Friday, July 19, 2013

बात गुजरे जमाने की !













पट ब्याह हुआ था, 
चट हुई थी मंगनी,    
छब्बीस का मैं था, 
बीस की जीवन संगनी।
इक-दूजे से मन की बातें,हम हरबात को दिल से कहते थे,   
मगर न जाने कमबख्त पड़ोसी,क्यों पिलसे-पिलसे रहते थे।

आँखों ही आँखों में बातें, 
जीने-मरने की सौगातें,
दिन होते थे रोज सुहाने,
और सलोनी होती रातें। 
हम हरदम ही गोरी मुखडे पर, इक काले तिल से रहते थे,
आलम ये था कि कमबख्त पड़ोसी, पिलसे-पिलसे रहते थे।       

खेल खेलते सुर्ख लवों का, 
बिंदी,माथे और भवों का,
चंचलता की परिपाटी पर, 
दौर था चलता कहकहों का।     
अकेले कभी तन्हा पल में भी, हम भरी महफ़िल से रहते थे,
मगर न जाने कमबख्त पड़ोसी, क्यों पिलसे-पिलसे रहते थे।

हंसना,कभी रोना-धोना,  
छत मुंडेर, आँगन का कोना,
आलिंगन कर बाहों में,    
मीठे-मीठे ख्व़ाब पिरोना।  
एक नींव पर कभी इसतरह, खड़े हम दो मंजिल से रहते थे,
मगर न जाने कमबख्त पड़ोसी,क्यों पिलसे-पिलसे रहते थे।  

  

23 comments:

  1. वाह वाह बहुत प्यारी प्रस्तुति

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  2. बेहतरीन अभिव्यक्ति .....!!

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  3. बड़ी कोमल रचना पर कमबख्त पड़ोसी-
    किस किस से सजना पर कम्बखत पड़ोसी
    कहाँ पेट का पानी पचना मरे मुआँ यह
    हमने देखा सपना पर कमबख्त पड़ोसी ||

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  4. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(20-7-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  5. कोमल भावाभिव्यक्ति ....

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  6. याद आता है गुज़रा ज़माना ..... बहुत सुंदर रचना ।

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  7. जय हो, जहाँ चाहे जायें पड़ोसी..

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  8. पडोसी तो पिल्से भी रहते हैं , और किल्से भी। :)
    सुन्दर रूमानी गीत ।

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  9. वाह बहुत सुन्दर रूमानी गीत !
    latest post क्या अर्पण करूँ !

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  10. बेहतरीन अभिव्यक्ति

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  11. बहुत सुंदर रचना ।

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  12. वाह गोदियाल जी, आज तो मजा आगया इस गीत में. ये कमबख्त पडोसियों की जान हमेशा ही जलती रहती है, ना शांति से रहते हैं और ना रहने देते हैं. लाजवाब.

    रामराम.

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  13. एक नींव पर कभी इसतरह खड़े हम, दो मंजिल से रहते थे,
    मगर न जाने कमबख्त पड़ोसी,क्यों पिलसे-पिलसे रहते थे।

    ...शायद पड़ोसियों ने आप की तरह प्यार से रहना न सीखा हो ..
    बहुत सुन्दर यादें .....उन दिनों की बात ही निराली होती है ...

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  14. क्या बात है, बहुत सुंदर रचना
    बहुत सुंदर


    मेरी कोशिश होती है कि टीवी की दुनिया की असल तस्वीर आपके सामने रहे। मेरे ब्लाग TV स्टेशन पर जरूर पढिए।
    MEDIA : अब तो हद हो गई !
    http://tvstationlive.blogspot.in/2013/07/media.html#comment-form

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  15. श्रृंगार श्रृगार सा कुछ नहीं जब साथ हो पड़ोसि‍यों का तड़का

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  16. दिन होते थे रोज सुहाने,
    और सलोनी होती रातें।
    - ईर्ष्या का ठप्पा लगा कर पड़ोसियों ने आपकी बात प्रमाणित कर दी !

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  17. मन के भीतर उपजते अनकहे सच को क्या खूब व्यक्त किया है
    बहुत सुंदर
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    सादर

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
    केक्ट्स में तभी तो खिलेंगे--------

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  18. :)))... मियाँ-बीवी राज़ी.... तो क्या करेंगे पड़ोसी....

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  19. हंसना,कभी रोना-धोना,
    छत मुंडेर, आँगन का कोना,
    आलिंगन कर बाहों में,
    मीठे-मीठे ख्व़ाब पिरोना।..

    गज़ब ... प्रेयसी या धर्मपत्नी ... इससे ज्यादा क्या चाहिए उसे .... ऐसा रंग दिखाएँगे तो प्रेम के फूल खिलाएंगे ...

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  20. एक नींव पर दो मंजिल तो साथ न कैसे हो....तो प्‍यार/साथ न कैसे हो। आनंददायक उद्गार।

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।