अलग राज्य का दर्जा प्राप्त हुए उत्तराखंड को लगभग तेरह साल हो चुके है। कौंग्रेस और बीजेपी ने यहाँ बारीबारी से राज किया। आज की तिथि तक कुल 2309 दिन उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार रही और 2330 दिन कॉग्रेस की। बीजेपी के चार मुख्यमंत्रियों क्रमश: सर्वश्री नित्यानंद स्वामी, भगत सिंह कोश्यारी, बीसी खंडूरी और रमेश पोखरियाल ने राज किया, जबकि कॉग्रेस के दो मुख्यमंत्रियों सर्वश्री एन डी तिवारी और विजय बहुगुणा ने यह सौभाग्य प्राप्त किया। लेकिन इसे उत्तराखंड का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि एक अलग राज्य बनने पर जो उम्मीदे और अपेक्षाए उसने संजोई थी, उसपर कोई भी राजनीतिक दल खरा नहीं उतरा।
अक्सर हमारा तमाम तंत्र अपनी अक्षमता को छुपाने के लिए पर्याप्त धन और सुविधाओं के अभाव का रोना रोता रहता है। लेकिन अगर इच्छाशक्ति हो, मन में अपने क्षेत्र, राज्य और देश को सशक्त बनाने का जज्बा हो तो सीमित स्रोतों से सरकार को सालाना मिलने वाली आय भी राज्य के विकास में एक महत्वपूर्ण रोल अदा कर सकती है। उत्तराखंड में चीड़ के जंगलों की बहुतायत है। उत्तराखंड वन विभाग के अनुमानों के अनुसार उत्तराखंड के १२ जिलों के १७ वन प्रभागों के करीब ३.४३ लाख हेक्टीयर जमीन पर चीड के जंगल हैं जिनसे प्रतिवर्ष करीब २०. ६० लाख टन पिरूल (Pine needles), बोले तो चीड की नुकीली पत्तियाँ और स्थानीय भाषा मे कहें तो 'पिल्टू' उत्पन्न होता है।
पहाडी जंगलों में इस पिरूल के भी अपने फायदे और नुकशान है। वसंत ऋतू के आगमन पर चीड के पेड़ों की हरी नुकीली पत्तिया सूखने लगती है। मार्च के आरम्भ से ये पेड़ों से झड़ने शुरू हो जाते है और यह क्रम जून-जुलाई तक चलता रहता है। जहां एक और सड़ने के बाद यह पिरूल जंगल की वनस्पति के लिए आवश्यक खाद जुटाता है और बरसात में पहाडी ढलानों पर पानी को रोकता है, वहीं दूसरीतरफ यह वन संपदा और जीव-जंतुओं का दुश्मन भी है। आग के लिए यह बारूद का काम करता है और एक बार अगर चीड-पिरूल ने आग पकड़ ली तो पूरे वन परदेश को ही जलाकर राख कर देता है। सूखे में यह फिसलन भरा होता है और गर्मी के दिनी में पहाडी ढलानों पर कई मानव और पशु जिन्दगियां लील लेता है। कुछ नासमझ सैलानी बेवजह और कुछ स्थानीय लोग बरसात के समय नई हरी घास प्राप्त करने के लिए जान-बूझकर इनमे आग लगा देते है।
लेकिन आज की इस तेजी से विकासोन्मुख दुनिया में चीड-पिरूल हमारी बिजली और ईंधन की जरूरतों को पूरा करने में एक अहम् रोल अदा कर रहा है/कर सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ बारह टन पिरूल एक पूरे परिवार के लिए सालभर का ईंधन(लकड़ी का कोयला), ८ MWh (प्रतिघंटा) यूनिट बिजली और एक आदमी के लिए सालभर का रोजगार उत्पन्न करता है। एक अनुमान के अनुसार अगर हर वन क्षेत्र के समीप एक १०० कीलोवाट का चीड-पिरूल विद्युत संयत्र लगा दिया जाए और १०० प्रतिशत पिरूल उत्पादन का इस्तेमाल बिजली उत्पन्न करने हेतु किया जाए तो इससे उत्तराखंड में करीब ३ लाख पचास हजार कीलोवाट से चार लाख किलोवाट बिजली उत्पन्न की जा सकती है। आपको मालूम होगा कि एक सामान्य घर में २ कीलोवाट का बिजली का मीटर पर्याप्त होता है, खासकर पहाडी इलाकों में जहां अक्सर पंखे/कूलर चलाने की जरुरत भी नहीं पड़ती। इसका तात्पर्य यह हुआ कि डेड से दो लाख घरों में बिजली सिर्फ पिरूल संयंत्र से ही पहुंचाई जा सकती है । इतने तो पूरे उत्तराखंड में घर ही नहीं है तो जाहिर सी बात है कि बाकी की बिजली ( बांधो से प्राप्त विधुत के अलावा) अन्य राज्यों को निर्यात कर सकते है। हजारों लोगों को रोजगार मिलेगा वो अलग, ग्रामीण लोगो को ईंधन मिलेगा वो अलग, वन संपदा को आग से बचाया जा सकेगा, वो अलग।
पिरूल गैसीकरण प्लांट जिसमे पिरूल को छोटे टुकड़ों में काटकर डाला जाता है और उत्पन्न ऊर्जा को विद्युत लाइनों में पम्प कर दिया जाता है |
अब आते है इन सयंत्रों की लागत और उसके लिए आवशयक वित्त स्रोतों पर। १०० से १२० कीलोवाट के एक चीड़ -पिरूल विद्युत संयत्र की लागत करीब ४ करोड़ रूपये है। और उत्तराखंड में उपलब्ध कच्चे माल की कुल उत्पादन क्षमता(३५०००० कीलोवाट अथवा ३५० मेघावाट) प्राप्त करने के लिए करीब ३००० ऐसे संयंत्रों की जरुरत पड़ेगी। यानि कुल वित्त चाहिए करीब एक ख़रब डेड अरब रुपये। माना कि जून २०१३ में आई उत्तराखंड प्रलय के बाद परिस्थितियाँ भिन्न हो गई है, किंतु अगर हम इस देश के पर्यटन मंत्रालय के आंकड़ों पर भरोसा करें तो अकेले सन २०११ में करीब २ करोड़ ६० लाख यात्री उत्तराखंड भ्रमण के लिए पहुंचे थे। ज्यादा नहीं तो मान लीजिये कि प्रति यात्री ने वहाँ औसतन हजार रूपये खर्च किये, तो सीधा मतलब है कि कुल पर्यटन बिक्री या लेनदेन उस वर्ष में उत्तराखंड की करीब पौने तीन ख़रब रुपये था। अब मान लीजिये कि मिनिमम १० प्रतिशत राजस्व ( टैक्स इत्यादि) इस लेन-देन से सरकार को प्राप्त हुआ तो कुल हुआ पौने तीन अरब रूपये। तो अगर सरकार सिर्फ इसी धन को भी चीड-पिरूल विद्युत परियोजनाओं पर लगाए तो प्रतिवर्ष करीब ५०-५५ संयत्र लगा सकती है। वैसे भी एक अकेली बाँध परियोजना खरबों रुपये की बनती है।
अफ़सोस कि इस दिशा में अभी तक कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया गया है। अवानी बायो एनर्जी नाम की एक प्राइवेट संस्था इस दिशा में तमाम तकलीफों के बावजूद उत्तराखंड में हाथ-पैर मार रही है, प्रयास हालांकि उनका बहुत ही सराहनीय है। और शायद इस जुलाई अंत तक १२० कीलोवाट का उनका एक संयंत्र पिथोरागढ़ के त्रिपुरादेवी गाँव में काम करना शुरू भी कर देगा, मगर हमारी सरकारे कब जागेंगी, नहीं मालूम !
छवि गूगल से साभार !
गवन, भ्रष्टाचार के माध्यम से पैसे निजी अकाउंट में ट्रान्सफर करने के लिए फण्ड की कमी नहीं होती ,सरकारी काम के लिए फण्ड की कमी होती है ,वाह !
ReplyDeletelatest postअनुभूति : वर्षा ऋतु
latest दिल के टुकड़े
जो स्थानीय समाधान होते हैं, वही सर्वोत्तम होते हैं..काश लोगों का ध्यान इस पर जाये।
ReplyDeleteआपने बहुत ही विस्तृत और तथ्यात्मक बात रखी है. चीड पिरूल जब इतना बहुतायत में उपलब्ध है तो बेवजह बिजली के लिए बांध बना बनाकर क्यों पहाडॊं को खोखला किया जा रहा है?
ReplyDeleteशायद बांध बनवाने में ताऊओं का भ्रष्टाचारी हिस्सा अधिक होगा अन्यथा और कोई कारण नही है कि इतना सस्ता और सुगम कार्य ना किया जाये. पर क्या करें यह नागनाथ और सांपनाथ का गठबंधन है जो शायद जनता के भाग्य जगे तो टूट जायेगा.
अति सकारात्मक और सटीक आलेख.
रामराम.
इन समाधानों पर सरकार का ध्यान क्यों नहीं जाता ,मंत्रियों की ओर से भी ऐसी योजनाएँ आयें तो भी कुछ हो .पर इन लोगों को अपनी उठा-पटक से छुट्टी मिले तब न !
ReplyDeleteperfect analysis.
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ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 25/07/2013 को चर्चा मंच पर दिया गया है
कृपया पधारें
धन्यवाद
वाह! यह तो बहुत अच्छी बात है, सरकारों को इस और ध्यान देना चाहिए।
ReplyDeleteपिरूल के बारे में बहुत बढ़िया उपयोगी जानकारी ..
ReplyDeleteकाश! सरकारें यह सब समझ पाती!
बहुत ही उपयोगी, सार्थक आलेख।
ReplyDeleteआपका यह आलेख मैंने राष्ट्रीय सहारा के एडिट पेज के लिए वहां की उप-संपादिका श्रीमती सुषमा जुगरान जी को दिया है। उन्होंने आश्वस्त किया है कि इसे छाप सकते हैं। यदि आलेख छपेगा तो उसके लिए आपका वह नाम उल्लेख चाहिए जो भुगतान के लिए चैक पर हो सके। इसलिए अपने ऐसे नाम उल्लेख सहित पत्राचार पता और मोबाइल नं मुझे vikesh34@gmail.com पर अग्रसारित करने का कष्ट करें। आपसे पूछे बिना की गई ऐसी धृतष्टा के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
Deleteबहुत-बहुत आभार विकेश जी ! लेकिन यह कहूंगा कि छप जाए मेरे लिए उतना ही पारितोषिक काफी है! यह कहने के लिए आपसे क्षमा चाहता हूँ कि फिलहाल मुझे किसी मोनेटरी गेन की अभिलाषा नहीं है! उनसे कहियेगा कि मैं इस बात की स्वीकृति दे रहा हूँ कि अगर लेख पसंद आये तो आप मेरे आलेख को बिना किसी पारितोषिक के छापें ! हाँ, नाम मेरा पी० सी० गोदियाल, पता नई दिल्ली छापें ! आभार !
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