होंने शांता के लिए मनोज शर्मा नाम के एक शख्स को देखा है और उसके पिता से भी मिल चुके है वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के रहने वाले है लेकिन मनोज भी यही का पला-बढ़ा है और न्यू ओरलेंस में अपना बिज़नस करता है ! साथ ही पिता ने शांता और राकेश को अपनी दोस्ती को सीमित स्तर तक रखने कि हिदायत दी !

राकेश पर तो मानो किसी ने घडो पानी उडेल दिया हो ! कुछ कहना चाहता था मगर गले से शब्द नही निकल रहे थे ! शांता और उसकी मम्मी सोफे के बगल में गुमसुम खड़े थे ! राकेश उनके घर से बाहर निकला मगर किसी ने भी कुछ नही कहा ! घर लौटे वक्त, एक ही सवाल जेहन में था अब इसके बाद क्या ? उसे धीरे-धीरे अपनी सीमाओं और मजबूरियों का अहसास होने लगा था ! एक बार तो दिल किया कि मजनू कि तरह बगावत का बिगुल बजा दूँ लेकिन यह भी भली भांति जानता था कि पराये देश में जहा वह पिछले ८-९ साल से गैर कानूनी तौर पर रह रहा है वहाँ उसका साथ देगा कौन ? और शांता के पिता ने अगर सबक सिखाने कि ठान ली तो……… ! शांता ने भी पिता को हर तरफ़ से मनाने कि कोशिश कि मगर माँ-बाप कुछ भी सुनने को राजी न थे ! वैसे तो अगर वह चाहती तो पाश्चात्य संस्कृति के हिसाब से अपना फ़ैसला ख़ुद ले लेती लेकिन हिन्दुस्तानी संस्कृति जो उसे माँ से विरासत में मिली थी उसने कही उसके पावो को जकड लिया था ! इस घटना के बाद राकेश और शांता में स्वाभाविक दूरियां बदने लगी ! कभी-कभार फ़ोन पर ही हाई-हेल्लो होती थी ! राकेश को शांता के साथ गुजारा पल एक मीठे स्वप्न कि तरह लगने लगा !

अमेरिका आने के बाद वह दो बार स्टीव से भी मिलने गया था ! स्टीव ने उसके ग्रीन कार्ड पाने में भी काफ़ी मदद की थी उसे स्टीव ने जल्दी ग्रीन कार्ड पाने के लिए कांट्रेक्ट मेरेज करने कि सलाह भी दी थी मगर वह रास्ता उसे उचित नही लगा था मगर कभी कभार वह सोचता था की अगर सुरु में उसने स्टीव की सलाह मान ली होती तो सायद शांता उसे मिल गई होती ! आज उसे ठीक ९ साल ८ महीने के बाद ग्रीन कार्ड मिला था ! एक बार सोचा कि शांता के घर जावू और उसे इस बारे में बताऊ मगर अब क्या फायदा, अभी दो महीने पहले ही शांता ने उसी शर्मा नाम के सख्स से अपनी एंगेजमेंट की ख़बर फ़ोन पर राकेश को दी थी, उसने राकेश को शादी की डेट भी बताई और फ़ोन पर ही निमंत्रण भी दिया था ! राकेश अपनी किस्मत पर मुस्करा भर दिया था, कभी खुशी - कभी गम वाली स्थिति उसके साथ थी ! अपने घर वालो को ग्रीन कार्ड मिलने की ख़बर उसने फ़ोन पर दी तो माँ- बाप के चेहरे खिल उठे ! अब ९-१० साल के बाद उनका बेटा वापिस अपने वतन आ सकेगा ! नवम्बर में वह भारत लौटा ! माता पिता ने पहले से ही एक लड़की देख कर रखी थी और बस फिर क्या था, चट मंगनी और पट व्याह ! राकेश शादी के तीन महीने बाद अमेरिका वापस लौटा, मगर इस बार उसकी स्थति बिल्कुल अलग थी, कही भी दिल नही लग रहा था! कभी शांता की पुराने यादे ताज़ा हो जाती, तो कभी नई नवेली दुल्हन की याद आ जाती ! ६ महीने रुकने के बाद वह यह सोच कर कि अब वह अपने देश में ही सेटल हो जाएगा, वह वापस लौट आया !
मगर कहते हैं न कि इंसान को चैन कही पर भी नही है, घर वाले भी इस बात से ज्यादा खुश नही थे कि वह हमेशा के लिए अमेरिका छोड़ आया है ! राकेश को भी लग रहा था कि कही न कही मानसिकता और दिखावे की संस्कृति आपस में क्लैश कर रही थी अतः एक लम्बी अवधि के बाद उसने पुनः अमेरिका जाने का फैशला कर लिया था ! अभी कुछ साल पहले ही उसका एक स्थानीय दोस्त व पुराना क्लासमेट मोहन भी अमेरिका गया था! वहा जाने के लिए उसने भी एक निराला अंदाज़ चुना था ! राकेश ने उसके घर वालो से उसका पता ठिकाना लिया और अमेरिका के लिए निकल पड़ा ! मिआमी पहुच वह अपने एक और दोस्त जिससे उसकी मुलाकात अमेरिका में ही हुई थी, उसके घर जा पहुँचा ! और फिर से एक स्टोर की जॉब पकड़ ली, सालभर और गुजर जाने के बाद भी उसकी मुलाकात मोहन से नही हो पाई थी क्योंकि जो पता ठिकाना उसके घर वालो ने उसे दिया था, वह उसे बदल चुका था ! उसने अपने घरवालो से मोहन के घर जाकर उसका नया पता ठिकाना देने को कहा ! घरवालो ने उसका फ़ोन नम्बर लाकर राकेश को दे दिया !

और आख़िर एक दिन फ़ोन पर बातचीत के बाद वह मोहन से मिलने पहुँच गया, मोहन कोलंबस में रहता था, वहां मोहन ने उसे बताया की उसने ग्रीन कार्ड पाने के लिए एक अमेरिकी महिला जो की हिन्दुस्तानी ओरिजिन की है से कांट्रेक्ट मेरेज कर ली है ! उस महिला ने आर्थिक लाभ के लिए यह मेरेज की थी ! यू.एस.सी.आई.एस के उस कांट्रेक्ट के मुताविक ३ साल तक वे कानूनी तौर पर पति पत्नी होंगे, और उसे एक निश्चित रकम प्रतिमाह उस महिला को देनी है ! उसने शाम को उसे उस महिला से मिलाने का वादा भी किया ! शाम को जब दोनों उस घर में पहुचे और घंटी देने पर उस महिला ने जब फ्लैट का दरवाज़ा खोला तो उसे देखते ही राकेश के मुह से एक चीख निकल गई ! उसने कहा तुम ! और महिला ने कहा तुम ! मोहन उन दोनों का मुह आश्चर्य से देख रहा था ! जी हां वह शांता थी ! शांता ने राकेश और मोहन को अन्दर ड्राइंग रूम में आने को कहा ! राकेश के माथे से परेसानी की लकीरे साफ़ नज़र आ रही थी ! वह तुंरत जानना चाहता था की यह सब क्यो और कैंसे ?

शांता उन्हें बिठाने के बाद अन्दर किचन में चली गई थी, शायद काफी बना रही थी ! थोडी देर बाद वह लौटी, कप और केतली टेबल पर रखे और एक दर्द भरी मुस्कुराहट बिखेरते हुए राकेश से बोली ‘ तुम दोनों एक दुसरे को कैसे जानते हो? ‘ मोहन ने कहा, यह मेरा दोस्त और पुराना क्लासमेट है ! राकेश बिना कुछ बोले हाथ की उंगलिया उसकी तरफ़ गोल-गोल घुमाने लगा की कुछ बोल ! शांता इशारा समझ गई थी, उसने एक लम्बी साँस लेने के बाद कहा फिर कभी बतावूंगी ! राकेश था की सब कुछ अभी जानना चाहता था, वह कुछ बोलता इससे पहले शांता ने राकेश से पुछा अचानक कहा चले गए थे ? मैं तुम्हारे घर पर गई थी, मगर पता चला की तुम इंडिया चले गए हो ! मोहन बोला, हाँ यह शादी करने चला गया था ! शांता बोली, हो तो अब जनाब भी शादीशुदा है ! मोहन बोला, अरे अब तो एक मेहमान भी आ गया है उसके घर में ! तुसी ग्रेट हो जी, बड़े छुपे रुस्तम निकले शांता बोली , ये सारी बाते छोड़ अपने बारे में बतावो, राकेश ने जोर दे कर कहा!
शांता बोली, वैसे तो अब इन सब बातो को जान कर क्या करोगे लेकिन फिर भी बताये देती हूँ ! और फिर शांता ने जो कथा सुनाई उसे सुनकर राकेश की आँखे छलक आई ! शांता के पति मनोज और शांता के माता पिता का एक कार एक्सीडेंट में निधन हो चुका था ! वे लोग सभी न्यूओरलेंस में रात्रि को होटल में एक पार्टी से घर लौट रहे थे, जब उनकी कार एक ट्रक से टकरा गई ! जिसमे शांता और उसकी ७ महीने की बच्ची ही जिन्दा बच पाई थी ! शांता का सब कुछ ख़तम हो चुका था! अतः उसने अब फिर से, घर न बसIने की कसम खा ली थी, और इस तरह अपना जीवन यापन करने लगी थी, वह एक नर्सिंग होम में जॉब भी करती थी, और एक निश्चित आर्थिक रकम कांट्रेक्ट मैरेज के जरिये मोहन से भी मिल जाती थी ! राकेश ने एक गहरी साँस ली और धीरे से बोला, बहुत देर हो गई शांता, हम लोग बहुत दूर चले गए है ! वह शांता को कोई दिलाशा भी नही दे पा रहा था ! भारी मन से बस इतना कह के वह शांता के फ्लैट से निकल गया था कि कभी किसी मुस्किल घड़ी में उसकी जरुरत पड़े, तो याद कर लेना !

अचानक एक उद्-घोषणा (अन्नौंसमेंट) से राकेश चौंक गया मानो उसकी नीद खुल गई हो , ” यात्री कृपया ध्यान दे , हमारा विमान मिआमी के अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर शीघ्र ही उतरने वाला है, सभी यात्रियों से निवेदन है कि कृपया वे अपने लैपटॉप और मोबाइल फ़ोन स्विच आफ कर दे और सीट बेल्ट बाँध ले, मिआमी का तापमान इस समय ८५ डिग्री फ़ारेनहाइट है, हम उम्मीद करते हैं की आपकी यह यात्रा सुखद रही होगी और आप हमें फिर से सेवा का अवसर देंगे, धन्यबाद “!
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Friday, March 13, 2009

नरेश अंकल

बात लगभग एक साल पुरानी है, ग्रिष्मावकास के बाद फिर से स्कूल खुल गए थे। चिल्ड्रन बसे सुबह-सबेरे फिर से सडको पर दौड़ने लगी थी। रुपाली की स्कूल की मिनी बस जो सिर्फ़ छोटे बच्चो को लाने ले जाने के लिए थी, धीरे-धीरे बच्चो से भरने लगी थी। नन्ही रुपाली बस के पायदान के ठीक सामने, आगे वाली सीट पर बैठी थी। वह अपने नन्हे दिमाग में तरह-तरह के खयालो को ला रही थी। साथ ही बार-बार ड्राईवर की सीट की ओर भी देखे जा रही थी। आज ड्राइविंग सीट पर जो अंकल बैठे थे, वह भी नरेश अंकल की ही तरह की कद काठी और उम्र के थे। ग्रिष्मावकास के पहले की तरह कोई भी बच्चा आज बोनट के ऊपर नही बैठा था और न ही कोई गाना गा रहा था, सारे बच्चे खामोश अंदाज़ में सहमे से बैठे थे। एक-दो बच्चे, जिन्होंने पहली बार स्कूल का रुख किया था, सीट पर बैठे- बैठे रो भी रहे थे।

सुबह-सबेरे चूँकि सडको पर यातायात बहुत ज्यादा नही होता अतः चिल्ड्रेन बस अपने गंतव्य की ओर सरपट भागे जा रही थी। रुपाली ने अपना सिर खिड़की के शीशे से टिकाया और ध्यान मग्न हो गई। दो माह पूर्व गर्मियों की छुट्टिया शुरु होने के ठीक एक दिन पहले की वह दर्दनाक घटना उसके जेहन में बहुद अन्दर तक घर कर गई थी, जिसमे बच्चो का प्यारा नरेश अंकल (बस ड्राईवर) सभी बच्चो को हतप्रभ सा छोड़ कहीं बहुत दूर चला गया था।

नरेश २८ साल का एक सीधा-साधा मगर खुश-मिजाज युवक था जो ग्रेजुयेशन करने के बाद कुछ सालो तक पहाडो में ही इधर-उधर की ठोकरे खाने के उपरांत, आँखों में कुछ सपने सजोये राजधानी की ओर चल पड़ा था। मगर यहाँ भी उसको कुछ ख़ास नसीब न हो सका, शायद तकदीर में ठोकरे ही ज्यादा लिखी थी। अतः मजबूरन उसने एक पब्लिक स्कूल के बस ड्राईवर की नौकरी पकड़ ली थी। स्कूल ड्राईवर की नौकरी पकड़ने का एक कारण उसके लिए यह भी था कि उसे बच्चो से बेहद लगाव था। जिस दिन से वह इस चिल्ड्रेन बस पर ड्राईवर बन के आया था, बच्चे भी बेहद खुश होकर स्कूल जाते थे। परिणाम स्वरुप बच्चो के अभिभावकों ने भी स्कूल प्रशासन से कई बार नरेश की जम कर तारीफ़ की थी। बस में सवार होने के बाद बच्चा घर की याद भूल जाया करता था क्योंकि नरेश का बच्चो को बहलाने का अंदाज़ ही निराला था। बच्चे पिछली सीटो को छोड़-छोड़ कर आगे की चार सीटो और बोनट के ऊपर में ही पसर जाते थे। नरेश ड्राइव करते-करते या तो बच्चो को कहानिया सुनाता या जब कुछ नही सूझता तो बच्चो को ऊँचे स्वर में गाना गाने को कहता। बच्चे भी खुस होकर बड़ी मस्ती में गाना गाते ओर स्कूल से घर तक, और घर से स्कूल तक का सफर कब कट जाता, पता ही नही चलता था।

रुपाली याद कर रही थी कि उस दिन भी नरेश अंकल ने गाने की पहली दो लाइन गाकर उन्हें गाने को कहा था और बच्चे हाथो से तालिया बजाकर गाना गाये जा रहे थे कि तभी अचानक नरेश अंकल ने जोर के ब्रेक लगाये ओर बच्चे सीटो पर इधर उधर लुड़क गए। भगवान् का शुक्र था कि किसी बच्चे को चोट नही आई थी। फिर रुपाली और साथ के अन्य बच्चो ने जो देखा वह भयावह मंजर उनके नन्हे दिमाग पर एक अमिट छाप छोड़ गया था। दो युवक नरेश अंकल का गिरेवान पकड़ उसको ड्राइविंग सीट से नीचे सड़क पर खीचने की कोशिश कर रहे थे, बस की हलकी सी टक्कर से उनकी बाईक का पीछे की लाईट का शीशा टूट गया था। नरेश अंकल अपना बचाव करते हुए बार-बार तर्क दे रहे थे कि "भाईसाब, गलती मेरी नही आपकी है आपने ही ने तो अचानक से अपनी बाईक दूसरी लेन से हटा कर गाड़ी के ठीक आगे लगायी.......अब तुंरत ब्रेक नही लगे तो मैं क्या करू, तेज ब्रेक लगाने में बस के अन्दर बैठे बच्चो पर भी चोट लग सकती थी .... "

जवानी के नशे में चूर गुस्साए युवको पर नरेश की बात का कोई असर नही पड़ा, वे बस उसे बाहर खीचते रहे। इसी रस्सा-कस्सी में नरेश अचानक संतुलन खो बैठा और नीचे सड़क पर जा गिरा। बस फिर क्या था दोनों युवको ने अपने- अपने हेलमेट नरेश के सिर पर तोड़ डाले। कुछ और राहगीर भी वहाँ इकठ्ठा हो तमाशा देखने लगे। बच्चे गाडी के अन्दर से चिल्ला रहे थे " अरे हमारे अंकल को मत मारो, कोई हमारे अंकल को बचावो " लेकिन किसी के भी कानो में जू तक नही रेंगी ! नरेश बेहोश होकर सड़क पर पड़ा था, उसके नाक और मुह से खून बह रहा था। दोनों युवक अपनी बाईक उठा, वहा से चंपत हो गए थे। कुछ देर बाद वहाँ पुलिस की जिप्सी आई थी और नरेश को अस्पताल ले गई, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी ? ......... मम्मी बता रही थी कि नरेश अंकल भगवान् के पास चले गए है, इसीलिए तो आज दूसरे अंकल ड्राइव कर रहे हैं।

गाडी स्कूल के गेट पर पहुंची और ड्राईवर ने बच्चो को उतरने को कहा तो नन्ही रुपाली आखें मूँद भगवान् से प्रार्थना कर रही थी; भगवानजी, आप उन दोनों बदमाशो को मत छोड़ना, जिन्होंने हमारे नरेश अंकल को मारा, उनको पनिस जरूर करना !

Tuesday, March 10, 2009

किस्मत का आतंक !

अक्सर देखा गया है कि कुछ लोग जन्मजात भाग्यशाली होते है, विपरीत परिस्थितियों में भी भाग्य हर मोड़ पर उनका साथ देता है, ठीक इसके विपरीत कुछ अभागे लोग ऐंसे भी होते है जिनका बदकिस्मती जिंदगी भर साथ नही छोड़ती। कमला की कहानी भी कुछ इससे भिन्न नही है। बचपन में ही माँ का साया सर से उठ गया था। सौतेली माँ के भेदभावपूर्ण व्यवहार के तले जैसे-तैसे बचपन गुजरा, जवानी की देहलीज़ पर पहुची, और फिर वह दिन भी आया जब वह डोली में बैठ पति के घर चली आई। ससुराल में भी परिवार में कहने को सिर्फ़ जेठ - जेठानी और उनके दो बच्चे थे, सास-ससुर का निधन बहुत पहले ही हो चुका था। प्रमोद, कमला का पति अन्ख्लेश्वर, गुजरात में एक प्राइवेट केमिकल फैक्ट्री में सुपरवाईजर के पद पर कार्यरत था।

शादी के हफ्ते भर बाद प्रमोद कमला को गाँव में भैया-भाभी के पास छोड़ वापस नौकरी पर अन्ख्लेश्वर लौट आया था। अभी कमला के हाथो की मेहँदी ठीक से सूख भी नही पाई थी कि जेठानी ने भी जुल्म ढाने शुरू कर दिए। जैसे-तैसे दिन गुजरने लगे। आज के दौर में, जबकि देश में मोबाइल क्रांति और फ़ोन क्रांति का बोलबाला हो, वही सुदूर पहाडी गाँव में रहने वाली एक अकेली औरत का सहारा, डाक विभाग के डाकिया द्वारा लाया गया वह पत्र ही होता है जिसे उसके किसी अपने अजीज ने भेजा हो। वह जब भी खेत-खलिहान या जंगल से घास-लकडी लेकर घर पहुँचती है तो पहली नज़र उसकी मकान की सीड़ियों के नीचे बने उस आले पर जाती है जिसमे अक्सर पोस्टमैन उसके नाम की चिट्टी को रख जाया करता है। और जब वह उसे वह आला खाली नज़र आता है तो उदास हो जाती है। प्रमोद की आय भी शायद इतनी ज्यादा नही थी कि वह हर महीने कमला और अपने भैया भाभी को खर्चे के लिए मनीआडर भेज पाता, अतः जेठानी ताने मारती कि नबाबजादा ख़ुद तो ऐश कर रहा होगा और इस मुसीबत को हमारे मत्थे मार गया।


हद तो तब हो गई जब उसके जेठ-जेठानी ने घर-जायजाद के हिस्से कर दिए, और उसका चूल्हा भी अलग कर दिया। कमला इस अकस्मात आए नए दुःख से फूट-फूट कर रो पड़ी। उसके पास तो इतना भी सहारा न था कि वह तुंरत अपने मायके जाकर अपनी माँ के सीने से लग अपना दुःख बाँट सके। जैसे-तैसे उसने अपने को संभाला और अगले दिन पास के कस्बे में प्रमोद को टेलीफोन करने गई, और उसे घर के हालात की जानकारी दी। प्रमोद ने जल्दी घर आने का आश्वाशन दिया।

कुछ हप्ते बाद प्रमोद छुट्टी आया और कमला को साथ ले अन्ख्लेश्वर चला गया। प्रमोद फैक्ट्री काम्प्लेक्स में ही एक कमरे के क्वार्टर पर रहता था। धीरे-धीरे दोनों ने नई गृहस्थी को जोड़ना सुरु किया। दिन खुसी-खुसी गुजरने लगे। साल भर बाद घर में एक कलि खिली, माँ-बाप ने प्यार से उसका नाम समीक्षा रखा। वक्त गुजरने लगा, घर में एक सीमा तक पूरी खुशहाली थी। समीक्षा जब साल भर की हुई तो दीपावली की छुट्टी में वे लोग चंद दिनों के लिए गाँव आये, कुछ दिन गाँव में बिताने के बाद वे लोग गुजरात वापस लौट गए। कुछ समय से वे लोग महसूस कर रहे थे कि समीक्षा दिन-प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी, अचानक एक दिन उसे तेज़ बुखार आया और वह बेहोश हो गई। छुट्टी का दिन था अतः प्रमोद घर पर ही था, वह दौड़ा-दौड़ा उसे पास के एक नर्सिंग होम में ले गया। प्रमोद दम्पति उस समय टूट कर रह गए जब डाक्टरों ने जांच के बाद बताया कि समीक्षा को ब्लड कैंसर है और खून में ब्लड सेल न बनने/टूटने के कारण हर एक पखवाडे के बाद उसका ब्लड बदलना पड़ेगा। कमला अपनी तकदीर कोसने के सिवाए और कर भी क्या सकती थी ? दिन बीतते गए, समीक्षा अब ढाई साल की हो गई थी। प्रमोद जिस कंपनी में कार्यरत था उस कंपनी का हेडऑफिस अहमदाबाद में था, वहाँ पर स्टोर में काफ़ी समय से स्टोरकीपर की जगह खाली थी, चूँकि प्रमोद एक पुराना कर्मचारी था अतः प्रमोशन के तौर पर कंपनी ने उसे स्टोरकीपर की पोस्ट पर अहमदाबाद स्थानांतरित कर दिया था।


अपने एक ऑफिस के ही साथी दोस्त की मदद से, अहमदाबाद में जोधपुर चार रास्ता के पास सोसाइटी से सटे इलाके में प्रमोद ने एक कमरा किचन किराये पर लिया था। चूँकि ब्लड कैंसर की वजह से समीक्षा का हर २० दिन पर ब्लड बदलना पड़ता था, अतः धोलका इलाके में मौजूद ब्लड सेंटर पर आना पड़ता था। ब्लड बदलने से ४८ घंटे पहले समीक्षा को कुछ जरूरी दवाईया और इंजेक्शन देना होता था। प्रमोद कमला को समय समय पर हिदायत देता रहता था कि यहाँ अहमदाबाद में वो बात नहीं है जो अन्ख्लेश्वर में थी, यहाँ दंगे फसाद और आतंकी हमले का भी डर हर समय बना रहता है, अतः वह जब कभी बाजार सामान खरीदने के लिए जाये तो संभलकर जाये। उसकी इस बात पर कमला उससे बच्चो की तरह का मासूमियत भरा सवाल पूछती कि ये आतंकवादी उन लोगो पर, जिन्होंने इनका कुछ भी नहीं बिगाडा, उन पर क्यों हमले करते है, उन्हें क्यों मारते है? प्रमोद अपने ढंग से उसे समझाने की कोशिश करता और उसे अपने साथ हुई उस घटना की कहानी को उसे बार -बार सुनाता, जब वह छोटा था और आठवी में पढता था।

प्रमोद ने कमला को बताया कि १९७९ की बात थी, उसके पिताजी की बटैलियन फिरोजपुर से अभी- अभी ऊपरी असम के नालबारी जिले में शिफ्ट हुई थी ! आर्मी क्वाटर्स खाली न होने की वजह से उन्हें सिविल एरिया में किराये पर घर लेना पड़ा था। वहां पर अभी कुछ हफ्तों पहले ही असम आने वाले अवैध बांग्लादेसी घुसपैठियों के खिलाप स्थानीय पार्टियों द्वारा मोर्चा खोला गया था। आन्दोलन धीरे-धीरे हिंसक होता जा रहा था। अबैध रूप से घुसे बांग्लादेसी घुसपैठियों भी इसके खिलाप जंग की पूरी तैयारी कर ली थी, क्योंकि उन्हें सीमा पार से पूरा समर्थन मिल रहा था। वे लोग स्थानीय गुमराह युवको को अपने दल में शामिल कर उन्हें हथियार और बम चलने की ट्रेनिंग देते थे, प्रलोभन में उन्हें खूब पैसे भी दिए जाते थे। जब से वहाँ सिफ्ट हुए थे, तभी से रोज कोई न कोई अप्रिय ख़बर सुनने को मिलती थी।


उसने बताया कि उस समय संचार के इतने साधन देश में मौजूद नही थे,एक तीन बैंड का रेडियो होता था जिसका भी सालाना पोस्ट ऑफिस में टैक्स जमा करवाना पड़ता था। रोज शाम को बड़े गंभीर होकर विविध- भारती और बीबीसी पर समाचार सुना करते थे। उसके भी नन्हे दिमाग में आतंकवादियों की रोज एक नई तस्बीर बनती और बिगड़ती थी। वह सोचता था की वह लोग कितने निर्मम और कठोर दिल होते होंगे जो बाज़ार में चल रही औरतो और बच्चो पर बम फेक देते है, रात को उनके घरो को जला देते है, लोगो को जिन्दा जला देते हैं, इनके शरीर में कोई दिल नही होता होगा, इनको निर्दोषों को मारते वक्त उनके माँ-बाप, बहन-भाई अथवा बीबी-बच्चो का जरा सा भी ख़याल नही आता होगा, इत्यादि-इत्यादि। एक रात को समाचार सुना था कि नाल्बारी जिले में ही सेना के साथ मुठभेड़ में ३ आतंकवादी और सेना का एक हवालदार मारे गए थे। दूसरे दिन सुबह जब स्कूल के लिए तैयार हो रहा था तो पास के दो तीन घरो को छोड़ बाद वाले घर से किसी महिला के विलाप करने की आवाज़ आ रही थी। माँ बाहर गली में गई थी और कुछ देर बाद जब लौटी तो पूछने पर उसने बताया कि शकीना के पापा आतंकवादियों के साथ कल रात मुठभेड़ में शहीद हो गए थे। ज्यादातर फौजी परिवार, जिन्हें छावनी के अन्दर क्वाटर नहीं मिला था उसी मुहल्ले में रहते थे। मुझे उस दिन माँ ने स्कूल नहीं भेजा और मुझे साथ ले शकीना के घर उसकी मम्मी को सांत्वना देने गए थे। वहाँ पर मोहल्ले की काफी औरते इक्कठा थी।

मैंने देखा था कि हमारे एकदम पड़ोस में रहने वाली अधेड़ उम्र की आंटी, असलम की अम्मी, छाती पीट-पीट कर उन आतंकवादियों को बुरा-भला कहे जा रही थी जिन्होंने शकीना के अब्बू को मारा था। असलम के अब्बू भी फौज में थे। असलम का एक बड़ा भाई और दो छोटी बहने थी। असलम का १६ वर्षीय बड़ा भाई पढाई में कमजोर था अतः पिता के पीटने की वजह से कुछ महीनो से घर से गायब


था। उसी रात को जब हम खाना खा रहे थे तो तभी असलम के घर से जोर-जोर से उसकी अम्मी और बहनों के रोने की आवाजे आने लगी। हम लोग खाना बीच में ही छोड़ उनके घर दौडे, चारपाई पर असलम के भाई की लाश पड़ी थी और उसकी अम्मी दहाड़ मार-मार कर रो रही थी। कुछ देर बाद माँ मेरा हाथ पकड़ घर ले आई। मैं कौतुहल बस माँ से पूछ रहा था कि असलम के भाई को क्या हुआ? माँ ने धीरे से बताया कि असलम का भाई उन्ही तीन आतंकवादियों में से एक था, जिसने शकीना के अब्बू को मारा और खुद भी मारे गए। मैं आश्चर्य से माँ की आँखों में देखने लगा था। मेरा नन्हा दिमाग तो पहले यह सोच बैठा था की यह लोग जो आतंकवादी बनते है वे जरूर लावारिश या बचपन से अनाथ होते होंगे तभी तो यह आत्महीन होते है और ऐसे पैचाशिक हरकतों को अंजाम देते वक्त जरा भी नही हिचकिचाते, लेकिन वहाँ तो कहानी कुछ और है। कमला भी प्रमोद की यह सच्ची कहानी सुन कुछ देर के लिए सोच में पड़ जाती थी।

जुलाई २००८, शनिवार होने की वजह से प्रमोद ऑफिस से थोड़ा जल्दी घर आ गया था, पत्नी ने याद दिलाते हुए उसे बताया की सोमवार को समीक्षा को खून बदलवाने अस्पताल ले जाना है अतः आज उसको दवाई और इंजेक्शन देना होगा ! प्रमोद शाम की चाय पीकर दवाई लेने निकल पड़ा। समीक्षा भी पापा से उसे साथ ले जाने की जिद्द कर रही थी मगर अहमदाबाद शिफ्ट हुए सिर्फ़ तीन महीने ही हुए थे इसलिए प्रमोद शहर से बहुत ज्यादा परिचित नही था और क्योंकि वह दवाई आम कैमिस्ट के पास कम ही मिलती थी अतः वह दवाई लेने भी धोलका ही जाता था, और चूँकि वह इलाका घर से काफी दूर था सो उसने समीक्षा को साथ ले जाने से मना कर दिया और उसे लौटते वक्त चोकलेट लाने का प्रोमिस किया था। अभी वह अपनी गली से बाहर ही निकला था कि उसे ऑफिस का वही मित्र मिल गया जिसने उसे यहाँ पर कमरा दिलवाया था। वह भी किसी काम से समीप के बाज़ार जा रहा था।


ज्योंही वे लोग सब्जी बाज़ार से गुजर रहे थे कि अचानक पास खड़ी एक साईकिल में जोर का धमाका हुआ और प्रमोद को साथ चल रहे मित्र की धमाके के शोर में दबी चीख सुनाई दी। थोडी देर में जब धुंए का गुबार हल्का हुआ तो उसने देखा की अगल बगल लोगो की लाशे बिखरी पड़ी थी। उसके मित्र का दाहिना हाथ कंधे से गायब था ओर वह ज़मीन पर पड़ा तड़प रहा था।

प्रमोद के मानो होश उड़ गए थे ! वापस घर की ओर भागना चाहता था मगर उसकी अंतरात्मा ने उसके पाँव जकड लिए। वह आस पास मौजूद लोगो को सहायता के लिए पुकारने लगा और अपने मित्र को उठाने की कोशिश करने लगा । थोडी देर में एक एंबुलेंस भी आ पहुँची थी, लोगो की मदद से उसने अपने मित्र को अम्बुलेंस में रखा और अस्पताल के लिए चल दिए ! ज्योंही अम्बुलेंस अस्पताल के गेट के पास पहुची तो उसकी स्पीड कम हो गई क्योंकि अस्पताल में पहले से लोगो का जमघट लगा था, अम्बुलेंस अपने कर्कश सायरन को बजाते हुए धीरे-धीरे मेन गेट की तरफ बढ़ रही थी। प्रमोद जो की अपना मोबाइल कमला के पास ही छोड़ आया था उसने सोचा कि अस्पताल के पब्लिक बूथ से कमला को फ़ोन पर सूचित कर दू, अतः वह जेब से सिक्का निकाल तेजी से बूथ की तरफ़ लपका! मुश्किल से दो कदम ही चला होगा की पास खड़ी एक कार में जोर का धमाका हुआ और प्रमोद के शरीर के चिथड़े उड़ गए..........!

रात के दस बज चुके थे, समीक्षा इस उम्मीद में कि पापा चोकलेट लायेंगे अभी सोयी नही थी। कमला ने टीवी चलाया तो हर चेंनेल पर धमाको की ही ब्रेकिंग न्यूज़ आ रही थी। कमला को भी धीरे-धीरे किसी अनहोनी की आशंका सताने लगी थी। रात का समय था यह शहर उसके लिए एक अनजान जगह थी, आस पड़ोस में भी किसी को नही जानती थी कि जाकर मद्दद कि गुहार लगाये। करते-करते रात के साड़े ग्यारह बज गए। समीक्षा ने विस्तर पर लेटे- लेटे एक बार फिर कमला से पूछा " ममा, पापा अभी तक क्यो नही आए,बौत देर हो गई ?"

-गोदियाल

Saturday, March 7, 2009

अधूरी कहानी और पूरा सच !

सुबह के करीब सवा सात- साढे सात का वक़्त रहा होगा। धस्माना साब की कोठी के आस-पड़ोस के लोग भी रुपाली के उस धीमे, मगर करुणामयी रुंधन को सुनकर उनकी कोठी के गेट के पास इकट्टा हो गए थे। सभी के जेहन में एक ही सवाल था कि क्या हुआ, रुपाली क्यों रो रही है? घर के सभी सदस्य भी मकान की ऊपरी मंजिल, जिस पर रुपाली अपने बेटे के साथ रहती थी, दौड़ पड़े थे। उन्होंने देखा कि वहाँ प्रथम मंजिल पर बने दो कमरों में से एक, जिसे रुपाली ने ड्रोविंग रूम बना रखा था, उस कमरे में टीवी चल रहा था और दूरदर्शन के चेंनल पर समाचार चल रहे थे। रुपाली घुटनों के बल बैठी, अपने नौ वर्षीय पुत्र राहुल को सीने से लगाये रोये जा रही थी। रुपाली की छोटी भाभी ने राहुल को रुपाली से अलग करते हुए पूछा, रुपाली क्या हुआ ? बड़ी भाभी भी बोली, क्या हुआ, कुछ कहती क्यो नही? रुपाली बिना कोई जबाब दिए ,बस आंसुओ से भरी आँखों से टुकुर-टुकुर वहा मौजूद लोगो को देखती रही थी।


धस्माना साब भी कमरे के एक कोने में अलग से खड़े होकर, यह सब देख रहे थे कि ठीक उसी वक्त टीवी पर न्यूज़ रीडर ने कहा " अंत में मुख्य समाचार एक बार फिर:- देश भर में कारगिल विजय की नौवी सालगिरह आज धूम-धाम से मनाई जा रही है .............." इतना सुनते ही धस्माना साब की समझ में सारी कहानी पलक झपकते आ गयी। उन्होंने कमरे में मौजूद घर के अन्य सभी सदस्यों को बाहर जाने को कहा और रुपाली के सिर पर हाथ फेरने लगे । रुपाली, जो घुटनों के बल बैठी थी, खड़ी हो अपने पापा के सीने से चिपक कर फूट फूट कर रोने लगी। धस्मान साब ने किसी तरह उसे समझा-बुझा कर चुप कराया। सेवानिवृत डी.एम्, धस्माना साब को आज पहली बार महसूस हुआ था कि लोगो को बड़े-बड़े उपदेश और आर्डर सुनाने वाला एक डी.एम् आज ख़ुद कितना असहाय हैं। एक वक़्त था जब धस्माना साब के लिए इस तरह की बाते कोई मायने नहीं रखती थी और न सिर्फ वो बल्कि उनके परिवार के अन्य सदस्य भी गाँव मुहल्ले के लोगो पर अपना रुतवा झाड़ने से परहेज नही करते थे।


वक्त की मार इंसान पर बहुत भारी पड़ती है, सर्व-संपन्न होते हुए भी कभी-कभार इंसान अपने को कंगाल महसूस करने लगता है। रुपाली के लिए भी पहली बार, सही मायने में आज कारगिल युद्ध की महता समझ में आई थी और नौवी बरसी या पुण्यतिथि का अचानक महत्व बढ़ गया था। मेजर जखमोला से जुदा हुए उसे तकरीबन दस साल हो गए थे। वैंसे तो एक आतंरिक अपराध बोध से वह पिछले एक साल से ही ग्रसित थी, जब उसे सच्चाई का पता चला था, लेकिन जब से वह अपने पिता के साथ ब्रिगेडियर सोढी से मिलकर आई थी तब से मानसिक रूप से भी विचलित हो गई थी। जब भी वह अपने कमरे में अकेली होती, मेजर की फोटो देख रह-रह कर अपने हाथो से अपना माथा पीटने लगती और मुह में साड़ी का पल्लू ठूंस, घुट-घुट कर रोने लगती। वह पास के ही एक सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल थी, मगर कुछ समय से स्कूल के कामकाज और पढाने में भी उसका मन नही लग रहा था, अतः वह लम्बी छुट्टी लिए घर पर ही बैठी थी। जब भी वह मेजर के बारे में सोचने लगती, वह महसूस करती थी कि बिना सोचे समझे और सच्चाई जाने, कदम उठाना इंसान के लिए कितना घातक हो जाता है। उसे वह सारा गुजरा ज़माना रह-रह कर याद आ जाता, वह पछतावा करती कि शायद शादी के बाद वह बड़े बाप की बेटी होने का घमंड छोड़ देती तो आज यह ग्लानी उसे इस तरह न कचोट खा रही होती। आना जाना तो इस दुनिया का दस्तूर है, और यही कटु सत्य भी है कि जो आया है उसे एक दिन जाना भी है। उसके पीछे छूटने वाला, इसी कड़वे सच को आधार मान, दिल को तसल्ली देता है, मगर कभी-कभार इंसान की जिंदगी में ऐंसे पल भी आ जाते हैं कि लाख चाहते हुए भी इंसान कुछ चीजो को भुला नही पाता, कुछ बातो से समझोता नही कर पाता। और इस वक्त ठीक उसी दौर से रुपाली भी गुजर रही था।


१९९८ का दिसम्बर महिना था, मेज़र जखमोला से रुपाली की शादी हुए अभी मात्र ६ महीने ही हुए थे। मेज़र जखमोला, अपनी रेजिमेंट से स्पेशल कमांडो ट्रेनिंग के लिए गुडगाँव स्थानांतरित हुए थे, और नवविवाहित रुपाली उनके साथ थी, अतः मेजर की अर्जी पर, दिल्ली कैंट में उन्हें एक ऑफिसर क्वार्टर अलोट हो गया था। अभी इस क्वार्टर में शिफ्ट हुए मुश्किल से दो महीने ही हुए थे कि रुपाली की गाँव की एक चचेरी बहिन और उसकी बचपन की दोस्त ममता, जो कि अपने एक खास रिश्तेदार की शादी में फरीदाबाद में शामिल होने के लिए, गाँव से सीधे रुपाली के पास चली आई थी। खुबसूरत, हंसमुख,चुलबुली और स्वभाव से तुंरत घुलमिल जाने वाली ममता कुछ दिन रुपाली के पास रुकी रही, उसके बाद अपने रिश्तेदार के यहाँ जाने के लिए उसने रुपाली से गुजारिश की कि रविवार को जीजाजी को कहो कि मुझे फरीदाबाद तक छोड़ दे। अतः उसके कहने पर रविवार के दिन दिल्ली केंट से मेज़र, शाली साहिबा को साथ ले फरीदाबाद के लिए निकल पड़े। दिल्ली केंट से वे आईटीओ पहुंचे और वहा से फरीदाबाद के लिए शटल ट्रेन पकड़ने के लिए पास के रेलवे स्टेशन पर गए। ममता को एक बेंच पर बिठा, मेज़र टिकट खरीदने के लिए टिकट खिड़की की ओर बढा। टिकट लेकर वापस लौटा तो क्या देखता था कि ममता बेंच पर से गायब थी। मेज़र ने सोचा शायद टॉयलेट गई होगी, अतः इंतज़ार करने लगा। काफ़ी देर के बाद भी जब वह नही लौटी तो मेज़र के माथे पर चिंता की लकीरें पड़ने लगी। स्टेशन का कोना एक तरफ से दूसरी तरफ़ छान मारा, लेकिन शाली साहिबा का कोई अता पता नही था।


करीब १५ मिनट और इंतज़ार करने के बाद मेजर ने पहले रेलवे पुलिस और फिर नजदीकी थाने को इसकी लिखित सूचना दी। पुलिसिया खानापूर्ति में ही शाम हो गई थी, उस वक्त देश में मोबाइल फ़ोन का भी ज्यादा प्रसार नही हुआ था और न ही मेजर के घर पर कोई लैंडलाइन फ़ोन ही था, अतः थका हारा और परेशान मेजर रात करीब साढे आठ बजे जब घर पंहुचा तो तभी रुपाली को इस अकस्मात घटना की जानकारी दी। सभी रिश्तेदारों के टेलीफोन नम्बर भी उसकी डायरी में थे जो कि घर पर ही थी, अतः बिना देरी किए मेजर, रुपाली को साथ ले पास के पीसीओ बूथ पर गया, और सभी जान पहचान के लोगो और रिश्तेदारों को इसकी जानकारी दी। ममता और रुपाली के रिश्तेदार, जोकि दिल्ली ओर आसपास के इलाको में रहते थे, यह समाचार पाकर रात को ही मेजर के घर आ धमके। जितने मुह, उतनी बात, हर पूछने वाले को मेजर सारी स्थिति बताता कि कब, क्या और कैंसे हुआ। कुछ लोग मुह के सामने ही मेजर को दोष देने से भी बाज़ नही आते थे। हर घंटे बाद पुलिस के कंट्रोल रूम को फ़ोन कर ममता के बारे में जानकारी ली जाती। दूसरे दिन मामता के गाँव से भी उसके पिता उनके अन्य रिश्तेदारों के साथ दिल्ली पहुच गए। रुपाली के पिता ने जब अपना परिचय पुलिस वालों को दिया तो उन्होंने भी काफ़ी कोपरेट करना सुरु कर दिया। लेकिन सभी प्रयास बेकार हुए, उन्हें कोई सफलता नही मिली। एनसीआर के थानों को भी इसकी सूचना दे दी गई थी।


कुछ दिनों के बाद अचानक एक दिन पुलिस से सुचना मिली कि एक लड़की की लाश उन्हें ओखला बैराज पर मिली है, वे शिनाख्त करने पहुंचे। सभी रिश्तेदार उस इलाके के पास वाले थाने में दौड़ पड़े, लाश काफी दिनों से पानी में होने की वजह से सड-गल चुकी थी और उसके शरीर पर कोई कपड़ा भी नही था, जिससे की कपड़ो से ही पहचान की जा सकती। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में लड़की के साथ बलात्कार करने और फिर गला दबा कर हत्या की बात सामने आई थी। शव के उम्र और कद काठी के विवेचन से ममता की कद काठी के साथ उस शव में काफ़ी समानता नजर आती थी। मगर अब तक ऐंसा कुछ नही मिला था जिससे यकीनन यह कहा जा सके कि शव ममता का ही है।



परिस्थितियों को देखते हुए और पुलिस के दबाब में ममता के रिश्तेदारों और गाँव के लोग यह मानने को तैयार हो गए थे कि लाश ममता की ही है, अतः पुलिसिया कारवाही पूरी करने के बाद उन्होंने शव का अन्तिम संस्कार कर दिया। कुछ रिश्तेदार जो मन ही मन धस्माना साब से पुरानी रंजिस रखते थे और जलते भी थे, उन्होंने इसे चोट करने का एक उचित अवसर समझा और पुलिस को मनगढ़ंत कहानियां बता कर मेजर जखमोला पर अपना शक जाहिर किया। पुलिस शक की बिनाह पर मेजर को गिरफ्तार कर ले गई ! जांच पड़ताल के बाद हालांकि पुलिस को मेजर के खिलाप कोई भी ठोस सबूत नही मिला, अतः कुछ समय बाद उन्हें अदालत ने बाईज्जत बरी कर दिया।



जिस दिन मेजर को पुलिस गिरफ्तार कर ले गयी थी, उसी दिन रुपाली अपने पिता के साथ मायके चली गई थी। और तब से मायके में ही थी। मेजर के परिवार वाले उसे लेने आये भी थे लेकिन उसने ससुराल जाने से मना कर दिया था। अब जब मेजर अदालत से बरी होने के बाद उसे लेने उसके मायके गया तो वहा सभी के तेवर बदले हुए थे। अदालत ने भले ही उसे बरी कर दिया हो लेकिन सभी यह मान बैठे थे कि ममता का हत्यारा मेजर ही है। जिस मोहल्ले में वे लोग रहते थे, न सिर्फ वहाँ बल्कि उनके गाव में भी इसी बात की चर्चा थी कि दुष्कर्म करने के बाद मेजर ने ममता को मार डाला। स्वाभाव से दबंग डी. एम्. साहब के लिए तो यह एक मरने जैंसी स्थिति हो गई थी, सरे-आम नाक कट गई थी, सारा रुतवा , मान मर्यादा मानो मिटटी में मिल गई हो। उनके दोनों लड़के तो ओर भी आग बबूले हुए बैठे थे, रुपाली भी मेजर के प्रति एक अनोखी घृणा मन में पाल बैठी थी और उसने भी मन ही मन मेजर से अलग होने की ठान ली थी। मेजर ने रुपाली को अपनी सफाई देने की लाख कोशिश की, मगर नेहा ने उससे बात करने से भी इनकार कर दिया, साथ ही झल्लाते हुए ऊँची आवाज़ में उसे घर से निकल जाने को कहा। उसके दोनों भाई भी मेजर पर टूट पड़े और पीट-पीट कर अधमरा कर दिया, लेकिन मेजर ने किसी तरह का प्रतिशोध नही किया, चुपचाप सहते हुए वह बस यही कहता रहा कि आप मुझे ग़लत समझ रहे हैं। मामले को गंभीर होता देख ,धस्माना साब ने लगभग खीचते हुए मेजर को अपनी गाड़ी में डाला और उसे स्टेशन पर छोड़ आए और कहा की तुम्हारा हमारा रिश्ता खत्म। साथ ही फिर कभी दुबारा उस तरफ़ मुड़कर न देखने की हिदायत भी दी।

मेजर के लिए एक के बाद एक पड़ रही इन किस्मत की मार को झेलना कठिन होता जा रहा था, रुपाली को वह दिलो जान से प्यार करता था, और उसने सपने में भी कभी नहीं सोचा था की इस तरह रुपाली और उसकी जिंदगी का सफ़र एक छोटी से मुलाकात के बाद यूँ ही ख़त्म हो जायेगा। बस यही वो पल था जब कभी हार न मानने वाला मेजर अपना सब कुछ हार बैठा था। तकदीर के इस अजीबोगरीब खेल से वह हैरान था। कई बार मन में आया कि अपनी सर्विस गन से गोली मारकर आत्महत्या कर ले, लेकिन अगले ही पल उसे लगता कि यह एक कायरता वाली बात होगी, खासकर एक सैनिक के लिए। उसके लिए रुपाली को भुला पाना इतना आसान नही था, और यह बात उसके लिए इसलिए और भी कठिन हो रही थी क्योंकि वह जानता था कि रुपाली के गर्भ में उसका अपना एक पांच-छह महीने का अंकुर पल रहा है। इस घटना के बाद उसके अपने परिवार वाले भी उससे किनारा कर चुके थे ।



इस बीच कारगिल युद्ध छिड गया, मेजर, जो कि अपनी यूनिट लौट चुका था, को बटालियन के साथ फ्रंट पर जाने का आदेश हुआ। अपनी एक सैनिको की टुकडी साथ ले, मेजर द्रास सेक्टर में दुश्मनों का सफाया करते हुए तेजी से आगे बढ़ने लगा। और आख़िर वह दिन भी आ गया जिसका कि एक जांबाज़ फौजी को हमेशा इंतज़ार रहता है- जरुरत पड़ने पर देश की रक्षा में अपने प्राणों की बाजी लगा देना और हँसते हुए कुर्बान हो जाना।


मई दो हजार सात, नेहा अपने पूरे परिवार के साथ शादी के बाद पहली बार अपने गाँव अपने चाचाजी के लड़के की शादी में शामिल होने गई हुई। गाँव में उनका भी अपना एक पुस्तैनी मकान था जिसमे पहले वे लोग अक्सर गर्मियों की छुट्टियों में कुछ दिन बिताने जाया करते थे। उन्हें अभी गाव पहुचे दो ही दिन हुए थे कि अचानक दूर सामने की गाव की पहाड़ी पगडण्डी पर एक परिवार गाँव की ओर आता नज़र आया। ३०-३५ साल का एक जोड़ा अपने दो छोटे-छोटे बच्चो के साथ गाँव की ओर बढ़ रहा था। जैंसे ही उस परिवार ने गाँव में कदम रखा, वहाँ पर हड़कम मच गया था, मानो भूकंप आ गया हो। भीड़ इकठ्ठा होने लगी, जो कोई सुनता वह हैरानी से यही सवाल करता, क्या,....... ममता आई है ? अरे पागल हो गए क्या ?..... कोई और होगा? और तब आख़िर सच्चाई सबके सामने आ गई जब ममता ने अपनी और रमेश (उसका पति) की आशिकी और दीवानगी की कहानी गाँव वालो को सुनाई, कि कैसे उन्होंने दिल्ली में भागकर अपना घर बसाने की योजना बनाई। रमेश को वह कॉलेज के दिनों से जानती और चाहती थी, लेकिन वह जाति से क्षत्रिय था जबकि ममता ब्राह्मण थी, जातिगत विसंगति होना उनके रिश्ते के लिए एक बड़ा रोड़ा था। अतः दोनों की योजना के हिसाब से ममता घर वालो से रिश्तेदार की शादी का बहाना कर एक दुसरे रिश्तेदार के साथ दिल्ली गई थी और वहाँ से उनका इरादा फरीदाबाद में शादी के समारोह के दौरान इस तरीके से भाग जाने का था ताकि लोग समझे कि ममता शादी के दौरान अचानक गायब हो गयी, लेकिन इस बीच दिल्ली से फरीदाबाद जाते हुए उस समय रमेश और ममता को स्टेशन पर तब मौका मिल गया, जब मेजर खिड़की पर टिकट लेने के लिए खड़ा था। रमेश ममता के पीछे साए की तरह था, लेकिन मेजर और रुपाली को इसकी भनक नहीं थी, इसलिए वे इस बात पर तनिक भी गौर कर न सके। ममता ने अपना घर तो बसा लिया था मगर उसे इस बात की ख़बर नही थी कि उसके इस कदम ने एक घर को उजाड़ भी दिया है, उसकी अपनी चचेरी बहिन और बचपन की दोस्त का घर।



रुपाली और धस्माना साब के परिवार के अन्य सदस्यों ने जब ममता के मुह से यह सबकुछ सुना तो उनका दिल तो कर रहा था कि अभी इसको यहीं पर खड़े-खड़े जिन्दा जला डाले, लेकिन उसके दो छोटे-छोटे मासूमो को देख और कुछ सोच, अपने आप पर काबू कर गए। वैसे भी अब बहुत देर हो चुकी थी, रुपाली और मेजर के सम्बन्ध ख़त्म हो चुके थे, और इस बात को गुजरे लगभग ९-१० साल हो चुके थे। उस घटना की नफरत और अपने नन्हे बेटे के प्यार में ममता, मानो मेजर को एकदम भुला बैठी थी और चूँकि उसका दुबारा किसी और के संग शादी का बिल्कुल भी इरादा नही था, अतः उसने कभी मेजर से तलाक़ लेने की बात भी नही सोची थी, बस उन दोनों के बीच सिर्फ एक तरफा सम्बन्ध-विच्छेद हो चूका था। गाँव में ममता की इस हकीकत भरी सच्चाई को जानने के बाद न सिर्फ उसे, बल्कि पुरे गाँव को इस बात पर आत्मग्लानी होने लगी थी कि उन्होंने एक निर्दोष को कितने कष्ट दिए। रुपाली को रह-रहकर अब मेजर की याद आने लगी थी। वह यह नही जानती थी कि मेजर कारगिल युद्ध में शहीद हो चुका है।



गाँव से लौटने के बाद पिता की मदद से रुपाली मेजर को ढूँढने निकल पड़ी। कैंट में काफ़ी छानबीन करने के बाद उसे मेजर की यूनिट के लोकेशन का पता मिल गया। उसे याद था कि उस दौरान मेजर जखमोला का एक खास मित्र था मेजर सोढी , पिता धस्माना साब को साथ ले रुपाली मेजर जखमोला की यूनिट गुरुदासपुर में पहुँच गई। मेजर जखमोला को ढूड़ते हुए वे मेजर सोढी, जोकि अब ब्रिगेडियर थे और कंपनी के कमांडिंग ऑफिसर थे, के पास पहुंचे। पहले तो रुपाली को देख ब्रिगेडिअर सोढ़ी आग बबूला हो गए मगर जब धस्माना साब ने उनकी पूरी कहानी सोढ़ी को सुनाई तो ब्रिगेडियर सोढी नरम पड़ गए, उन्हें विस्वास ही नहीं हो रहा था कि दस साल गुजर जाने पर भी इन लोगो को मेजर के बारे में कुछ नहीं पता। और फिर एक लम्बी सांस ले रुपाली को संबोधित करते हुए बोले, भाभी ! आप लोगो ने बहुत देर कर दी, मेजर जखमोला अब इस दुनिया में नही रहे। इतना सुनते ही रुपाली धडाम से वही फर्श पर बेहोश होकर गिर पड़ी। पिता धस्माना किसी तरह बेटी को संभालकर उसे चेतन में लाये। ब्रिगेडियर सोढी ने फिर आगे बताया कि कैसे मेजर जखमोला जान की बाज़ी लगा द्रास सेक्टर में उस गुफा के अन्दर घुस गए थे जहाँ पाकिस्तानी घुसपैठिये सैनिक पहले से ही मोर्चा जमाये बैठे थे, और नीचे तलहटी से गुजरने वाले भारतीय सैनिको के काफिलों पर गोले दाग रहे थे। मेजर पहले उलटी दिशा से पहाडी पर उस गुफा के ठीक ऊपर चढा और अपने जवानो को, उसे कवर फायरिंग देने का आदेश देकर एक रस्सी के सहारे गुफा के मुहाने तक उतरा। और फिर उसने वह साहस और दृढ़ता भरा कदम उठाया जिसकी हम लोग नीचे से बंकरों में बैठे उम्मीद कर रहे थे, वह अपने ऑटोमेटिक रायफल से गोलिया वर्षाता हुआ गुफा में घुस गया और....


शाम हो चुकी थी, हमने मेजर को नीचे से आवाजे लगायी लेकिन गफा से कोई जबाब नहीं मिला। अँधेरे और पहाडी फिसलन की वजह से हमने तलाश का काम अगले दिन सुबह तक के लिए टाल दिया, क्योंकि रात को उस खड़े पहाड़ की गुफा पर जाना एकदम ना मुमकिन सा था। अगले दिन सुबह-सवेरे मैं जब अपने जवानो के साथ गुफा पर उसी दिशा से और उसी तरीके से, जैसे मेजर वहां पहुंचा था, गया तो क्या देखता था कि आठ पाकिस्तानी सैनिक वहाँ मरे पड़े थे और गुफा के एक कोने पर मेजर अपना एक हाथ सीने पर लगाये, पांव पसारे पीठ के बल बैठा था। मैंने उसकी नब्ज़ चेक की मगर वह बहुत दूर जा चुका था, बहुत देर हो चुकी थी, उसे पाँच गोलिया लगी थी पूरे शरीर पर, इसलिए बहुत खून बह गया था।


सोढ़ी साहब थोडा रुके और फिर रुपाली को देखते हुए एक लम्बी सांस छोड़ कर बोले , जिस हाथ को वह सीने पर लगाये था मैंने जब सीने से उसका वह हाथ हटाया तो उसमे उसने आपकी फोटो पकड़ रखी थी। जिस तरीके से वह वहा बैठा था, लग रहा था मानो राजकपूर जी का वह गीत फिर गुनगुना रहा हो, जिसे वह फुरसत के क्षणों में हमेशा गाता था;
चाहे कही भी तुम रहो चाहेंगे तुमको उम्र भर, तुमको न भूल पायेंगे ....................................................! सरकार ने उसे मरणोपरांत अनेक मैडल से भी सम्मानित किया था, लेकिन उन्हें ग्रहण करने परिवार की तरफ़ से कोई नही आया, अतः वे हमने यूनिट में ही संभाल कर रखे है, आप चाहो तो ले जा सकते हो ! ब्रिगेडियर थोड़ा रुका और रुपाली की तरफ़ देखते हुए रुधे गले से बोला " भाभीजी, आपको तो मालूम ही है कि वह और मैं बहुत करीबी दोस्त थे, मैं उसको भली भांति जानता था, वह एक बहुत अच्छा इंसान था, शायद आप लोगो से ही उसे समझने में कही चूक हो गई।

Tuesday, March 3, 2009

कविता- आया फिर से चुनाव है !

गाँव-गाँव, शहर-शहर, कूचा- कूचा और गली-गली,
लुच्चे -लफंगे,चोर-उचक्के, छोटे बड़े सभी बाहुबली!
अपनी-अपनी मुछो पर यहाँ हर कोई, दे रहा ताव है,
क्योंकि  इस देश में यारो, आ गया फिर से चुनाव है !

चुनाव के मौसम में  सियासतदान  हो रहे विनम्र हैं,
हर कुटी- द्वारे, सूखे पिंड खजूर लिए झुकता तम्र है!
अपने किये पापो को धोने, गंगा में लगा रहे हैं गोते,
शेर की खाल पहनकर , गलियों में घूम रहे हैं खोते!

मुख में इनके फिर सत्यवचन, माथे पर चन्दन है,
नए-पुराने इनके फिर, बन-बिगड़ रहे गठबंधन है!
इधर लोकतंत्र के महाकुम्भ का, गूंज रहा शंखनाद है
उधर चारो तरफ हमारे, फल-फूल रहा आतंकवाद है!

नापुंसको ने भी खूब उड़ाया,  लोकतंत्र का मखौल है,
इनकी शक्ले देख कर जनता का, खून रहा खौल है!
महंगाई और बेरोजगारी का दिलो पर ताजा घाव है,
लोकतंत्र के महापर्व का अब फिर से आया चुनाव है !


प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।