Saturday, August 3, 2013

ख्याल एक बैंक का











कभी सोचता हूँ कि एक बैंक खोलू,
हर सुविधा बैंकों की ही तरज दूंगा,
न तो मैं किसी को  कोई दरद दूंगा,
न किसी तरह का कोई मरज दूंगा,   
मैं न सिर्फ नेक दिल वालों को ही, 
बल्कि जरज को भी अलगरज दूंगा,    
चाहे कोई लौटाए या न लौटाए, मगर
हाथ उसके बेड़ी नहीं, कंठ सरज दूंगा,   
वो देते हैं सिर्फ भौतिक सुखों के वास्ते, 
किंतु, मैं मोहब्बत के लिए भी करज दूंगा।   


  जरज = बदमाश  अलगरज= बेपरवाह    सरज= माला      

तुम हमें एसएमएस भेजो  न भेजो,मर्जी तुम्हारी,
किंतु अलगरज हम नहीं, ये है अलगर्जी तुम्हारी।.

9 comments:

  1. जो हसरत जवानी में पूरी न कर सके, उसका एक प्रयास मात्र :)

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  2. हसरत पूरी हो रही है, इसलिए बधाई हो।

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  3. बढ़िया है भाई जी-
    शुभकामनायें-

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  4. आनंद आ गया, बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  5. अच्छा किया फ़ोन भेज कर, अब चिट्ठीवाला आवेग संयत हो जायेगा !

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  6. बढिया, बहुत बढिया
    सच में पढना शुरू किया तो बिना रुके अंत तक आ गया और लगा कि ये तो कुछ जल्दी खत्म हो गया ।

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  7. वाह वाह ... क्या बात है गौदियाल साहब आज का रंगीनी मूड ... आखिर शब्द तक रस का मज़ा देती हुई पोस्ट और सभी लाजवाब टुकड़े बीच बीच में ...

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।