Friday, July 12, 2013

अदालती फैसलों से असहज परजीवी !


देर से ही सही, किन्तु लोकतंत्र के लिए नासूर बन चुकी राजनीतिक विद्रधि के उपचार हेतु हाल ही में हमारी न्यायव्यवस्था के कुछ ऐतिहासिक फैसलों से जहां एक ओर व्याधिग्रस्त राजनीति के स्वास्थ्य सुधार के प्रति धुंधली सी उम्मीद की किरण जगी है, वहीं दूसरी ओर कुछ परभक्षियों की रातों की नीद भी हराम हो गई है, और ये कुटिल रोग-विषाणु इस नव-अन्वेषित दवा का तोड़ निकालने में जुट गए है।

जैसा कि विगत दिनों में हमने देखा कि देश की सर्वोच्च न्याय संस्था ने वर्षों से लंबित मामलों की सुनवाई करते हुए दो महत्वपूर्ण फैसलों में आपराधिक छवि के उन सभी परोपजीवियों, जिनपर गंभीर आपराधिक मामले तो दर्ज है, किन्तु वे चोरी और भ्रष्टाचार से इकट्ठा किये हुए धन और हराम के माल के सेवन से अर्जित बाहुबल के आधार पर साफ़ बच निकलते थे, ऐसे पराश्रयी, कामचोरों के लिए प्रजातंत्र की सर्वोच्च संस्थाओं (संसद और विधानमंडल )में सुगमता से घुसने के चोर दरवाजों पर कुछ महीन कानूनी जालियों के अवरोध यह निर्णय देकर खड़े कर दिए है कि  अगर कोई परान्नभोजी दो अथवा दो से अधिक साल की सजा  देश की किसी भी अदालत से प्राप्त कर चुका है तो ऐसे मुफ्तखोर को चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं होगा।  साथ ही जिस दिन उसे ऐसी सजा मुकर्रर की जायेगी उसी दिन से उसके द्वारा पहले से हासिल कुर्सी भी छिन जायेगी। और जब यह उपजीवी किसी अपराध की जेल की सजा काट रहा होगा तो, जब उसवक्त इसे  वोट देने का अधिकार हमारे संविधान में पहले से नहीं है तो इसे चुनाव लड़ने का भी अधिकार नहीं होगा।

अतीत में यह इन चापलूस पालितों का ही भ्रष्ट और कुलषित आचरण था जो कोर्ट को यह एकदम दुरुस्त फैसला लेना पडा। संभव है कि कुछ इन्ही के विरादर अपने ही इन कुछ विरादारों को फ़साने हेतु इसका भी दुरुपयोग करेंगे, लेकिन महज इसी आशंका के चलते अब और देश को इन दुश्चरित्र रोगाणुओं के हवाले नहीं किया जा सकता। जब कार्यपालिका अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल हो जाए तो लोगों का भरोसा न्यायपालिका पर ही बचता है, और मैं ये कहूंगा कि कोर्ट ने उसे बखूबी निभाया है। अब यह हर देशवासी का फर्ज बनता है कि  इस फैसले को तोड़ने-मरोड़ने की इन टुकड़खोरों  की हर चाल को हर कीमत पर नाकाम किया जाए।       

नोट: आलेख में परजीवी, परभक्षी, परोपजीवी इत्यादि शब्द सिर्फ उन अपराधियों के  लिए प्रयुक्त किये गए है जो अपने पापों को  छुपाने के लिए राजनीतिज्ञ का क्षद्म आवरण ओढ़े हुए हैं और देश को लूट रहे है।        

8 comments:

  1. ये धुंधली उम्‍मीद भी पता नहीं कब अदृश्‍य हो जाए!

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  2. भ्रष्ट आचरण के आधार पर स्पष्ट चोट।

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  3. हथौड़े और भारी करने की ज़रूरत है, ऊंट के मुंह में ज़ीरे की क्या बिसात ...

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  4. घोर निराशा के वातावरण में न्यायपालिका नें एक उम्मीद की किरण तो जगाई है !

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  5. सही लिखा है आपने, पर ये सारे ही "चोर चोर मौसेरे भाई, किसका धणी किसकी लुगाई" वाली कहावत को चरितार्थ करते हैं. ये सब मिलकर कोई नया रास्ता ढूंढ ही लेंगे.

    रामराम.

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  6. पर इसका तोड़ भी लोग निकाल लेंगे ..... वैसे भी मुकदमा ही चलता रहता है सज़ा तो कम ही मिलती है ।

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  7. जल्दी ही इस फैंसले को बदलने के लिए क़ानून बनाने की बात चल रही है ...
    आसानी से नहीं हटने वाले ये सता के पेरासाईट ...

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।