कल रात को टीवी पर खबरें देखते वक्त जब न्यूज एंकर ने दिल्ली के ग्रीनपार्क इलाके में एक ३३ वर्षीय डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता आनंद भास्कर मोरला की भरी दोपहर बाज़ार में एक नंगे बिजली के तार से करंट लगने से हुई दुखद मृत्यु का समाचार देते हुए यह कमेन्ट दिया कि देखा जाए तो आनंद भास्कर की करंट लगने से मृत्यु नहीं बल्कि उनकी हत्या हुई है, और उसका हत्यारा हमारा यह सिस्टम है, तो कुछ विचार मेरे मानसिक पटल पर उत्तराखंड त्रासदी के बारे में भी कौंधे, जिन्हें यहाँ लिपिबद्ध कर रहा हूँ।
गत माह उत्तराखंड और तमाम देश के जिन लोगो ने उत्तराखंड की त्रासदी झेली, वे अभी भी उस सदमे से बाहर निकलने में असफल है। किन्तु हमारे इस तथाकथित महान लोकतंत्र की राजनीति के गिरगिटों के लिए तो मानो यह एक सुनहरे अवसर की भांति है, जो अपनी रंग बदने की शैली मे और निखार इसके माध्यम से लाने में जुटे हुए है। कोई पीड़ितों का हमदर्द बनकर उस जगह जाकर घडियाली आंसू बहा रहा है , तो कोई खबरिया टीवी चैनलों के कैमरों के आगे मंदिर का मलवा साफ़ करने का नाटक कर रहा है। और जिनकी राजनीति किसी की कृपा से अनायास ही चमकी हुई थी वे इस बात का गम मना रहे है कि तमाम तैयारियों के बावजूद वे जनता के पैसों पर इस बार अपने बीबी/बच्चों को यूरोप और अमेरिका घुमाने नहीं ले जा सके।
आप में से जो लोग कभी केदारनाथ घूमकर आये हों, वे लोग गौरीकुंड से आगे पैदल मार्ग पर बसे राम बाडा नामक स्थान से भी अवश्य भली भांति परिचित होंगे। जिस तरह माँ वैष्णव देवी के रास्ते पर अर्धक्वाँरी के समीप यात्रियों के खान-पान और विश्राम की जगह पर रोज चहल-पहल रहती है, केदारनाथ तीर्थयात्रा के दिनों में रामबाडा भी ठीक उसी उद्देश्य को पूरा करता था ( 'है' नहीं लिख रहा क्योंकि अब वह पूरी तरह नष्ट हो चुका, पांच होटल और तकरीबन १५० दुकानों और घरों में से कुछ भी नहीं बचा )! दोनों में फर्क बस इतना था कि अर्धकुंवारी वैष्णव देवी पर्वत के लगभग मध्य में है, जबकि रामबाडा मंदाकनी तट पर दो पहाड़ों के बीच एकदम घाटी में नाले के मध्य में बसाया गया था। स्थानीय सरकार, मंदिर समिति और प्रशासन के तमाम महकमे इस बात से भली भाति वाकिफ हैं कि पहाडो में बादल फटने, ग्लेशियर खिसकने की घटनाएं बरसात के दिनों में अक्सर होती रहती हैं, फिर भी इस रामबाडा नामक स्थल को उस नाले में खूब फलने-फूलने दिया गया। नतीजन, १६- १७ जून, २०१३ को राते के विश्राम और सुबह के नाश्ते का समय होने की वजह से सेकड़ों या यूं कहें कि हजारों की तादाद में सैलानी, तीर्थ यात्री और स्थानीय कारोबारी एक अकेले इसी स्थान से बहे, क्योंकि आठ सौ से हजार बारह सौ लोग तो हरवक्त वहाँ पर सीजन में रहते ही रहते थे।
सभी जानते है कि आज हमारा यह देश और उसका प्रजातंत्र एक बहुत ही बुरे दौर से गुजर रहा है। जिसके लिए जिम्मेदार न सिर्फ ये गिरगिट ही हैं, अपितु तमाम देश की जनता भी उतनी ही जिम्मेदार है, और नतीजतन हमें हमारी तमाम खामियों का हर्जाना इस रूप में चुकाना पड़ता है। सरकार नाम की चीज सिर्फ कुछ लोगो के ऐशो-आराम का जरिया बन चुकी है। अपने कुशासन की जिम्मेदारी लेना तो गिरगिटों ने दशकों पहले ही छोड़ दिया था, किन्तु अगर जनता जागरूक होती तो होना यह चाहिए था कि देश की समाज सेवी संस्थाओं को, उन लोगो जिन्होंने अपने परिजन और प्रियजन उस ख़ास स्थान, रामबाड़ा से खोये हैं, उनके साथ मिलकर केन्द्रीय पर्यटन मंत्रालय, उत्तराखंड के तमाम मुख्यमंत्रियों और पर्यटन मंत्रियों, यहाँ तक कि राज्य बनने से पहले उत्तर प्रदेश के तत्कालीन पर्वतीय विकास मंत्रालय में मंत्री रहे लोगों और मंदिर समिति के मुखियाओं के ऊपर गैर-इरादतन ह्त्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए था। देखा जाए तो उन मौतों के लिए प्रकृति नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ हमारी यह घुनलगी जर्जर व्यवस्था(सिस्टम) ही जिम्मेदार है। क्यों इन्होने सिर्फ अपने फायदे के लिए ऐसे खतरनाक स्थान को यात्रियों के विश्राम की जगह बनने और फलने-फूलने दिया। क्या इनकी इसतरफ ध्यान देने की कोई जिम्मेदारी नहीं थी? अगर सरकार में विवेक का अभाव न होता तो बजाये दैविक आपदा के लिए सड़कों, डामों इत्यादि में दोष ढूढने के ,पहले उन दोषों को ढूढने का प्रयास करती, जिन्हें अगर इसको रोकने के लिए जिम्मेदार लोग रोकना चाहते तो रोक सकते थे।
रामबाड़ा, संवेदनहीनता की हद, नीव के नीचे नाला या यूं कहे की एक पहाड़ी नदी और ऊपर व्यावसायिक भवन |
सभी जानते है कि आज हमारा यह देश और उसका प्रजातंत्र एक बहुत ही बुरे दौर से गुजर रहा है। जिसके लिए जिम्मेदार न सिर्फ ये गिरगिट ही हैं, अपितु तमाम देश की जनता भी उतनी ही जिम्मेदार है, और नतीजतन हमें हमारी तमाम खामियों का हर्जाना इस रूप में चुकाना पड़ता है। सरकार नाम की चीज सिर्फ कुछ लोगो के ऐशो-आराम का जरिया बन चुकी है। अपने कुशासन की जिम्मेदारी लेना तो गिरगिटों ने दशकों पहले ही छोड़ दिया था, किन्तु अगर जनता जागरूक होती तो होना यह चाहिए था कि देश की समाज सेवी संस्थाओं को, उन लोगो जिन्होंने अपने परिजन और प्रियजन उस ख़ास स्थान, रामबाड़ा से खोये हैं, उनके साथ मिलकर केन्द्रीय पर्यटन मंत्रालय, उत्तराखंड के तमाम मुख्यमंत्रियों और पर्यटन मंत्रियों, यहाँ तक कि राज्य बनने से पहले उत्तर प्रदेश के तत्कालीन पर्वतीय विकास मंत्रालय में मंत्री रहे लोगों और मंदिर समिति के मुखियाओं के ऊपर गैर-इरादतन ह्त्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए था। देखा जाए तो उन मौतों के लिए प्रकृति नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ हमारी यह घुनलगी जर्जर व्यवस्था(सिस्टम) ही जिम्मेदार है। क्यों इन्होने सिर्फ अपने फायदे के लिए ऐसे खतरनाक स्थान को यात्रियों के विश्राम की जगह बनने और फलने-फूलने दिया। क्या इनकी इसतरफ ध्यान देने की कोई जिम्मेदारी नहीं थी? अगर सरकार में विवेक का अभाव न होता तो बजाये दैविक आपदा के लिए सड़कों, डामों इत्यादि में दोष ढूढने के ,पहले उन दोषों को ढूढने का प्रयास करती, जिन्हें अगर इसको रोकने के लिए जिम्मेदार लोग रोकना चाहते तो रोक सकते थे।
गिरगिट-शैली से करे, क़त्ल बड़े घड़ियाल |
ReplyDeleteचूक नहीं होती कहीं, खाय कलेजा लाल |
खाय कलेजा लाल , पाल सत्ता-सर लेता |
अगर काल आपात, होंय खुश अफसर नेता |
मिले लूट की छूट, फोन पर करके गिटपिट |
खा पीकर हो लाल, रंग में दिखता गिरगिट |
Bahut sundar Ravikar ji
Deleteif administration has taken right step at proper time we can save precious lifes
ReplyDeleteअंधेर नगरी चौपट राजा वाली हालत है !!
ReplyDeleteउत्तर प्रदेश के तत्कालीन पर्वतीय विकास मंत्रालय में मंत्री रहे लोगों और मंदिर समिति के मुखियाओं के ऊपर गैर-इरादतन ह्त्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए...
ReplyDeleteआपकी बात काफ़ी मायने रखती है सिर्फ़ हवा में तुक्का नही है. सरकार इतने लम्बे चौडे एक्सपर्टों की फ़ौज का बोझ गरीब जनता के टेक्स से उठाती है, उन सभी सरकारी मंत्री और सलाहकारों तकनीशियनों की भी इस मामले में जिम्मेदारी तय होना ही चाहिये.
रामराम.
काश हम विनाश के बाद भी कुछ सीख पायें?
ReplyDeleteअसल तस्वीर सामने रखी है आपने
ReplyDeleteलेकिन हम कहां सुधरने वाले...
मुझे लगता है कि राजनीति से जुड़ी दो बातें आपको जाननी जरूरी है।
"आधा सच " ब्लाग पर BJP के लिए खतरा बन रहे आडवाणी !
http://aadhasachonline.blogspot.in/2013/07/bjp.html?showComment=1374596042756#c7527682429187200337
और हमारे दूसरे ब्लाग रोजनामचा पर बुरे फस गए बेचारे राहुल !
http://dailyreportsonline.blogspot.in/2013/07/blog-post.html
लगता है सारा देश ही लालच का शिकार हो चला है और जहां जगह मिलती है, वहीं अपना घर बना लेता है। बहुत बुरी स्थिति में हैं देश, इसे सुधारना कठिन ही है।
ReplyDeleteसटीक बात काही है .... प्रशासन तो हमेशा ही अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड लेता है ।
ReplyDeleteविनाश की शुरुआत कई वर्षों पहले से हो चुकी है .. चेतावनी मिलती रहती है पर प्रशासन या आम आदमी कुछ सीखेगा लगता नहीं ...
ReplyDeleteप्रजातंत्र तो फेल हो चुका है । अब तो सारे राजनीतिबाज आर टी आय से ऊपर हो गये तो जवाब भी देने की जरूरत नही ।
ReplyDeleteकाश आपकी बात पर अब भी शासन-प्रशासन ध्यान दे तो आगे के लिए अच्छे कार्य हो सकते हैं। बढ़िया आलेख।
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