Tuesday, December 3, 2013

जाग मुसाफिर जाग !










यूं अनुत्तरित रहने न दो तुम, आम जनता के सवालों को,
अब और न करने दो वतन फ़रोख़त, सत्ता के दलालों को।

खुदगर्जी, स्व-हित के खातिर रहोगे आँख मूंदे कबतलक,
सिखा ही दो  देशभक्तों,अबके सबक इन नमकहलालों को। 

तक़सीम करते ये दिलों को, गाकर कलह की कब्बालियां,
उखाड़ फेंकों ऐ अकीतदमंदो, इन नफरत के कब्बालों को।

आघात किसी अबला की अस्मिता ते-हल्का हो या भारी,
असह्य है सर्वथा, हे अधम तरुण, समझा दो तेजपालों को।

लुभाने को बिछाते फिरते हरतरफ, जाल ये प्रलोभनो का,
विफल कर ही दो 'परचेत' अबके,शैतानी  इनकी चालों को।      

6 comments:

  1. ठेला-ठाली आपकी , भली लगी श्रीमान |
    बहुत दिनों से ढूँढता, किस कारण व्यवधान |
    किस कारण व्यवधान , इलेक्शन फिर से आया |
    मत चुको चौहान, इन्होने बहुत सताया |
    बदलो यह सरकार, ख़तम कर विकट झमेला |
    असहनीय यह बाँस, हमेशा रविकर ठेला ||

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  2. चुनाव के समय मन के घाव और हरे हो जाते हैं।

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  3. सामयिक और सटीक रचना !
    नई पोस्ट वो दूल्हा....
    नई पोस्ट हँस-हाइगा

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  4. बहुत ही सशक्त, आपका पैनी धार के साथ लौटना सुखद लगा, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  5. बहुत सुंदर सटीक सामयिक गजल ....!
    ==================
    नई पोस्ट-: चुनाव आया...

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  6. स्वागत है आपका ... चुटीली ... धारदार गज़ल के साथ ... मज़ा आ गया ...

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संशय!

इतना तो न बहक पप्पू ,  बहरे ख़फ़ीफ़ की बहर बनकर, ४ जून कहीं बरपा न दें तुझपे,  नादानियां तेरी, कहर  बनकर।