बार-बार यह दोहराना तो शायद अनुचित होगा कि हमारा यह प्यारा देश भारत, अपनी सदियों पुरानी एक समृद्ध सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत का साक्षी होने के बावजूद अनेकों घटिया किस्म की प्रजातियों से भी भरा पड़ा है! जिसमे से कुछेक ने तो इसे मात्र एक धर्मशाला से अधिक कभी समझा ही नहीं! और ऊपर से यह तर्क भी कि चूँकि हम इस धर्मशाला में ठहरे हुए है, अत: हमारा यह हक़ भी बनता है कि हम इसे लूटें भी !
इस देश की यह समृद्ध परम्परा रही थी कि वीर योद्धा न तो सूर्यास्त के बाद औरे न ही पीछे से अपने प्रतिद्वंदी पर हमला करते थे ! लेकिन इस देश से नैतिकता और मर्यादा को इन अकृतज्ञ लुटेरों के अकृतज्ञ परदादाओं और इनकी परदादियों की इज्जत लूटने वाले विदेशी आक्रमणकारी लूटेरों ने आठवी शताब्दी की शुरुआत में तभी ख़त्म कर दिया था, जब अनाचार के बल पर सूर्यास्त के बाद भी छुपकर हमला कर उन्होने इस देश पर कब्जा कर इसे लूटना शुरू किया था! उसके बाद तो जो गुलामी और नसों में गुलाम रक्त के संचार का दौर चला, वह आज तक भी ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा! इस बीमारी ने इन्हें अन्दर तक इसकदर खोखला कर दिया है कि हम अच्छे और बुरे की पहचान ही भूल गए है! सब धान बाईस पसेरी वाली कहावत पर चलते हुए हम यह तुलनात्मक अध्ययन करना तो भूल ही गए है कि आगे चलकर हमारे लिए सही क्या है!
जहां तक २००२ के गुजरात दंगों का सवाल है, निश्चित तौर पर वह इस देश के साम्प्रदायिक सौहार्द पर एक काला धब्बा थे, १९८४ के दिल्ली दंगों की तरह ! हर वह खुदगर्ज, पढालिखा और समझदार इन्सान यह सवाल करेगा, जिसमे अच्छे और बुरे का तुलनात्मक अध्ययन करने की कुशलता है कि गोधरा और इंदिरा गांधी का क़त्ल जिसने भी प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर किया, उसे क़ानून के मुताविक कठोरतम सजा मिले ! मगर एक निर्दोष को क्या सिर्फ इस बात की सजा इसलिए मिले कि उसका दोष सिर्फ इतना था कि वह सिख और मुस्लिम धर्म से ताल्लुक रखता था? अफ़सोस कि आज इस देश कि तुच्छ राजनीति के गलियारों में इस तरह के सवाल करने वाले तो बहुत मिल जायेंगे कि २००२ के गुजरात दंगों के दोषी सिर्फ और सिर्फ मोदी को सजा मिले , मगर वे अपनी संकुचित, स्वार्थी मानसिकता के चलते दोनों सवालों (१९८४ के दिल्ली दंगों और २००२ के गुजरात दंगों) को स्वर्गीय इंदिरा गांधी के वध और २००२ के गोधरा में रेल यात्रा कर रहे ५९ निरीह कार सेवकों के नृशंस वध की पृष्ठ भूमि में एक साथ उठा पाने में अक्षम है! मैं इस बात का पक्षधर हूँ कि जो भी दोषी हो उसे कठोरतम सजा मिले इसतरह के अपराध के लिए, अब वह चाहे वह मोदी ही क्यों न हो ! लेकिन सवाल यह है कि दो मापदंड क्यों ? दोगलापन क्यों ? यदि मोदी प्रशासनिक तौर पर गुजरात दंगों को रोक पाने के दोषी है, तो राजीवगांधी और उनकी कौंग्रेस के सिपहसलार भी तो १९८४ में प्रशाशनिक तौर पर इस तरह के जघन्य अपराध के दोषी थे, फिर उन्हें क्यों नहीं सजा मिली, उन्हें क्यों ५४३ में से ४१५ सीटों पर जिताया गया ? तुम्हारी नजरों में एक सही और दूसरा गलत, यह कहाँ का न्याय है भाई ?
यदि थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि मोदी की बीजेपी और राजीव गांधी की कौंग्रेस, दोनों अपराधी है, तो अपराध करने के बाद कम से कम मोदी की बीजेपी ने प्रयाश्चित करते हुए अपने राज्य और उन लोगो का विकास तो किया जिन्हें पीड़ा पहुँची थी, कोंग्रेस ने क्या किया सिवाए स्विट्जर्लैंड जैसे चोर और भरष्ट देश की आतंरिक आर्थिक व्यवस्था सुधारने के?
यह सब लिखने का मन इसलिए किया कि आज जब मोदी के उपवास की खबर अपने इस भारत देश के महान सेक्युलर खबरिया एजेंसियों पर पढ़, सुन रहा था, तो साथ ही यह भी मिला कि मोदी के इस उपवास पर प्रतिदिन ५ लाख रूपये खर्च होने वाले है! थोड़ी देर के लिए मैं अपना पेट हिला-हिलाकर खूब हंसा, और फिर सोचता रहा कि कमीनेपन की भी एक सीमा होती है ! हमारे ये तथाकथित खबरिया माध्यम मोदी पर होने वाले खर्च के आंकलन में तो इतने माहिर है, अन्ना जी के स्वास्थ्य पर होने वाले गुडगाँव के अस्पताल के बिल को कौन चुकता करेगा यह सवाल उठाने में तो माहिर है, मगर यह पूछने वाला कोई माई का लाल नहीं कि सोनिया गांधी ने जो एक महीने से भी समय तक अमेरिका में अपना तथाकथित कैंसर का इलाज करवाया, उसका बिल किसने और कहाँ से चुकता किया? एक संसद सदस्य के लिए यह अनिवार्य है कि वह कितनी बार एक कार्यकाल में विदेश यात्रा पर गया उसकी जानकारी संसद के लेखा-कर्ता को दे, मगर सोनिया गांधी का ऐसा कोई लेखा उनके पास मौजूद नहीं, यह एक आरटीई के मार्फ़त पता चल पाया ! अभी कल-परसों ही राजस्थान के भरतपुर के गोपालपुर कस्बे में दो समुदायों के बीच साम्प्रदायिक हिंसा में नौ लोग मर गए मगर चूँकि वहाँ नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं थी, इसलिए किसी ने भी उसे ज्यादा तहजीव नहीं दी!
अभी दो दिन पहले दिल्ली की मुख्यमंत्री के पुत्र और सांसद, श्री संदीप दीक्षित के कोच से भोपाल में १० लाख रुपयों से भरा एक बैग जब कोच अटेंनडेंट को मिला तो उनका जबाब था कि यह रूपये उनके एक दोस्त के है जो घर खरीदने के लिए ले जा रहे थे! ठीक है, हम उनकी बात से पूर्णतया संतुष्ट है, मगर कोई इनके तथाकथित दोस्त से यह पूछने की हिमाकत करेगा कि इस देश में आम आदमी के लिए एक बार में २० हजार रूपये से अधिक का नकद ट्रेन्जेक्सन( लेनदेन ) गैर कानूनी है, तो वे फिर कैसे १० लाख का नकद लेनदेन करने जा रहे थे ?
मगर अफ़सोस कि हम जैसे गुलाम मानसिकता के डरपोक लोग कहाँ ऐसे सवाल कर सकते है? हम तो बस सिर्फ तर्क-कुतर्क ही देना जानते है, और तुच्छ निजी स्वार्थों के चलते अपने मास्टर की हाँ में हां मिलाते हुए, अन्ना जी जैसों के आन्दोलन पर नुक्ताचीनी कर सकते है!