Sunday, August 18, 2013

स्वर्ग कामना एवं तीन लोकों की अवधारणा !




सामने जो सत्य है उसको नजरअंदाज कर,  सोच को किसी असंभव, अनदेखे और अनजाने से ब्रह्माण्ड मे ले जाकर खुद के और दुनियां के अन्य प्राणियों के आस-पास एक विचित्र  मायावी जाल बुनना इंसान की पुरानी फितरत है। किन्तु साथ ही वह इस प्रशंसा का भी हकदार है कि इन्ही विलक्षण खूबियों की ही वजह से आज से कई हजार साल पहले ही उसने वो बुलंदियां छू ली थी, जिन्हें आज का मानव एक बार फिर से हासिल करने की जुगत में लगातार प्रयासरत है। लेकिन, कभी-कभी आश्चर्य इस बात का भी होता है कि आज भी इस संसार में इंसानों का एक बहुसंख्यक वर्ग उन कुछ अतीत में बुनी गई मायावी मिथ्याओं से परे हटकर नहीं देखना चाहता, जिनकी प्रमाणिकता  भी संदेह के घेरे में है।    

इस बात पर तो शायद ही किसी को आपत्ति हो कि इस दुनियाँ में जितने भी धर्म और उप-धर्म हैं, वे सभी, किसी न किसी रूप में लोक तथा परलोक की अवधारणा पर विश्वास करते हैं।  अब भले ही स्वर्ग और नर्ग (नरक नहीं, नरक शब्द किसी प्रताड़ना गृह का ध्योतक है ) की उनकी अवधारणाओं मे ख़ासा अंतर ही क्यों न हो। कर्मवाद का प्रस्तुतीकरण प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तौर पर हर धर्म का आधारभूत सिद्धांत है। धर्म-शास्त्रों के आधार पर अपने कर्मो के ऐवज में  प्राणिमात्र को  इस लोक और परलोक में होने वाली फल प्राप्ति अवधारणा  इसी कर्मवाद के सिद्धांत के अंतर्गत आती है। पुण्य और पाप  इस कर्मवाद की दो प्रमुख कड़ियाँ हैं। स्वर्ग प्राप्ति की कामना प्रत्येक प्राणि का प्रथम लक्ष्य होता है, जबकि नर्ग जाने वाले पथ से होकर गुजरना  हर कोई वर्जना चाहता है,  अब उसके अनुरूप वह कर्मों को यथोचित गति भले ही न दे।

जीव-शरीर जो कि पंच तत्वों से बना होता है, मृत्यु उपरान्त उन्हीं तत्वों यानि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, और आकाश तत्वों में विलीन हो जाता है। जो बची रह जाती है,  वह है सिर्फ़ आत्मा, और शरीर के मृतप्राय: हो जाने पर यह आत्मा जिसके तीन मुख्य घटक मन, बुद्धि और संस्कार होते है, उन्हें लेकर निकल पड़ती है एक नए जीव-शरीर की तलाश में। आत्मा के घटकों की कार्य प्रणाली यह होती है कि आत्मा जब जिस जीव शरीर में होती है उसके मन से प्रभावित हुई बुद्धि के निर्णय लेने के तत्पश्चात उस जीव-शरीर द्वारा प्रतिपादित कार्य संस्कार बन जाता है।  यानि  कि मन, बुद्धि को प्रभावित करता है और फिर बुद्धि के निर्देशानुसार शरीर जो कार्य करता है, उसे कर्म कहते हैं।    मृत्य उपरान्त दूसरा शरीर धारण करते वक्त आत्मा प्राणि के दिवंगत शरीर में उसके साथ  मौजूद रहे इन्ही तीन मुख्य घटकों को साथ लेकर नव-अंकुरित शरीर में प्रवेश करती है। इसी आधार पर जभी तो अक्सर यह आशंका या उम्मीद व्यक्त करते लोगो को सुना जाता है कि अमुक  प्राणि पर शायद उसके पूर्व-जन्म के कर्म असर डाल रहे है।

उपरोक्त ये जो बाते मैंने कही, ये सब सुनने, पढने और  जानने के लिए शास्त्रों, किताबों और लोगों से प्राप्त ज्ञान को आधार माना जा सकता है। और देखा जाए तो  निश्चित तौर पर ये युग और काल की निहायत उच्चस्तरीय माप की बातें हैं।  लेकिन जैसा कि मैं कह चुका कि जीवन दर्शन, प्रकृति और प्राणि विज्ञान या यूं कहूँ कि कुदरत के हर पहलू पर इस जग मे  हर इंसान का अपना एक भिन्न नजरिया होता है। और इन तमाम सांसारिक रहस्यों और तथ्यों को वह उसी ख़ास नजरिये  देखता  है। मैं भी जब इन तमाम बातों पर गौर फरमाने बैठता हूँ तो न सिर्फ़ उस बुनियादी बातों तक ही सीमित रह पाता हूँ अपितु, इस बाबत कभी-कभार तो बड़े ही हास्यास्पद नजरिये मन-मस्तिष्क में हिलौरे मारने लगते है।  

जैसा कि मैंने पूर्व  में कहा, हम जानते हैं कि तमाम धार्मिक मान्यताओं और पौराणिक शास्त्रों के मुताबिक समस्त ब्रह्माण्ड में तीन लोक मौजूद हैं; पहला स्वर्ग लोक, दूसरा नर्ग लोक और तीसरा पाताल लोक। अब, कोई यह पूछे कि ये लोक हैं कहाँ तो शायद प्रमाण सहित कोई संतोषजनक जबाब तो किसी के भी पास न हो। वैसे, मानने को मैं भी इन मान्यताओं और पौराणिक धर्म-ग्रंथों एवं शास्त्रों की बात का समर्थन करता हूँ। इन तीनो लोको के प्रति इस जगत की यह आम अवधारणा है कि स्वर्ग में नारायण(देवता) , नर्ग में नर(इंसान ) एवं  पिचाश(राक्षश)  तथा पाताल में गुप्त-खजाने  (कुबेर) का वास होता है। मान्यता है कि अच्छे कर्म करने वाला प्राणि मृत्य उपरांत स्वर्ग मे नारायण के दरवार की शोभा बढ़ाते हुए उन तमाम सुखों का भोग करता है, जिसका वर्णन हमारे पौराणिक ग्रंथों में अलग-अलग मतावलंब के अनुसार भिन्न-भिन्न है। और जिसके कर्म इस अवधारणा के मापदंडों पर खरे नहीं उतरते, उसे मृत्यु पश्चात सृष्ठि संचालकों द्वारा नर्ग से नरक की ओर धकेल दिया जाता है। और रही बात पाताल की तो इसे इन तमाम पौराणिक और प्राचीन ग्रंथों  और विचारधाराओं मे ज्यादातर रहस्यमय ही रहने दिया गया है।
       
कहना अनुचित न  होगा कि इन पौराणिक और धार्मिक बातों से कोई भी आस्थावान व्यक्ति तो परिचित होता ही है, किन्तु जो लोग आस्थावान नहीं है, मेरा यह मानना है कि  जिज्ञासा बस वे भी इस विषय मे जानकारी तो हासिल करते ही है। यानि कि वो भी इन तमाम अलौकिक और पौराणिक बातो से परिचित तो अवश्य ही होते हैं। इसलिए मेरा यह आलेख उस अवधारणा के  बाबत उन्हें कोई ख़ास रोचक जानकारी अलग से उपलब्ध नहीं करा सकता। लेकिन,  जैसा कि  मैंने ऊपर कहा,  आज की परिस्थितियों का अवलोकन करते वक्त इस अवधारणा के सम्बन्ध में कभी-कभार लीक से हटकर जो विचार ( अब इन्हें आप हास्यास्पद की संज्ञा भी दे सकते हैं ) मेरे मानस पटल पर कौंधते है, उन्हें मैं संक्षेप में यहाँ व्यक्त करना चाहूंगा; 

हम जब बच्चे थे, तो नन्हे दिमाग में कुछ जटिल सवाल उत्पन्न होते थे, मसलन,  दादी-नानी की कहानियों में अक्सर राक्षस प्रमुख किरदार हुआ करते थे जिनका उन कहानियों में प्रमुख रोल होता था, छल-कपट, झूठ बोलकर और तरह-तरह के मुखौटे पहन, क्षद्म-भेष धारण कर निरपराध मानव जाति को सताना, उनका वध करना, उन्हें लूटना। कहानी पढने, सुनने के तत्काल बाद एक अबोध सा प्रश्न मन में जन्म लेता था कि अब वो राक्षस कहाँ गए होंगे क्या वे भी डायनासोरों की तरह समूल नष्ट हो गए ? धार्मिक कहानियाँ, रामायण, महाभारत इत्यादि पढने, सुनने से सवाल कौंधते थे कि  दुर्गा माता के चार और रावण के दस सिर कैसे रहे होंगे?जब मानवों और दानवों का युद्ध होता था तो जब मानव दानवों का मुकाबला करने में खुद को असहाय महसूस करता था तो स्वर्ग से देवताओं को मदद के लिए बुलावा किस माध्यम से भेजता होगा? देवता लोग स्वर्ग से  धरती (नर्ग) में कैसे पहुँचते होंगे? जब देवता खुद इतने पराक्रमी थे तो बहुत से मौकों पर वे भी भला दानवों से कैसे हार जाते थे? दानव धरती तो खैर जीत ही लेते थे, किन्तु भला स्वर्ग पर विजय प्राप्त  करने किस रास्ते  पहुँचते रहे होंगे ? ये देवता लोग गोरे उजले और इंद्र के महल में नाचने वाली नृत्यांग्नायें गोरी और ख़ूबसूरत ही क्यों होती थी? संजय के पास आखिर वो कौन सी तकनीक थी जो वह महल में बैठा-बैठा धृतराष्ट्र को युद्ध-क्षेत्र का सीधा प्रसारण(लाइव-टेलिकास्ट ) सुना देता था ?    इत्यादि-इत्यादि।

समय के साथ-साथ इन सभी सवालों के जबाब हमें खुद-व-खुद मिलते चले गए। आप भी इस बात से वाकिफ होंगे कि हाल ही मे अनेक मौकों पर खोजकर्ताओं ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि रावण जोकि एक ब्राहमण राक्षस था, उसने उस जमाने मे वो उन्नत तकनीक हासिल कर रखी थी, जो आज का इंसान २१ वी  सदी में पहुंचकर भी नहीं कर पाया। उसके पास में पुष्पक विमान थे, सोने की लंका थी,पहाड़ों को खोदकर सुरंग बनाने की तकनीक थी। धरा की मुख्यत: दिशाए चार होती हैं और विस्तृत तौर पर दस दिशाए होती है, चूँकि माँ दुर्गा के पास वो शक्ति थी कि एक साथ चारों दिशाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा सकती थी, इसलिए उसे चतुर मुण्ड (चार सिर वाली ) की संज्ञा दी गई। इसी तरह रावण को भी दस सिर वाला कहा गया, क्योंकि उसे दसों दिशाओं में एक साथ नजर रखने की उन्नत तकनीक हासिल थी। उदाहरण के तौर पर  कुछ-कुछ वैसे ही  मिलती-जुलती  तकनीक,जिसके माध्यम से  पिछले चुनाव में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक साथ चार शहरों में जनता को संबोधित किया था। 

अब थोड़ा सा प्रकाश स्वर्ग, नर्ग और पाताल पर भी डाल लेते है। जब मैं अपने उस  तथाकथित हास्यास्पद नजरिये से इस बारे में  सोचता हूँ तो मेरा मानना यह रहता है कि ये तीनो ही स्थान इसी धरा पर मौजूद हैं।  हाँ, मेरा यह भी मानना है कि समय-समय पर स्वर्ग रूपी स्थान ने अपनी जगह बदली है, जबकि नर्ग और पाताल की भौगोलिक स्थिति मे कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आया। आप यह भी जानते ही होंगे कि धरती पर परिवर्तन के दौर चलते रहते है, कभी ग्लोबल वार्मिंग तो कभी हिम युग। एक ख़ास अवधि में जहां धरती का एक बड़ा हिस्सा बर्फ का रेगिस्तान बन जाता है तो कभी उत्तरी ध्रुब और दक्षिणी ध्रुब हरे-भरे प्रदेश ! और शायद जब धरती गर्म थी तो ये दोनों ध्रुब स्वर्ग कहलाते थे (जैसे एक जमाने में कश्मीर को भारत का स्वर्ग कहा जाता था )। फिर जब हिम-युग शुरू हुआ तो शायद  ये उन्नत तकनीकधारी और विकसित स्वर्गवासी गोरी चमड़ी के देवता लोग, उठकर यूरोप आ गए होंगे , और बाद में उत्तरी अमेरिका भी चले गए होंगे  और फिर यही स्थान स्वर्ग बन गए ?  रही बात मानव और दानव की तो  शायद वे सदा से ही इसीतरह  नर्ग में ही आपस में एक दूसरे से  ही जूझते आ रहे है ? और जो यह कहा जाता है कि दानवों ने  स्वर्ग पर भी कई बार आक्रमण किया तो आज के परिपेक्ष में ९/११ को इस कड़ी में देखना क्या उचित होगा? क्या यह कहना उचित होगा कि इंद्र जी के सफ़ेद महल में स्वर्ग सुंदरियों का नाच-गायन आज भी होता है ? अब रही बात पाताल लोक की, तो पाताल को हम इन अर्थों में भी लेते है कि यह समुद्र तल से नीचे मौजूद कोई स्थान है। कुबेर के गुप्त खजानों को अपने पास समेटे कहीं यह जगह स्वीटजरलैंड तो नहीं?

मैं जब अपने इस तथाकथित हास्यास्पद नजरिये को आधार बनाकर थोड़ा और आगे  झाँकने  की कोशिश करता हूँ तो मुझे हास्य मिश्रित अनुभूतियाँ प्राप्त होने लगती है। मैं देख रहा होता हूँ कि पापी आत्माएं किस तरह चोरी से इकठ्ठा किये अपने धन को पातळ लोक ले जाने के लिए उतावली है। जिसे देखो उसे स्वर्ग जाने की होड़ लगी है, खासकर धन्ना सेठों को। जिसे स्वर्ग का वीसा मिल जाये वो अपने को धन्य समझने लगता है।कुछ जो सद्कर्मी थे, वो नर्ग मे जन्म लेने के बावजूद स्वर्ग पहुँचने में कामयाब रहे और वहीं बस गए। आजकल ऐश कर रहे है।  कुछ पापी लोग ऐसे भी होंगे जो स्वर्ग पहुँचने के बावजूद वापस नर्ग लौट आये हों शायद ? कुछ ऐसे भी पापी होंगे  जो किसी सद्कर्मी की आड़ लेकर खुद भी स्वर्ग तो पहुँच गए, मगर वहां भी अपने कुकर्मों से बाज नहीं आते होंगे , और ये जलनखोर किसी और को वहाँ का वीसा न देने का इंद्र से बार-बार अनुरोध भी करते रहते होंगे। खैर, स्वर्ग के लिए लालायित  सभी तरह की आत्माओं से मैं तो अंत में यही कहूंगा कि अपने कर्म सुधारिये, अच्छे कर्म कीजिये,अगले जन्म में आपको स्वर्ग  का वीसा लेने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी।

जय हिन्द !                                                          


             


पुण्य,पुनीत  और पावन,पवित,
तमाम,भूलोकवासी आत्माओं !
दुष्ट, निंद्य, एवम पापी, पतित,
सभी लुच्ची-लफंगी दुरात्माओं !

मत भूलो, तुम निक्षेपागार हो,
स्वामी नहीं सिर्फ पट्टेदार हो।
हस्ती पाई तुमने जगतमाता से,
पट्टे पर ले, एक देह विधाता से।

फिर तुम्हारा यह आचार कैसा,
भंगुर काया का अहंकार कैसा।    
आना है वह दिन-वार किस दिन,  
ख़त्म होगा पट्टा-करार जिस दिन।  

रखना है हरवक्त यह याद तुमको,
करना है वो जिस्म आज़ाद तुमको।
छोड़ने से पहले वह कुदरत का बाडा,
चुकाना भी होगा कुछ वाजिब भाडा।

इसलिए, हे दुरात्माओं, अब जागो,
नामुनासिब के खातिर यूं न भागो,
दुष्कर्म को न और अपने गले डालो,
सद्कर्म ही सिर्फ अपना ध्येय पालों।।

7 comments:

  1. लोग इतना ही सोच लें तो सबकुछ ठीक न हो जाये, अब हूरें किसे नहीं चाहिये. !

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  2. बहुत ही बढ़िया मार्गदर्शन किया है दुरात्‍माओं का दुष्‍कर्मों से निकलने के लिए।

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  3. bahut acchha lekh karm yog ka siddhant par aadharit hai bhartiya sanskriti! bahut-baht dhanyabad.

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  4. आज तो सारा लेखा जोखा ही कर दिया आपने, शानदार.

    रामराम.

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  5. एक अलग तरह की पोस्‍ट. बहुत बढ़ि‍या

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  6. संस्कृति के इतने आयामों से साक्षात्कार हो गया है कि समझ नहीं आता कि कैसे सुलझायें।

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।