Tuesday, December 3, 2013

जाग मुसाफिर जाग !










यूं अनुत्तरित रहने न दो तुम, आम जनता के सवालों को,
अब और न करने दो वतन फ़रोख़त, सत्ता के दलालों को।

खुदगर्जी, स्व-हित के खातिर रहोगे आँख मूंदे कबतलक,
सिखा ही दो  देशभक्तों,अबके सबक इन नमकहलालों को। 

तक़सीम करते ये दिलों को, गाकर कलह की कब्बालियां,
उखाड़ फेंकों ऐ अकीतदमंदो, इन नफरत के कब्बालों को।

आघात किसी अबला की अस्मिता ते-हल्का हो या भारी,
असह्य है सर्वथा, हे अधम तरुण, समझा दो तेजपालों को।

लुभाने को बिछाते फिरते हरतरफ, जाल ये प्रलोभनो का,
विफल कर ही दो 'परचेत' अबके,शैतानी  इनकी चालों को।      

Tuesday, August 20, 2013

विश्व मच्छर दिवस ! (पुन: प्रकाशित )!

आज और कल(आज दोपहर बाद से कल दोपहर तक ) भाई-बहन के अटूट प्रेम और पवित्र बंधन का त्यौहार रक्षा बंधन है, अत: आप सभी मित्रों को सर्व-प्रथम इस पावन पर्व की मंगलमय कामनाऐ!

शायद आप लोग भी जानते होंगे कि आज ही के दिन पर एक और महत्वपूर्ण दिवस भी है और वह है " 

विश्व मच्छर दिवस (वर्ल्ड मोंसक्विटो डे )"



वैसे तो इस निकृष्ट, मलीन और दूसरों का खून चूसने वाले प्राणि को कौन नहीं जानता और कौन इससे आज दुखी नहीं है !  मगर, शायद ही बहुत कम लोग जानते होंगे कि साल में एक दिवस इस दुष्ट प्राणि के नाम पर भी मनाया जाता है, और वह दिन है, २० अगस्त ! 

इसलिए आइये, इस विश्व मच्छर दिवस पर एक पल के लिए, किसी अन्य जीव से अधिक मानवीय पीड़ा का कारण बनने वाले इस कलंकित रोगवाहक प्राणि के बारे में थोड़ा मनन किया जाए! सन १८९७ में लिवरपूल स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन के डॉ. रोनाल्ड रॉस द्वारा इसका श्रीगणेश किया गया था, और न्यू जर्सी स्थित अलाभकारी संस्था अमेरिकी मच्छर कंट्रोल एसोसिएशन ने मलेरिया के संचरण की खोज का पूरा श्रेय उन्हें ही दिया! इस उपलब्धि की बदौलत उन्हें सन 1902 में चिकित्सा के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया था ! 

हालांकि हमारे अन्ना की ही भांति उनका भी प्रारम्भिक उद्देश्य इस दोयम दर्जे के भ्रष्ट और अराजक प्राणि की कारगुजारियों से उत्पन्न होने वाले सामाजिक विकारों और जन-धन के नुक्शान के बारे में जनता को जागरूक करना और इनके द्वारा फैलाए जाने वाली नैतिकपतनेरिया,डेंगू और चरित्रगुनिया जैसी बीमारियों पर प्रभावी लोकपाल लगाना था, मगर हर चीज इतनी आसान कहाँ होती है ! बुरी चीजें अच्छी चीजों के मुकाबले अधिक तीव्र गति से फैलती है, इन बुराइयों का साथ देने के लिए देश, दुनिया में इन्ही की नस्ल के और भी बहुत से परजीवी मौजूद होते है जिन्हें भले और बुरे प्राणि में फ़र्क़ करने की कसौटी बताते-बताते थक जाओगे मगर वे समझना ही नहीं चाहते,क्योंकि उनके खून में भी वही गंदगी मौजूद है! अत: इनपर लगाम कसने की तमाम कोशिशों के बावजूद भी आज ये सभ्य समाज के लिए नासूर बन गए है! इसके चलते हर साल विश्व में तकरीबन दस लाख लोग, जिनमे अधिकाँश युवा और बच्चे होते है, असामायिक मौत का ग्रास बन जाते है!


एक बात ध्यान रखने योग्य है कि सरल प्राणि जब अपने न्यायोचित हितों के लिए सत्य के सहारे आगे बढ़ता है तो वह किसी को दुःख न पहुंचाने का हर संभव प्रयास करने के बावजूद भी जंगे मैदान में प्रत्यक्ष तौर पर सक्रीय होने की वजह से कईयों की नाराजगी भी मोल ले लेता है और उसे बहुत-सी अनचाही परेशानियां उठानी पड़ती है ! जबकि निकृष्ट जीव अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए अनेकों चालबाजिया और प्रपंच खड़े करता है तथा अनगिनत तुच्छ और छद्म-तरीके अपनाकर खुद को भला और ईमानदार प्राणि दर्शाने के लिए परदे के पीछे छिपे रहकर अपने काले कारनामों को अंजाम देने की कोशिश करता है! प्राणि समाज के लिए घातक इस जीव ने आज हर तरफ अपना जाल फैलाकर एकछत्र राज स्थापित कर लिया है, जिसको चुनौती देना ही एक बड़ी चुनौती बन गई है! आज हमारे समक्ष इस मौस्क्वीटो मीनेस से निपटने के सीमित उपाय ही मौजूद रह गए है ! जंगलराज के विधान आज आम आदमी के दरवाजे, खिडकियों की जालियों और मच्छरदानियों को धराशाही कर इनके लिए ऐसी अराजक भूमि तैयार करने में लगे है, जहां ये बिना रोक-टोक किसी का भी खून चूस सकें !



यह बात अब सर्वविदित है कि पिछले कुछ दशकों में भारत-भूमि इन मच्छरों के लिए एक सर्वोपयुक्त जगह बनकर उभरी है! अपनी रणनीति के हिसाब से यह दुष्ट जीव अलग-अलग पालियों (दिन, शाम,रात ) में भ्रमित कर, मौक़ा देख अन्य प्राणियों का न सिर्फ खून चूसता है बल्कि उन्हें घातक बीमारियाँ भी दे जाता है! इसमें से एक ख़ास नश्ल का खतरनाक मच्छर तो पिछले ६० से भी अधिक सालों से अपना कुलीन राज चला रहा है और हाल ही में इनके सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग ने शोषित प्राणि समाज का खून चूसने में अपने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले है! आज मलेरिया फैलाने के लिए जिम्मेदार मादा मच्छर समूचे अभिजात वर्ग पर हावी है, वह इसलिए नहीं कि वह इतनी सक्षम है बल्कि इसलिए कि उनके इर्द-गिर्द मौजूद पट्ठों को यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि राजवंश की आड़ में वे आम-आदमी का खून बेशर्मी से चूस सकते है !



इसी की परिणिति का फल है कि आज प्राणी-जगत के हर कोने से विरोध की चिंगारी सुलगने लगी है,और जिसे ये मोटी चमड़ी के स्वार्थी और धोखेबाज मलीन जीव देखकर भी अनदेखा कर रहे है! अब वक्त आ गया है कि इस घृणित प्राणि के काले कारनामों पर प्रभावी रोक लगाईं जाये ! इनके प्रभुत्व वाले क्षेत्र में इनके प्रजनन पर ठोस नियंत्रण रखा जाए, ताकि इनकी भावी पीढ़िया भी अपनी घटिया खानदानी परम्पराओं को आगे भी इसीतरह क्रमबद्ध तरीके से चलाकर समाज को दूषित न कर सके! इसके लिए एक कारगर तरीका यह भी है कि अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते वक्त हम यह सुनिश्चित करे कि राजवंश तकनीक DDT (damn dynasty techniques ) पर लानत भेजी जाए और हर पहलू का गंभीरता से मूल्यांकन किया जाए ! 

सोये में इन्होने मासूम लोगो का बहुत खून चूस लिया, और अब वक्त आ गया है जागने का ! वर्ना याद रखिये कि एक भोला-भाला सा दिखने वाला मच्छर-मरियल सडियल ( एम्एम्एस ) भी समूचे क्षेत्र के प्राणियों को हिंजड़ा बना सकता है ! 

जय हिन्द  !

  

Monday, August 19, 2013

हो गए हैं हम क्यों खुदगर्ज इतने !

   

पैदा हुए हैं कहाँ से, ये मर्ज इतने,
हो गए हैं हम क्यों खुदगर्ज इतने।

गुज़रगाह बन गए हैं, सेज-श्रद्धेय,

अगम्य हो गए जबसे फर्ज इतने।

       वफ़ा का चलन, सिकुड़ता जा रहा,        

दम तोड़ते जा रहे क्यों अर्ज इतने।

सिर्फ स्व:हित पर सिमट गई सोचें,
बुलंदियों पे 'पहले मैं' के तर्ज इतने।


लहलुहान है सहरा, रिश्तों के खूं से,

वारदात-ऐ-बेवफाई होते दर्ज इतने।


तामील का आता,जब दौर अपना, 

तभी आते हैं आड़े क्यों हर्ज इतने। 

 रेहन रखी क्यों है, गरिमा 'परचेत',   
हमपे किस-किसके हुए कर्ज इतने।  


गुज़रगाह=street बन गए हैं सेज-श्रद्धेय= elders'bed


अगम्य=congested हो गए जबसे फर्ज इतने।

Sunday, August 18, 2013

स्वर्ग कामना एवं तीन लोकों की अवधारणा !




सामने जो सत्य है उसको नजरअंदाज कर,  सोच को किसी असंभव, अनदेखे और अनजाने से ब्रह्माण्ड मे ले जाकर खुद के और दुनियां के अन्य प्राणियों के आस-पास एक विचित्र  मायावी जाल बुनना इंसान की पुरानी फितरत है। किन्तु साथ ही वह इस प्रशंसा का भी हकदार है कि इन्ही विलक्षण खूबियों की ही वजह से आज से कई हजार साल पहले ही उसने वो बुलंदियां छू ली थी, जिन्हें आज का मानव एक बार फिर से हासिल करने की जुगत में लगातार प्रयासरत है। लेकिन, कभी-कभी आश्चर्य इस बात का भी होता है कि आज भी इस संसार में इंसानों का एक बहुसंख्यक वर्ग उन कुछ अतीत में बुनी गई मायावी मिथ्याओं से परे हटकर नहीं देखना चाहता, जिनकी प्रमाणिकता  भी संदेह के घेरे में है।    

इस बात पर तो शायद ही किसी को आपत्ति हो कि इस दुनियाँ में जितने भी धर्म और उप-धर्म हैं, वे सभी, किसी न किसी रूप में लोक तथा परलोक की अवधारणा पर विश्वास करते हैं।  अब भले ही स्वर्ग और नर्ग (नरक नहीं, नरक शब्द किसी प्रताड़ना गृह का ध्योतक है ) की उनकी अवधारणाओं मे ख़ासा अंतर ही क्यों न हो। कर्मवाद का प्रस्तुतीकरण प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तौर पर हर धर्म का आधारभूत सिद्धांत है। धर्म-शास्त्रों के आधार पर अपने कर्मो के ऐवज में  प्राणिमात्र को  इस लोक और परलोक में होने वाली फल प्राप्ति अवधारणा  इसी कर्मवाद के सिद्धांत के अंतर्गत आती है। पुण्य और पाप  इस कर्मवाद की दो प्रमुख कड़ियाँ हैं। स्वर्ग प्राप्ति की कामना प्रत्येक प्राणि का प्रथम लक्ष्य होता है, जबकि नर्ग जाने वाले पथ से होकर गुजरना  हर कोई वर्जना चाहता है,  अब उसके अनुरूप वह कर्मों को यथोचित गति भले ही न दे।

जीव-शरीर जो कि पंच तत्वों से बना होता है, मृत्यु उपरान्त उन्हीं तत्वों यानि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, और आकाश तत्वों में विलीन हो जाता है। जो बची रह जाती है,  वह है सिर्फ़ आत्मा, और शरीर के मृतप्राय: हो जाने पर यह आत्मा जिसके तीन मुख्य घटक मन, बुद्धि और संस्कार होते है, उन्हें लेकर निकल पड़ती है एक नए जीव-शरीर की तलाश में। आत्मा के घटकों की कार्य प्रणाली यह होती है कि आत्मा जब जिस जीव शरीर में होती है उसके मन से प्रभावित हुई बुद्धि के निर्णय लेने के तत्पश्चात उस जीव-शरीर द्वारा प्रतिपादित कार्य संस्कार बन जाता है।  यानि  कि मन, बुद्धि को प्रभावित करता है और फिर बुद्धि के निर्देशानुसार शरीर जो कार्य करता है, उसे कर्म कहते हैं।    मृत्य उपरान्त दूसरा शरीर धारण करते वक्त आत्मा प्राणि के दिवंगत शरीर में उसके साथ  मौजूद रहे इन्ही तीन मुख्य घटकों को साथ लेकर नव-अंकुरित शरीर में प्रवेश करती है। इसी आधार पर जभी तो अक्सर यह आशंका या उम्मीद व्यक्त करते लोगो को सुना जाता है कि अमुक  प्राणि पर शायद उसके पूर्व-जन्म के कर्म असर डाल रहे है।

उपरोक्त ये जो बाते मैंने कही, ये सब सुनने, पढने और  जानने के लिए शास्त्रों, किताबों और लोगों से प्राप्त ज्ञान को आधार माना जा सकता है। और देखा जाए तो  निश्चित तौर पर ये युग और काल की निहायत उच्चस्तरीय माप की बातें हैं।  लेकिन जैसा कि मैं कह चुका कि जीवन दर्शन, प्रकृति और प्राणि विज्ञान या यूं कहूँ कि कुदरत के हर पहलू पर इस जग मे  हर इंसान का अपना एक भिन्न नजरिया होता है। और इन तमाम सांसारिक रहस्यों और तथ्यों को वह उसी ख़ास नजरिये  देखता  है। मैं भी जब इन तमाम बातों पर गौर फरमाने बैठता हूँ तो न सिर्फ़ उस बुनियादी बातों तक ही सीमित रह पाता हूँ अपितु, इस बाबत कभी-कभार तो बड़े ही हास्यास्पद नजरिये मन-मस्तिष्क में हिलौरे मारने लगते है।  

जैसा कि मैंने पूर्व  में कहा, हम जानते हैं कि तमाम धार्मिक मान्यताओं और पौराणिक शास्त्रों के मुताबिक समस्त ब्रह्माण्ड में तीन लोक मौजूद हैं; पहला स्वर्ग लोक, दूसरा नर्ग लोक और तीसरा पाताल लोक। अब, कोई यह पूछे कि ये लोक हैं कहाँ तो शायद प्रमाण सहित कोई संतोषजनक जबाब तो किसी के भी पास न हो। वैसे, मानने को मैं भी इन मान्यताओं और पौराणिक धर्म-ग्रंथों एवं शास्त्रों की बात का समर्थन करता हूँ। इन तीनो लोको के प्रति इस जगत की यह आम अवधारणा है कि स्वर्ग में नारायण(देवता) , नर्ग में नर(इंसान ) एवं  पिचाश(राक्षश)  तथा पाताल में गुप्त-खजाने  (कुबेर) का वास होता है। मान्यता है कि अच्छे कर्म करने वाला प्राणि मृत्य उपरांत स्वर्ग मे नारायण के दरवार की शोभा बढ़ाते हुए उन तमाम सुखों का भोग करता है, जिसका वर्णन हमारे पौराणिक ग्रंथों में अलग-अलग मतावलंब के अनुसार भिन्न-भिन्न है। और जिसके कर्म इस अवधारणा के मापदंडों पर खरे नहीं उतरते, उसे मृत्यु पश्चात सृष्ठि संचालकों द्वारा नर्ग से नरक की ओर धकेल दिया जाता है। और रही बात पाताल की तो इसे इन तमाम पौराणिक और प्राचीन ग्रंथों  और विचारधाराओं मे ज्यादातर रहस्यमय ही रहने दिया गया है।
       
कहना अनुचित न  होगा कि इन पौराणिक और धार्मिक बातों से कोई भी आस्थावान व्यक्ति तो परिचित होता ही है, किन्तु जो लोग आस्थावान नहीं है, मेरा यह मानना है कि  जिज्ञासा बस वे भी इस विषय मे जानकारी तो हासिल करते ही है। यानि कि वो भी इन तमाम अलौकिक और पौराणिक बातो से परिचित तो अवश्य ही होते हैं। इसलिए मेरा यह आलेख उस अवधारणा के  बाबत उन्हें कोई ख़ास रोचक जानकारी अलग से उपलब्ध नहीं करा सकता। लेकिन,  जैसा कि  मैंने ऊपर कहा,  आज की परिस्थितियों का अवलोकन करते वक्त इस अवधारणा के सम्बन्ध में कभी-कभार लीक से हटकर जो विचार ( अब इन्हें आप हास्यास्पद की संज्ञा भी दे सकते हैं ) मेरे मानस पटल पर कौंधते है, उन्हें मैं संक्षेप में यहाँ व्यक्त करना चाहूंगा; 

हम जब बच्चे थे, तो नन्हे दिमाग में कुछ जटिल सवाल उत्पन्न होते थे, मसलन,  दादी-नानी की कहानियों में अक्सर राक्षस प्रमुख किरदार हुआ करते थे जिनका उन कहानियों में प्रमुख रोल होता था, छल-कपट, झूठ बोलकर और तरह-तरह के मुखौटे पहन, क्षद्म-भेष धारण कर निरपराध मानव जाति को सताना, उनका वध करना, उन्हें लूटना। कहानी पढने, सुनने के तत्काल बाद एक अबोध सा प्रश्न मन में जन्म लेता था कि अब वो राक्षस कहाँ गए होंगे क्या वे भी डायनासोरों की तरह समूल नष्ट हो गए ? धार्मिक कहानियाँ, रामायण, महाभारत इत्यादि पढने, सुनने से सवाल कौंधते थे कि  दुर्गा माता के चार और रावण के दस सिर कैसे रहे होंगे?जब मानवों और दानवों का युद्ध होता था तो जब मानव दानवों का मुकाबला करने में खुद को असहाय महसूस करता था तो स्वर्ग से देवताओं को मदद के लिए बुलावा किस माध्यम से भेजता होगा? देवता लोग स्वर्ग से  धरती (नर्ग) में कैसे पहुँचते होंगे? जब देवता खुद इतने पराक्रमी थे तो बहुत से मौकों पर वे भी भला दानवों से कैसे हार जाते थे? दानव धरती तो खैर जीत ही लेते थे, किन्तु भला स्वर्ग पर विजय प्राप्त  करने किस रास्ते  पहुँचते रहे होंगे ? ये देवता लोग गोरे उजले और इंद्र के महल में नाचने वाली नृत्यांग्नायें गोरी और ख़ूबसूरत ही क्यों होती थी? संजय के पास आखिर वो कौन सी तकनीक थी जो वह महल में बैठा-बैठा धृतराष्ट्र को युद्ध-क्षेत्र का सीधा प्रसारण(लाइव-टेलिकास्ट ) सुना देता था ?    इत्यादि-इत्यादि।

समय के साथ-साथ इन सभी सवालों के जबाब हमें खुद-व-खुद मिलते चले गए। आप भी इस बात से वाकिफ होंगे कि हाल ही मे अनेक मौकों पर खोजकर्ताओं ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि रावण जोकि एक ब्राहमण राक्षस था, उसने उस जमाने मे वो उन्नत तकनीक हासिल कर रखी थी, जो आज का इंसान २१ वी  सदी में पहुंचकर भी नहीं कर पाया। उसके पास में पुष्पक विमान थे, सोने की लंका थी,पहाड़ों को खोदकर सुरंग बनाने की तकनीक थी। धरा की मुख्यत: दिशाए चार होती हैं और विस्तृत तौर पर दस दिशाए होती है, चूँकि माँ दुर्गा के पास वो शक्ति थी कि एक साथ चारों दिशाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा सकती थी, इसलिए उसे चतुर मुण्ड (चार सिर वाली ) की संज्ञा दी गई। इसी तरह रावण को भी दस सिर वाला कहा गया, क्योंकि उसे दसों दिशाओं में एक साथ नजर रखने की उन्नत तकनीक हासिल थी। उदाहरण के तौर पर  कुछ-कुछ वैसे ही  मिलती-जुलती  तकनीक,जिसके माध्यम से  पिछले चुनाव में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक साथ चार शहरों में जनता को संबोधित किया था। 

अब थोड़ा सा प्रकाश स्वर्ग, नर्ग और पाताल पर भी डाल लेते है। जब मैं अपने उस  तथाकथित हास्यास्पद नजरिये से इस बारे में  सोचता हूँ तो मेरा मानना यह रहता है कि ये तीनो ही स्थान इसी धरा पर मौजूद हैं।  हाँ, मेरा यह भी मानना है कि समय-समय पर स्वर्ग रूपी स्थान ने अपनी जगह बदली है, जबकि नर्ग और पाताल की भौगोलिक स्थिति मे कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आया। आप यह भी जानते ही होंगे कि धरती पर परिवर्तन के दौर चलते रहते है, कभी ग्लोबल वार्मिंग तो कभी हिम युग। एक ख़ास अवधि में जहां धरती का एक बड़ा हिस्सा बर्फ का रेगिस्तान बन जाता है तो कभी उत्तरी ध्रुब और दक्षिणी ध्रुब हरे-भरे प्रदेश ! और शायद जब धरती गर्म थी तो ये दोनों ध्रुब स्वर्ग कहलाते थे (जैसे एक जमाने में कश्मीर को भारत का स्वर्ग कहा जाता था )। फिर जब हिम-युग शुरू हुआ तो शायद  ये उन्नत तकनीकधारी और विकसित स्वर्गवासी गोरी चमड़ी के देवता लोग, उठकर यूरोप आ गए होंगे , और बाद में उत्तरी अमेरिका भी चले गए होंगे  और फिर यही स्थान स्वर्ग बन गए ?  रही बात मानव और दानव की तो  शायद वे सदा से ही इसीतरह  नर्ग में ही आपस में एक दूसरे से  ही जूझते आ रहे है ? और जो यह कहा जाता है कि दानवों ने  स्वर्ग पर भी कई बार आक्रमण किया तो आज के परिपेक्ष में ९/११ को इस कड़ी में देखना क्या उचित होगा? क्या यह कहना उचित होगा कि इंद्र जी के सफ़ेद महल में स्वर्ग सुंदरियों का नाच-गायन आज भी होता है ? अब रही बात पाताल लोक की, तो पाताल को हम इन अर्थों में भी लेते है कि यह समुद्र तल से नीचे मौजूद कोई स्थान है। कुबेर के गुप्त खजानों को अपने पास समेटे कहीं यह जगह स्वीटजरलैंड तो नहीं?

मैं जब अपने इस तथाकथित हास्यास्पद नजरिये को आधार बनाकर थोड़ा और आगे  झाँकने  की कोशिश करता हूँ तो मुझे हास्य मिश्रित अनुभूतियाँ प्राप्त होने लगती है। मैं देख रहा होता हूँ कि पापी आत्माएं किस तरह चोरी से इकठ्ठा किये अपने धन को पातळ लोक ले जाने के लिए उतावली है। जिसे देखो उसे स्वर्ग जाने की होड़ लगी है, खासकर धन्ना सेठों को। जिसे स्वर्ग का वीसा मिल जाये वो अपने को धन्य समझने लगता है।कुछ जो सद्कर्मी थे, वो नर्ग मे जन्म लेने के बावजूद स्वर्ग पहुँचने में कामयाब रहे और वहीं बस गए। आजकल ऐश कर रहे है।  कुछ पापी लोग ऐसे भी होंगे जो स्वर्ग पहुँचने के बावजूद वापस नर्ग लौट आये हों शायद ? कुछ ऐसे भी पापी होंगे  जो किसी सद्कर्मी की आड़ लेकर खुद भी स्वर्ग तो पहुँच गए, मगर वहां भी अपने कुकर्मों से बाज नहीं आते होंगे , और ये जलनखोर किसी और को वहाँ का वीसा न देने का इंद्र से बार-बार अनुरोध भी करते रहते होंगे। खैर, स्वर्ग के लिए लालायित  सभी तरह की आत्माओं से मैं तो अंत में यही कहूंगा कि अपने कर्म सुधारिये, अच्छे कर्म कीजिये,अगले जन्म में आपको स्वर्ग  का वीसा लेने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी।

जय हिन्द !                                                          


             


पुण्य,पुनीत  और पावन,पवित,
तमाम,भूलोकवासी आत्माओं !
दुष्ट, निंद्य, एवम पापी, पतित,
सभी लुच्ची-लफंगी दुरात्माओं !

मत भूलो, तुम निक्षेपागार हो,
स्वामी नहीं सिर्फ पट्टेदार हो।
हस्ती पाई तुमने जगतमाता से,
पट्टे पर ले, एक देह विधाता से।

फिर तुम्हारा यह आचार कैसा,
भंगुर काया का अहंकार कैसा।    
आना है वह दिन-वार किस दिन,  
ख़त्म होगा पट्टा-करार जिस दिन।  

रखना है हरवक्त यह याद तुमको,
करना है वो जिस्म आज़ाद तुमको।
छोड़ने से पहले वह कुदरत का बाडा,
चुकाना भी होगा कुछ वाजिब भाडा।

इसलिए, हे दुरात्माओं, अब जागो,
नामुनासिब के खातिर यूं न भागो,
दुष्कर्म को न और अपने गले डालो,
सद्कर्म ही सिर्फ अपना ध्येय पालों।।

Saturday, August 17, 2013

आज यह पोस्ट अपने देश की युवा-शक्ति को समर्पित है !


यह एक सर्वविदित तथ्य है कि किसी भी देश की वास्तविक शक्ति उस देश का युवा-वर्ग होता है। और इसकी एक हल्की सी झलक इस देश ने गत वर्ष १६ दिसंबर को घटित एक शर्मनाक घटना के विरोध स्वरुप दिल्ली और देश के अन्य भागों में देखी।   कुछ कर गुजरने का जो जज्बा युवा शक्ति के अन्दर होता है, उसकी कोई बराबरी नहीं हो सकती, उसका कोई तोड़ नहीं। बस, जरुरत होती है तो सिर्फ उस युवा-शक्ति के सही मार्ग निर्देशन की। वह एक तपता हुआ लोहा है, जिसे, जिस रूप में ढालना चाहो, ढाल सकते हो।

युवा शक्ति के मार्ग-दर्शन अथवा मार्ग-निर्देशन की जरुरत की जब हम बात करते है तो उस दर्शन अथवा निर्देशन  का तात्पर्य यह कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि हम उन्हें ज्ञान बाँट रहे है। उनके पास पहले से ही कहीं अधिक मात्रा में वह ज्ञान मौजूद होता है, जिसे हम उन्हें बांटने की कोशिश कर रहे होते हैं।  बहुत लम्बा न खीचते हुए यही कहूँगा कि हालांकि मैं भी भला अपने देश के इन तमाम होनहार युवाओं को क्या सलाह दे सकता हूँ, किन्तु उनसे इतना जरूर कहूंगा कि वे हमेशा विवेक से काम लें और जोश में होश न गंवाएं। इस दुनिया में बहुत से कुटिल लोग भरे पड़े है जो अपने नि:हितार्थ और स्वार्थपूर्ति के लिए आपको भटका सकते है, बहका सकते है।  मसलन, मुल्ला उमर और जवाहिरी को ही ले लीजिये, लादेन की ही तरह ये कायर भी खुद तो कहीं छुपकर चार-चार बीवियों संग गुलछर्रे उड़ा रहे होंगे, और पथभ्रष्ट युवाओं को मानव बम में तब्दील कर रहे हैं।  देश हित में क्या सही है और कौन सी कुर्बानी मानवता के हित के लिए है, इसकी परख हमारे भारतीय युवाओं को मुझसे भी अधिक होगी , इसकी मुझे पूर्ण उम्मीद है।               

अब तनिक ज़रा नीचे के चित्र पर गौर फरमाइए। हालांकि स्पष्ट कर दूं कि मुझे मिस्र के वर्तमान हालात से कुछ भी नहीं लेना देना और मैं यह चित्र सिर्फ अपने देश के युवाओं की जानकारी के लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ;

     


अब ज़रा नीचे के लिंक पर जाकर वीडियों  में खुद देख लीजिये कि जोश में होश गवाने वाले कैसे कुर्बानी देते है और उनमे कुर्बानी  का जोश भरने वाले, ऐन वक्त पर जब अपनी जान पे बन आती है तो कैसे भाग खड़े होते है; 
http://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=AK1fP-n9qtc

इसलिए आप से आग्रह करूंगा कि कभी भी किसी के उकसावे में आकर होश खोने से पहले हर बात को नाप-तोलकर परखें और फिर कदम आगे बढाये !

Friday, August 9, 2013

अब तू ही बता……।



















तू ही बता के हमको जहन में उतारा क्यों था,
दिल शीशे का था तो पत्थर पे मारा क्यों था?

सारा दोष भी तुम्हारा और चित-पट भी तेरी,

कसूर गर ये हमारा था, तो नकारा क्यों था?

जब तोड़कर बिखेरनी थी,तमन्नायें इसतरह,

फिर मुकद्दर अपने ही हाथों संवारा क्यों था?

खूब शोर मचाया था, अपनी दरियादिली का,

तन-मन इतना ही तंग था तो वारा क्यों था?

नहीं थी तुम्हारी  कोई आरजू, कोई जुस्तजू,

तो संग चलने को तुमने हमें पुकारा क्यों था?

बेकसी-ऐ-इश्क, फेरनी ही थी नजर 'परचेत', 

तो वक्त-ऐ-साद*तुमने हमको निहारा क्यों था?.

 वक्त-ऐ-साद*=खुशहाली में
छवि गूगल से साभार !

Thursday, August 8, 2013

नया दौर !

बड़े-बड़ों के हौंसले, सियासत की चौखट पर डिग जाते है,
खुदा मेहरबां हो तो सर पे गधों के भी ताज टिक जाते है।  
वो दुप्पट्टे, वो चुनर, गँवा लेती हैं जिनको लुटी अस्मतें,  
जनपथ की फुटपाथ-हाट पे अकसर, वो भी बिक जाते हैं।  


























Sunday, August 4, 2013

धार्मिक भावनाएं क्या हुई, कोई छुई-मुई हो गई !

तमाम जंगल के बीहड़ों में जो कुछ घटित हो रहा हो, उससे क्या उस जंगल का राजा अंविज्ञ रह सकता है?  या फिर यूं कहा जाए कि यदि उसे उसके राज्य में अन्याय होता दिखाई न दे, तो फिर क्या ऐसे नजरों से लाचार प्रतिनिधि को राजा  बने रहने का कोई हक़ है? यदि उसे हमेशा किसी तीसरे ने ही आकर  जगाना है, तो पूरे जंगलात के लिये यह निश्चिततौर पर एक बड़ी चिंता का विषय है।  और इससे भी महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या उसे जगाने वाला भी वाकई ईमानदार प्रयास कर रहा है, या सिर्फ खानापूर्ति,  ताकि सिर्फ सुहानुभूति बटोरने के लिए जंगल की तमाम वादी की आँखों मे धूल झोंक सके ?  

और ठीक इसी सन्दर्भ में  श्रीमती सोनिया गांधी के उस पत्र को भी रखा जा सकता है, जो उन्होंने कल इस देश के प्रधानमन्त्री श्री मनमोहन सिंह को लिखा और जिसमे उनसे यह सुनिश्चित करने को कहा गया है कि आईएएस अधिकारी सुश्री  दुर्गा शक्ति के साथ कोई अन्याय न हो। उत्तर प्रदेश में बैठे  चालाक लोग तो मानो इसका पहले से ही सटीक जबाब तैयार रखे बैठे थे, और उन्होंने भी तुरंत ही पूछ लिया कि क्या श्रीमती गांधी ने ऐसे ही आदेश अपने दामाद के जमीनी विवाद के  सिलसिले में उस वक्त भी प्रधानमंत्री को दिए थे जब हरियाणा के एक आईएएस  अधिकारी श्री खेमका के साथ अन्याय हो रहा था? और उससे भी अहम् सवाल यह कि मान लीजिये कि यूपी सरकार केंद्र की नहीं सुनती तो क्या केंद्र, मुलायम सिंह से बैर मोल ले सकती है ?
नोएडा में एक ख़ास सम्प्रदाय के लोग सुश्री दुर्गा शक्ति के खिलाफ नारे लगाते और प्रदर्शन करते हुए ! 

खैर, इस देश के राजनेताओं की तो बात ही कुछ और है, और देखा जाए तो सही मायने में आजादी सिर्फ चंद उन बेशर्म , कुटिल और धूर्त समाजविरोधी तत्वों को ही मिली है, जिनका स्थान  किसी जागरूक जनता और  न्यायसंगत शासन के तहत  सिर्फ और सिर्फ जेल होता है। लेकिन ताज्जुब तो  मुझे इस मूर्ख जनता पर होता है, जो यह भी नहीं समझ पाती कि ऐसे तुच्छ लोगों का साथ देकर वे आखिरकार हासिल क्या कर रहे है,  बुरा किसका कर रहे है,  गड्डे किसके लिए खोद रहे है? मान लीजिये कि कोई एक छोटा सा राज्य है जहां की जनता गरीब है, और दो संप्रदायों में बंटी है। एक सम्प्रदाय के लोग नौकरीपेशा और व्यवसायी हैं और दूसरे सम्प्रदाय के लोग कृषक और ठेलियों में सब्जी इत्यादि बेचने वाले है। परिणामत: नौकरीपेशा समुदाय की  क्रय-शक्ति भी कमजोर है और वे मुश्किल से सिर्फ बहुत आवश्यक सामान ही खरीद पाते है, इससे कृषक और ठेलियों पर कारोबार करने वाले समुदाय की बिक्री भी सीमित है। अब अचानक एक अच्छा शासन होने की वजह से वह राज्य प्रगति करने लगता है,  व्यवसायियों का व्यापार बढने लगता है और  नौकरीपेशा लोगो की तनख्वाह में भी अच्छी खासी  बढ़ोतरी हो जाती है।  तो निश्चिततौर पर उनकी क्रय-शक्ति बढ़ने से वे अधिक मात्रा में और भिन्न-भिन्न प्रकार की सब्जियां और फल खरीदने लगेंगे। इसके परिणामस्वरूप बिक्री बढ़ने से उन कृषको, छोटे फल और सब्जी बिक्रेताओं  की आय और रहन-सहन भी निश्चित तौर पर बढ़ेगा, जो अबतक बड़ी मुश्किल से ही दो जून की रोटी जुटा पाते थे।  

कुल मिलाकर बात यह कि बजाये चोर-गुंडे-मवालियों का साथ देने  के, उन बातों का साथ दे जिससे देश प्रगति करेगा, तो प्रत्यक्ष हो अथवा परोक्ष, भला तो सभी का होना है। लेकिन ऐसी बाते तो सिर्फ बुद्धिमान लोगो को ही समझाई जा सकती है, बेवकूफों को नहीं। हमारी धार्मिक किताबें हमें बहुत अच्छी-अच्छी बाते सिखाती है कि झूठ मत बोलो, स्त्री पर अत्याचार मत करो, इन्साफ का साथ दो, किसी जबरन कब्जाई  भूमि पर कोई धार्मिक-स्थल मत बनाओ, हिंसा मत फैलाओ इत्यादि-इत्यादि। लेकिन कहते तो हम लोग अपने को इन पवित्र ग्रंथों  का अनुयाई है और करते इनके ठीक विपरीत है,  वह भी एक पवित्र महीने में।  जबकि सारे सबूत, गवाह, यहाँ का क़ानून यह कह रहा है कि दुर्गा शक्ति के साथ अन्याय हुआ है।   और यह बात आपको-हमको  अखबारों, ख़बरिया टीवी चैनलों से पल-पल मालूम भी हो रही है, उसके बावजूद भी ये हाल है, हम अन्याय का साथ दे रहे हैं !!??

हमारे इन अज्ञानी भाई-बन्धो  को समझना होगा कि छद्म-धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा लगाए आज के ये  तमाम राजनेता सिर्फ और सिर्फ अपने फायदे के लिए हमारा इस्तेमाल  कर रहे है, अपना तो घर भर रहे है किन्तु हमारी भावी पीढ़ियों के लिए गड्डे खोद रहे है। जो ये भ्रष्ट गिरगिट अपने धर्म, अपने लोगो, अपने देश  के नहीं हुए, वे तुम्हारे क्या हो पायेंगे भला ?     सोचो-सोचो, अभी भी वक्त को पकड़ा जा सकता है !!                                       

Saturday, August 3, 2013

ख्याल एक बैंक का











कभी सोचता हूँ कि एक बैंक खोलू,
हर सुविधा बैंकों की ही तरज दूंगा,
न तो मैं किसी को  कोई दरद दूंगा,
न किसी तरह का कोई मरज दूंगा,   
मैं न सिर्फ नेक दिल वालों को ही, 
बल्कि जरज को भी अलगरज दूंगा,    
चाहे कोई लौटाए या न लौटाए, मगर
हाथ उसके बेड़ी नहीं, कंठ सरज दूंगा,   
वो देते हैं सिर्फ भौतिक सुखों के वास्ते, 
किंतु, मैं मोहब्बत के लिए भी करज दूंगा।   


  जरज = बदमाश  अलगरज= बेपरवाह    सरज= माला      

तुम हमें एसएमएस भेजो  न भेजो,मर्जी तुम्हारी,
किंतु अलगरज हम नहीं, ये है अलगर्जी तुम्हारी।.

Friday, August 2, 2013

खबर-जबाब !

खबर: "केंद्रीय कैबिनेट ने सूचना का अधिकार कानून में संशोधन को हरी झंडी दे दी है। संशोधन के बाद अब राजनीतिक पार्टियां आरटीआई के दायरे से बाहर रहेंगी यानि अब आप किसी राजनीति पार्टी से कोई सवाल नहीं पूछ सकेंगे।
अब राजनीतिक पार्टियां जनता के सवालों का जवाब नहीं देंगी यानि आप आरटीआई के तहत किसी भी राजनीतिक पार्टी के फंड वगैरह की जानकारी नहीं मांग पाएंगे। पार्टियों को आरटीआई कानून से बाहर रखने को लेकर एक्ट में संशोधन पर कैबिनेट की मुहर लगने के बाद मानसून सत्र में इसे पास करवाने की तैयारी है।
दरअसल राजनैतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने के सीईसी के निर्देश से बचने के लिए ये एक्ट में ही बदलाव की कवायद हो रही है।
सेंट्रल इंफोर्मेशन कमीशन के 3 जून को सभी पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने की कवायद शुरु की थी जिसके मुताबिक 15 जून तक तमाम राजनीतिक पार्टियों को सार्वजनिक सूचना अधिकारी की नियुक्ति करना था लेकिन सीपीआई को छोड़कर किसी भी पार्टी ने इस पर अमल नहीं किया।
यहां तक की आरटीआई कानून लाने का श्रेय लेने वाली कांग्रेस को भी इससे एतराज था। आरटीआई एक्ट में बदलाव पर आम आदमी पार्टी ने सख्त ऐतराज जताया है।
इस मसले पर सभी पार्टियों की एकजुटता से यह संशोधन होना तय है और जनता को पार्टियों का सच जानने का हक नहीं मिलने वाला।"


जबाब: by Gurumit Singh Tuteja

एक राजा था जिसकी प्रजा हम भारतीयों की तरह ही सोई हुई थी ! बहुत से लोगों ने कोशिश की प्रजा जग जाए ..किन्तु हे राम !…. जागरूक लोग चाहते थे कि  अगर कुछ गलत हो रहा है तो जनता उसका विरोध करे, लेकिन प्रजा को कोई फर्क नहीं पड़ता था ! राजा ने तेल के दाम बढ़ा दिये, प्रजा चुप रही ! राजा ने अजीबो- गरीब टैक्स लगाए, प्रजा चुप रही ! राजा ज़ुल्म करता रहा लेकिन प्रजा फिर भी चुप रही ! एक दिन राजा के दिमाग मे एक शरारत सूझी, उसने एक अच्छे-खासे चौड़े रास्ते को खुदवा कर उसके ऊपर एक पुल बनवा दिया .. जबकि वहां पुल की कतई ज़रूरत नहीं थी! .. प्रजा फिर भी चुप थी, किसी ने नहीं पूछा कि  भाई यहा तो किसी पुल की ज़रूरत ही नहीं है आप काहे बना रहे है ? जब पुल तैयार हो गया तो राजा ने अपने कुछ सैनिक उस पुल पे खड़े करवा दिए और पुल से गुजरने वाले हर व्यक्ति से टैक्स वसूला जाने लगा, फिर भी किसी ने कोई विरोध नहीं किया ! फिर राजा ने अपने सैनिको को हुक्म दिया कि जो भी इस पुल से गुजरे,उससे टैक्स वसूलने के साथ-साथ उसको 4 जूते भी मारे जाए और एक शिकायत पेटी भी पुल पर रखवा दी कि किसी को अगर कोई शिकायत हो तो शिकायत पेटी मे लिख कर डाल दे, लेकिन प्रजा फिर भी चुप ! राजा खुद ही जाकर रोज़ शिकायत पेटी खोल कर देखता कि शायद किसी ने कोई विरोध किया हो, लेकिन उसे हमेशा पेटी खाली मिलती !बहुत दिनो के बाद अचानक एक दिन एक चिट्ठी मिली ... राजा खुश हुआ कि चलो कम से कम एक आदमी तो जागा ,,,,, जब चिट्ठी खोली गयी तो उसमे लिखा था - "हुजूर, पुल पर जूते मारने वाले आपके सैनिको की तादाद  कम है, जिससे पुल पर पीक हावर में जाम की स्थिति बनी रहती है , कृपया जूते मारने वालों की संख्या बढ़ा दी जाए ... हम लोगो को काम पर पहुंचने मे अक्सर देरी होती है ! "

भवदीय,
एक नागरिक !




कार्टून कुछ बोलता है- पासवर्ड चोरी का डर !


Tuesday, July 30, 2013

बनाने वाले ने हमें भी अगर, ऐसा ऐ काश बनाया होता


बनाने वाले ने हमें भी अगर, ऐसा ऐ काश बनाया होता,
किसी यूरोप की मेम को, हमारी भी सास बनाया होता।
     
गोरी सी इक जोरू होती,और हम वी.वी.आईपी भी होते,  
हर मोटे रईस ने अपना, हमें खासमखास बनाया होता। 
  
चाटुकारों की इक पूरी फ़ौज,चरण वन्दना में लींन होती,
कहीं भी बेधड़क घुसने का,हमारा भी पास बनाया होता।

कहाँ से कहाँ पहुँच जाते, फिर हम चूड़ी बेचने वाले भी ,

शहर के हर शागिर्द ने हमें, अपना ब़ास बनाया होता।

ऐ बनाने वाले , भाग्य हमारा ऐसा झकास बनाया होता, 

किसी यूरोप की मेम को, हमारी भी सास बनाया होता।    

Saturday, July 27, 2013

हर गांधी में अगर हमने महात्मा न ढूढा होता !


कुटिलता, संकीर्णता, स्वार्थ-परायणता, खुदगर्जी, अर्थोपार्जन अथवा भौतिक उपलब्धियों की दौड आज इस देश को इस मुकाम पर ले आयेगी, कभी सपने में भी नहीं सोचा था। व्यथित मन बस, मूक-दर्शक बनकर इर्द-गिर्द घटित होते वृत्तांत को सिर्फ अपने मानस-पटल पर संकलित किये जा रहा है। अब, आगे क्या होगा ? यह प्रश्न निरंतर एक गूढ़ पहेली की भांति संभावनाओं और आशंकावों का मकडजाल मन के किसी कोने में बुनने में व्यस्त है। असंयम, संयम पर निरंतर हावी होता सा प्रतीत होता है, और अन्दर की तमाम कसमसाहट शान्ति के अंतिम हथियार, यानि कलम उठाने को एक बार फिर विवश कर देती है। 

कुछ साल पहले अपने इसी ब्लॉग पर फ्रांस की महान क्रांति से सम्बंधित एक लेख लिखा था।   उसको लिखने से पहले जब मैं उस क्रान्ति का अध्ययन कर रहा था, तो उस क्रान्ति  के  केंद्र में मुझे लोगों की भूख एक बारूद का ढेर और शाही परिवार का वह सवाल  कि 'खाने के लिए अगर राशन नहीं है तो ब्रेड क्यों नहीं खाते', उस बारूद के ढेर की तरफ जाती एक चिंगारी की तरह नजर आ रहे थे। उन गुस्साए लोगो की जो इमेज मैं अपने मन-मस्तिष्क पर बनाने की कोशिश कर रहा था, तो वो चेहरे मुझे स्वाभिमानी से प्रतीत हो रहे थे। और उसी सिलसिले को याद करते हुए कल, मैं नादाँ उनकी तुलना अपने देशवासियों से करने बैठ गया। उनकी तुलना करने लगा उन चंद सक्षम और स्वाभीमानी देशवासियों से, जिन्हें  हर सुबह पेट खाली करने के लिए किसी भी पब्लिक टॉयलेट में कम से कम पांच रूपये सिर्फ इसलिए खर्च  करने पड़ते है, क्योंकि वे उन अधिकाँश देशवासियों की तरह, जो स्त्री,पुरुष, बच्चे सभी किसी सड़क और रेलवे लाइन के किनारे कतार में बैठकर, सर झुकाकर पेट खाली नहीं कर सकते। और ऊपर से सत्ता में बैठे उनके रहनुमा उनके साथ यह क्रूर मजाक करते हैं  कि तुम आज के इस भयानक महंगाई के दौर में भी एक रूपये में भरपेट भोजन कर सकते हो। अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँच जाता हूँ कि शायद हमारे ये तथाकथित रहनुमा पक्के तौर पर आश्वस्त है कि हिन्दुस्तानियों में फ्रांसीसियों जैसे गट्स नहीं हैं। 

कक्षा ५ की किताब में सम्मिलित हुए एक और गांधी ! 
तीन-तीन प्रत्यक्ष और एक परोक्ष गुलामी झेली भी तो क्या, चाटुकारिता और चरण वंदना में फिर भी हमारा कोई सानी नहीं है।  हमने और हमारे पूर्वजों ने बड़े-बड़े तगमे हासिल किये है, जिनपर हमें गर्व है। और इसी सिलसिले को हम आगे भी बखूबी बढ़ा रहे है, अपने दिलों में यह सकारात्मक  उम्मीद पाले हुए कि हमारी इस  स्वामिभक्ति और चाटुकारिता का एक न एक दिन हमें कोई मीठा फल किसी बड़े साहित्यिक पुरूस्कार, यहाँ तक कि भारत-रत्न के  जैसे देश के सर्वोच्च पुरूस्कार के रूप में भी प्राप्त हो सकता है। ये बात और है कि रत्न बन जाने के बाद हम रत्न की तरह अपना हाव -व्यवहार भी बनाते है या फिर गली , कूचे में किसी ठेली वाले की तरह आवाज लगाते फिरें कि ये लेलो और वो मत लो, या मुझे ये पसंद है तुम भी यही खरीदो। आश्चर्य होता है यह देख, सोचकर कि कैसे ये लोग इतनी बड़ी हस्ती बने, कैसे इन्होने देश और राज्यों की  न्यायपालिका और कार्यपालिका के सर्वोच्च पदों पर १०-१०, पंद्रह-पंद्रह साल तक काम किया? दहशतगर्दों के लिए तो इनके दिल में सम्मान है किन्तु उसके लिए कोई सम्मान नहीं है जिसने देश के खातिर अपनी कुर्बानी दे दी।   


उत्तराखंड में मलवे में सडती लाशें !
कहने को हम एक लोकतांत्रिक देश है, मगर आज कहीं कोई कर्तव्य-परायण सरकार नजर आती है क्या आपको जो जनता के प्रति वाकई जबाब देह हो? जले पर नमक छिड़ककर नसीहत देते हैं, गुस्सा अच्छी चीज नहीं है  अधिकार तो इन्होने सब अपने पास बखूबी समेट लिए, किन्तु कर्तव्य भिन्न-भिन्न इकाइयों में बाँट दिए है, ताकि इसका दोष उसके सर मढ़ा  जा सके और जिम्मेदारी किसी की न रहे। भिन्न-भिन्न  में फंड वितरित कर दो, तू भी खा और मुझे भी खाने दे, बस, हो गई कर्तव्य की इतिश्री!                  


   शिखर - पत्थरों में अगर हम, आत्मा न ढूढ़ते,
मंदिर - मस्जिदों में जाकर, परमात्मा न ढूढ़ते।

फिर होती ही क्यों आज,हालत ये अपने देश की ,
हर एक गाँधी में अगर हम, "महात्मा "न ढूढ़ते।

लुंठक-बटमार, इस कदर न बेच खाते वतन को,   
आचार-सदाचार का अगर हम,खात्मा न ढूढ़ते।

सड़क-कूचों में न चलता, पशुता का नग्न नाच,  
सूरतों में अगर हम, पद्मा व फातमा न ढूढ़ते।

सजती न यूं तिजारत 'परचेत', पीर,फ़कीरों की,    
हर पंडित, मुल्ला, पादरी में, धर्मात्मा न ढूढ़ते। 



Wednesday, July 24, 2013

'चीड़-पिरूल' विद्युत और उत्तराखंड !

अलग राज्य का दर्जा प्राप्त हुए उत्तराखंड को लगभग तेरह साल हो चुके है। कौंग्रेस और बीजेपी ने यहाँ बारीबारी से राज किया। आज की तिथि तक कुल 2309 दिन उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार रही और 2330 दिन कॉग्रेस की। बीजेपी के चार मुख्यमंत्रियों क्रमश: सर्वश्री नित्यानंद स्वामी, भगत सिंह कोश्यारी, बीसी खंडूरी  और रमेश पोखरियाल ने राज किया, जबकि कॉग्रेस के दो मुख्यमंत्रियों सर्वश्री एन डी तिवारी और विजय बहुगुणा ने यह सौभाग्य प्राप्त किया। लेकिन इसे उत्तराखंड का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि एक अलग राज्य बनने पर जो उम्मीदे और अपेक्षाए उसने संजोई थी, उसपर कोई भी राजनीतिक दल खरा नहीं उतरा।

अक्सर हमारा तमाम तंत्र अपनी अक्षमता को छुपाने के लिए पर्याप्त धन और सुविधाओं के अभाव  का रोना रोता रहता है। लेकिन अगर इच्छाशक्ति हो, मन में अपने क्षेत्र, राज्य  और देश को सशक्त बनाने का जज्बा हो तो सीमित स्रोतों से सरकार को सालाना मिलने वाली आय भी राज्य के विकास में एक महत्वपूर्ण रोल अदा कर सकती है। उत्तराखंड में चीड़ के जंगलों की बहुतायत है। उत्तराखंड वन विभाग के अनुमानों के अनुसार उत्तराखंड के  १२  जिलों के १७ वन प्रभागों के करीब ३.४३ लाख हेक्टीयर जमीन पर चीड के जंगल हैं जिनसे प्रतिवर्ष करीब २०. ६०  लाख टन पिरूल (Pine needles), बोले तो चीड की नुकीली पत्तियाँ और स्थानीय भाषा मे कहें तो 'पिल्टू' उत्पन्न होता है।

पहाडी जंगलों में इस पिरूल के भी अपने फायदे और नुकशान है। वसंत ऋतू  के आगमन पर चीड के पेड़ों की हरी नुकीली पत्तिया सूखने लगती है। मार्च  के आरम्भ से ये पेड़ों से झड़ने शुरू हो जाते है और यह क्रम जून-जुलाई  तक चलता रहता है। जहां एक और सड़ने के बाद यह पिरूल जंगल की वनस्पति के लिए आवश्यक खाद जुटाता है  और बरसात में पहाडी ढलानों पर पानी को रोकता है, वहीं दूसरीतरफ यह वन संपदा और जीव-जंतुओं का दुश्मन भी है। आग के लिए यह बारूद का काम करता है और एक बार अगर चीड-पिरूल ने आग पकड़ ली तो पूरे वन परदेश को ही जलाकर राख कर देता है। सूखे में यह फिसलन भरा होता है और गर्मी के दिनी में पहाडी ढलानों पर कई मानव और पशु जिन्दगियां लील लेता है। कुछ नासमझ सैलानी बेवजह और कुछ  स्थानीय  लोग बरसात के समय नई हरी घास प्राप्त करने के लिए जान-बूझकर इनमे आग लगा देते है।

लेकिन आज की इस तेजी से विकासोन्मुख दुनिया  में चीड-पिरूल हमारी बिजली  और ईंधन की जरूरतों को पूरा करने में एक अहम् रोल अदा कर रहा है/कर सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ बारह टन पिरूल एक पूरे परिवार के लिए सालभर का ईंधन(लकड़ी का कोयला), ८ MWh (प्रतिघंटा) यूनिट बिजली और एक आदमी के लिए सालभर का रोजगार उत्पन्न करता है। एक अनुमान के अनुसार अगर हर वन क्षेत्र के समीप  एक १०० कीलोवाट का चीड-पिरूल विद्युत संयत्र लगा दिया जाए और १०० प्रतिशत पिरूल उत्पादन का इस्तेमाल बिजली उत्पन्न करने हेतु किया जाए तो इससे उत्तराखंड में करीब ३ लाख पचास हजार कीलोवाट से चार लाख किलोवाट बिजली उत्पन्न  की जा सकती है। आपको मालूम होगा कि एक सामान्य घर में २ कीलोवाट का बिजली का मीटर पर्याप्त होता है, खासकर पहाडी इलाकों में जहां अक्सर पंखे/कूलर चलाने की जरुरत भी नहीं पड़ती। इसका तात्पर्य यह हुआ कि डेड से दो लाख घरों में बिजली सिर्फ पिरूल संयंत्र से ही पहुंचाई जा सकती है ।  इतने तो पूरे उत्तराखंड में घर ही नहीं है तो जाहिर सी बात है कि बाकी की बिजली ( बांधो से प्राप्त विधुत के अलावा) अन्य राज्यों को निर्यात कर सकते है। हजारों लोगों को रोजगार मिलेगा वो अलग, ग्रामीण लोगो को ईंधन मिलेगा वो अलग, वन संपदा को आग से बचाया जा सकेगा, वो अलग।         
                                 
Firing Up Dreams
पिरूल गैसीकरण प्लांट जिसमे पिरूल को छोटे टुकड़ों में काटकर डाला जाता है और उत्पन्न ऊर्जा को विद्युत लाइनों में पम्प कर दिया जाता है 

अब आते है इन सयंत्रों की लागत और उसके लिए आवशयक वित्त स्रोतों पर। १०० से १२० कीलोवाट  के  एक चीड़ -पिरूल विद्युत संयत्र की लागत करीब ४ करोड़ रूपये है। और उत्तराखंड में उपलब्ध कच्चे माल की कुल उत्पादन क्षमता(३५०००० कीलोवाट अथवा ३५० मेघावाट) प्राप्त करने के लिए करीब ३००० ऐसे संयंत्रों की  जरुरत पड़ेगी। यानि कुल वित्त चाहिए करीब एक ख़रब डेड अरब रुपये। माना कि जून २०१३ में आई उत्तराखंड प्रलय के बाद परिस्थितियाँ भिन्न हो गई है, किंतु अगर हम इस देश के पर्यटन मंत्रालय के आंकड़ों पर भरोसा करें तो अकेले सन २०११ में करीब २ करोड़ ६० लाख यात्री उत्तराखंड भ्रमण के लिए पहुंचे थे। ज्यादा नहीं तो मान लीजिये कि प्रति यात्री ने वहाँ औसतन हजार रूपये खर्च किये, तो सीधा मतलब है कि  कुल पर्यटन बिक्री या लेनदेन उस वर्ष में उत्तराखंड की करीब पौने तीन ख़रब  रुपये था। अब मान लीजिये कि मिनिमम  १० प्रतिशत राजस्व ( टैक्स इत्यादि) इस लेन-देन से सरकार को प्राप्त हुआ तो कुल हुआ पौने तीन अरब रूपये। तो अगर सरकार सिर्फ इसी धन को भी चीड-पिरूल विद्युत परियोजनाओं पर लगाए तो प्रतिवर्ष करीब ५०-५५ संयत्र लगा सकती है। वैसे भी एक अकेली बाँध परियोजना खरबों रुपये की बनती है। 

अफ़सोस कि इस दिशा में अभी तक कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया गया है। अवानी बायो एनर्जी नाम की एक प्राइवेट संस्था   इस दिशा में तमाम तकलीफों के बावजूद उत्तराखंड में हाथ-पैर मार रही है, प्रयास हालांकि उनका बहुत ही सराहनीय है। और शायद इस जुलाई अंत तक १२० कीलोवाट का उनका एक संयंत्र पिथोरागढ़ के त्रिपुरादेवी गाँव में काम करना शुरू भी कर देगा, मगर हमारी सरकारे कब जागेंगी, नहीं मालूम !  



छवि गूगल से साभार !               

Tuesday, July 23, 2013

घुन लगी हत्यारन व्यवस्था !

कल रात को टीवी पर खबरें देखते वक्त जब न्यूज एंकर ने दिल्ली के ग्रीनपार्क इलाके में एक ३३ वर्षीय डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता आनंद भास्कर मोरला की भरी  दोपहर बाज़ार में  एक नंगे बिजली के तार से करंट लगने से हुई दुखद मृत्यु का समाचार देते हुए यह कमेन्ट दिया कि देखा जाए तो  आनंद भास्कर की करंट लगने से मृत्यु नहीं बल्कि उनकी हत्या हुई है, और उसका हत्यारा हमारा यह  सिस्टम है, तो कुछ विचार मेरे मानसिक पटल पर उत्तराखंड त्रासदी के बारे में  भी कौंधे, जिन्हें यहाँ लिपिबद्ध कर रहा हूँ। 

गत माह उत्तराखंड और तमाम देश के जिन लोगो ने उत्तराखंड की त्रासदी झेली, वे अभी भी उस सदमे से बाहर निकलने में असफल है। किन्तु हमारे इस तथाकथित महान लोकतंत्र की राजनीति के गिरगिटों के लिए तो मानो यह एक सुनहरे अवसर की भांति है, जो अपनी रंग बदने की शैली मे और निखार इसके माध्यम से लाने में जुटे हुए है। कोई पीड़ितों का हमदर्द बनकर उस जगह जाकर घडियाली आंसू बहा रहा है , तो कोई खबरिया टीवी चैनलों के कैमरों के आगे मंदिर का मलवा साफ़ करने का नाटक कर रहा है। और जिनकी राजनीति किसी की कृपा से अनायास ही चमकी हुई थी वे इस बात का गम मना रहे है कि तमाम तैयारियों के बावजूद वे जनता के पैसों पर इस बार अपने बीबी/बच्चों को यूरोप और अमेरिका घुमाने नहीं ले जा सके।  

आप में से जो लोग कभी केदारनाथ घूमकर आये हों, वे लोग गौरीकुंड से आगे पैदल मार्ग पर बसे राम बाडा  नामक स्थान से भी अवश्य भली भांति परिचित होंगे। जिस तरह माँ वैष्णव देवी के रास्ते पर अर्धक्वाँरी के समीप यात्रियों के खान-पान और विश्राम की जगह पर रोज चहल-पहल रहती है, केदारनाथ तीर्थयात्रा के दिनों में रामबाडा भी ठीक उसी उद्देश्य को पूरा करता था ( 'है' नहीं लिख रहा क्योंकि अब वह पूरी तरह नष्ट हो चुका, पांच होटल और तकरीबन १५० दुकानों और घरों में से कुछ भी नहीं बचा )! दोनों में फर्क बस इतना था कि अर्धकुंवारी वैष्णव देवी पर्वत  के लगभग मध्य में है, जबकि रामबाडा मंदाकनी तट पर दो पहाड़ों के बीच एकदम घाटी में नाले के मध्य में बसाया गया था।  स्थानीय सरकार, मंदिर समिति और प्रशासन के तमाम महकमे इस बात से भली भाति वाकिफ हैं कि  पहाडो में बादल फटने, ग्लेशियर खिसकने की घटनाएं बरसात के दिनों में अक्सर होती रहती हैं, फिर भी इस रामबाडा नामक स्थल  को उस नाले में खूब फलने-फूलने दिया गया। नतीजन, १६- १७ जून, २०१३  को राते के विश्राम और सुबह के नाश्ते का समय होने की वजह से  सेकड़ों या यूं कहें कि हजारों की तादाद में सैलानी, तीर्थ यात्री और स्थानीय कारोबारी एक अकेले इसी स्थान से बहे, क्योंकि आठ सौ से हजार बारह सौ लोग तो हरवक्त वहाँ पर सीजन में रहते ही रहते थे।
रामबाड़ा, संवेदनहीनता की हद, नीव के नीचे नाला
या यूं कहे की एक पहाड़ी नदी और ऊपर व्यावसायिक भवन 


सभी जानते है कि आज हमारा यह देश और उसका प्रजातंत्र एक बहुत  ही बुरे दौर से गुजर रहा है। जिसके लिए जिम्मेदार न सिर्फ ये गिरगिट ही हैं, अपितु तमाम देश की जनता भी उतनी ही जिम्मेदार है, और नतीजतन हमें हमारी तमाम खामियों का हर्जाना इस रूप में चुकाना पड़ता है। सरकार नाम की चीज सिर्फ कुछ लोगो के ऐशो-आराम का जरिया बन चुकी है।  अपने कुशासन की जिम्मेदारी लेना तो गिरगिटों ने दशकों पहले ही छोड़ दिया था, किन्तु अगर जनता जागरूक होती तो होना यह चाहिए था कि देश की समाज सेवी संस्थाओं को, उन लोगो जिन्होंने अपने परिजन और प्रियजन उस  ख़ास स्थान, रामबाड़ा से खोये हैं, उनके साथ  मिलकर केन्द्रीय पर्यटन मंत्रालय, उत्तराखंड के तमाम मुख्यमंत्रियों और पर्यटन मंत्रियों, यहाँ तक कि राज्य बनने  से पहले उत्तर प्रदेश के तत्कालीन पर्वतीय विकास मंत्रालय में मंत्री रहे लोगों  और  मंदिर समिति के मुखियाओं के ऊपर गैर-इरादतन ह्त्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए था। देखा जाए तो उन मौतों के लिए प्रकृति नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ हमारी यह घुनलगी जर्जर व्यवस्था(सिस्टम) ही जिम्मेदार है।   क्यों इन्होने सिर्फ अपने फायदे के लिए ऐसे खतरनाक स्थान को यात्रियों के विश्राम की जगह बनने और फलने-फूलने दिया।  क्या इनकी इसतरफ  ध्यान देने की कोई जिम्मेदारी नहीं थी? अगर सरकार में विवेक का अभाव न होता तो बजाये दैविक आपदा के लिए सड़कों, डामों इत्यादि में दोष ढूढने के ,पहले उन दोषों को ढूढने का प्रयास करती, जिन्हें अगर इसको रोकने के लिए जिम्मेदार लोग रोकना चाहते तो रोक सकते थे।  

कार्टून कुछ बोलता है- बधाई हो गुलामों, एक और युवराज.............. !


Monday, July 22, 2013

लघु व्यंग्य- अरहर महादेव !

आपको शायद याद होगा कि जिस तरह आजकल टमाटर के दाम आसमान छूं रहे है, ठीक उसी तरह २००९ में अरहर की दाल के भाव भी ४३ रूपये से बढ़कर सीधे १०५ रूपये प्रति कीलो तक पहुँच गए थे। उसी वक्त मैंने यह लघु-व्यंग्य लिखा था आज श्रावण मास के प्रथम सोमवार के अवसर पर दोबारा ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ, उम्मीद है आपको पढने में अच्छा लगेगा; 
      

सावन का महीना शुरू हो गया है।  और यह बताने की शायद जरुरत नहीं कि इस पूरे मास में हिन्दू महिलाए प्रत्येक सोमवार को शिव भगवान की पूजा-अराधना कर व्रत (उपवास)रखती हैं मंदिरों में शिव की पूजा-अर्चना की जाती है, तथा उन्हें श्रद्धा-पूर्वक ताजे पकवानों का भोग चढाया जाता हैं  



आदतन आलसी और अमूमन थोबडा सुजाकर, मुंह से आई-हूँ-हुच की कर्कश ध्वनि के साथ रोज सुबह खडा उठने वाला यह निठल्ला इंसान, उस रोज थोडा जल्दी उठा गया था बरामदे में बैठ धर्मपत्नी के साथ सुबह की गरमागरम चाय की चुस्कियाँ लेते हुए अच्छे मूड में होने का इजहार उनपर कर चुका था।  अतः ब्लैक-मेलिंग में स्नातकोत्तर मेरी धर्मपत्नी ने मुझे जल्दी नहा-धोकर तैयार होने को कहा। यह शुभ-कार्य मुझसे इतनी जल्दी निपटवाने का कारण जब मैंने मुस्कुराकर उनसे पूछा तो उन्होंने भी एक कातिलाना मुस्कान चेहरे पर बिखेरते हुए बताया कि मुझे भी आज उनके साथ मोहल्ले के बाहर, सरकारी जमीन कब्जाकर बने-बैठे शिवजी के मंदिर में पूजा-अर्चना करने और भोग लगाने चलना है  


स्नान तदुपरांत तैयार हुआ तो धर्मपत्नी जी किचन में जरूरी भोग सामग्री बनाकर तैयार बैठी थी, अतः हम चल पड़े मंदिर की और मंदिर पहुंचकर कुछ देर तक पुजारी द्वारा आचमन और अन्य शुद्धि विधाये निपटाने के बाद हम दोनों ने मंदिर के एक कोने पर स्थित भगवान् की करीब दो मीटर ऊँची प्रतिमा को दंडवत प्रणाम किया धर्मपत्नी थाली पर भगवान् शिव को चढाने वास्ते साथ लाये पकवान सजा रही थी कि इस बीच मैंने जोश में आकर भगवान शिव का जयघोष करते हुए कहा; "हर-हर महादेव" ! 

जय-घोष किया तो मैंने पूरे जोश के साथ ऊँची आवाज में था,किन्तु चूँकि पहाडी मूल का हूँ, इसलिए आवाज में वो दमख़म नहीं है, और कभी-कभार सुनने वाला उलटा-सीधा भी सुन लेता है यही उसवक्त भी घटित हुआ जैसे ही मेरा हर-हर महादेव कहना था कि अमूमन आँखे मूँदे अंतर्ध्यान रहने वाले शिवजी ने तुंरत आँखे खोल दी। सफ़ेद रूमाल से ढकी कांस की थाली पर नजर डालते हुए बोले, "ला यार,बड़ा मन कर रहा था अरहर की दाल खाने का। तुमने अच्छा किया जो अरहर की दाल बनाकर लाये,पिछले एक महीने से किसी भी भक्तगण ने अरहर की दाल नहीं परोसी। मगर ज्यों ही मेरी धर्मपत्नी ने भोग की थाली में से रूमाल उठाकर थाली आगे की,शिवजी थाली पर नजर डाल क्रोधित नेत्रों से मुझे घूरते हुए बोले, "तुम लोग नहीं सुधरोगे टिंडे की सब्जी पकाकर भोग चढाने लाये हो और मोहल्ले के लोगो को सुनाने और गुमराह करने के लिए ऊंचे स्वर में अरहर की दाल बताते हो

शाहरुखिया अंदाज मे मै-मै करते हुए मैंने सफाई दी; भगवन, आप नाराज न हो, मेरा आपको क्रोधित करने व किसी को भी गुमराह करने का कोई इरादा नहीं था। दरह्सल आपके सुनने में ही कुछ गड़बड़ हो गई है मैंने तो आपकी महिमा का जय-घोष करते हुए हर-हर महादेव कहा था, आपने अरहर सुन लिया, इसमें भला मेरा क्या दोष? अब आप ही बताएं प्रभु कि इस कमरतोड़ महंगाई में आप तो बड़े लोगो के खान-पान वाली बात कर रहे है हम चिकन रोटी खाने वाले लोग भला आपको 105/- रूपये किलो वाली अरहर की दाल भला कहाँ से परोस सकते है? यहाँ तो बाजार की मुर्गी घर की दाल बराबर हो रखी है आजकल एक 'लेग पीस' में ही पूरा परिवार काम चला रहा है। और हाँ, ये जो आप टिंडे की सब्जी की बात कर रहे है तो प्रभू, इसे भी आप तुच्छ भोग न समझे, 55/- रूपये किलो मिल रहे है टिंडे भी। 

भगवान शिव का मूड काफी उखड चुका था और वो मेरी बकबक सुनने के लिए ज़रा भी इंटरेस्टेड नहीं दीख रहे थे। अत: उन्होंने थोडा सा अपनी मुंडी हिलाई, कुछ बड-बडाये, मानो कह रहे हो कि पता नहीं कहाँ-कहाँ से सुबह-सुबह मूड खराब करने चले आते है इडियट्स ...........और फिर से अंतर्ध्यान हो गए

Saturday, July 20, 2013

गृह-स्वामिनी स्तुति !




बजती जब छम-छम पायल,
दिल होकर रह जाता घायल,
सच बोलूँ तो है ये दिल नादां,
तेरी इक मुस्कान का कायल।
जैसा भी यह इश्क है मेरा, तेरे प्यार ने पाला है,
अनुराग जताने का तेरा, हर अन्दाज निराला है।

अंतर का प्यासा मतवाला,
तुम बनकर आई मधुबाला,  
ममस्पर्शी भाव जगाकर,
साकी बन भरती रीता प्याला, 
इक बेसुध को होश में लाई,प्रिये तू ऐसी हाला है,
अनुराग जताने का तेरा, हर अन्दाज निराला है।

देखी जो सूरत,गला सुराही,
आकाश ढूढने लगा बुराई,
मिलन की पहली रुत बेला पर,
चाँद ने हमसे  नजर चुराई।
खुसफुसाके कहें सितारे,कैसी किस्तम वाला है,
अनुराग जताने का तेरा, हर अंदाज निराला है।

आई जबसे हो तुम घर-द्वारे,
दमक उठे सब अंगना-चौबारे,
पूरे हुए, बुने वो मेरे नटखट,
हर अरमां, हर ख्वाब कुंवारे।
कांटे ख़त्म हुए गुलों ने,घर-दामन सम्भाला है,
अनुराग जताने का तेरा, हर अंदाज निराला है।

मिले तुम, अहोभाग हमारा,
निष्छल है प्रेमराग तुम्हारा,
उत्सर्ग प्रबल,सबल,सम्बल,
अतुल,अनुपम त्याग तुम्हारा,
मन मोदित है, भले ही रंग जिगर का काला है,
अनुराग जताने का तेरा, हर अंदाज निराला है।





Friday, July 19, 2013

बात गुजरे जमाने की !













पट ब्याह हुआ था, 
चट हुई थी मंगनी,    
छब्बीस का मैं था, 
बीस की जीवन संगनी।
इक-दूजे से मन की बातें,हम हरबात को दिल से कहते थे,   
मगर न जाने कमबख्त पड़ोसी,क्यों पिलसे-पिलसे रहते थे।

आँखों ही आँखों में बातें, 
जीने-मरने की सौगातें,
दिन होते थे रोज सुहाने,
और सलोनी होती रातें। 
हम हरदम ही गोरी मुखडे पर, इक काले तिल से रहते थे,
आलम ये था कि कमबख्त पड़ोसी, पिलसे-पिलसे रहते थे।       

खेल खेलते सुर्ख लवों का, 
बिंदी,माथे और भवों का,
चंचलता की परिपाटी पर, 
दौर था चलता कहकहों का।     
अकेले कभी तन्हा पल में भी, हम भरी महफ़िल से रहते थे,
मगर न जाने कमबख्त पड़ोसी, क्यों पिलसे-पिलसे रहते थे।

हंसना,कभी रोना-धोना,  
छत मुंडेर, आँगन का कोना,
आलिंगन कर बाहों में,    
मीठे-मीठे ख्व़ाब पिरोना।  
एक नींव पर कभी इसतरह, खड़े हम दो मंजिल से रहते थे,
मगर न जाने कमबख्त पड़ोसी,क्यों पिलसे-पिलसे रहते थे।  

  

Thursday, July 18, 2013

जिनकी खुद की कोई प्रेरणा नहीं वो औरों के क्या प्रेरणास्रोत बनेगे ?


देश की सड़कें तो पिछले कुछ दशकों से इस बात की आदी हो चुकी है कि रसूकदार लोगो के उनपर चलने के लिए न कोई कायदे कानून होते हैं और न ही कोई ट्रैफिक पुलिस के चालान का डर, इसलिए अब उन सड़कों को कोई शर्म जैसी चीज महसूस नहीं होती।  लेकिन छवि में दिख रहा स्कूटर अवश्य खुद को लज्जित महसूस कर रहा होगा कि न सिर्फ भारी भरकम शरीर वाला एक इंसान, बल्कि २०१४ में देश की सत्ता पर काबिज होने के प्रबल दावेदार एक बड़ी पार्टी के अध्यक्ष पद को सुशोभित कर चुका व्यक्ति बिना हैलमेट उसपर सवार होकर देश के नियम-कानूनों को खुले-आम धत्ता बता रहा है। 

      

सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...