Saturday, March 21, 2009

आखिरी रात !

बदचलन थी, कलमुही पता नहीं किसका पाप अपने साथ लिए फिर रही थी। माँ-बाप ने उस बेचारे शरीफ लड़के के मत्थे मड दी, अब वह ऐसा नहीं करता तो और क्या करता? इसीलिए तो बड़े बुजुर्ग कह गए कि लड़कियों को ज्यादा छूट मत दो। गाँव-मोहल्ले के स्कूल में प्राईमरी और ज्यादा-से ज्यादा आठवी-दसवी तक पढ़-लिख कर दो-चार अक्षर वांचने सीख जाए, बस। ज्यादा पढ़-लिखकर कौन सा उसे प्रधानमन्त्री की गद्दी सँभालने जाना है। बड़ी क्लास में जाकर यही सब करती फिरती है। परिवार की तो नाक कटाई ही, साथ में गाँव और इलाके का नाम भी मिटटी में मिला दिया।

इलाके का जो भी छोटा बड़ा वाशिंदा, उस घटना के बारे में सुनता, बस यही चर्चा शुरु कर देता था । यहाँ तक कि वहाँ की औरतो के मुख से भी यही बोल फूट रहे थे। और तो और, अगले ही दिन स्थानीय अखबार भी इसी खबर से पटे पड़े थे, कि शवो की पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट और पुलिस के शक को आधार बनाकर, कि प्रमोद ने तब सब कुछ जानने के बाद जहर खा दिया होगा, और फिर यह सब देखकर बीना के पास भी फांसी लगाने के सिवा कोई चारा न रहा होगा...... ! ऐसी ही तरह-तरह की कहानिया अखबारों ने अपने तरीके से गढी थी, और जिनका निचोड़ भी यह निकलता था कि सारा का सारा दोष बीना का ही था।

जहां एक और बीना के मायके में सन्नाटा पसरा पड़ा था, शादी में सरीक होने आये, उनके नाते-रिश्तेदार, सभी धीरे-धीरे खिसकने लगे थे। वहीं प्रमोद के गाँव में उसके घर से कुछ दूरी पर स्थित एक घर में, एक शख्स ऐसा भी था, जिसकी आँखों में उदासी की ओंश बिखरी पड़ी थी और दिल के समंदर में एक खामोश तूफ़ान, मुह से बाहर निकलने को बेताब था। उसका मन कर रहा था कि वह अभी बीना के पिता के पास जाये और उनसे कहे कि बीना का अंतिम संस्कार रुकवा दो, और पुलिस से कहो कि पहले उसके पेट में मौजूद शिशु और प्रमोद का डीएनए टेस्ट करवाएं, और इन भेडों के झुंड से कहो कि तब जाकर दोषी और निर्दोष का फैसला करे। किन्तु फिर अगले पल दिमाग के किसी कोने से आती सर्द सामाजिक पिछडेपन की एक ठंडी वयार उस घुमड़ते तूफ़ान को बार-बार दबा देती थी । वह चेहरा हर तरफ से इसके परिणाम और दुष-परिणामो को अपनी समझ और भावनावो के तराजू में, तोल रहा था । अन्दर ही अन्दर उसे भी हमारे इस पुरुष प्रधान तालिबानी समाज की रुग्ण मानसिकता का एक अनजान भय सताए जा रहा था। बहुत देर तक पाप-पुण्य के इसी तराजू को टटोलते-टटोलते उसकी आँखे भी थक गयी और उसने अपने अन्दर के तूफ़ान और खीझ को कहीं दबा कर शांत कर दिया।

कल ही उस शख्स की आकस्मिक मौत की खबर पा, मैं मन ही मन बुरी तरह से विचलित हो उठा था। गोपाल मेरे बचपन का दोस्त था, मेरी उससे आखिरी मुलाक़ात चार साल पहले गर्मियों की छुट्टियों मे गाँव मे हुई थी। जब मैं परिवार के साथ छुट्टियां बिताने गाँव गया हुआ था, तो वह भी गाँव मे छुट्टी लेकर अपने लिए एक आलिशान घर बनवा रहा था । मेरा गाँव, उसके गाँव के ही रास्ते में थोडा आगे चलकर था, अतः अपने गाँव आते जाते वक्त हमें उसी के गाँव से होकर गुजरना पड़ता था। उसे देख मैंने अपने चिर-परिचित अंदाज़ मे कटाक्ष करते हुए पुछा था कि क्यो भई, कोई लंबा हाथ मारा है, जो इतना आलिशान घर बनवा रहा है? वह भी एक पल के लिए अपनी वही अनोखी ठहाके मारने वाली हँसी हंस गया था बस, बोला कुछ नही । कुछ देर रूककर, अपने बगल वाले खाली पड़े खेत की ओर इशारा करते हुए वह बोला, तू भी बना ले यहाँ पर, दोनों अडोसी-पडोसी बन कर रहेंगे । मैंने फिर मजाक किया, कहाँ यार, मेरी कोई ऊपरी इन्कम नही है, तेरे पास कुछ माल-ताल है तो बता ? उसने फिर ठहाका लगाया था।

रात को सोते वक्त भी मैं उसी के बारे मे सोचने लगा । उसके अतीत को खंगालते हुए मुझे अपना वो बचपन का याराना याद आ जाता, जब छुट्टी के दिनों में हम दोनों अक्सर लोगो के खेतो से ककडीयां ( खीरा ) चुराते थे या फिर केले के पेडो से कच्चे केले तोड़, स्कूल जाने वाले पैदल पहाडी रास्ते पर गड्डा खोदकर उनको मिटटी मे दबा देते थे और स्कूल से आते-जाते वक्त गड्डे के ऊपर आग जलाते रहते थे, ताकि उष्मा पाकर केले जल्दी पक जाएँ । अगर किसी और बच्चे ने उस गड्डे को छेड़ने की हिम्मत कर दी तो दोनों मिलकर उसकी धुनाई कर डालते थे। उसकी शादी के बाद, मैंने अक्सर उसके चेहरे को मुरझाया हुआ ही पाया था। मैं तब कंपनी की तरफ़ से कुछ समय के लिए पोस्टिंग पर मुंबई गया था। कंपनी को बॉम्बे-पुणे एक्सप्रेस वे पर एक बड़ा ठेका मिला था। मैंने गोपाल से कभी छुट्टियों मे बच्चो को मुंबई घुमाने लाने को कहा तो वह तुंरत मान गया था, और मुझसे उसी साल मुंबई आने का वादा किया था। मैंने नवी मुंबई के नेरुल मे आर्मी हाऊसिंग वेलफेयर सोसाइटी मे एक फ्लैट किराए पर लिया था, क्योंकि वहाँ से मेरा नवी मुंबई ऑफिस और साईट दोनों नजदीक पड़ते थे। एक दिन गोपाल का फ़ोन आया कि वे अगले हफ्ते मंबई घूमने आरहे है । मैंने उसे कहा कि तेरा स्वागत है, बच्चो को भी लेकर आना।

और नियत समय पर अगले सफ्ताह वह पूरे दल-बल के साथ मेरे घर आ धमका था। मैंने भी ऑफिस से छुट्टी ली और दोनों परिवार दिन भर मुंबई और आस-पास के दर्शनीय स्थलों को घूमने के बाद शाम को थके-हारे कुटिया पर लौट आये। दोनों गृहणी, यानी मेरी और उसकी पत्नी, अपने गप-शप और किचन में भोजन की तैयारी में व्यस्त हो गयी, बच्चे खेलने में मग्न थे । हम दोनों ने भी छत पर दरी बिछा अपना मनोरंजन का झाम-ताम खोल डाला। थोड़ी देर बाद ही वह झूमने लगा था और मन के अन्दर छुपाये अपने सारे दर्दो-गम को उगलने लगा था ।

गोपाल ने बोलना शुरू किया ; श्रीनगर पोलिटेक्निक से सिविल ट्रेड का डिप्लोमा करने के ६ महीने बाद मुझे पी डब्लू डी में जेई की नौकरी मिली थी । उस समय बीना के गाँव की ओर जाने वाली मोटर रोड बन रही थी। मुझे साईट इंजिनियर के तौर पर उस सड़क के काम की निगरानी करने का डिपार्टमेन्ट से हुक्म हुआ था । मैंने बीना के मायके में, उसके घर से ठीक आगे वाले घर पर एक कमरा मामूली किराये पर ले लिया था । मैंने जब पहली बार बीना को देखा तो मुझे वह काफी भा सी गई थी, अतः बहुत जल्दी मैंने उसके साथ एक अच्छी-खासी पहचान बना ली थी और धीरे-धीरे यह पहचान दोस्ती में तब्दील हो गयी। आपसी बातचीत में मैंने महसूस किया था कि वह एक बहुत ही समझदार किस्म की एक उच्च संस्कारों की लड़की थी। उसके विचारो को सुन, कभी-कभी मैं इस सोच में पड़ जाता था कि अगर यह लड़की गाँव में पैदा न होकर किसी शहर में पैदा हुई होती, और अगर उसे उचित माहौल मिलता तो वह कहा तक पहुँच सकती थी।

जब वह इंटरमीडीएट में दाखिल हुई थी तो वह स्कूल उसके गाँव से बहुत दूर था, और उस गाँव से एक-दो बच्चे ही उस स्कूल में जाते थे और जब कभी, वहा साथ में जाने के लिए उसे गाँव से कोई नहीं मिलता था, तो वह मुझे साथ चलने को कहती। इसी बीच उसने मुझे यह भी बताया था कि उन दिनों उसके स्कूल के आस-पास एक लड़का उसे काफी परेशान कर रहा था। और बाद में चलकर मुझे मालूम पड़ा कि वह और कोई नहीं, बल्कि मेरे ही गाँव का प्रमोद था। मैंने अपने तरीके से प्रमोद को बहुत समझाने की कोशिश की थी, मगर वह अपने पिता के पुलिस में होने का रॉब झाड़ते हुए मुझे भी उससे न उलझने की चेतावनी दे गया था। और फिर उसने धीरे-धीरे बीना पर उससे शादी करने का दबाब डालना शुरू कर दिया था।

कुछ समय बाद मेरा दूसरी साईट पर तबादला हो गया था, अतः मैंने बीना का गाँव छोड़ दिया था। और न जाने कब मौका पाकर उसने उसके स्कूल से घर के रास्ते में उस घृणित कृत्य को अंजाम दे डाला जिसकी फिराक में वह महीनो से पड़ा था। लोक-लाज के भय से बीना इस इस अप्रत्याशित घटना के सदमे को खुद ही घुट घुट कर पी रहे थी कि तब उस पर एक और मुसीबत आन पड़ी, जब उसे यह अहसास होने लगा कि उसके पेट में प्रमोद का पाप पल रहा है। उस घटना के बाद से प्रमोद भी गायब हो गया था। काफ़ी सोचने के बाद उसने अपनी माँ के जरिये से, पिता को उसका रिश्ता प्रमोद से करवाने को कहा था। बीना के पिता जब रिश्ता लेकर प्रमोद के घर गए तो प्रमोद ने अपने पिता के साथ मिलकर तत्काल अपनी मंजूरी दे दी।और फिर दो महीने बाद शादी भी हो गई।

मेरा बीना से काफी समय से संपर्क नहीं हो पाया था, लेकिन उसकी शादी के कुछ रोज पहले, मुझे तब वह स्कूल से गाँव जाने वाले रास्ते पर मिली थी, जब मैं अपनी साईट से गाँव लौट रहा था। बुझी-बुझी सी दीख रही थी, अतः जब मैंने बहुत जोर दिया तो मुझसे किसी को न बताने का बचन लेकर, उसने जो अपनी दास्ताँ सुनाई, सुनकर मैं दंग रह गया था। साथ ही उसने कहा कि आने वाली १७ तारीख को उसकी शादी है और वही उसकी जिंदगी की आखिरी रात भी है। मैंने उससे कोई भी जल्दबाजी वाला कदम न उठाने की कई बार गुजारिश की थी, मगर उसने मेरी एक न सुनी और साथ ही मुझे यह भी आगाह किया था कि जितना हो सके, मैं उसके इस लफडे से दूरी बनाए रखु, क्योंकि मैं उसके बहुत करीब था, और लोग आरोप मेरे सिर पर भी मड सकते थे। और फिर अपनी शादी की उस आखिरी रात को बड़े ही सहज ढंग से अपने प्लान के मुताविक, बीना ने पहले प्रमोद को दूध में जहर खिलाया और फिर खुद पंखे से लटक गयी। फिर एक लम्बी सांस लेते हुए गोपाल बोला,मगर यार, मुझे यह आत्मग्लानि जिंदगी भर कचोटती रहेगी कि मैं अगर समय रहते प्रमोद को सबक सिखा देता तो शायद इस कहानी का अंत इस तरह नहीं होता।


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2 comments:

  1. andar kee baat hai sharma saahab. waise gopal timely hastakshep kar pramod ko sahi raste par laa deta to bahut kuch hop sakta tha. Anyway, thanks for showing interest.

    regards,

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।