जो साल सडसठ ठेले है हमने, चंद और भी ठेल लेंगे,
बड़े-बड़े 'नमो'ने झेले हैं हमने, चल तुझे भी झेल लेंगे।
है नाउम्मीदी से तो बेहतर, कुछ नए से अरमां जगाएं,
शतरंज के सब हैं खिलाड़ी, खेल नूतन फिर खेल लेंगे।
हुआ अगर नहीं भी सुचारू, आने से तेरे आवागमन,
है आदत हमें धकेलने की, मील चंद और धकेल लेंगे।
सिवाए झेलने और ठेलने के, हमने किया भी तो क्या,
पापड़ ही पापड ही बेले है अबतक, कुछ और बेल लेंगे।
क्षद्मनिर्पेक्ष बनकर राष्ट्र अपना,लूट खाया है जिन्होंने,
सफल समझेंगे तुझे गर ये भी लोण,लकड़ी,तेल लेंगे।
विधर्मी आंच में 'परचेत', फुल्के सेक जाते खुदगरज,
सियासी इस दौर-ए-नफ़रत, हम मिलाप-ए-मेल लेंगे।
वाकई क्षद्मनिर्पेक्ष बन कर इन्होंने राष्ट्र को लूट खाया है
ReplyDeleteसब किस्सा है कुर्सी का , हमारा क्या है ,
ReplyDeleteझेलने के सिवाय और भला , चारा क्या है !
बहुत बढ़िया ग़ज़ल लिखी है, गोदियाल जी।
सही और सटीक कहा, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
झुक कर रहना, तीर चल रहे,
ReplyDeleteसीना ताने वीर चल रहे,
प्यादे भी अब सहमे सहमे,
दोनों ओर वजीर चल रहे।
झेल ही रहे है भाई जी ...और भी झेल लेंगें ...
ReplyDeleteजब तक ठीलेगा.....ठेल लेंगे ?
बहुत सही कहा....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (07-07-2013) को <a href="http://charchamanch.blogspot.in/“ मँहगाई की बीन पे , नाच रहे हैं साँप” (चर्चा मंच-अंकः1299) <a href=" पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह !!! बहुत उम्दा लाजबाब गजल ,,,
ReplyDeleteRECENT POST: गुजारिश,
मैं भी कितना भुलक्कड़ हो गया हूँ। नहीं जानता, काम का बोझ है या उम्र का दबाव!
ReplyDelete--
पूर्व के कमेंट में सुधार!
आपकी इस पोस्ट का लिंक आज रविवार (7-7-2013) को चर्चा मंच पर है।
सूचनार्थ...!
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नहीं झेलेंगे तब भी ये झिल जायेंगे , और चारा भी क्या है !!
ReplyDeleteबेहतरीन ग़ज़ल !
झेलने, ठेलने एवं खेलने के सिवाय हमने किया क्या,
ReplyDelete'इज्ज़त पापड' ही बेले है अबतक, कुछ और बेल लेंगे।
बिलकुल झेल लेंगे ... जीना पड़ेगा तो जी लेंगे ... अभी भी तो जी रहे हैं ...
बहुत उम्दा ...
क्या बात
ReplyDeleteबहुत सुंदर