सन् ८७-८८ की बात है, महानगरी में ताऊ ( दोस्तों द्वारा दिया गया उपनाम ) की पहली नौकरी लगी थी। सुदूर गाँव से चलते वक्त ताऊ को उसके दोस्तों और परिवार के छोटे बडो ने महानगरी के बारे में काफ़ी हिदायते दी थी; मसलन सड़क ढंग से पार करना, पैसे/पर्स जेब में संभाल के रखना, किसी से झगडा मत करना, इत्यादि -इत्यादि ।
धोखे ही धोखे है चिरागों की चकाचौंध में,
दर्रे-दर्रे पर वहाँ कई राज छुपे बैठे है !
हर चीज़ को ज़रा खुली आँखों से देखना,
कबूतर के चेहरे में बाज़ छुपे बैठे है !!
ताऊ का क्रूरता से तो सामना उसी वक्त हो गया था, जब अंतराष्ट्रीय बस अड्डे पर रोडवेज से उतर उसने नारायणा के लिए डीटीसी की मुद्रिका बस पकड़ी थी। हुआ यह कि उसने कंक्टर से पूछना चाहा कि भाई साहब ,क्या यह बस नारायणा जायेगी, तो तपाक से जबाब मिला था "हौर तन्ने के यह मारे घर जात्ती दिख री सै, बोर्ड नि दिख रिया कै" वो तो भला हो उस दूसरे सवारी का जिसने कहा, हां जायेगी, चढ़ जा।
कुछ दिन बाद लाजपत नगर में ताऊ को एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में एक ७५०/- रूपये प्रतिमाह की नौकरी मिल गई। मालिक था एक खूसट बनिया । कर्मचारियो का शोषण कैसे किया जाता है, कोई उनसे सीखे । महानगरी में ताऊ कुछ ही दिन में एक कोल्हू का बैल बन के रह गया । दिन भर लाला ऑफिस में काम करवाता और शाम होते ही कहता कि आज तुझे ट्रक के साथ मुज़फ्फरनगर जाना है, वहां पर लाला को एक पाइप फैक्ट्री लगाने का ठेका मिला था। और आखिर ताऊ के लिए एक मनहूस दिन आया। लाला ने उसे सुबह बिक्री-कर विभाग जाने और वहा से सी फार्म लाने का हुक्म सुनाया। साथ ही १०० रूपये( पचास-पचास के दो नोट) भी दिए और कहा कि यह बाबू को दे देना, साथ ही हिदायत भी दी कि पहले सिर्फ़ एक पचास का नोट ही पकडाना, नही माने तो तब पचास और दे देना। बिक्री कर विभाग पहुच कर ताऊ ने वही किया जो लाला ने सिखा कर भेजा था, लेकिन बाबू नही माना, फ़िर उसने पूरे १०० रूपये और ऍप्लिकेशन फार्म बाबू को दिए और सी फार्म देने को कहा। बाबू ने १०० रूपये जेब में रखे और ताऊ को ५ सी फार्म पकड़ाकर बोला, अन्दर साहब से साइन करवा ले। ताऊ फार्म लेकर अन्दर बैठे उस बाबू के पास गया। उसने पुछा क्या है ? ताऊ ने कहा " साब ये सी-फार्म साइन करने थे ", बाबू बोला कितने लाया है? ताऊ बोला, ५ फार्म । बाबू चिड़ते हुए और हाथ का अंगूठा ऊँगली पर रगड़ते हुए बोला " अरे वो कितने लाया है ?" ताऊ उसका इशारा समझ कर बोला, साब १०० लाया था, मगर जिन साब ने ये फार्म दिए, उन्होंने ले लिए। बाबू बोला "तो ठीक है साइन भी उसी से करवाले, मेरे पास क्यो आया ? "..... ताऊ हडबडाकर उस बाबू की सीट की तरफ़ लपका जिसने फार्म दिए थे, मगर बाबू सीट से गायब था ! ताऊ अन्दर वाले बाबू के पास जाकर इंतज़ार करने लगा। आधा घंटा बीत गया, मगर वह नही लौटा। अन्दर वाला बाबू बोला, चल १००/- रूपये निकाल, मैं साइन कर देता हू। ताऊ क्या करता, अपने पैसो में से १००/- रूपये उसको दिए, उसने साइन किया और कहा कि चपरासी से स्टैंप लगा ले।
ताऊ चपरासी के पास गया, चपरासी ने स्टैंप लगायी और २० रूपये मागने लगा, ताऊ ने किसी तरह १० रूपये में जान छुडाई। चपरासी बोला अरे साब! यहाँ एक फार्म पे स्टैंप लगाने के ५ रुपए होते है, सो आपके २५ रूपये बनते थे, मैं तो २० ही मांग रहा था । चलो खैर, मानो वह ताऊ के ऊपर एहसान कर रहा हो। ऑफिस पहुंचकर ताऊ ने फार्म लाला को दिए, लाला बोला रूपये ५० ही दिए न ? ताऊ इस डर से की कही लाला नौकरी से न निकाल दे, बोला नही साब, १०० रूपये लिए उसने ! और लग गया सीधा सीधा ११०/- रूपये का चूना ताऊ पर ! रात को लाला ने फिर ताऊ को सामान के साथ मुज्ज़फरनगर जाने का हुक्म सुनाया। ताऊ ट्रक लेकर मुज्ज़फरनगर के लिए चल पड़ा। ट्रक में सेरामिक ईंट लदी थी, जबकि बिल में लाला ने लिखवाया था गलवानाइजिंग प्लांट एक्सेसरीज। बागपत चुंगी पर जब ड्राईवर फार्म और बिल लेकर पास बनाने गया, तो उसने फार्म भरने वाले से फार्म पर ईंट लिखा दिया।
फार्म और बिल में अंतर्विरोध देख चुंगी वाले बाबु की बांछे खिल उठी। उसने सारे कागजाद अपने टेबल की दराज में रख दिए और चाय पीने लगा। एक घंटा गुजरा, दो घंटे गुजरे, मगर कागजाद नही मिले। बाबू ने ड्राईवर से ५००/- रुपयों की मांग की थी, रात के ग्यारह बज चुके थे। ड्राईवर लोगो के लिए तो मानो यह रोज की दिनचर्या थी। ड्राईवर पास के ढाबे में खाना खाने चला गया । ताऊ उस उमस भरी गर्मी में ट्रक में बैठा एक अखबार के टुकड़े से हवा कर अपने व्यथित मन को शांत करने में लगा रहा, भूखा-प्यासा! ड्राईवर और क्लीनर खाना खा कर लौटे तो बाबू अंदर की बेंच पर खर्राटे भर रहा था। होते-करते सुबह के तीन बज गए। ड्राईवर ने हिम्मत कर बाबू को उठाया। बाबू ड्राईवर को लगभग गालिया देता हुआ उठा और बोला, यह कंपनी मुझे संदेहास्पद लगती है, इसके सारे बिल पहले मेरे पास लावो, फिर गाड़ी छोडूंगा। ड्राईवर वापस ताऊ के पास आया और उसे एक कहानी समझाई और बाबू के पास भेजा। ताऊ हाथ जोड़कर बाबू के पास पंहुचा और उससे कहा, साब मेरी अभी-अभी नौकरी लगी है, यह मेरा पहला जॉब है, मुझे एक्सपीरिएंस नही है, इसलिए फार्म में यह गलती कर गया। मगर साब, लाला मेरे को नौकरी से निकाल देगा । प्लीज़, कुछ करे ! बाबू को मानो दया आ गई हो , बोला अच्छा तेरी बात पर मै गाड़ी छोड़ रहा हूँ, मगर बर्रिएर वाले को २०० रूपये दे देना ! ताऊ मन ही मन सोच रहा था कि घूस खाने का यह भी एक अच्छा तरीका है। क्या करता, बाप बोलकर बैरियर पर बैठे शख्स को २०० रूपये दिए।
सुबह के चार बज चुके थे, ट्रक अपने गंतव्य की और निकल पड़ा। ताऊ सोच रहा था की ३१ दिन काम करने के ७५० रूपये मिलेंगे और ३६० रूपये अब तक वह अपने जेब से लगा चुका, यानि पहली पगार सिर्फ़ ३९० रूपये। चूँकि यह गलती सीधे-सीधे लाला की ही थी , जिसने ड्राइवर को खुद ही ईंट लिखवाने को कहा था! ताऊ झूट नहीं बोल सकता था क्योंकि वह उसने अपने सस्कारों में नहीं पाया था । मगर उसकी जेब पर घर से लाये जो भी पैसे थे वह ख़त्म हो चुके थे। लाला वेतन तो अभी देगा नहीं, झूठ वह बोल सकता नहीं कि चुंगी वाले ने ५००/- रूपये ही लिए ! अब क्या करे ? बड़ी दिमागी कशमकश के बाद उसने दृढ निश्चय लिया, ट्रक ड्राइवर से कुछ खुसफुसाहट की, उसे अपनी सारी मजबूरी बयान की । ड्राइवर नरम दिल हो गया और गाडी रोक, ताऊ से यह कहा कि अगर लाला तुम्हे फ़ोन पर आने को कहे तो तुम भी यही कहना कि हां, बाबू १०००/- रूपये मांग रहा है, पास के पी सी ओ पर लाला को फोन करने गया,और बोला कि गाडी पकड़ ली गई है, और बाबू १०००/- रूपये मांग रहा है। लाला ने पूछा, तुम्हारे पास इतने पैसे है ? ड्राइवर बोला हाँ ! और इस तरह ताऊ मर गया, हमेशा के लिए, इस महानगरी में !
...............नमस्कार, जय हिंद !....... मेरी कहानियां, कविताएं,कार्टून गजल एवं समसामयिक लेख !
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अरे नही,
ReplyDeleteगोदियाल जी!
ऐसी खबर मत सुनाना।
पोस्ट बहुत बढ़िया रही और
चौंकाने वाली भी!
गनीमत है कि ये हमारा ताऊ नही था।
ये भी सही रहा...
ReplyDeleteधोखे ही धोखे है चिरागों की चकाचौंध में,
दर्रे-दर्रे पर वहाँ कई राज छुपे बैठे है !
हर चीज़ को ज़रा खुली आँखों से देखना,
कबूतर के चेहरे में बाज़ छुपे बैठे है !!
ये किसका लिखा है. आजकल तारीफ करने के पहले पूछ लेता हूँ. :)
बहुत अच्छी पोस्ट है। बहुत-बहुत बधाई। नवरात्र की हार्दिक शुभकामनायें.....
ReplyDeleteकथा मार्मिक है ऐसे रोज कितने ताउ शहरो मे आकर रोज मर रहे हैं । उन्हे श्रद्धांजली ?
ReplyDeleteहो बड़े धोके हैं इस राह में।रोज़ गांव से आकर शहर मे गुम हो जाने वाले अनाम लोगो की सच्ची कहानी।
ReplyDeleteइस तरह ताऊ मर गया, हमेशा के लिए इस महानगरी में ! गोदिया साहब पता नही कितने ताऊ रोजाना मरते है इस धोखे की दुनिया मै,लेकिन ताऊ के संस्कार फ़िर भी नही मरते... कहानी ने हमे बांधे रखा, बहुत सुंदर.
ReplyDeleteधन्यवाद
धोखे ही धोखे है चिरागों की चकाचौंध में,
ReplyDeleteदर्रे-दर्रे पर वहाँ कई राज छुपे बैठे है !
हर चीज़ को ज़रा खुली आँखों से देखना,
कबूतर के चेहरे में बाज़ छुपे बैठे है ...
भाई लाजवाब नज़्म......... है और आपकी पोस्ट तो कमाल की है .........
यथार्थ को उजागर करती हुई सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteश्री गोदियाल साहब,
ReplyDeleteताऊ के साथ पूरी हमदर्दी है और उसकी मौत का अफसोस भी।
शायद हम कुछ कर नही पा रहे हैं सच्चाई, ईमानदारी और चरित्र यह तीनों ही निशाने पर है और रोज किसी ना किसी हादसे में किसी ड्राईंगरूम, किसी चौराहे, किसी बेडरूम या किसी बैरियर पर यूँ ही मरे जाते हैं।
बहुत ही अच्छी और कसी हुई कथा जो पाठक को बाँध लेती है अंत तक।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
यही तो ईमानदारी से नौकरी करने की चाहत रखने वालों की मजबूरी है, जो दिन में कई-कई बार मरते हैं, ट्रक ड्राइवर ने तो सिर्फ एक फोन से ही सेठ से दुगना निकलवाने की बात पक्की करवा ही लिया. इसी लिए तो वह मस्त, बेचारा इमानदार पस्त.
ReplyDeleteमार्मिक और सच्चाई को बयां करती अच्छी कथा.
हरिओम तत्सत.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर