रैन गगन से जब-जब ,
निर्मोही घन बरसे है,
विरहा का व्याकुल मन,
पिया मिलन को तरसे है।
सूखा जगत तनिक
रहे भी तो क्या नीरद,
तू न जाने दुख विरहा का,
बेदर्दी, तू अंबर से है।
विराग दंश सहते जब
तेरा मन भर आता है ,
गरज-घुमडके नयन नीर ,
यत्र-तत्र बिखरा जाता है।
देख उसे थामे जो अंसुअन,
ममत्व निभाती घर से है,तू न जाने दुख विरहा का,
बेदर्दी, तू अंबर से है।
निर्मोही घन बरसे है,
विरहा का व्याकुल मन,
पिया मिलन को तरसे है।
सूखा जगत तनिक
रहे भी तो क्या नीरद,
तू न जाने दुख विरहा का,
बेदर्दी, तू अंबर से है।
विराग दंश सहते जब
तेरा मन भर आता है ,
गरज-घुमडके नयन नीर ,
यत्र-तत्र बिखरा जाता है।
देख उसे थामे जो अंसुअन,
ममत्व निभाती घर से है,तू न जाने दुख विरहा का,
बेदर्दी, तू अंबर से है।
"गगन से रातों मे जब-जब ,
ReplyDeleteये निर्मोही घन बरसे है,
इक विरहा का व्याकुल मन,
पिया मिलन को तरसे है !
गर सूखा जगत तनिक,
रह भी जाता तो क्या नीरद,
तू क्या जाने दुख विरहन का,
बेदर्दी तू तो अंबर से है !!"
गोदियाल जी!
आपकी शिकायत वाजिब है। रचना बहुत सुन्दर है।
बधाई!
बहुत खुब प्रभावशाली लाजवाब रचना। बेहतरिन रचना के लिए बधाई.......
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