Sunday, September 25, 2011

बेटी !


जब उमंगो  के आंचल ने ,
चाहत की पोटली समेटी,
तो आसमां से उतर कर ,
घर आई हमारे,हमारी बेटी।

याद है  हमें भी वो वक्त,
जब पल-पल बुने थे हमने,
सलाइयों से किरमिच पर कुछ 
ख्वाब रंगीन,श्वेत-सलेटी।

सब्र की मेंड क्या होती है,
तब जाना,नजर आई जब,
वह नन्ही-नवजात कोंपल,
अंगोछे-तौलिये मे लपेटी।

कम पडते शब्द बयां करने को ,
मन की वह मधुर अनुभूति,
बिछोने से टुकुर-टुकुर,
देखती थी जब  वो लेटी-लेटी।

बडी होकर खुद का घर बसाने,
घर पराये चली जायेगी ,
छोडकर यादें और चंद अपने 
बचपन के खिलोनों से भरी पेटी।।

Saturday, September 17, 2011

मानसिकता का सवाल !

बार-बार यह दोहराना तो शायद अनुचित होगा कि हमारा यह प्यारा देश भारत, अपनी सदियों पुरानी एक समृद्ध सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत का साक्षी होने के बावजूद अनेकों घटिया किस्म की प्रजातियों से भी भरा पड़ा है! जिसमे से कुछेक ने तो इसे मात्र एक धर्मशाला से अधिक कभी समझा ही नहीं! और ऊपर से यह तर्क भी कि चूँकि हम इस धर्मशाला में ठहरे हुए है, अत: हमारा यह हक़ भी बनता है कि हम इसे लूटें भी !



इस देश की यह समृद्ध परम्परा रही थी कि वीर योद्धा न तो सूर्यास्त के बाद औरे न ही पीछे से अपने प्रतिद्वंदी पर हमला करते थे ! लेकिन इस देश से नैतिकता और मर्यादा को इन अकृतज्ञ लुटेरों के अकृतज्ञ परदादाओं और इनकी परदादियों की इज्जत लूटने वाले विदेशी आक्रमणकारी लूटेरों ने आठवी शताब्दी की शुरुआत में तभी ख़त्म कर दिया था, जब अनाचार के बल पर सूर्यास्त के बाद भी छुपकर हमला कर उन्होने इस देश पर कब्जा कर इसे लूटना शुरू किया था! उसके बाद तो जो गुलामी और नसों में गुलाम रक्त के संचार का दौर चला, वह आज तक भी ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा! इस बीमारी ने इन्हें अन्दर तक इसकदर खोखला कर दिया है कि हम अच्छे और बुरे की पहचान ही भूल गए है! सब धान बाईस पसेरी वाली कहावत पर चलते हुए हम यह तुलनात्मक अध्ययन करना तो भूल ही गए है कि आगे चलकर हमारे लिए सही क्या है!



जहां तक २००२ के गुजरात दंगों का सवाल है, निश्चित तौर पर वह इस देश के साम्प्रदायिक सौहार्द पर एक काला धब्बा थे, १९८४ के दिल्ली दंगों की तरह ! हर वह खुदगर्ज, पढालिखा और समझदार इन्सान यह सवाल करेगा, जिसमे अच्छे और बुरे का तुलनात्मक अध्ययन करने की कुशलता है कि गोधरा और इंदिरा गांधी का क़त्ल जिसने भी प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर किया, उसे क़ानून के मुताविक कठोरतम सजा मिले ! मगर एक निर्दोष को क्या सिर्फ इस बात की सजा इसलिए मिले कि उसका दोष सिर्फ इतना था कि वह सिख और मुस्लिम धर्म से ताल्लुक रखता था? अफ़सोस कि आज इस देश कि तुच्छ राजनीति के गलियारों में इस तरह के सवाल करने वाले तो बहुत मिल जायेंगे कि २००२ के गुजरात दंगों के दोषी सिर्फ और सिर्फ मोदी को सजा मिले , मगर वे अपनी संकुचित, स्वार्थी मानसिकता के चलते दोनों सवालों (१९८४ के दिल्ली दंगों और २००२ के गुजरात दंगों) को स्वर्गीय इंदिरा गांधी के वध और २००२ के गोधरा में रेल यात्रा कर रहे ५९ निरीह कार सेवकों के नृशंस वध की पृष्ठ भूमि में एक साथ उठा पाने में अक्षम है! मैं इस बात का पक्षधर हूँ कि जो भी दोषी हो उसे कठोरतम सजा मिले इसतरह के अपराध के लिए, अब वह चाहे वह मोदी ही क्यों न हो ! लेकिन सवाल यह है कि दो मापदंड क्यों ? दोगलापन क्यों ? यदि मोदी प्रशासनिक तौर पर गुजरात दंगों को रोक पाने के दोषी है, तो राजीवगांधी और उनकी कौंग्रेस के सिपहसलार भी तो १९८४ में प्रशाशनिक तौर पर इस तरह के जघन्य अपराध के दोषी थे, फिर उन्हें क्यों नहीं सजा मिली, उन्हें क्यों ५४३ में से ४१५ सीटों पर जिताया गया ? तुम्हारी नजरों में एक सही और दूसरा गलत, यह कहाँ का न्याय है भाई ?



यदि थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि मोदी की बीजेपी और राजीव गांधी की कौंग्रेस, दोनों अपराधी है, तो अपराध करने के बाद कम से कम मोदी की बीजेपी ने प्रयाश्चित करते हुए अपने राज्य और उन लोगो का विकास तो किया जिन्हें पीड़ा पहुँची थी, कोंग्रेस ने क्या किया सिवाए स्विट्जर्लैंड जैसे चोर और भरष्ट देश की आतंरिक आर्थिक व्यवस्था सुधारने के?



यह सब लिखने का मन इसलिए किया कि आज जब मोदी के उपवास की खबर अपने इस भारत देश के महान सेक्युलर खबरिया एजेंसियों पर पढ़, सुन रहा था, तो साथ ही यह भी मिला कि मोदी के इस उपवास पर प्रतिदिन ५ लाख रूपये खर्च होने वाले है! थोड़ी देर के लिए मैं अपना पेट हिला-हिलाकर खूब हंसा, और फिर सोचता रहा कि कमीनेपन की भी एक सीमा होती है ! हमारे ये तथाकथित खबरिया माध्यम मोदी पर होने वाले खर्च के आंकलन में तो इतने माहिर है, अन्ना जी के स्वास्थ्य पर होने वाले गुडगाँव के अस्पताल के बिल को कौन चुकता करेगा यह सवाल उठाने में तो माहिर है, मगर यह पूछने वाला कोई माई का लाल नहीं कि सोनिया गांधी ने जो एक महीने से भी समय तक अमेरिका में अपना तथाकथित कैंसर का इलाज करवाया, उसका बिल किसने और कहाँ से चुकता किया? एक संसद सदस्य के लिए यह अनिवार्य है कि वह कितनी बार एक कार्यकाल में विदेश यात्रा पर गया उसकी जानकारी संसद के लेखा-कर्ता को दे, मगर सोनिया गांधी का ऐसा कोई लेखा उनके पास मौजूद नहीं, यह एक आरटीई के मार्फ़त पता चल पाया ! अभी कल-परसों ही राजस्थान के भरतपुर के गोपालपुर कस्बे में दो समुदायों के बीच साम्प्रदायिक हिंसा में नौ लोग मर गए मगर चूँकि वहाँ नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं थी, इसलिए किसी ने भी उसे ज्यादा तहजीव नहीं दी!

अभी दो दिन पहले दिल्ली की मुख्यमंत्री के पुत्र और सांसद, श्री संदीप दीक्षित के कोच से भोपाल में १० लाख रुपयों से भरा एक बैग जब कोच अटेंनडेंट को मिला तो उनका जबाब था कि यह रूपये उनके एक दोस्त के है जो घर खरीदने के लिए ले जा रहे थे! ठीक है, हम उनकी बात से पूर्णतया संतुष्ट है, मगर कोई इनके तथाकथित दोस्त से यह पूछने की हिमाकत करेगा कि इस देश में आम आदमी के लिए एक बार में २० हजार रूपये से अधिक का नकद ट्रेन्जेक्सन( लेनदेन ) गैर कानूनी है, तो वे फिर कैसे १० लाख का नकद लेनदेन करने जा रहे थे ?



मगर अफ़सोस कि हम जैसे गुलाम मानसिकता के डरपोक लोग कहाँ ऐसे सवाल कर सकते है? हम तो बस सिर्फ तर्क-कुतर्क ही देना जानते है, और तुच्छ निजी स्वार्थों के चलते अपने मास्टर की हाँ में हां मिलाते हुए, अन्ना जी जैसों के आन्दोलन पर नुक्ताचीनी कर सकते है!



Friday, September 9, 2011

तिरुमाला-गडवाल !


इसे मैं अपना सौभाग्य ही कहूँगा कि जब कभी भी  मुझे दक्षिण भारत मुख्यत: आंध्र-प्रदेश घूमने का अवसर मिला, हर बार नई-नई बातों की जानकारी हासिल हुई! मूलरूप से उत्तराँचल के गढ़वाल का होने की वजह से यदा-कदा जब हैदराबाद, खासकर सिकंदराबाद के बाजारों  में जाना होता था तो कपडे की दुकानों पर अकसर एक खास जगह जाकर मेरी नजर रुक जाती, जहां लिखा होता था; 'तिरुमाला गडवाल हेंडलूम जरी साड़ियाँ' ! मैं अक्सर सोचा करता कि हमारे गढ़वाल में तो मैंने अपना पूरा बचपन गुजारा,  मगर कभी हैंडलूम की बनी गडवाल जरी साड़ी का नाम नहीं सुना, फिर यहाँ कहा से ये इस नाम की साडियां आ गई ? फिर खुद ही इस तरह अपने दिल को तसल्ली देता कि हो सकता है जिस तरह उत्तर भारत में लोग अपने पनीर को 'गढ़वाल पनीर' का  नाम देकर बेचते है, ठीक उसी तरह ये लोग भी शायद यहाँ अपनी साडियों को गडवाल जरी साड़ी का नाम देकर बेचते हों ! मगर आखिरकार जब वक्त आया तो मुझे तिरुमाला-गडवाल का रहस्य पता चल ही गया और यहाँ मैं संक्षेप में आज उसी पर थोडा प्रकाश डालने जा रहा हूँ !     
तिरुपतिजी  महाराज
हालांकि यूँ तो मैं 'मन चंगा तो बहती रहे कठोती में गंगा'  वाले मुहावरे को मानने वाला एक आस्तिक हूँ, किन्तु अति-आस्थावान भी नहीं हूँ ! और चरमपंथी धर्मान्धता में तो कतई भी विश्वास नहीं करता! यही वजह है कि मैंने कभी उन लोगो का समर्थन नहीं किया  जो अपनी चरमपंथी आस्था को प्रदर्शित करने/ करवाने हेतु किसी भी हद तक चले जाते है! शायद इस बर्ष में साईं बाबा से जुड़े अनेको प्रसंग इस बात का एक उपयुक्त उदाहरण मैं कह सकता हूँ !  लेकिन कभी- कभार कुछ ऐसे रोचक वाकिये हमारे समक्ष आ जाते है, जब हमें यह सोचने पर मजबूर हो जाना पड़ता है कि शायद यही धर्म की चरमपंथता रही होगी, जिसने  सही अथवा गलत दोनों तरह के जूनूनो के चलते कुछ वे करिश्मे कर दिखाए जिसने आज के इस घोर कलयुग में भी अन्य धर्मावलम्बियों द्वारा तमाम विपरीत परस्थितियों और प्रलोभनों के बावजूद भी अनेकों आस्तिक, स्वाभिमानी इंसानो को अपने इस गौरवशाली हिन्दू धर्म की आस्था से जोड़े रखा है!
मंदिर में रोज लगने वाली श्रदालुओं की भीड़
हमारे सुदूर दक्षिण भारत के तमिलनाडु और आंध्रा राज्यों की सीमा के समीप स्थित तिरुमाला की पहाड़ियों में बालाजी तिरुपति, भगवान श्री वेंकटेश्वर (विष्णु भगवान् के अवतार ) के  प्राचीन निवास को दुनिया भर के आस्थावान और जिज्ञासु लोगो  के लिए एक आस्था का केंद्र सदियों से बनाए रखा है! जो भक्तों के लिए एक दिन में 22 घंटे के लिए खुला रखा जाता है! सामान्य समय में यहाँ प्रतिदिन ७५००० श्रदालू और त्योहारों के समय करीब ५ लाख श्रदालू  प्रतिदिन यहाँ दर्शनार्थ आते है, और अनेकों कष्ट झेलने के बाद उन्हें वेंकटेश्वर भगवान् के दर्शन होते भी है तो मात्र चंद सेकेंडों के लिए!  यहाँ प्रभु को गोविंदा, श्रीनिवास, बालाजी और सात  तिरुमाला पहाड़ियों का निवासी (सप्तगिरी) के रूप में भी बुलाया जाता है ! इन सप्त पहाड़ियों को शेषनाग का प्रतीक भी माना जाता है ! यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूं कि यहाँ का यह मंदिर हिन्दुओं के एक सबसे धनी और वैभवशाली मंदिरों में गिना जाता है, जिसकी कुल सम्पति करीब ५०,००० करोड़ रूपये आंकी गई है और इस मंदिर के  दरवाजे सभी धर्मावलम्बियों के लोगो के लिए हमेशा खुले है! आठवी-नौवी शताब्दी के इस मंदिर को मुख्य रूप से मैसूर और गडवाल नरेशों  तथा बाद में विजयनगर के शासक ने अपनी अपार धनसंपदा इस मंदिर पर अर्पित की ! स्वार्थी और लालची धर्मगुरुओं द्वारा यह कुप्रथा भी यहाँ प्रचलित की गई है कि पापी इंसान अगर अपने पाप की कमाई का एक अंश इस मंदिर को अर्पित कर देता है  तो उसके बाकी पाप माफ़ हो जाते है ! ( डर है अगर कहीं उपरोक्त लाइने आज के हमारे कमीने भ्रष्ट नेतावों और नौकरशाहों ने पढ़ ली तो कल से वे सब तिरुपति जी का रुख न कर ले )

पिछले साल इसी महीने में आफिस के एक काम से मेरा विशाखापटनम जाना हुआ था ! गंतव्य की और जाते हुए एअरपोर्ट से जो टैक्सी ली थी, आदतन नई जानकारी हासिल करने हेतु टैक्सी ड्राईवर से रास्तेभर बाते करते हुए बिजयवाडा की ओर चलते-चलते बीच में यह मजेदार टॉपिक भी आ गया था कि विशाखापट्टनम में कौन सा लोकप्रिय धार्मिक स्थान है, जिसे मैं घूम सकू, तो उन ड्राइवर साहब ने बताया कि पहाडी पर स्थित सिम्हाचलम एक पवित्र मंदिर है जहाँ भगवान् की मूर्ति को सिर्फ चन्दन के लेप से ढककर रखा जाता है! (उसके दर्शनार्थ मैंने अगले दिन जाने का प्लान बनाया ) आगे बात बढ़ने पर उन सज्जन ने यह रोचक तथ्य बताया कि तिरुपति में चूँकि भगवान् विष्णु की पूजा ( यानि वेंकटेश्वर जो कि एक वंश-गोत्र, पारिवारिक देवता है ) सुब्रमनियम गोत्र के अनुयायियों द्वारा की जाती है, अत: आज भी यह मान्यता है कि यदि आंध्रा, तमिलनाडु और कर्नाटक के कार्तिकेयन ( भगवान् शिव के द्वितीय पुत्र ) गोत्र के किसी इन्सान को अगर तिरुपति जी के दर्शन करने हो तो उसे वहाँ तक सिर्फ कोई सुब्रमनियम गोत्र का अनुयायी ही लेकर जाएगा, वे खुद अपनी मर्जी से नहीं जा सकते, और यदि गए तो उन्हें किसी अनिष्ट (देवी-प्रकोप) का सामना करना पड़ता है !



सच कहूं तो मुझे भी अभी तक तिरुपति जी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है! पोगा-पंडितों के अनुसार कहू तो शायद अनुचित तरीकों से अपार धन इकट्ठा कर पाने में मेरी नाकामी भी इसका एक कारण हो ! खैर, लेकिन जो लोग वहाँ दर्शनार्थ अथवा घूमने के उद्देश्य से जाते है, वे शायद उन सप्त पहाड़ियों को सिर्फ एक पहाड़ की तरह ही देखते होंगे, मगर बहुत सी नजरें ऐसी भी होती है जो उसी जगह को एक भिन्न अंदाज में देखती है ! आइये ऐसा ही एक नजारा यहाँ इन तस्वीरों में देखने की कोशिश करते है ;
                                                                    तिरुमाला पर्वत
अब इसी चित्र को खड़े में देखते है  नीचे ;
         इन चित्रों और इनकी व्याख्या आप किस नजरिये से करते है, यह आपके ऊपर है  !                                                                                                 


अब चलते है गडवाल ! जी, इसे उत्तराखंड स्थित गढ़वाल समझने की भूल कतई मत करिएगा! हैदराबाद से करीब १९० किलोमीटर दूर यह दक्षिण के आंध्रप्रदेश राज्य के महबूबनगर जिले में स्थित तुंगभद्रा और कृष्णा नदियों के बीच स्थित आंध्रा और कर्णाटक की मिलीजुली संस्कृति  अपने में समेटे एक जगह, एक किला और एक कस्बा है ! इसे मंडल का दर्जा भी हासिल है, जो कर्नाटक की सीमा के पास स्थित है और कर्नाटक के रायचूर जिले से रेल मार्ग से जुडा है ! वास्तव में पहले यह रायचूर जिले का ही एक हिस्सा था, मगर बाद में इसे महबूबनगर से जोड़ दिया गया! गडवाल संस्थानं नामक यह इलाका २१४ गांवों और गडवाल कस्बे और किले के रूप में कुल ८६४ वर्ग कीलोंमीटर में फैला है, २००१ में इस क्षेत्र की कुल आवादी ९,७०,००० के करीब आंकी गई थी ! गडवाल का किला वहाँ के शासक सोमशेखर अन्नदा रेड्डी (सोमनाद्री) ने बनवाया था, यह प्राचीन किला आज एक जर्जर अवस्था में पहुँच चूका है ! यहाँ पर प्रसिद्द श्री जमला देवी/चिन्नाकेश्वा स्वामी मंदिर भी है, जो वहाँ के लोगो की आस्था का केंद्र बिंदु है ! इस कस्बे को जुलाहों और किसानो का गाँव भी कहा जाता है ! यहाँ पर एक विश्वविद्यालय कैम्पस भी है! आसपास का इलाका चट्टानी और पर्वतीय है, यहाँ मूंगफली की खेती बहुतायात में की जाती है !इसके बगल में करीब १५ किलोमीटर दूर कृष्णा नदी पर जुराला डाम है जो एक रमणीक स्थल है! अगस्त और सितम्बर माह में यहाँ 'कृष्ण पुष्करस ' मेला भी लगता है, जिसके लिए नगर को खोब सजाया और साफ-सुन्दर किया जाता है ! इलाके में शाही दरवार के बहुत से परिवारों ने "गडवाल" शब्द को अपनी उपजाति (सरनेम ) के तौर पर भी इस्तेमाल करना शुरू किया और आज भी अपने को गडवाल उपजाति के नाम से पुकारे जाने पर फक्र का अनुभव करते है !


                                          गडवाल कस्बे का गूगल अर्थ से लिया गया चित्र                                                       


चित्र गूगल से साभार !
गडवाल से सम्बंधित वास्तविक  चित्र आप इस ब्लॉग पर देख सकते है !


संशय!

इतना तो न बहक पप्पू ,  बहरे ख़फ़ीफ़ की बहर बनकर, ४ जून कहीं बरपा न दें तुझपे,  नादानियां तेरी, कहर  बनकर।