पट ब्याह हुआ था,
चट हुई थी मंगनी,
छब्बीस का मैं था,
बीस की जीवन संगनी।
इक-दूजे से मन की बातें,हम हरबात को दिल से कहते थे,
मगर न जाने कमबख्त पड़ोसी,क्यों पिलसे-पिलसे रहते थे।
आँखों ही आँखों में बातें,
जीने-मरने की सौगातें,
दिन होते थे रोज सुहाने,
और सलोनी होती रातें।
हम हरदम ही गोरी मुखडे पर, इक काले तिल से रहते थे,
आलम ये था कि कमबख्त पड़ोसी, पिलसे-पिलसे रहते थे।
खेल खेलते सुर्ख लवों का,
बिंदी,माथे और भवों का,
चंचलता की परिपाटी पर,
दौर था चलता कहकहों का।
अकेले कभी तन्हा पल में भी, हम भरी महफ़िल से रहते थे,
मगर न जाने कमबख्त पड़ोसी, क्यों पिलसे-पिलसे रहते थे।
हंसना,कभी रोना-धोना,
छत मुंडेर, आँगन का कोना,
आलिंगन कर बाहों में,
मीठे-मीठे ख्व़ाब पिरोना।
एक नींव पर कभी इसतरह, खड़े हम दो मंजिल से रहते थे,
मगर न जाने कमबख्त पड़ोसी,क्यों पिलसे-पिलसे रहते थे।
वाह वाह बहुत प्यारी प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति .....!!
ReplyDeleteबड़ी कोमल रचना पर कमबख्त पड़ोसी-
ReplyDeleteकिस किस से सजना पर कम्बखत पड़ोसी
कहाँ पेट का पानी पचना मरे मुआँ यह
हमने देखा सपना पर कमबख्त पड़ोसी ||
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(20-7-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
ReplyDeleteसूचनार्थ!
Aabhar Vandna Ji
Deleteकोमल भावाभिव्यक्ति ....
ReplyDeleteयाद आता है गुज़रा ज़माना ..... बहुत सुंदर रचना ।
ReplyDeleteजय हो, जहाँ चाहे जायें पड़ोसी..
ReplyDeleteपडोसी तो पिल्से भी रहते हैं , और किल्से भी। :)
ReplyDeleteसुन्दर रूमानी गीत ।
वाह बहुत सुन्दर रूमानी गीत !
ReplyDeletelatest post क्या अर्पण करूँ !
बेहतरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना ।
ReplyDeleteवाह गोदियाल जी, आज तो मजा आगया इस गीत में. ये कमबख्त पडोसियों की जान हमेशा ही जलती रहती है, ना शांति से रहते हैं और ना रहने देते हैं. लाजवाब.
ReplyDeleteरामराम.
एक नींव पर कभी इसतरह खड़े हम, दो मंजिल से रहते थे,
ReplyDeleteमगर न जाने कमबख्त पड़ोसी,क्यों पिलसे-पिलसे रहते थे।
...शायद पड़ोसियों ने आप की तरह प्यार से रहना न सीखा हो ..
बहुत सुन्दर यादें .....उन दिनों की बात ही निराली होती है ...
क्या बात है, बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर
मेरी कोशिश होती है कि टीवी की दुनिया की असल तस्वीर आपके सामने रहे। मेरे ब्लाग TV स्टेशन पर जरूर पढिए।
MEDIA : अब तो हद हो गई !
http://tvstationlive.blogspot.in/2013/07/media.html#comment-form
श्रृंगार श्रृगार सा कुछ नहीं जब साथ हो पड़ोसियों का तड़का
ReplyDeleteदिन होते थे रोज सुहाने,
ReplyDeleteऔर सलोनी होती रातें।
- ईर्ष्या का ठप्पा लगा कर पड़ोसियों ने आपकी बात प्रमाणित कर दी !
ReplyDeleteमन के भीतर उपजते अनकहे सच को क्या खूब व्यक्त किया है
बहुत सुंदर
उत्कृष्ट प्रस्तुति
सादर
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
केक्ट्स में तभी तो खिलेंगे--------
Jai ho Godiyaal ji
ReplyDeletebejod abhivaykti...
ReplyDelete:)))... मियाँ-बीवी राज़ी.... तो क्या करेंगे पड़ोसी....
ReplyDeleteहंसना,कभी रोना-धोना,
ReplyDeleteछत मुंडेर, आँगन का कोना,
आलिंगन कर बाहों में,
मीठे-मीठे ख्व़ाब पिरोना।..
गज़ब ... प्रेयसी या धर्मपत्नी ... इससे ज्यादा क्या चाहिए उसे .... ऐसा रंग दिखाएँगे तो प्रेम के फूल खिलाएंगे ...
एक नींव पर दो मंजिल तो साथ न कैसे हो....तो प्यार/साथ न कैसे हो। आनंददायक उद्गार।
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