व्यथा असह्य अंत:करण की,
की जाती अब बयां नहीं है,
जैंसा है, सब वैसा ही रहे,
करने कोई उद्दार न जाए,
कोई भवसागर तरके पार न जाए।
मैं शफरी, मन मेरा भवसागर,
छलकत जाए, अधजल गागर,
अव्यवस्थ नगरी, तरस्त नागर,
चित रोए और चित्कार न जाए,
वहां जैंसा है, सब वैसा ही रहे,
कोई भवसागर तरके पार न जाए।
विध्यमान और अतीत खरोंचा,
सर नोचा, सरबालों को नोचा,
बदल जायेगे ये, कई बार सोचा,
चित लोभी का आधार न जाए,
वहां जैंसा है, सब वैसा ही रहे,
कोई भवसागर तरके पार न जाए।
विनती बस, यही अब जमुनाजी से,
जल अमृत बनकर अब और न रीसे,
कोई पाप का भागी, पुण्य न पीसे,
पापी का बहकर कदाचार न जाए,
इंद्रप्रस्थ मे जैंसा है, सब वैसा ही रहे,
कोई भवसागर तरके पार न जाए।
.... . -'परचेत'
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