Wednesday, July 17, 2013

एक महीना- त्रासदी उपरान्त !


उत्तराखंड में आई प्रलय को एक महिना गुजर चुका। अमूमन यह होता है कि जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो देश के एक क्षेत्र विशेष को ही प्रभावित करती है। लेकिन शायद  मेरे जीवनकाल में तो कम से कम यह पहली घटना रही होगी, जिसने न सिर्फ उत्तराखंड अपितु समूचे देश के हर राज्य, यहाँ तक कि दुनिया को गहरे जख्म दिए। तीर्थ यात्रा और पर्यटन मौसम होने की वजह से देश और दुनिया के लोग उसवक्त  वहाँ पहुंचे  हुए थे। 

इस आपदा में जिनके बिछड़ गए उन लोगो को अपनों के आने का अभी भी इंतजार है। यहाँ से मेरे भी चार सगे संबंधी सौ से अधिक लोगो के उस दस्ते में शामिल थे, जो १७ जून की सुबह केदारनाथ के दर्शन कर वापस लौट रहे थे, और जब वह जलजला आया। ये उनकी खुश किस्मती और ऊपर वाले की असीम कृपा थी कि वे चारों १७वे दिन वापस यहाँ पहुँच गए। सौ से अधिक में से सिर्फ बीस लोग ही वापस आ पाए।हाल ही में फोन पर बातों के दौरान वे बता रहे थे कि उनके अधेड़ उम्र पड़ोसी दम्पति इतने भाग्यशाली नहीं थे, और उनके घर वालों को आज भी उनके लौटने का इन्तजार है। यदि आज भी गेट पर ज़रा सी भी ख़ट-ख़ट होती है, तो घर के तमाम सदस्य अपने कमरों से एक साथ निकलकर गेट पर भागे आते है कि क्या पता माँ-बाबूजी लौट आये हों। 

इस बारे में जब कभी सोचने लगता हूँ तो यह सोचकर हैरानी होती है कि हम किन सरकारों को पाल रहे है। क्या ये सरकारे सिर्फ सुख के समय में घोटाले करने के लिए ही हैं?  जब हर बात के लिए हमें अपनी सेना पर ही निर्भर रहना है तो बेहतर है कि देश को सेना के ही हवाले कर दिया जाये। एक क्षेत्र में आई आपदा से ही यह सरकार ठीक से नहीं निपट पा रही तो सोचिये भगवान् न करे अगर कभी देश में ही प्रलय आ गई तो क्या हम इन सरकारों से कोई उम्मीद रख सकते है ? एक महीना बीत चुका है और उत्तराखंड में मलवों में पडी बहुत सी लाशें अभी भी अंतिम संस्कार की बाट जोह रही है। प्रभावित लोगो तक राहत सामग्री के नाम पर सडे हुए गेंहू, फटे-पुराने कपडे और ऐक्स्पाइरी डेट की दवाये भी ठीक से नहीं पहुँच रही। सरकारी महकमे में यह जानने की किसी को इच्छा ही नहीं कि इस आपदा में कुल कितने लोग मरे। नहीं मालूम कि जो सरकारी आंकड़े गुमशुदा लोगो के दिए जा रहे है, वे कैसे एकत्रित किये गए?  जिनके बारे में छानबीन उनके परिजनों ने की, यदि सिर्फ उन्ही को आधार बनाकर आंकड़े प्रस्तुत किये जा रहे है तो उन  तमाम  साधुओं, विदेशी पर्यटकों, उन लोगो, जिनका पता करने वाला कोई बचा ही नहीं, उनका क्या ?                                     


सरकार के खोखले दावे और प्रशासनिक अकर्मण्यता की हद अखबार की इस करतन में साफ़ उजागर हो रही है;
दैनिक हिन्दुस्तान से साभार !





जहां एक ओर सेना के जाबांजो ने अपनी जान की बाजी लगाईं वहीं कुछ ये लोग भी हमारे बीच हैं


बस, आखिर में घूम फिरकर ऊपर वाले का ही भरोसा रह जाता है। भगवान् दिवंगतों की आत्मा को शांति प्रदान करे और आश्रितों को इस दुःख से उबरने की हिम्मत दे !  

11 comments:

  1. लगता है इक पार्टी, मिटा हिन्दू-आदर्श |
    श्रद्धा-केन्द्रों को मिटा, मना रही है हर्ष |

    मना रही है हर्ष, योजनाबद्ध तरीका |
    सेतु कुम्भ केदार, मिटाने का दे ठीका |

    धर्मावलम्बी मूर्ख, नहीं फिर भी है जगता |
    सत्ता इनको सौंप, चैन से सोने लगता ||

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  2. आपने सही कहा,सिर्फ ऊपर वाले का भरोसा है,,

    RECENT POST : अभी भी आशा है,

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  3. रविकर जी ने जो कह दिया उसके अतिरिक्‍त कुछ भी नहीं कहा जा सकता.........................सब ओर हैं दुख चूर-चूर हैं प्राण
    .........................पिर भी हो रहा है भारत निर्माण

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  4. इस आपदा ने सारे देश को झंकृत किया है, आशायें हर ओर चकनाचूर हुयी हैं।

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  5. हर बार यही होता है .... घोषणाएँ होती हैं और सरकारी लोग या नेता फलफूल जाते हैं ।

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  6. सही कहा
    यहाँ भी पधारे
    http://saxenamadanmohan.blogspot.in/

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  7. हमारे देश में मानव जीवन की शायद ही कभी चिंता कीं गयी होगी , आपदा प्रवंधन तो शायद अभी तक फाइलों में भी नहीं खुला है !
    हमें अपनी चिंता खुद करनी चाहिए !

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  8. सचमुच, सरकार, प्रशासन, व्यवस्था, परियोजना आदि का पूर्ण अभाव है देश में

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  9. सिर्फ़ इनकी खुद की जेबे भरने के साधन तलासते हैं, मानवता इंसानियत जैसे शब्द इनकी डिक्शनरी में नही हैं.

    रामराम.

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  10. इस वक्त सेना ने उत्तराखण्ड की आपदा में जो किया वास्तव में वन्दनीय है। किन्तु फौजी शासन की बात करते ही पाकिस्तान, म्यानमार आादि देशों की छवि जेहन में उभरती है।

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  11. हम सहने के लिए हैं ...कुछ कहने के लिए तो बचा ही नही ???भाई जी ..

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।