Sunday, September 6, 2009

बेदर्दी तू तो अंबर से है !

रैन गगन से जब-जब ,
निर्मोही घन बरसे है,
विरहा का व्याकुल मन,
पिया मिलन को तरसे है।

सूखा जगत तनिक
रहे भी तो क्या नीरद,
तू न जाने दुख विरहा का,
बेदर्दी, तू अंबर से है।

विराग दंश सहते जब
तेरा मन भर आता है ,
गरज-घुमडके नयन नीर ,
यत्र-तत्र बिखरा जाता है।
देख उसे थामे जो अंसुअन,
ममत्व निभाती घर से है,
तू न जाने दुख विरहा का,
बेदर्दी, तू अंबर से है। 


2 comments:

  1. "गगन से रातों मे जब-जब ,
    ये निर्मोही घन बरसे है,
    इक विरहा का व्याकुल मन,
    पिया मिलन को तरसे है !
    गर सूखा जगत तनिक,
    रह भी जाता तो क्या नीरद,
    तू क्या जाने दुख विरहन का,
    बेदर्दी तू तो अंबर से है !!"

    गोदियाल जी!
    आपकी शिकायत वाजिब है। रचना बहुत सुन्दर है।
    बधाई!

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  2. बहुत खुब प्रभावशाली लाजवाब रचना। बेहतरिन रचना के लिए बधाई.......

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प्रश्न -चिन्ह ?

  पता नहीं , कब-कहां गुम हो  गया  जिंदगी का फ़लसफ़ा, न तो हम बावफ़ा ही बन पाए  और ना ही बेवफ़ा।