पैदा हुए हैं कहाँ से, ये मर्ज इतने,
हो गए हैं हम क्यों खुदगर्ज इतने।
गुज़रगाह बन गए हैं, सेज-श्रद्धेय,
अगम्य हो गए जबसे फर्ज इतने।
वफ़ा का चलन, सिकुड़ता जा रहा,
दम तोड़ते जा रहे क्यों अर्ज इतने।
सिर्फ स्व:हित पर सिमट गई सोचें,
बुलंदियों पे 'पहले मैं' के तर्ज इतने।
लहलुहान है सहरा, रिश्तों के खूं से,
वारदात-ऐ-बेवफाई होते दर्ज इतने।
तामील का आता,जब दौर अपना,
तभी आते हैं आड़े क्यों हर्ज इतने।
रेहन रखी क्यों है, गरिमा 'परचेत',
हमपे किस-किसके हुए कर्ज इतने।
हो गए हैं हम क्यों खुदगर्ज इतने।
गुज़रगाह बन गए हैं, सेज-श्रद्धेय,
अगम्य हो गए जबसे फर्ज इतने।
वफ़ा का चलन, सिकुड़ता जा रहा,
दम तोड़ते जा रहे क्यों अर्ज इतने।
सिर्फ स्व:हित पर सिमट गई सोचें,
बुलंदियों पे 'पहले मैं' के तर्ज इतने।
लहलुहान है सहरा, रिश्तों के खूं से,
वारदात-ऐ-बेवफाई होते दर्ज इतने।
तामील का आता,जब दौर अपना,
तभी आते हैं आड़े क्यों हर्ज इतने।
हमपे किस-किसके हुए कर्ज इतने।
सुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरणीय-
नमस्कार आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार (20 -08-2013) के चर्चा मंच -1343 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteसच्ची बात।
ReplyDeleteसीधी खरी बात कही।
ReplyDeleteपर समझ नहीं आया तीन तीन मकान बेच देना ...
ReplyDeleteकाजल जी, कई बार एकाकी विचलित मन वह सब करवा देता है जो इंसान सामान्य परिस्थितियों में करना मुनासिब नहीं समझता !
Deleteबेहद उम्दा एंव सटीक रचना पी.सी.गोदियाल "परचेत" जी।
ReplyDeleteहां, ये सच है
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति
बहुत खूब कही है गजल
ReplyDeleteछोटी बहर की बड़ी गजल है।
रेहन रखी क्यों है, गरिमा 'परचेत',
हमपे किस-किसके, हुए कर्ज इतने।
सभी सार्थक, बहुत उम्दा लगी रचना की पंक्तियाँ
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार … सादर !
बहुत सटीक और सार्थक, हार्दिक शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
बात को उम्दा, खरा खरा रख दिया ...
ReplyDeleteसभी शेर हकीकत लिए हैं ...
किधर बह गयी सीख हमारी...
ReplyDeleteदुखद..